शनिवार, जुलाई 31, 2010

परिस्थितियों के पार !

दुःख न हो, प्रतिकूल परिस्थितियाँ न आयें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थितियाँ बनी रहें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थिति में आकर्षित न होना, अनुकूल परिस्थिति में सुख का भ्रम करके उसके दलदल में न गिरना यह तुम्हारे हाथ की बात है। प्रतिकूल परिस्थितियों से भयभीत न होना यह तुम्हारे हाथ की बात है। अनुकूल परिस्थितियों के सुख में लालसा नहीं और प्रतिकूल परिस्थितियों के दुःख का भय नहीं तो चित्त साम्य अवस्था में पहुँच जाएगा, शांत अवस्था में पहुँच जाएगा, निःसंकल्प अवस्था में पहुँच जाएगा। इससे नित्य नूतन रस, नवीन ज्ञान, नवीन प्रेम, नवीन आनन्द और वास्तिवक जीवन का प्राकट्य ह जाएगा।

हम क्या करते हैं ? प्राप्त वस्तु और परिस्थितियों का दुरूपयोग करते हैं। सुख आता है तो इन्द्रियाँ और विकारों के सहारे सुख का भोग करके अपनी शक्ति क्षीण करते हैं। दुःख आता है तो भयभीत होकर चित्त को डोलायमान करते हैं। दुःख के भय से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और सुख के आकर्षण से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं।

सुख में हम जितने अधिक आकर्षित होते हैं उतने भीतर से खोखले जो जाते हैं।

तुमने देखा होगा कि जो अधिक धनाढ्य है, जिसको सत्संग नहीं है, सदगुरू नहीं है वह आदमी भीतर से कमजोर होता है। भोगी आदमी, भयभीत आदमी भीतर से खोखला होता है।

जो महापुरूष सुख-दुःख में सम रहते हैं उनकी उत्तम साधना हो जाती है। यह साधना सुबह-शाम तो प्राणायाम, ध्यान आदि के साथ तो की जा सकती है, इतना ही नहीं दिनभर भी की जा सकती है।

सुख-दुःख में सम रहने का अभ्यास तो चलते फिरते हो सकता है। विपरीत परिस्थितियाँ आये बिना नहीं रहेगी। अनुकूलता भी आये बिना नहीं रहेगी। तुम प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग करने की कला सीख लो। मुक्ति का अनुभव सहज में होने लगेगा।

तुम्हारे पास कितने ही रूपये आये और चले गये। तुम रूपयों से बँधे नहीं हो। कई जन्मों में कितने ही बेटे आये और चले गये। तुम बेटों से बँधे नहीं हो। हम किसी वस्तु से, व्यक्ति से, परिस्थिति से बँधे हैं यह मानना भ्रम है। सुखद परिस्थितियों में लट्टू हो जाने की मन की आदत है। मन के साथ हम जुड़ जाते हैं। मन में होता है कि यह मिले.... वह मिले....। मन के इस आकर्षण से हमारा अन्तःकरण मलिन हो जाता है। भय की बात का हम चिन्तन करते हैं। इससे हमारी योग्यता क्षीण हो जाती है।

रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जब तक जियें तब तक साधना करनी है, क्योंकि जब तक जियेंगे तब तक परिस्थितियाँ आयेंगी। मरते दम तक परिस्थितियाँ आती हैं। जीवनभर जिस तिजोरी को सँभाला था उसकी कुंजियाँ दें जानी पड़ती है। कितना दुःख होगा ! जीवनभर जो चीजें सँभाल-सँभालकर मरे जा रहे थे वे सब की सब चीजें एक दिन, एक साथ किसी को दे जानी पड़ेगी। देने के योग्य कोई नहीं मिलता है फिर भी झख मार के दे जाना पड़ता है। चाहे घर हो, चाहे मकान हो, चाहे आश्रम हो, चाहे धन हो, चाहे कुछ भी हो। जीवनभर जिस शरीर को खिलाया पिलाया, नहलाया, घुमाया, फिराया उसको भी छोड़ जाना पड़ता है।

घटनाएँ तो घटती ही रहेंगी। तुम चाहे आत्म-साक्षात्कार कर लो, अरे ब्रह्माजी की तरह योग-सामर्थ्य से सृष्टि का सर्जन करने की ऊँचाई तक पहुँच जाओ फिर भी विपरीत परिस्थितियाँ तो आयेंगी ही।

एक बार ब्रह्माजी की भी भूल हो गई। शिवजी कुपित हो गये और शाप दे दिया कि तुम्हारी पूजा नहीं होगी। शिवजी ने ब्रह्मा जी का एक मस्तक काट दिया। ब्रह्मा जी चाहते तो वह मस्तक पुनः लगा सकते थे लेकिन वे साम्यावस्था में रहे ऐसा 'योगवाशिष्ठ' में आता है। अर्थात् परिस्थितियाँ चाहे आयें, जायें, बदलें परंतु तुम्हारी ज्ञानकला इतनी दृढ़ हो जाए कि चित्त समता के साम्राज्य पर आसीन रहे, तुम साम्यावस्था में डटे रहो।

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गुरुवार, जुलाई 29, 2010

दोषों को भगाने की युक्तियाँ

जिन कारणों से आपकी साधना में रुकावटें आती हैं, जिन विकारों के कारण तुम गिरते हो, जिस चिन्तन तथा कर्म से आपका पतन होता है, उनको दूर करने के लिए प्रात:काल सूर्यादय से पूर्व उठकर स्नानादि से निवृत्त हो, पूर्वाभिमुख होकर आसन पर बैठ जायें । अपने इष्ट या गुरुदेव का स्मरण करके उनसे स्नेहपूर्वक मन ही मन बातें करें । बाद में 10-15 गहरे श्वास लें और ‘हरि ॐ’ का गुंजन करते हुए अपनी दुर्बलताओं को मानसिक रुप से सामने लायें और ॐकार की पवित्र गदा से उन्हें कुचलते जायें ।

अगर बार बार बीमार पड़ते हो तो उन बीमारियों का चिन्तन करके उनकी जड़ को ही ॐ की गदा से तोड़ डालें । बाद में बाहर से थोड़ा बहुत उपचार करके उनकी डालियों और पत्तों को भी नष्ट कर डालें । अगर काम-क्रोधादि मन की बीमारियाँ हैं तो उन पर भी ॐकार की गदा का प्रहार करें ।

की हुई गलती फिर से न करे, तो आदमी स्वाभाविक ही निर्दोष हो जाता है । की हुई गलती फिर से न करना यह बड़ा प्रायश्चित है । गलती करता रहे और प्रायश्चित भी करता रहे तो इससे कोई ज्यादा फायदा नहीं होता । इससे तो फिर अंदर में ग्रंथि बन जाती है कि “मैं तो ऐसा ही हूँ ”

कोई भी गलती दुबारा न होने दो । सुबह नहा धोकर पूर्वाभिमुख बैठकर या बिस्तर में ही शरीर खींचकर ढीला छोड़ने के बाद यह निर्णय करो कि “मेरी अमुक-अमुक गलतियाँ हैं, जैसे कि, ज्यादा बोलने की । ज्यादा बोलने से मेरी शक्ति क्षीण होती है ”
वाणी के अति व्यय से कईयों का मन पीड़ित रहता है। इससे हानि होती है ।

अपना नाम लेकर सुबह संकल्प करो। यदि आपका नाम गोविंद है तो कहो: “देख गोविंद ! आज कम से कम बोलना है । वाणी की रक्षा करनी है । जो ज्यादा और अनावश्यक बोलता है उसकी वाणी का प्रभाव क्षीण हो जाता है । जो ज्यादा बोला करता होगा वह झूठ जरुर बोलता होगा, पक्की बात है । कम बोलने से, नहीं बोलने से, असत्य भाषण और निन्दा करने से हम बच जायेंगे । राग-द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध व अशांति से भी बचेंगे । न बोलने में छोटे-मोटे नौ गुण हैं । इस प्रकार मन को समझा दो । ऐसे ही यदि ज्यादा खाने का या कामविकार का या और कोई भी दोष हो तो उसे निकाल सकते हैं ।

साधक को कैसा जीवन जीना, क्या नियम लेना, किन कारणों से पतन होता है, किन कारणों से वह भगवान और गुरुओं से दूर हो जाता है और किन कारणों से भगवत्तत्व के नजदीक आ जाता है - इस प्रकार का अध्ययन, चिंतन, बीती बात का सिंहावलोकन व उन्नति के लिए नये संकल्प करने चाहिए ।

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बुधवार, जुलाई 28, 2010

साधना के छः विघ्न

साधना के छः विघ्न



1.   निद्रा, 2. तंद्रा, 3. आलस्य, 4. मनोराज, 5. लय और 6. रसास्वाद

ये छ: साधना के बड़े विध्न हैं । अगर ये विध्न न आयें तो हर मनुष्य भगवान के दर्शन कर ले ।

“जब हम माला लेकर जप करने बैठते हैं, तब मन कहीं से कहीं भागता है । फिर ‘मन नहीं लग रहा…’ ऐसा कहकर माला रख देते हैं । घर में भजन करने बैठते हैं तो मंदिर याद आता है और मंदिर में जाते हैं तो घर याद आता है । काम करते हैं तो माला याद आती है और माला करने बैठते हैं तब कोई न कोई काम याद आता है
” ऐसा क्यों होता है? यह एक व्यक्ति का नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है ।


कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा के दर्शन नहीं होते किंतु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया । ध्यान में से उठते है तो जम्हाई आने लगती है । यह ध्यान नहीं, लय हुआ । वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किंतु लय में ऐसा नहीं होता ।

कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है । साधना करते-करते थोड़ा बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है ।


कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते है तो नींद नहीं आती । यह भी साधना का एक विघ्न है ।


तंद्रा भी एक विघ्न है । नींद तो नहीं आती किंतु नींद जैसा लगता है । यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।


साधना करने में आलस्य आता है । “अभी नहीं, बाद में करेंगे…” ऐसा सोचते हैं तो यह भी एक विघ्न है ।


इन विघ्नों को जीतने के उपाय भी हैं ।


मनोराज एवं लय को जीतना हो तो दीर्घ स्वर से ॐ का जप करना चाहिए
स्थूल निद्रा को जीतने के लिए अल्पाहार और आसन करने चाहिए
सूक्ष्म निद्रा यानी तंद्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए
आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए । सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगने लगेगा ।


श्री रामानुजाचार्य ने कुछ उपाय बताये हैं, जिनका आश्रय लेने से साधक सिद्ध बन सकता है। वे उपाय हैं :


विवेक: आत्मा अविनाशी है, जगत विनाशी है। देह हाड़ मांस का पिंजर है, आत्मा अमर है । शरीर के साथ आत्मा का कतई सम्बन्ध नहीं है और वह आत्मा ही परमात्मा है । इस प्रकार का तीव्र विवेक रखें ।


विमुखता: जिन वस्तुओं, व्यसनों को ईश्वर प्राप्ति के लिए त्याग दिया, फिर उनकी ओर न देखें, उनसे विमुख हो जायें । घर का त्याग कर दिया तो फिर उस ओर मुड़-मुड़कर न देखें । व्यसन छोड़ दिये तो फिर दुबारा न करें । जैसे कोई वमन करता है तो फिर उसे चाटने नहीं जाता, ऐसे ही ईश्वर प्राप्ति में विघ्न डालनेवाले जो कर्म हैं उन्हें एक बार छोड़ दिया तो फिर दुबारा न करें

अभ्यास: भगवान के नाम जप का, भगवान के ध्यान का, सत्संग में जो ज्ञान सुना है उसका नित्य, निरंतर अभ्यास करें ।


कल्याण: जो अपना कल्याण चाहता है वह औरों का कल्याण करे, निष्काम भाव से औरों की सेवा करे ।


भगवत्प्राप्तिजन्य क्रिया: जो कार्य तन से करें उनमें भी भगवत्प्राप्ति का भाव हो, जो विचार मन से करें उनमें भी भगवत्प्राप्ति का भाव हो और जो निश्चय बुद्धि से करें उन्हें भी भगवत्प्राप्ति के लिए करें ।


अनवसाद: कोई भी दु:खद घटना घट जाय तो उसे बार-बार याद करके दु:खी न हों ।


अनुहर्षात्: किसी भी सुखद घटना में हर्ष से फुलें नहीं । जो साधक इन सात उपायों को अपनाता है वह सिद्धि प्राप्त कर लेता है । (स्रोत: जीवनोपयोगी कुंजियाँ)


saadhanaa ke chhh vighn


1. nidraa, 2. tndraa, 3. aalasy, 4. manoraaj, 5. lay aur 6. rasaasvaad

ye chh: saadhanaa ke bade vidhn hain . agar ye vidhn n aayen to har manushy bhagavaan ke darshan kar le .

“jab ham maalaa lekar jap karane baithate hain, tab man kaheen se kaheen bhaagataa hai . fir ‘man naheen lag rahaa…’ aisaa kahakar maalaa rakh dete hain . ghar men bhajan karane baithate hain to mndir yaad aataa hai aur mndir men jaate hain to ghar yaad aataa hai . kaam karate hain to maalaa yaad aatee hai aur maalaa karane baithate hain tab koee n koee kaam yaad aataa hai

” aisaa kyon hotaa hai? yah ek vyakti kaa naheen, sabakaa prashn hai aur yahee manoraaj hai .

kabhee-kabhee prakriti men man kaa lay ho jaataa hai . aatmaa ke darshan naheen hote kintu man kaa lay ho jaataa hai aur lagataa hai ki dhyaan kiyaa . dhyaan men se uthate hai to jamhaaee aane lagatee hai . yah dhyaan naheen, lay huaa . vaastavik dhyaan men se uthate hain to taajagee, prasannataa aur divy vichaar aate hain kintu lay men aisaa naheen hotaa .

kabhee-kabhee saadhak ko rasaasvaad pareshaan karataa hai . saadhanaa karate-karate thodaa bahut aannd aane lagataa hai to man usee aannd kaa aasvaad lene lag jaataa hai aur apanaa mukhy lakshy bhool jaataa hai .

kabhee saadhanaa karane baithate hain to neend aane lagatee hai aur jab sone kee koshish karate hai to neend naheen aatee . yah bhee saadhanaa kaa ek vighn hai .

tndraa bhee ek vighn hai . neend to naheen aatee kintu neend jaisaa lagataa hai . yah sookshm nidraa arthaat tndraa hai .

saadhanaa karane men aalasy aataa hai . “abhee naheen, baad men karenge…” aisaa sochate hain to yah bhee ek vighn hai .

in vighnon ko jeetane ke upaay bhee hain .

manoraaj evn lay ko jeetanaa ho to deergh svar se om kaa jap karanaa chaahie .


sthool nidraa ko jeetane ke lie alpaahaar aur aasan karane chaahie .


sookshm nidraa yaanee tndraa ko jeetane ke lie praanaayaam karane chaahie .


aalasy ko jeetanaa ho to nishkaam karm karane chaahie . sevaa se aalasy door hogaa evn dheere-dheere saadhanaa men bhee man lagane lagegaa .

shree raamaanujaachaary ne kuchh upaay bataaye hain, jinakaa aashray lene se saadhak siddh ban sakataa hai. ve upaay hain :

vivek: aatmaa avinaashee hai, jagat vinaashee hai. deh haad maans kaa pinjar hai, aatmaa amar hai . shareer ke saath aatmaa kaa kataee sambandh naheen hai aur vah aatmaa hee paramaatmaa hai . is prakaar kaa teevr vivek rakhen .

vimukhataa: jin vastuon, vyasanon ko eeshvar praapti ke lie tyaag diyaa, fir unakee or n dekhen, unase vimukh ho jaayen . ghar kaa tyaag kar diyaa to fir us or mud-mudakar n dekhen . vyasan chhod diye to fir dubaaraa n karen . jaise koee vaman karataa hai to fir use chaatane naheen jaataa, aise hee eeshvar praapti men vighn daalanevaale jo karm hain unhen ek baar chhod diyaa to fir dubaaraa n karen

abhyaas: bhagavaan ke naam jap kaa, bhagavaan ke dhyaan kaa, satsng men jo jnyaan sunaa hai usakaa nity, nirntar abhyaas karen .

kalyaan: jo apanaa kalyaan chaahataa hai vah auron kaa kalyaan kare, nishkaam bhaav se auron kee sevaa kare .

bhagavatpraaptijany kriyaa: jo kaary tan se karen unamen bhee bhagavatpraapti kaa bhaav ho, jo vichaar man se karen unamen bhee bhagavatpraapti kaa bhaav ho aur jo nishchay buddhi se karen unhen bhee bhagavatpraapti ke lie karen .

anavasaad: koee bhee du:khad ghatanaa ghat jaay to use baar-baar yaad karake du:khee n hon .

anuharshaat: kisee bhee sukhad ghatanaa men harsh se fulen naheen . jo saadhak in saat upaayon ko apanaataa hai vah siddhi praapt kar letaa hai . (srot: jeevanopayogee kunjiyaan)

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मंगलवार, जुलाई 27, 2010

परमात्मप्रेम में साधक और बाधक 5 बातें

परमात्म प्रेम में सहायक पाँच बातें

1.   परमात्म प्रेम बढ़ाने के लिए जीवन में निम्नलिखित पाँच बातें आ जायें ऐसा यत्न करना चाहिए:
भगवच्चरित्र का श्रवण करो । महापुरुषों के जीवन की गाथाएँ सुनो या पढ़ो । इससे भक्ति बढ़ेगी एवं ज्ञान वैराग्य में मदद मिलेगी ।
2.   भगवान की स्तुति भजन गाओ या सुनो ।
3.   अकेले बैठो तब भजन गुनगुनाओ । अन्यथा, मन खाली रहेगा तो उसमे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आयेंगे । कहा भी गया है कि “खाली मन - शैतान का घर
4.   जब परस्पर मिलो तब परमेश्वर की, परमेश्वर-प्राप्त महापुरुषों की चर्चा करो । दिये तले अँधेरा होता है लेकिन दो दियों को आमने सामने रखो तो अँधेरा भाग जाता है । फिर प्रकाश ही प्रकाश रहता है । अकेले में भले कुछ अच्छे विचार आयें किंतु वे ज्यादा अभिव्यक्त नहीं होते । जब ईश्वर की चर्चा होती है तब नये-नये विचार आते हैं, एक दूसरे का अज्ञान और प्रमाद हटता है तथा एक दूसरे की अश्रद्धा मिटती है । भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुषों में हमारी श्रद्धा बढ़े ऐसी ही चर्चा करनी सुननी चाहिए । सारा दिन ध्यान नहीं लगेगा, सारा दिन समाधि नहीं होगी । अत: ईश्वर की चर्चा करो, ईश्वर सम्बन्धी बातों का श्रवण करो । इससे समझ बढ़ती जायेगी, प्रकाश बढ़ता जायेगा, शांति बढ़ती जायेगी ।
5.  सदैव प्रभु की स्मृति करते-करते चित्त को आनंदित होने की आदत डाल दो ।
ये पाँच बातें परमात्म प्रेम बढ़ाने में अत्यंत सहायक हैं ।

परमात्म प्रेम में पाँच बाधक बातें

निम्नलिखित पाँच कारणों से परमात्म प्रेम में कमी आती है :
1.   अधिक प्रकार के ग्रंथ पढ़ने से परमात्म प्रेम बिखर जाता है ।
2.   बहिर्मुख लोगों की बातों में आने से और उनकी लिखी हुई पुस्तकें पढ़ने से परमात्म-प्रेम बिखर जाता है ।
3.    बहिर्मुख लोगों के संग से, उनके साथ खाने पीने अथवा हाथ मिलाने से और उनके श्वासोच्छवास में आने से हलके स्पंदन (vibraton) आते हैं, जिससे परमात्म प्रेम में कमी आती है ।
4.    किसी भी व्यक्ति में आसक्ति करोगे तो आपका परमात्म प्रेम खंड़ में फँस जायेगा, गिर जायेगा । जिसने परमात्मा को नहीं पाया है उससे अधिक प्रेम करोगे तो वह आपको अपने स्वभाव में गिरायेगा । परमात्म प्राप्त महापुरुषों का ही संग करना चाहिए । ‘श्रीमद्भागवत’ में भगवान कपिल देवहूति से कहते हैं: “आसक्ति बड़ी दुर्जय है । वह जल्दी नहीं मिटती । वही आसक्ति जब सत्पुरुषों में होती है, तब वह संसार सागर से पार लगानेवाली हो जाती है प्रेम करो तो ब्रह्मवेत्ताओं से, उनकी वाणी से, उनके ग्रंथों से करो । संग करो तो ब्रह्मवेत्ताओं का ही । इससे प्रेमरस बढ़ता है, भक्ति का माधुर्य निखरता है, ज्ञान का प्रकाश होने लगता है ।
5.    अधिकारी न होते हुए भी उपदेशक या वक्ता बनने से भी प्रेमरस सूख जाता है ।
(स्रोत: जीवनोपयोगी कुंजियाँ)

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रविवार, जुलाई 25, 2010

परमात्माप्राप्ति के 7 अचूक उपाय

पहला उपाय: परमात्म तत्त्व की कथा का श्रवण करें ।

दूसरा उपाय: सत्पुरुषों के सान्निध्य में रहें ।

जैसा संग वैसा रंग

संग का रंग अवश्य लगता है । यदि सज्जन व्यक्ति भी दुर्जन का अधिक संग करे तो उसे कुसंग का रंग अवश्य लग जायेगा । इसी प्रकार यदि दुर्जन से दुर्जन व्यक्ति भी महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करे तो देर सवेर वह भी महापुरुष हो जायेगा ।

तीसरा उपाय: प्रेमपूर्वक नामजप संकीर्तन करें । तुलसीदासजी कहते हैं:

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।

पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥

यदि मंत्र किसी ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु द्वारा प्राप्त हो और नियमपूर्वक उसका जप किया जाय तो कितना भी दुष्ट अथवा भोगी व्यक्ति हो, उसका जीवन बदल जायेगा । दुष्ट की दुष्टता सज्जनता में बदल जायेगी । भोगी का भोग योग में बदल जायेगा ।

चौथा उपाय: सुख दु:ख को प्रसन्नचित्त से भगवान का विधान समझें । परिस्थितियों को आने जानेवाली समझकर बीतने दें । घबरायें नहीं या आकर्षित न हों ।

ऐसा नहीं कि कुछ अच्छा हो गया तो खुश हो जायें कि “भगवान की बड़ी कृपा है” और कुछ बुरा हो गया तो कहें: “भगवान ने ऐसा नहीं किया, वैसा नहीं किया ”

लेकिन आपको क्या पता कि भगवान आपका कितना हित चाहते हैं ? इसलिए कभी भी अपने को दु:खद चिंतन या निराशा की खाई में नहीं गिराना चाहिए और न ही अहंकार की दलदल में फँसना चाहिए वरन् यह विचार करें कि संसार सपना है । इसमें ऐसा तो होता रहता है ।

पाँचवाँ उपाय: सबको भगवान का अंश मानकर सबके हित की भावना करें । मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है इसलिए कभी शत्रु का भी बुरा नहीं सोचना चाहिए, बल्कि प्रार्थना करनी चाहिए कि परमात्मा उसे सदबुद्धि दें, सन्मार्ग दिखायें । ऐसी भावना करने से शत्रु की शत्रुता भी मित्रता में बदल सकती है ।

छ्ठा उपाय: ईश्वर को जानने की उत्कंठा जागृत करें । जहाँ चाह वहाँ राह । जिसके हृदय में ईश्वर के लिए चाह होगी, उस रसस्वरुप को जानने की जिज्ञासा होगी, उस आनंदस्वरुप के आनंद के आस्वादन की तड़प होगी, प्यास होगी वह अवश्य ही परमात्म प्रेरणा से संतों के द्वार तक पहँच जायेगा और देर सवेर परमात्म साक्षात्कार कर जन्म मरण से मुक्त हो जायेगा ।

सातवाँ उपाय: साधनकाल में एकांतवास आपके लिए अत्यंत आवश्यक है । भगवान बुद्ध ने छ: साल तक अरण्य में एकांतवास किया था । श्रीमद् आघ शंकराचार्यजी ने नर्मदा तट पर सदगुरु के सान्निध्य में एकान्तवास में रहकर ध्यानयोग, ज्ञानयोग इत्यादि के उत्तुंग शिखर सर किये थे । उनके दादागुरु गौड़पादाचार्यजी ने एवं सदगुरु गोविन्दपादाचार्यजी ने भी एकांत सेवन किया था, अपनी वृत्तियों को इन्द्रियों से हटाकर अंतर्मुख किया था । अत: एकांत में प्रार्थना और ब्रह्माभ्यास करें ।
यदि इन सात बातों को जीवन में उतार लें तो अवश्य ही परमात्मा का अनुभव होगा।

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शनिवार, जुलाई 24, 2010

गुरु पूनम कैसे मनाएँ ?


भगवान कहते है शब्दों में ओंकार मै हूँ सभी मंत्रो में, सभी मजहबों में ओंकार की महानता का फायदा उठाने का प्रयास किया गया है मुसलमानों ने ओंकार को आमीन आमीन करके उसके दूसरे रूप बनाकर फायदा लिया एक ओंकार करके सिक्ख भाईयों ने फायदा लिया गुरुओं ने फायदा लिया तो ॐ नमो भगवते वसुदेवाय करके वैष्णवों ने फायदा लिया ॐ नमः शिवाय करके शैवों ने फायदा लिया ओंकार की महिमा सभी धर्मों ने, सभी संप्रदायों ने स्वीकार की है जो रक्षण करता है संसार का, उस परब्रह्म का नाम स्वाभाविक ओंकार है जो संसार को गति देता है, रक्षण करता है, गति देता है और सर्वकाल सदा रहता है प्रलय के बाद भी जो ज्यों का त्यों रहता है उस सच्चिदानंद को अकाल पुरुष वादी उसे अकाल कहते है सांख्यवादी उसे पुरुष कहते है भगवतवादी उसे भगवान कहते है प्रीतिवादी उसे प्रेमास्पद कहते है उस परमेश्वर की स्वाभाविक ध्वनि ओंकार है ओर सारे शब्द आहत से पैदा होते है ओंकार अनहद है टकराव से नहीं बेटकराव सहज स्फुरित होता है रक्षण सत्ता संहारक सत्ता पोषक सत्ता निर्णायक सत्ता कारुणि सत्ता, रूप लावण्य और कांति सत्ता, प्रकाश सत्ता, प्रीति सत्ता तृप्ति सत्ता, अवगमन सत्ता, जीव मात्र का जिगरी जान सर्वोपरि जो सतचित्त आनंद स्वरूप है जो स्थूल शरीर मे सूक्ष्म शरीर मे कारण शारीर मे पूरा समाया है और इनके बदलने के बाद भी जिसका कतई बाल बांका नहीं होता वह आत्म स्वरूप ब्रम्हा को विष्णु को शिव को और देवी देवताओं को ऋषि मुनियो को जति जोगियों को सामर्थ्य देता है और फिर भी जिसके सामर्थ्य मे तनिक भी कमी नहीं आती जो पूर्णमद: है और जिससे उत्पन्न हुआ उसके संकल्प से वह भी पूर्ण सा भासता है और बहुत सारा उसमे समा जाए फिर भी पूर्ण रहता है ऐसे परमात्मा को हम प्रणाम करते है और ऐसे परमात्मा का ज्ञान देने के लिए सतगुरुओं को, व्यासों को प्रणाम करते है व्यास पुर्णिमा के उत्सव निमित्त साधक को पुर्णिमा को व्रत करना चाहिए और वह व्रत तब तक बना रहे जब तक की उस सच्चिदानंद परमात्मा की ठीक से स्नेहमई पुजा सम्पन्न नहीं हो जाती अष्टसात्विक भाव मे से कोई भाव प्रगट हो जाए तो समझ लेना की हमारा पूजन स्वीकार हो गया | बापूजी के श्रीमुख से सुनिए इस लिंक पर :  
http://cid-15661c003f6d3487.office.live.com/self.aspx/.Public/Gurupunam%20kaise%20manayen.mp3

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मंगलवार, जुलाई 20, 2010

परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो ! (भाग 4)

मुक्ति मुख्य दो प्रकार की होती है। एक होती है क्रममुक्ति और दूसरी होती है सद्योमुक्ति। धारणा, ध्यान, भजन, जप, तप, सुमिरन, सत्संग, ब्रह्मज्ञान आदि के बाद भी जिसे सुख लेने की वासना होती है, उसकी सद्योमुक्ति नहीं होगी, क्रममुक्ति होगी। शरीर छूटेगा तो उसका अन्तःकरण चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल को लांघता हुआ अन्तवाहक शरीर से ब्रह्मलोक तक पहुँचकर वहाँ भोग-काया पाकर ब्रह्माजी के समान सुविधाएँ और भोग पदार्थ भोगता है। जब ब्रह्मा जी के कल्प का अन्त होता है तब वहाँ ब्रह्मदेवता के श्रीमुख से पुनः ब्रह्मज्ञान सुनता है। इससे उसे अपने स्वरूप का स्मरण हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है। इसे क्रममुक्ति कहते हैं।

क्रममुक्ति भी दो प्रकार की होती हैः एक तो जीव ब्रह्मलोक में कल्प तक सुख भोगता रहे और अन्त में ब्रह्माजी जब अपनी काया विलय करना चाहते हों, जब आत्यंतिक प्रलय हो, तब उसमें उपदेश मात्र से जगकर अन्तःकरण परब्रह्म परमात्मा में लीन होता है।
दूसरी क्रममुक्ति में ऐसे लोग होते हैं, जिन्होंने साधन-भजन तो किया लेकिन किसी सुख-भोग की इच्छा रह गई तो सद्योमुक्ति नहीं हुई। वे ऊपर के लोग-स्वर्गलोक ब्रह्मलोक आदि में गये और वहाँ फिर स्मरण हुआ की सभी भोग पुनरागमन करवाने वाले हैं, मुझे तो शीघ्रातिशीघ्र अपने परमात्मपद में जागना है। ऐसे लोग फिर किसी धनवान श्रीमान और सदाचारी के कुल में जन्म लेते हैं। सब सुख-सुविधाएँ होने के बावजूद भी उनका चित्त उनमें नहीं लगता। उन्हें त्याग की एकाध बात मिल जाती है, सत्संग में विवेक, वैराग्य की बात मिल जाती है तो पिछले जन्म का किया हुआ साधन भजन पुनः जाग्रत हो जाता है और वे साधन-भजन में जुटकर यहीं पर परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करके उनकी काया जब पंचभूतों में लीन होती है तो वे परब्रह्म परमात्मा में लीन होते हैं। ये भी क्रममुक्ति में आते हैं।

त्यागो हि महत्पूज्यो सद्यो मोक्षपदायकः।
त्याग महान पूजनीय है। इससे शीघ्र मोक्ष मिलता है।
अतः इस लोक के सुख-सुविधा, भोग सब नश्वर हैं, स्वर्ग का सुख भी नश्वर है, ब्रह्मलोक का सुख भी नश्वर है..... ऐसा तीव्र विवेक जिसे होता है उसके चित्त में सांसारिक सुखों के भोग की वासना नहीं होती अपितु परमपद को पाकर मुक्त हो जाएँ, ऐसी तीव्र लालसा होती है। ऐसे महाभाग्यवान विरले ही होते हैं जो सद्योमुक्ति का अनुभव करते हैं। उन्हें किसी भी लोक-लोकांतर के सुख-वैभव की इच्छा नहीं होती है। वे साक्षात् नारायण स्वरूप हो जाते हैं।
ऐसे ज्ञानवान जो सद्योमुक्ति को प्राप्त हैं, वे अपना शेष प्रारब्ध लेना-देना, खाना-पीना इत्यादि करते हैं। किसी से कुछ लेते हैं तो उसके आनन्द के लिए किसी को कुछ देते हैं तो उसके आनन्द के लिए। वे अपने आनन्द के लिए कुछ देते-लेते हुए दिखते हैं परन्तु उनके चित्त में लेने देने का भाव नहीं रहता है। वे हँसने के समय हँसते हैं, ताड़न के समय ताड़न करते हैं, अनुशासन के समय अनुशासन करते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर सारथि बनकर अर्जुन जैसों का रथ भी चलाते हैं। ऐसे ही वे जीवन्मुक्त महापुरूष हमारे जीवनरूपी रथ का भी मार्गदर्शन करते हैं तथापि उनके चित्त में कर्त्तृत्व भाव नहीं आता है।

अष्टावक्र मुनि राजा जनक से कहते हैं-
अकर्त्तृत्वममोकृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
जब पुरूष अपने अकर्त्तापन और अभोक्तापन को जान लेता है तब उस पुरूष की संपूर्ण चित्तवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं।(अष्टावक्र गीताः 18.59)
अर्थात् अपनी आत्मा को जब अकर्त्ता-अभोक्ता जानता है तब उसके चित्त के सारे संकल्प और वासनाएँ क्षीण होने लगती हैं।
हकीकत में करना-धरना इन हाथ पैरों का होता है। उसमें मन जुड़ता है। अपनी आत्मा अकर्त्ता है। जैसे बीमार तो शरीर होता है परन्तु चिन्तित मन होता है। बीमारी और चिन्ता का दृष्टा जो मैं है वह निश्चिन्त, निर्विकार और निराकार है। इस प्रकार का अनुसंधान करके जो अपने असली मैं में आते हैं, फिर चाहे मदालसा हो, गार्गी हो, विदुषी सुलभा हो अथवा राजा जनक हो, वे जीते जी यहीं सद्योमुक्ति का अनुभव कर लेते हैं।
सद्योमुक्ति का अनुभव करने वाले महापुरूष विष्णु, महेश, इन्द्र, वरूण, कुबेर आदि के सुख का एक साथ अनुभव कर लेते हैं क्योंकि उनका चित्त एकदम व्यापक आकाशवत् हो जाता है और वे एक शरीर में रहते हुए भी अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त होते हैं। जैसे घड़े का आकाश एक घड़े में होते हुए भी ब्रह्माण्ड में फैला है वैसे ही उनका चित्त चैतन्य स्वरूप के अनुभव में व्यापक हो जाता है।
रामायण में आता है-
चिदानंदमय देह तुम्हारी।
विगतविकार कोई जाने अधिकारी।।
रामजी को विरले ही जान पाते हैं। भगवान राम के बाहर के श्रीविग्रह का दर्शन तो कैकेयी, मन्थरा को हो सकता है, लेकिन रामतत्त्व को तो कोई विरला योगी महापुरूष ही समझ पाता है। ऐसे ही अपने बाहर के, एक दूसरे के शरीरों क दर्शन तो हो जाता है लेकिन अपना जो वास्तविक 'रामतत्त्व' है, 'मैं' तत्त्व है, जहाँ से 'मैं' स्फुरित होता है वह चिदानन्दमय है, निर्विकार है। उस पर जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि का प्रभाव नहीं पड़ता।
बीमार शरीर होता है, वास्तव में तुम कभी बीमार नहीं होते। तुम कभी चिन्तित नहीं होते, चिन्तित मन होता है। तुम कभी भयभीत नहीं होते, मन में भय आता है। तुम कभी शोक नहीं करते, शोक तुम्हारे चित्त में आता है लेकिन तुम अपने को उसमें जोड़े देते हो।

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सोमवार, जुलाई 19, 2010

परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो ! (भाग 3)

मनुष्य और पशु में अगर अन्तर देखना हो तो बल में मनुष्य से कई पशु आगे हैं जैसे सिंह, बाघ आदि। मानुषी बल से इनका बल अधिक होता है। हाथी का तो कहना ही क्या ? फिर भी मनुष्य महावत, छः सौ रूपये की नौकरी वाला, चपरासी की योग्यतावाला मनुष्य हाथी, सिंह और भालू को नचाता है, क्योंकि पशुओं के शारीरिक बल की अपेक्षा मनुष्य में मानसिक सूक्ष्मता अधिक है।

मनुष्य के बच्चों में और पशुओं के बच्चों में भी यह अन्तर है कि पशु के बच्चे की अपेक्षा मनुष्य का बच्चा अधिक एकाग्र है। पशुओं के बच्चों को जो बात सिखाने में छः मास लगते हैं, फिर भी सैंकड़ों बेंत लगाने पड़ते हैं वह बात मनुष्य के बेटे को कुछ ही मिनटों में सिखाई जा सकती है। क्योंकि पशुओं की अपेक्षा मनुष्य के मन, बुद्धि कुछ अंशों में ज्यादा एकाग्र एवं विकसित है। इसलिए मनुष्य उन पर राज्य करता है।

साधारण मनुष्य और प्रभावशाली मनुष्य में भी यही अंतर है। साधारण मनुष्य किसी अधीनस्थ होते हैं जैसे चपरासी, सिपाही आदि। कलेक्टर, मेजर, कर्नल आदि प्रभावशाली पुरूष हुकुम करते हैं। उनकी हुकूमत के पीछे उनकी एकाग्रता का हाथ होता है जिसका अभ्यास उन्होंने पढ़ाई के वक्त अनजाने में किया है। पढ़ाई के समय, ट्रेनिंग के समय अथवा किसी और समय में उन्हें पता नहीं कि हम एकाग्र हो रहे हैं लेकिन एकाग्रता के द्वारा उनका अभ्यास सम्पन्न हुआ है इसलिए वे मेजर, कलेक्टर, कर्नल आदि होकर हुकुम करते हैं, बाकी के लोग दौड़-धूप करने को बाध्य हो जाते हैं।

ऐसे ही अगले जन्म में या इस जन्म में किसी ने ध्यान या तप किया अर्थात् एकाग्रता के रास्ते गया तो बचपन से ही उसका व्यक्तित्व इतना निखरता है कि वह राजसिंहासन तक पहुँच जाता है। सत्ता संभालते हुए यदि वह भय में अथवा राग-द्वेष की धारा में बहने लगता है तो उसी पूर्व की निर्णयशक्ति, एकाग्रताशक्ति, पुण्याई क्षीण हो जाती है और वह कुर्सी से गिराया जाता है तथा दूसरा आदमी कुर्सी पर आ जाता है।

प्रकृति के इन रहस्यों को हम लोग नहीं समझते इसलिए किसी पार्टी को अथवा किसी व्यक्ति को दोषी ठहराते हैं। मंत्री जब राग-द्वेष या भय से आक्रान्त होता है तब ही उसकी एकाग्रताशक्ति, प्राणशक्ति अन्दर से असन्तुलित हो जाती है। उसके द्वारा ऐसे निर्णय होते हैं कि वह खुद ही उनमें उलझ जाता है और कुर्सी खो बैठता है। कभी सब लोग मिलकर इन्दिरा गांधी को उलझाना चाहते लेकिन इन्दिरा गाँधी आनन्दमयी माँ जैसे व्यक्तित्व के पास चली जाती तो प्राणशक्ति, मनःशक्ति पुनः रीधम में आ जाती और खोई हुई कुर्सी पुनः हासिल कर लेती।


मैंने सुना था कि योगी, जिसकी मनःशक्ति और प्राणशक्ति नियंत्रित है, वह अगर चाहे तो एक ही मिनट में हजारों लोगों को अपने योगसामर्थ्य के प्रभाव से उनके हृदय में आनन्द का प्रसाद दे सकता है।


यह बात मैंने 1960 के आसपास एक सत्संग में सुनी थी। मेरे मन में था कि संत जब बोलते हैं तो उन्हें स्वार्थ नहीं होता, फिर भला क्यों झूठ बोलेंगे ? व्यासपीठ पर झूठ वह आदमी बोलता है जो डरपोक हो अथवा स्वार्थी हो। ये दो ही कारण झूठ बुलवाते हैं। लेकिन संत क्यों डरेंगे श्रोताओं से ? अथवा उन्हें स्वार्थ क्या है ? वे उच्च कोटि के संत थे। मेरी उनके प्रति श्रद्धा थी। आम सत्संग में उन्होंने कहा थाः "योगी अगर चाहे तो अपने योग का अनुभव, अपनी परमात्मा-प्राप्ति के रस की झलक हजारों आदमियों को एक साथ दे सकता है। फिर वे सँभाले, टिकायें अथवा नहीं, यह उनकी बात है लेकिन योगी चाहे तो दे सकता है।"


इस बात को खोजने के लिए मुझे 20 वर्षों तक मेहनत करनी पड़ी। मैं अनेक गिरगुफाओं में, साधु-संतों के सम्पर्क में आया। बाद में इस विधि को सीखने के लिए मैं मौन होकर चालीस दिनों के लिए एक कमरे में बँद हो गया। आहार में सिर्फ थोड़ा-सा दूध लेता था, प्राणायाम करता था। जब वह चित्तशक्ति, कुण्डलिनी शक्ति जागृत हुई तो उसका सहारा मन और प्राण को सूक्ष्म बनाने में लेकर मैंने उस किस्म की यात्रा की। तत्पश्चात् डीसा में मैंने इसका प्रयोग प्रथम बार चान्दी राम और दूसरे चार-पाँच लोगों पर किया तो उसमें आशातीत सफलता मिली।


मैंने जब यह सुना था तो विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि यह बात गणित के नियमों के विरूद्ध थी। योगी अगर अपना अनुभव करवाने के लिए एकएक के भीतर घुसे और उसके चित्त में अपना तादात्म्य स्थापित करने के लिए सूक्ष्म दृष्टि, सूक्ष्म शरीर से आए-जाए तो भी एक-एक के पास कम से कम एक-एक सेकण्ड का समय तो चाहिए। ऐसी मेरी धारणा थी। जैसे स्कूलों में हम पढ़ते हैं कि पृथ्वी गोल है, यह स्कूल और साधक की बात है, लेकिन बच्चे को समझ में नहीं आती फिर भी पृथ्वी है तो गोल। बच्चा अध्ययन करके जब समझने लगता है तब उसे ठीक से ज्ञान हो जाता है।


ऐसा ही मैंने उस विषय को समझने के लिए अध्ययन किया और चालीस दिन के अनुष्ठान का संकल्प किया तो मात्र सैंतीस दिन में ही मुझे परिणाम महसूस हुआ और उसका प्रयोग भी बिल्कुल सफल हुआ और अभी तो आप देखते ही हैं कि हजारों हजारों पर यह प्रयोग एक साथ होता ही रहता है।


हरिद्वार वाले घाटवाले बाबा कहते थेः "आत्म-साक्षात्कारी पुरूष ब्रह्मलोक तक के जीवों को सहायता करते हैं और उन्हें यह अहसास भी नहीं होने देते हैं कि कोई सहायता कर रहा है। यह भी गिनती नहीं कि उन्होंने किन-किन को सहायता की है। जैसे हजारों लाखों मील दूरी पर स्थित सूर्य की कभी इसकी गणना नहीं होती कि मैं कितने पेड़-पौधों, पुष्पों, जीव-जन्तुओं को ऐसा सहयोग दे रहा हूँ। हालाँकि सूर्य का हमारे जीवन में ऐसा सहयोग है कि अगर सूर्य ठण्डा हो गया। हम उसी क्षण यहीं मर जायेंगे। इतने आश्रित हैं हम सूर्य की कृपा पर। सूर्य को कृपा बरसाने की मेहनत नहीं करनी पड़ती। चन्द्रमा को औषधि पुष्ट करने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता अपितु उसका स्वभाव ही है।


चन्द्रमा और सूर्य का सहज स्वभाव है लेकिन पेड़-पौधों का, जीव जंतुओं का, मनुष्यों का तो कल्याण हो जाता है। ऐसे ही आप मन और प्राणों को इतना सूक्ष्म कर दें.... इतना सूक्ष्म कर दें कि आपका जीवन बस..... जैसे बिन्दु में सिन्धु आ पड़े अथवा घड़े में आकाश आ पड़े तो घड़े का क्या हाल होगा ? ऐसे की आपके 'मैं' में व्यापक ब्रह्म आ जाये तो आपकी उपस्थिति मात्र से ही अथवा आप बोलेंगे वहाँ और जहाँ तक आपकी दृष्टि पड़ेगी वहाँ तक के लोगों का तो भला होगा ही लेकिन आप जब एकान्त में, मौन होकर अपनी मस्ती में बैठेंगे तो ब्रह्मलोक तक की आपकी वृत्ति व्याप्त हो जाएगी। वहाँ तक के अधिकारी जीवों को फायदा होगा।


जैसे बर्फ तो हिमालय पर गिरती है लेकिन तापमान पूरे देश का कम हो जाता है और त्वचा के माध्यम से आपके शरीर पर असर पड़ता है। ऐसे ही किसी ब्रह्मवेत्ता को साक्षात्कार होता है अथवा कोई ब्रह्मवेत्ता एकान्त में कहीं मस्ती में बैठे हैं तो अधिकारियों के हृदय में कुछ अप्राकृतिक खुशी का अन्दर से एक बहाव प्रस्फुरित होने लगता है। ऐसे थोड़े बहुत भी जो अधिकारी लोग हैं, आध्यात्मिक खुशी का अन्दर से एक बहाव प्रस्फुरित होने लगता है। ऐसे थोड़े बहुत भी जो अधिकारी लोग हैं आध्यात्मिक जगत के, उन्हें अवश्य ही अनुभव होता होगा कि कभी कभी एकाएक उनके भीतर खुशी की लहर दौड़ जाती है।


मन और प्राण को आप जितना चाहें सूक्ष्म कर सकते हैं, उन्नत कर सकते हैं। सूक्ष्म यानी छोटा नहीं अपितु व्यापक। अर्थात् अपनी वृत्ति को सूक्ष्म करके व्यापक बना सकते हैं। जैसे बर्फ वाष्पीभूत होकर कितनी दूरी तक फैल जाती है ? उससे भी अधिक आपके मन और प्राण को सूक्ष्म कर साधना के माध्यम से अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्डों में अपनी व्यापक चेतना का अनुभव आप कर सकते हैं। उस अनुभव के समय आपके संकल्प में अद्‍भुत सामर्थ्य आ जाएगा और आप इस प्रक्रिया से नई सृष्टि बनाने का सामर्थ्य तक जुटा सकेंगे।(स्रोत : शीघ्र ईश्वरप्राप्ति )

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शुक्रवार, जुलाई 16, 2010

परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो ! (भाग 2)

समुद्र जैसी गंभीरता और सुमेरू जैसी दृढ़ता दीक्षित साधक को पार पहुँचाने में समर्थ है। साधक उसके आविष्कारों तथा रिद्धि-सिद्धियों में आकर्षित नहीं होता है तो और अधिक सूक्ष्मतर स्थिति में पहुँचता है। सूक्ष्मतर अवस्था में भी जो उपलब्धियाँ हैं – दूरश्रवण, दूरदर्शन, अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि जो सिद्धियाँ हैं इनमें भी जो नहीं रूकता वह सूक्ष्मतम सचराचर में व्यापक परमेश्वर का साक्षात्कार करके जीवन्मुक्त हो जाता है तथा जिस पद में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश प्रतिष्ठित हैं उसका वह अनुभव कर लेता है। जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।


जिस तरह पानी की एक बूँद वाष्पीभूत होती है तो वह तेरह सौ गुनी अधिक शक्तिशाली हो जाती है। ऐसे ही प्राणायाम, ध्यान और जप से प्राणशक्ति, सूक्ष्म करने पर आपका मन प्रसन्न, निर्मल और सूक्ष्म होता है। प्राण एक ऐसी शक्ति है जो सारे विश्व को संचालित करती है। बीजों का अंकुरण तथा पक्षियों का किलौल प्राणशक्ति से ही होता है। यहाँ तक कि मानुषी एवं दैवी सृष्टि भी प्राणशक्ति के प्रभाव से ही संचालित एवं जीवित रहती है। ग्रह-नक्षत्र भी प्राणशक्ति से ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होकर कार्य करते हैं अर्थात् प्राणशक्ति जितनी स्थूल होगी उतनी ही साधारण होगी और जितनी सूक्ष्म होगी उतनी ही महत्त्वपूर्ण होगी।


संसार का सार शरीर है शरीर का सार इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों का सार मन है और मन का सार प्राण है। अगर प्राण निकल जाए तो तुम्हारे हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि होते हुए भी तुम कुछ नहीं कर पाते। प्राण निकलने पर आदमी भीतर बाहर ठप्प हो जाता है। प्राण जितने स्वस्थ होंगे, आदमी उतना ही स्वस्थ और तंदरूस्त रहेगा। जैसे कोई रोगी अगर तरूण है तो उसका रोग शीघ्रता से दूर होगा तथा शल्यक्रिया के घाव शीघ्रता से भरेंगे। वृद्ध है तो देर से भरेंगे क्योंकि उसकी प्राणशक्ति वृद्धावस्था के कारण मंद हो जाती है। जो योगी लोग हैं, उनकी उम्र अधिक होने पर भी साधारण युवान की अपेक्षा उनकी रोगप्रतिकारक क्षमता अधिक होती है क्योंकि प्राणायाम आदि के माध्यम से वृद्धावस्था में भी वे अपनी प्राणशक्ति को जवान की भाँति सँभाले रहते हैं।


प्रत्येक धर्म के उपदेशक अथवा नेता व्यक्ति जो कि भाषण या उपदेश देते हैं अथवा प्रभावशाली व्यक्तित्व रखते हैं उनके पीछे भी प्राणशक्ति की सूक्ष्मता का ही प्रभाव रहता है।


प्राणशक्ति नियंत्रित और तालबद्ध होती है तो आपका मन प्रसन्न और नियंत्रित रहता है। जितने अशों में आपका मन नियंत्रित एवं प्रसन्न तथा प्राणशक्ति तालबद्ध रहती है उतने ही अंशों में आपके विचार उन्नत एवं व्यक्तित्व प्रभावशाली दिखता है।


बजाज कम्पनी वाले जमनादास बजाज के दामाद श्रीमन्नारायण गुजरात के गवर्नर रह चुके हैं। वे एक बार रिसर्च की दुनियाँ में बहुत सारे सुंदर आविष्कार करने वाले आइन्स्टीन से मिलने गये और उनसे पूछाः "आपकी उन्नति का क्या रहस्य है जिससे आपका विश्व के इतने आदरणीय वैज्ञानिक हो गये ?"
आइन्स्टीन ने स्नेह से श्रीमन्नारायण का हाथ पकड़ा और वे उन्हें अपने प्राइवेट कक्ष में ले गये। उस कमरे में फर्नीचर नहीं था। उसमें ऐहिक आकर्षण पैदा करके आदमी को धोखे में गुमराह करने वाले नाचगान के टी.वी., रेडियो आदि साधन नहीं थे अपितु वहाँ भूमि पर एक साफ सुथरी चटाई बिछी थी। उस पर एक आसन था और ध्यान करने के लिए सामने दीवार पर एक प्रतिमा, मूर्ति थी। आइन्स्टीन ने कहाः


"मेरे विकास का मूल कारण यही है कि मैं प्रतिदिन यहाँ ध्यान करता हूँ।"
ध्यान से मन एकाग्र होता है। प्राण तालबद्ध चलते हैं। प्राणायाम करने से भी प्राप्त तालबद्ध होकर मन की एकाग्रता में वृद्धि करते हैं। दुनिया के जितने भी प्रभावशाली उपदेशक, प्रचारक आदि हो गये हैं, चाहे वे राम हों, कृष्ण हों, मोहम्मद हों, ईसा हों, कबीर हों, नानक हों, इनका प्रभाव आमजनता पर इसलिए पड़ा कि उन्होंने धारणाशक्ति का अवलम्बन, बंदगी, प्रार्थना आदि का अवलम्बन लेकर जाने-अनजाने में अपनी प्राणशक्ति का विकास कर लिया था।


भगवान सबमें उतने का उतना ही है और शरीर का मसाला भी सबके पास करीब-करीब एक जैसा ही है। रक्त, हाड-माँस, श्वास लेने के लिए नाक और देखने की आँखे ये साधन तो एक से ही हैं फिर भी एक आदमी एकाध साधारण नौकरी करना चाहता है तो उसको मिलती नहीं और दूसरा आदमी बड़ी ऊँची कुर्सी पर होकर त्यागपत्र दे देता है तो भी उसकी दूसरी ऊँची नौकरी मिल जाती है। इसमें आकाश पाताल में बैठकर देवी-देवता भाग्य में परिवर्तन नहीं करते। वह तो तुम्हारा मन जितना एकाग्र होता है तथा प्राणों की रीधम जितनी तालबद्ध होती है उतना ही व्यवहार में तुम सुयोग्य बन जाते हो।


तुलसीदास जी ने कहा हैः


को काहू को नहीं सुख दुःख करि दाता।
निज कृत करम भोगत ही भ्राता।।



(स्रोत : शीघ्र ईश्वरप्राप्ति )



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गुरुवार, जुलाई 15, 2010

परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो !

बहुत से रास्ते यूँ तो दिल की तरफ जाते हैं।
राहे मोहब्बत से आओ तो फासला बहुत कम है।
जीवत्मा अगर परमात्मा से मिलने के लिए तैयार हो तो परमात्मा का मिलना भी असंभव नहीं। कुछ समय अवश्य लगेगा क्योंकि पुरानी आदतों से लड़ना पड़ता है, ऐहिक संसार के आकर्षणों से सावधानीपूर्वक बचना पड़ता है। तत्पश्चात् तो आपको रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होगी, मनोकामनाएँ पूर्ण होने लगेगी, वाकसिद्धि होगी, पूर्वाभ्यास होने लगेंगे, अप्राप्य एवं दुर्लभ वस्तुएँ प्राप्य एवं सुलभ होने लगेंगी, धन-सम्पत्ति, सम्मान आदि मिलने लगेंगे।
 
उपरोक्त सब सिद्धियाँ इन्द्रदेव के प्रलोभन हैं।
 
कभी व्यर्थ की निन्दा होने लगेगी। इससे भयभीत न हुए तो बेमाप प्रशंसा मिलेगी। उसमें भी न उलझे तब प्रियतम परमात्मा की पूर्णता का साक्षात्कार हो जाएगा।
 
दर्द दिल में छुपाकर मुस्कुराना सीख ले।
गम के पर्दे में खुशी के गीत गाना सीख ले।।
तू अगर चाहे तो तेरा गम खुशी हो जाएगा।
मुस्कुराकर गम के काँटों को जलाना सीख ले।।
 
दर्द का बार-बार चिन्तन मत करो, विक्षेप मत बढ़ाओ। विक्षेप बढ़े ऐसा न सोचो, विक्षेप मिटे ऐसा उपाय करो। विक्षेप मिटाने के लिए भगवान को प्यार करके 'हरि ॐ' तत् सत् और सब गपशप का मानसिक जप या स्मरण करो। ईश्वर को पाने के कई मार्ग हैं लेकिन जिसने ईश्वर को अथवा गुरूतत्त्व को प्रेम व समर्पण किया है, उसे बहुत कम फासला तय करना पड़ा है।
 
कुछ लोग कहते हैं- "बापू ! इधर आने से जो मुनाफा मिलता है उसे यदि समझ जाएँ तो फिर वह बाहर का, संसार का धन्धा ही न करें।"
 
कोई पूछता हैः "तो संसार का क्या होगा ?"
 
बड़ी चिन्ता है भैया ! तुम्हें संसार की ? अरे यह तो बनाने वाले, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जानें। तुम तो अपना काम कर लो।
 
कोई पूछता हैः "स्वामी जी ! आप तन्दरूस्ती के ऐसे नुस्खे बताते हैं कि कोई बीमार ही न पड़े। तो फिर बेचारे डॉक्टर क्या खाएँगे ?"
 
अरे भैया ! पहले इतने डॉक्टर नहीं थे तब भी लोग खा रहे थे। वे डॉक्टरी नहीं करते थे, दूसरा काम करते थे। या अभी तो तुम तंदुरुस्त रहो और डॉक्टर लोग जब भूखों मरें तब तुम बीमार हो जाना।
 
कोई पूछता हैः "सब अगर मुक्ति चाहेंगे तो संसार का क्या होगा ?"
अरे, फिर नये जन्म होंगे और संसार की गाड़ी चलती रहेगी, तुम तो मुक्त हो जाओ।
कोई पूछता हैः "हम बीमार न पडेंगे तो दवाइयों का क्या होगा ?"
अरे, दवाइयाँ बनना कम हो जाएगी और क्या होगा ? हम गुनाह न करें तो जेल खाली पड़ी रह जाएगी इसीलिए गुनाह कर रहे हैं। यह कैसी बेवकूफी की बात है ! अरे सरकार को तो आराम हो जाएगा बेचारी को।
ऐसे ही हम साधन भजन करके इन विकारों से, अपराधों से जब बच जाते हैं तो नरक थोड़ा खाली होने लगता है। यमराज व देवताओं को आराम हो जाता है।
 
दूसरों को आराम पहुँचाना तो अच्छी बात है न कि अपने को या दूसरों को सताना। अतः आप सत्कार्यों के माध्यम से स्नेहमयी वाणी व प्रेमपूर्वक व्यवहार को अपने में उतारकर प्रसन्नात्मा होकर स्वयं भी स्व में प्रतिष्ठित होकर आराम प्राप्त करने की चेष्टा करना व हमेशा औरों को खुशी मिले ऐसे प्रयास करना।
 
जीना उसी का है जो औरों के लिये जीता है।
 
ॐ नारायण..... नारायण...... नारायण....
किसी इन्सान का धन-सम्पदा, रूपया पैसा चला जाए अथवा मकान-दुकान चली जाए तो इतना घाटा नहीं क्योंकि वे तो आँख बन्द होते ही चले जाने वाले हैं लेकिन श्रद्धा चली गई, साधन भजन चला गया तो फिर कुछ भी शेष नहीं रहता, वह पूरा कंगाल ही हो जाता है। ये चीजें चली गई तो तुम इसी जन्म में दो चार वर्षों तक कुछ कंगाल दिखोगे लेकिन भीतर का खजाना चला गया तो जन्मों तक कंगालियत बनी रहेगी।
 
इसलिए हे तकदीर ! अगर तू मुझसे धोखा करना चाहती है, मुझसे छीनना चाहती है तो मेरे दो जोड़ी कपड़े छीन लेना, दो लाख रूपये छीन लेना, दो साधन छीन लेना, गाड़ियाँ मोटरें छीन लेना लेकिन मेरे दिल से भगवान के गुरू के दो शब्द मत छीनना। गुरू के लिए, भगवान के लिए, साधना के लिए जो मेरी दो वृत्तियाँ हैं – साधन और साध्य वृत्तियाँ हैं, ये मत छीनना।
 
एक प्रौढ़ महिला भोपाल में मेरे प्रवचन काल के दौरान मुझसे मिलने आई। वह बोलीः "बाबाजी ! आप कृपया मेरे स्कूल में पधारिये।"
 
वह बंगाली महिला स्कूल की प्रधानाध्यापिका थी।
 
मैंने कहाः "बहन ! अभी समय नहीं है।"
इतना सुनते ही उस महिला की आँखों से आँसू टपक पड़े। वह कहने लगीः "बाबा जी ! मैं आनन्दमयी माँ की शिष्या हूँ।"
 
मैंने महसूस किया है कि शिष्य की नजरों से जब गुरू का पार्थिव शरीर चला जाता है तो शिष्य पर क्या गुजरती है। मैं जानता हूँ। मैंने तुरन्त उस महिला से कहाः
 
"माई ! मैं तुम्हारे स्कूल में भी आऊँगा और घर भी आऊँगा।" उसे आश्चर्य हुआ होगा परन्तु मैं उसके घर भी गया और स्कूल में भी गया।
 
शिष्य को ज्ञान होता है कि गुरू के सान्निध्य से जो मिलता है वह दूसरा कभी दे नहीं सकता।
 
हमारे जीवन से गुरू का सान्निध्य जब चला जाता है तो वह जगह मरने के लिए दुनिया की कोई भी हस्ती सक्षम नहीं होती। मेरे लीलाशाह बापू की जगह भरने के लिए मुझे तो अभी कोई दीख नहीं रहा है। हजारों जन्मों के पिताओं ने, माताओं ने, हजारों मित्रों ने जो मुझे नहीं दिया वह हँसते हँसते देने वाले उस सम्राट ने अपने अच्युत पद का बोध व प्रसाद मुझे क्षणभर में दे डाला।
 
गुरू जीवित है तब भी गुरू, गुरू होते हैं और गुरू का शरीर नहीं होता तब भी गुरू गुरू ही होते हैं।
गुरू नजदीक होते हैं तब भी गुरू गुरू ही होते हैं और गुरू का शरीर दूर होता है तब भी गुरू दूर नहीं होते।
गुरू प्रेम करते हैं, डाँटते हैं, प्रसाद देते हैं, तब भी गुरू ही होते हैं और गुरू रोष भरी नजरों से देखते हैं, ताड़ते हैं तब भी गुरू ही होते हैं।
 
जैसे माँ मिठाई खिलाती है तब भी माँ ही होती है, दवाई पिलाती है तब भी माँ ही होती है, तमाचा मारती है तब भी माँ होती है। माँ कान पकड़ती है तब भी माँ होती है, ठण्डे पानी से नहलाती है तब भी माँ होती है और गरम थैली से सेंक करती है तब भी वह माँ ही होती है। वह जानती है कि तुम्हें किस समय किस चीज की आवश्यकता है।
 
तुम माँ की चेष्टा में सहयोग देते हो तो स्वस्थ रहते हो और उसके विपरीत चलते हो तो बीमार होते हो। ऐसे ही गुरू और भगवान की चेष्टा में जब हम सहयोग देते हैं तो आत्म-साक्षात्कार का स्वास्थ्य प्रकट होता है।
 
बच्चे का स्वास्थ्य एक बार ठीक हो जाए तो दोबारा वह पुनः बीमार हो सकता है लेकिन गुरू और भगवान द्वारा जब मनुष्य स्वस्थ हो जाता है, स्व में स्थित हो जाता है तो मृत्यु का प्रभाव भी उस पर नहीं होता। वह ऐसे अमर पद का अनुभव कर लेता है। ऐसी अनुभूति करवाने वाले गुरू, भगवान और शास्त्रों के विषय में नानकजी कहते हैं-
 
नानक ! मत करो वर्णन हर बेअन्त है।
जिस तरह भगवान के गुण अनन्त होते हैं उसी प्रकार भगवत्प्राप्त महापुरूषों की अनन्त करूणाएँ हैं, माँ की अनन्त करूणाएँ हैं।
 
एक बार बीरबल ने अपनी माँ से कहाः "मेरी प्यारी माँ ! तूने मुझे गर्भ में धारण किया, तूने मेरी अनगिनत सेवाएँ की। मैं किसी अन्य मुहूर्त में पैदा होता तो चपरासी या कलर्क होता। तू मुझे राजा होने के मुहूर्त में जन्म देना चाहती थी लेकिन विवशता के कारण तूने मंत्री होने के मुहूर्त में जन्म दिया। कई पीड़ाएँ सहते हुए भी तूने मुझको थामा और मेरे इतने ऊँचे पद के लिए क्या क्या कष्ट सहे ! माँ ! मेरी इच्छा होती है कि मैं अपने शरीर की चमड़ी उतरवाकर तेरी मोजड़ी बनवा लूँ।
 
माँ हँस पड़ीः "बेटे ! तू अपने शरीर की चमड़ी उतरवाकर मेरी मोजड़ी बनवाना चाहता है लेकिन यह चमड़ी भी तो मेरे ही शरीर से बनी हुई है।"
 
बच्चा कहता हैः "मेरी चमड़ी से तेरी मोजड़ी बना दूँ। लेकिन उस नादान को पता ही नहीं कि चमड़ी भी तो माँ के शरीर से बनी है। ऐसे ही शिष्य भी कहता है कि मेरे इस धन से, मेरी इस श्रद्धा से, इस प्रेम से, इस साधन से गुरूजी को अमुक-अमुक वस्तु दे दूँ लेकिन ये साधन और प्रेम भी गुरूजी के साध्य और प्रेम से ही तो पैदा हुए हैं !
 
चातक मीन पतंग जब पिया बिन नहीं रह पाय।
साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय।।

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मंगलवार, जुलाई 13, 2010

भगवतप्राप्ति की कुंजी

भगवान महावीर के जमाने में पुष्य नाम का एक बड़ा सुप्रसिद्ध ज्योतिषी हो गया। उसका ज्योतिष इतना बढ़िया रहता था कि उसको अपने ज्योतिष विषय पर पूरा विश्वास था। देशदेशान्तर से लोग उससे पूछने आते थे। वह जो कह देता, अक्षरशः सच्चा पड़ जाता। लोगों के पदचिह्न की रेखाएँ देखकर भी वह लोगों की स्थिति बता सकता था। ऐसा बढ़िया कुशाग्र ज्योतिषी था।
उन दिनों में वर्धमान (बाद में महावीर हुए) घर छोड़कर दिन में तो विचरण करते और संध्या होती, रात पड़ती तो एकान्त खोजकर बैठ जाते। थोड़ी देर आराम कर लेते फिर सन्नाटे  बैठ जाते चुपचाप, ध्यान में स्थिर हो जाते।
पुष्य ज्योतिषी ने देखा कि रेत पर किसी के पदचिह्न हैं। पदचिह्नों को ज्योतिष विद्या से परखा तो जाना कि ये तो चक्रवर्ती के हैं। चक्रवर्ती अगर यहाँ से गुजरा है तो साथ में मंत्री होने चाहिए। सचिव होने चाहिए, अंगरक्ष्क होने चाहिए, सिपाही होने चाहिए। पदचिह्न चक्रवर्ती के और साथ में कोई झमेला नहीं यह सम्भव नहीं हो सकता। पुष्य ज्योतिषी को अपनी ज्योतिष विद्या पर पूरा भरोसा था। उसकी नींद हराम हो गयी। चाँदनी रात थी। जहाँ तक चल सका पदचिह्न देखता हुआ चला, फिर वहाँ ठहर गया। फिर सुबह-सुबह जल्दी चलना चालू किया। खोजना था, पदचिह्न कहाँ जा रहे हैं। देखा कि बिना कोई साधन के, एक व्यक्ति शांत भाव में बैठा हुआ है। पदचिह्न वहीं पूरे होते हैं। इर्दगिर्द देखा, चेहरे पर देखा। महावीर की आँख खुली। ज्योतिषी चिन्ता में डूबता जा रहा था। महावीर से पूछाः
"ये पदचिह्न तो आपके मालूम होते हैं ?"
"हाँ।"
"मुझे अपने ज्योतिष पर भरोसा है। आज तक मेरा ज्योतिष झूठा नहीं पड़ा। पदचिह्नों से लगता है कि आप चक्रवर्ती सम्राट हो। लेकिन आपका बेहाल देखकर दया आती है कि आप भिक्षुक हो। मेरी विद्या आज झूठी कैसे पड़ी ?"
महावीर मुस्कराकर बोलेः "तुम्हारी विद्या झूठी नहीं है, सच्ची है। चक्रवर्ती को क्या होता है ?"
"उसके पास ध्वजा होती है, कोष होता है, उसके पास सैन्य होता है। आप तो ठनठनपाल हैं।"
"धर्म की ध्वजा मेरे पास है। कपड़े की ध्वजा ही सच्ची ध्वजा नहीं है। सच्ची ध्वजा तो धर्म की ध्वजा है। मेरे पास सदविचाररूपी सैन्य है जो कुविचारों को मार भगाता है। क्षमा मेरी रानी है। चक्रवर्ती के आगे चक्र होता है तो समता मेरा चक्र है, ज्ञान का प्रकाश मेरा चक्र है। ज्योतिषी ! क्या यह जरूरी है कि बाहर का चक्र ही चक्रवर्ती के पास हो ? बाहर की ही ध्वजा हो ? धर्म की भी ध्वजा हो सकती है। धर्म का भी कोष हो सकता है। ध्यान और पुण्यों का भी कोई खजाना होता है।
राजा वह जिसके पास भूमि हो, सत्ता हो। सुबह जो सोचे तो शाम को परिणाम आ जाय। ज्ञानराज्य में मेरी निष्ठा है। जो भी मेरे मार्ग में प्रवेश करता है, सुबह को ही चले तो शाम को शांति का एहसास हो जाता है, थोड़ा बहुत परिणाम आ जाता है। यह मेरी ज्ञान की भूमि है।"
जो ज्योतिषी हारा हुआ निराश होकर जा रहा था वह सन्तुष्ट होकर, समाधान पाकर प्रणाम करता हुआ बोलाः
"हाँ महाराज ! इस रहस्य का मुझे आज पता चला। मेरी विद्या भी सच्ची और आपका मार्ग भी सच्चा है।"
कभी-कभी लोग अपने हाथ दिखाते हैं कि मुझे भगवत्प्राप्ति होगी कि नहीं। भगवत्प्राप्ति हाथ पर नहीं लिखी होती।
मेरे गुरूदेव बड़े विनोदी स्वभाव के थे। एक बार बम्बई में समुद्र किनारे सुबह को घूमने निकले। कोई ज्योतिषी अपने ग्राहक को पटा रहा था। बाबाजी भी ग्राहक होकर बैठ गयेः भाई, मेरा हाथ भी देख ले।
मौज फकीरों की भी !
वह ज्योतिषी बोलता था कि तुम अपने मन में किसी भी फूल का स्मरण करो। मैं आपको यह फूल बता दूँ। वह बता देता था और सामने वाले को श्रद्धा हो जाती थी। फिर वह जो बोलता था वह सामने वाले को लगता था कि सच्चा है। दो बातें ज्योतिषी की या और किसी की अगर सच्ची लग जाती है तो तीन बातें उसमें और भी मिश्रित हो सकती हैं।
गिरनार के मेले में कई भिखमंगे ज्योतिषी बन जाते हैं। वेश बना लेते हैं, दाढ़ी-बाल बढ़ा लेते हैं, जोगी का रूप धारण कर लेते हैं। पावड़िया चड़ते हुए किसी को बोलते हैं-
"भगत ! भगवान ने दिल दिया लेकिन दौलत नहीं दिया। जिसकी तुम भलाई करते हो, वहाँ से बदला बढ़िया नहीं आता है।"
सर्व साधारण यह बात है। सब चाहते हैं कि भलाई थोड़ी करें बदला ज्यादा मिले। ऐसा तो होती नहीं। 'दिल है, दौलत नहीं....' अगर दौलत होती तो पैदल हाँफता-हाँफता क्यों जाता ? कपड़ों से ही पता चला जाता है कि, 'दिल दिया है, दौलत नहीं दिया।' लोग ऐसे फुटपाथी ज्योतिषियों के ग्राहक बन जाते हैं। ऐसे ज्योतिषी तोते-मैना-काबरों को, चिड़ियाओं को पालकर पिंजरे में रखते हैं। लिफाफों में अलग-अलग बातें जो सर्व साधारण सब मनुष्यों की होती हैं वे लिखी हुई होती हैं। तुम्हारी राशि ऐसी है..... अमुक ग्रह की कठिनाई है.... ऐसा-ऐसा करो तो ठीक हो जायेगा..... आदि आदि।
उस ज्योतिषी ने बाबाजी से कहाः "महाराज ! अपने मन में किसी फूल की धारणा कर लो।"
"हाँ, कर ली।"
"महाराज ! आपके मन में गुलाब का फूल है।"
"ज्योतिषी महाराज ! बिल्कुल सच्ची बात है।"
गुरूदेव ने सचमुच में गुलाब को याद किया था। लोग गुलाब को याद करें यह स्वाभाविक है। फूलों को याद करो तो पहले गुलाब आ जायेगा।
ऐसे ही साधक अगर किसी को याद करे तो गुलाबों का गुलाब परमात्मा याद आ जाय। कुछ भी करना है तो परमात्मा को पाने के लिए करें, उसको संतुष्ट करने के लिए करें। ....तो उसके लिए परमात्मा दुर्लभ नहीं।
तस्याहं सुलभः पार्थ।
'हे पार्थ ! ऐसों के लिए मैं सुलभ हूँ।'
ज्योतिषी ने बड़ी सूक्ष्मता से बाबाजी का हाथ देखकर बताया किः "आप भगवान के लिए साधू बने हो, खूब तप किया है फिर भी अभी तक भगवान मिले नहीं हैं। आप तपस्या चालू रखोगे तो सफल हो जाओगे।"
गुरूदेव बोलेः "भगवान मिला नहीं क्या ? भगवान तो हमारा अपना आपा है।"
भगवान की मुलाकात तो गुरूदेव को करीब पचास वर्ष पहले हो चुकी थी, आत्म-साक्षात्कार हो चुका था, भगवत्प्राप्ति हो चुकी थी। हाथ देखकर ज्योतिषी अभी बता रहा है कि, 'भगवान मिले नहीं हैं। तपस्या चालू रखोगे मिल जाएँगे।'
कहने का तात्पर्य यह है कि भगवत्प्राप्ति हो गई है कि नहीं, यह हाथ पर नहीं लिखा होता अथवा ललाट से नहीं दिखेगा। हस्तरेखाओं से यह बात नहीं जानी जाती। अगर ईश्वर-प्राप्ति की तत्परता है, तीव्र लगन है तो ईश्वर-प्राप्ति जरूर हो जायेगी। संसार की तुच्छ चीजें सँभालने की तत्परता है तो ईश्वर-प्राप्ति नहीं होगी।
वास्तव में भगवान की अप्राप्ति है ही नहीं। भगवान तो अपना आपा है। संसार की आसक्ति मिटी तो वह प्रकट हो गया। संसार की आसक्ति बनी रही तो जीव फँसा रहा। कोई ज्योतिषी आपका हाथ देखकर बता दे कि भगवत्प्राप्ति होगी या नही होगी तो यह बिल्कुल बेवकूफी की बात है। ज्योतिषी का दम नही यह बता देने का। वहाँ ज्योतिष विद्या की गति नहीं है। ईश्वर-प्राप्ति विषयक जानने के लिए ज्योतिषियों को अपनी हस्तरेखाएँ बताने की कोई जरूरत नहीं है।
भगवान हमें मिलेंगे ही यह दृढ़ विश्वास, संकल्प और श्रद्धा रखकर साधना करो, भगवान के लिए ही कार्य करो, उसको रिझाने के लिए ही जीवन जियो, उसको पाने के लिए ही आयु बिताओ। बस, तुम्हारी यह दृढ़ता ही भगवत्प्राप्ति का कारण है। भगवत्प्राप्ति को ज्योतिष से कोई मतलब नहीं, उसे तो तुम्हारी तत्परता से, दृढ़ता से और तीव्र जिज्ञासा से मतलब है।

ईश्वर के नाते आप जिओ। पत्नी से स्नेह करो लेकिन ईश्वर के नाते स्नेह करो। पति से स्नेह करो लेकिन ईश्वर के नाते स्नेह करो। दोनों की उन्नति हो इस भावना से स्नेह करो। बेटे से खूब स्नेह करो, बेटी से भी स्नेह करो लेकिन स्नेह करते-करते स्नेह जहाँ से पनपता है, प्रकट होता है उस स्नेह-स्वरूप प्रभु में भी जरा गोता मारो तो बेटी की भी उन्नति, माँ की भी उन्नति, बेटे की भी उन्नति, बाप की भी उन्नति, और बाप के बाप की भी उन्नति, सबकी उन्नति हो जायगी। उन्नति जीवन जीने का तरीका यह है।
....तो आज का भागवत का श्लोक कहता हैः
'चित्त और इन्द्रियों का संयम करके जगत को अपने में देखना और अपने व्यापक आत्मा को परमात्मा में देखना चाहिए।'

जैसे बाहर का पानी अपने बोर में डालो, बोर गहन बनाओ, फिर अपने बोर का पानी बाहर विस्तृत कर दो। ऐसे ही जगत को प्रेम से अपने में देखो और अपना प्रेम इतना व्यापक करो कि पूरे जगत में फैले जाये।

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दिव्य जीवन की कुंजी !

साबरमती के गाँधी आश्रम की घटना है। किसी रात्रि को आश्रम में चोर घुसा। वह कुछ माल-सामान की, चीज-वस्तुओं की सफाई करे, चोरी करे उससे पहले किसी आश्रमवासी की नजर पड़ गई। वह सोया-सोया निहारता था। देखा कि वास्तव में चोर है। धीरे से साथी को जगाया, दूसरे को जगाया, तीसरे को जगाया। चार-पाँच मित्र जगे और चोर को घेरकर पकड़ लिया। थापा-थूपी करके कमरे में बन्द कर दिया।
सुबह में प्रार्थना पूरी हुई, नास्ता आदि सब हो गया। फिर उस चोर को निकाल कर गाँधी जी के पास लाये। आश्रम के संचालक आदि ने सोचा था कि बापू चोर को कुछ सजा देंगे या पुलिस में भिजवा देंगे। गाँधी जी के सामने चोर को खड़ा कर दिया। रात की घटना बतायी।
सब सोच रहे थे कि गाँधी जी अब इसको डाँटेंगे अथवा कुछ सीख देंगे या प्रायश्चित करायेंगे, परंतु गाँधीजी ने जो कहा वह आश्चर्यजनक था। उन्होंने संचालक से पूछाः
"इसने नास्ता किया है कि नहीं किया ?"
"बापू ! यह चोर है।"
"चोर तो है लेकिन मनुष्य तो है न ? यह पहले मनुष्य है कि पहले चोर है ? पहले यह मनुष्य है। इसको भूख लगी होगी। इसको ले जाओ, नास्ता कराओ। बेचारे को भूख लगी होगी।"
बाहर की प्रीति की चीजें तुम्हें अन्दर के राम के साथ प्रीति जोड़ने को कहती हैं और अन्दर के राम की प्रीति फिर चोर का भी कल्याण करने लगती है। उनके द्वारा साहूकार का कल्याण हो जाय इसमें क्या बड़ी बात है ?
वह चोर फूट-फूटकर रोने लगा। पछतावा करने लगा। न डंडे की जरूरत पड़ी, न पुलिस की जरूरत पड़ी न रिमान्ड की जरूरत पड़ी। वह चोर सुधर गया।
प्रेम ऐसी चीज है। अन्यथा, गाँधी जी के पास कौन-सा आडम्बर और फर्नीचर था कि लोग सुधर जाते या उनका कहना मानते, उनके अनुगामी बनते ? अत्यंत सादा जीवन था गाँधी जी का। वे अपने पर आधारित थे।
आप जितना सादा जीवन जीते हैं और आत्मनिर्भर होते हैं उतना आपका आत्मप्रेम, आत्मरस जगता है। आप जितने बाहर की चीजों पर आधारित रहते है उतने भीतर से बेईमान होते चले जाते हैं। अगर आप सच्चे हृदय से प्यार करो तो आपकी एक मुस्कान हजारों आदमियों को उन्नत कर देगी। आपका निर्दोष, निष्कपट हास्य पूरी सभा को उन्नत कर देगा। सबकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति होगी। आपका हास्य मात्र पर्याप्त है।
जिन महापुरूषों से लाखों लोग लाभान्वित होते हैं, उन पुरूषों ने क्या तुम्हें ऐहिक वस्तुओं की सुविधा देकर, चापलूसी करके लाभान्वित किया है ? नहीं। वे पुरूष आत्मनिर्भर रहे है, स्वतंत्र आत्मसुख में प्रविष्ट हुए हैं और वह आत्मसुख बाँटने की योग्यता उनमें विकसित हो गई है। वे आत्मसुख से स्वयं सराबोर रहते हैं और उसी में गोता लगाकर निगाह डाल देते हैं या दो शब्द बोल देते हैं तो हजारों-हजारों दिल उनके हो जाते हैं। सारा संसार उनके लिए बदला हुआ मिलता है।
मरने के सब इरादे जीने के काम आये।
हम भी तो हैं तुम्हारे कहने लगे पराये।।
तुम ईश्वर के लिए अगर बाह्य सब चीजों का आकर्षण छोड़ देते हो, ईश्वर प्राप्ति के लिए मरने को भी तैयार हो जाते हो तो तुम्हारी मौत नहीं होगी। तुम्हारे मरने के सब इरादे जीवन में बदल जाएँगे, सब दुःख सुख में बदल जाएँगे। केवल जीवन जीने का ढंग हम जान लें। वह ढंग हमें शास्त्र सिखाते हैं।
शास्त्र का मतलब हैः "शासनात् शास्त्रम् – जो शासन करे, कहे कि यह करो, यह मत करो, वह शास्त्र कहलाता है।
मन पर, इन्द्रियों पर शासन करके, सब स्थानों से आसक्ति छुड़वाकर हमें अपने घर पहुँचा दें, अपने आत्मपद में ला दें वे हैं शास्त्र। शास्त्र कोई बोझ ढोने के लिए नहीं हैं।
आज संस्कृत के एक बड़े विद्वान आये थे। आचार्य थे। पहले काशी में रहते थे, आजकल अहमदाबाद की किसी संस्था में रहते हैं। आश्रम के बालयोगी नारायण को भारतीय तर्कशास्त्र, न्यायदर्शन आदि पढ़ाने के लिए सोचा था इस सिलसिले में आये थे। वे कहने लगेः "इनको लघु कौमुदी और मध्यमा तक पढ़ाओ। यह सब रटेंगे तब न्यायशास्त्र आदि पढ़ेंगे। शास्त्र रटना भी तो भजन है।"
मैंने सोचा यह बात तो ठीक है लेकिन रटने का भजन नहीं करवाना है, अब तो रसमय भजन करवाना है। शास्त्र रट-रटकर तो कई खोपड़ियाँ भरी हुई हैं। एक खोपड़ी में नहीं रटा जायगा तो भी काम चल जायेगा।
कोई सोचता है हम इतने शास्त्र रट लेंगे, इतने प्रमाणपत्र पा लेंगे तो हमारा प्रभाव पड़ेगा, हम आचार्य बन जाएँगे, वेदान्ताचार्य, दर्शनाचार्य आदि। आचार्य कहलाने के लिए शास्त्र पढ़ो, मजदूरी करो, इससे तो न पढ़ो वह अच्छा है। सेठ कहलाकर मान पाने के लिए धन कमाओ, मजदूरी करो इससे तो धन थोड़ा कम रहे तो भी अच्छा है। साहब कहलाने के लिए, प्रमोशन पाने के लिए चिंतित रहो इससे तो जहाँ हो वहीं अच्छे हो।
'मेरा पति अच्छा है क्योंकि गहने और वस्त्र-आभूषण अच्छे ला देता है....' ऐसा कहलवाने के लिए ला देते हो तो कोई आवश्यकता नहीं लाने की।
'मेरी पत्नी अच्छी है....' यह कहलवाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के गरमागरम चरपरे व्यंजन-पकवान-वानगियाँ, अधिक तेल-मिर्च-मसालेवाले पदार्थ पति को खिलाओगे तो इससे पति का भी सत्यानाश होगा और पत्नी का भी सत्यानाश होगा।
परिवार में आप एक दूसरे के आध्यात्मिक साथी बन जाओ, आत्मसुख की ओर उन्नति करने के लिए एक दूसरे को सहयोग दो। एक दूसरे के सच्चे सुहृद, सच्चे हितैषी हो जाओ। पत्नी सोचे कि कौन-से भोजन से मेरे पति का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, फिर वैसा ही भोजन बनाया करे। जो पत्नी चाहे कि अपने पति का स्वास्थ्य अच्छा रहे, मनोबल विकसित हो, विचारबल विकसित हो, प्राणबल विकसित हो, पति की साधना में उन्नति हो, और उसके अनुरूप आचरण करे तो वह पत्नी के साथ-साथ श्रेष्ठ मित्र भी हैं और श्रेष्ठ गुरू भी है।
जो पति चाहे कि पत्नी आत्मनिर्भर रहे, विकारी सुख नहीं अपितु निर्विकारी आत्मसुख की ओर चले, इसके लिए उसे पवित्र स्थानों में ले जाय, पवित्र चिन्तन कराये, आत्मसुख में प्रीति जगाये, हल्के विचार कम करने में सहयोग दे वह पति उस नारी के लिए पति भी है, गुरू भी है और परमात्मा भी है।
परस्पर हितैषी हो जाओ, बस। जो प्रेम व्यक्ति में केन्द्रित रह जाता है वह आत्म-केन्द्रित हो जाय, बस। आत्म-केन्द्रित माने क्या ? स्व-केन्द्रित या स्वार्थी ? नहीं। जो प्रेम शरीर में है वह शरीर जिससे प्रेमास्पद लगता है उसकी तरफ प्रेम हो तो पति-पत्नी का सम्बन्ध बड़ा मधुर सम्बन्ध है। भारत के दूरदर्शी, परम हितैषी महान् आत्माओं का कहना है कि शादी करनी चाहिए, दो चार बच्चों को जन्म देना चाहिए।
जो लोग शराबी कबाबी हैं वे लोग चाहे मँगनी से पहले ऑपरेशन करा लें किन्तु जो लोग भगवान का भजन करते है, जप करते हैं, ध्यान करते हैं उन्हें कभी ऑपरेशन नहीं कराना चाहिए। उन्हें संयमी जीवन जीना चाहिए। दो-चार बच्चे हों। एकाध देश की सीमा पर हो, फौज में काम आ जाय, एकाध समाजसेवा में हो। देश को ऐसे बच्चों की जरूरत है।
दिव्य आत्माएँ धरती पर आना चाहती हैं लेकिन हमारे अन्तःकरण दिव्य हों तब न ? आप जितना-जितना उन वस्तुओं से उपराम होते जाते हो उतना-उतना अन्तःकरण उन्नत होता जाता है और उतनी उन्नत आत्माएँ आपके घर अवतरित होने को तैयार होती हैं। ऐसी पवित्र आत्माएँ आमंत्रित करने से ही देश की सच्ची सेवा हो सकती है, विश्व की सेवा हो सकती है। नारायण.... नारायण..... नारायण..... नारायण....।
श्रीमद् भागवत में आया है कि आचार्य में सब देवों का निवास होता है। आचार्य कौन हैं ? जो तुम्हारे मन को ईश्वर की तरफ लगा दें, तुम्हारी निम्न वासनाओं को हटाकर प्रियतम परमात्मा की तरफ मोड़ दें।
आचार्य में पूज्यबुद्धि होने से तुम्हारा अन्तःकरण पावन बनता है। आचार्य के उपदेश को आदर से, स्नेह से सुनकर अपने जीवन में लाने का जीवन उन्नत होता है। भगवान ने भागवत में कहा हैः
आचार्यं मां विजानीयात्।।(11.17.26)  'मुझे ही आचार्य जानो।'
उन आचार्यों का पूर्वजीवन देखो तो उन्होंने संध्या-उपासना-जप-तप-यज्ञयागादि किये हैं, पुण्य कर्म किये हैं। धारणा-ध्यान-समाधि आदि योगाभ्यास किया है, उन्नत बने हैं, तभी वे आचार्य हुए हैं।
उन्नति किसी व्यक्ति के पास, किसी दायरे में, किसी सम्प्रदाय में या समाज में ही होती है ऐसी बात नहीं है। उन्नति तो जो चाहे कर सकता है। आपके अन्दर जो उन्नति करने के दृढ़ संकल्प हैं वे ही संकल्प देर-सवेर आपके लिये उन्नति की सामग्री पूरी करेंगे। हाँ, अगर आप सचमुच उन्नत होना चाहो तो। आप विलासी जीवन जीकर सुखी होने की गड़बड़ करते हो तो वैसी जगह आपको मिलेगी। आप दिव्य जीवन जीना चाहते हो तो वैसी जगह आपको मिलेगी। आप दिव्य जीवन जीना चाहते हो तो देर-सवेर वही वातावरण और वही सामग्री खिंचकर आयेगी क्योंकि तुम्हारा मन सत्य-संकल्प आत्मा से स्फुरित होता है। इसलिए कृपानाथ ! जो भी संकल्प करो वह विलासियों को देखकर नहीं, आडम्बरियों को देखकर नहीं, विकरारियों को देखकर नहीं, बाहर से जो खुशहाल नजर आते हैं और भीतर से चिन्ता की आग में पचते हैं ऐसे लोगों को देखकर नहीं, विकारियों को देखकर नहीं, बाहर से जो खुशहाल नजर आते हैं और भीतर से चिन्ता की आग में पचते हैं ऐसे लोगों को देखकर नहीं। आप तो शंकराचार्य को, कबीरजी को, नानकजी को, बुद्ध को, महावीर को, शबरी को, मीरा को, गार्गी को, मदालसा को, रामतीर्थ को, रामकृष्ण को, रमण महर्षि को, लीलाशाह भगवान को याद करके अपना संकल्प करो कि मेरे ऐसे दिन कब आएँगे जब मैं आत्मनिर्भर हो जाऊँगा। कोई वस्त्र नहीं फिर भी कोई परवाह नहीं गार्गी को। शुकदेव जी की कौपीन का ठिकाना नहीं, ऐसे बेपरवाह और आत्मसुख में डूबे हुए सात दिन में परीक्षित को आत्म-साक्षात्कार करा दिया।
जनक के पास इतनी सारी सामग्री है फिर भी कोई आसक्ति नहीं। बिल्कुल अनासक्त योग।
वस्तुएँ त्यागने को मैं नहीं कहता। वस्तुएँ बढ़ाने को भी मैं नहीं कहता। मैं कहता हूँ कि तुम्हारा और वस्तुओं का ऐसा सम्बन्ध है कि जैसे बच्चे को चालनगाड़ी दी जाती है। तुम्हारा और संसार का ऐसा सम्बन्ध है कि जैसा तुम्हारे शरीर और कपड़ों का।
कपड़े तुम्हारे लिए हैं, तुम कपड़ों के लिए नहीं हो। वस्तुएँ तुम्हारे लिए हैं, तुम वस्तुओं के लिए नहीं हो। भगवान का भक्त होकर टुकड़ों की चिन्ता करे ?
आज मनुष्य की इतनी बेईज्जती हो गई है कि क्या बताएँ....। मुर्गी के बच्चे बढ़ाने के लिए देश लाखों-करोड़ों रूपये खर्च कर रहा है। मछली के बच्चों का विकास करने के लिए करोड़ों रूपये दिये जा रहे हैं लेकिन मनुष्य के बच्चों का नाश करने के लिए करोड़ों रूपये लगाये जा रहे हैं। मुर्गी के बच्चे चाहिए, मछली के बच्चे चाहिए लेकिन मनुष्य के बच्चों का कोई मूल्य नहीं है। मनुष्य इतना तुच्छ हो गया ? इतना असंयमी, विलासी हो गया ? उसको जन्म लेने से रोकने के लिए करोड़ों रूपये खर्च करना पड़े ? इन्सान के बच्चे की कीमत नहीं रही।
क्यों ?
क्योंकि इन्सान अपने संयम से, अपने सदाचार से, अपने आत्मसुख और आत्मज्ञान के मार्ग से च्युत हो गया, गिर गया। सरकार बेचारी क्या करे ? नारायण..... नारायण...... नारायण....।

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