बुधवार, मार्च 31, 2010

भगवान का चिंतन मनन क्यों करें ?


जहाँ भगवान का स्मरण चिन्तन होता है वह स्थान पवित्र माना जाता है। वहाँ के कण-कण में उस परमात्म-तत्त्व के परमाणु फैले रहते हैं। जो आदमी क्रोधी होता है उसके आसपास सात फीट के दायरे में क्रोध के परमाणु फैले रहते हैं। हर इन्सान एक पावर हाउस है। उसमें से कुछ न कुछ संस्कारों की सूक्ष्म तन्मात्राएँ निकलती रहती हैं। जहाँ भगवान की भक्ति करनेवाले लोग रहते हैं वह स्थान भी अपना कुछ दिव्य महत्त्व रखता है।
महाराष्ट्र में महात्मा गाँधी किसी गुफा में गये थे। गुफा में रहने वाले योगी को देव हुए कोई सात-आठ दिन ही हुए थे। खाली गुफा में गाँधी जी थोड़ी ही देर बैठे तो उन्हें ॐ की सूक्ष्म ध्वनि महसूस हुई। जिस स्थान में भगवान का चिन्तन मनन होता है वह स्थान इतना पवित्र हो जाता है तो आदमी भगवान का चिन्तन मनन करता है वह कितना पवित्र हो जाता होगा ! इसीलिये भगवान के मार्ग में चलने वाले महापुरूषों का आदर करने वाला उन्नत होता है। रूपये देकर लेक्चर सुनने वाली पाश्चात्य परंपरा से केवल सूचनाएँ मिलती हैं, अमृत नहीं मिलता। गुरू और शिष्य के बीच वह सम्बन्ध होता है जो भगवान और भक्त के बीच होता है।

तुच्छ वस्तुओं के लिए गुरूपद नहीं है। गुरूपद इसलिए है कि जीव जन्म-जन्मांतरें की भटकान से बचकर अपने गुरूतत्त्व को जान ले, अपने महान् पद को जान ले ताकि बार-बार दुःख-योनियों में न जाना पड़े। सूकर, कूकर आदि दुःख-योनियों हैं। श्रद्धा में एक ऐसी शक्ति है कि आप ईश्वर के किसी भी रूप को मानकर चलें तो समय पाकर गुरूओं का गुरू अन्तर्यामी परमात्मा भीतर से आपका प्रेरक बन जाता है। फिर ऐसे महापुरूष के पास आप पहुँच जाते हैं कि जिनकी पवित्र निगाह से, पवित्र आभा से आपका चित्त ईश्वर की ओर चलने लगता है। जिनकी निगाहों से, जिनके शरीर के परमाणुओं से, जिनके चित्त से ईश्वरीय आकर्षण, ईश्वरीय प्रेम तथा ईश्वरीय यात्रा के लिए जन-समाज को सहाय मिलती रहती है वे मनुष्य जाति के परम हितैषी रहते हैं। उन्हें आचार्य कहा जाता है।

आचार्यवान पुरूषो वेद।।

वे अभक्त को भक्ति दे सकते हैं, योग दे सकते हैं, ज्ञान दे सकते हैं और ईश्वराभिमुख बना सकते हैं।

पढ़ लिखकर पदवी पाना एक बात है लेकिन रामकृष्ण की तरह, शंकराचार्य की तरह समाज के मन को ईश्वराभिमुख करना सबसे ऊँची बात है।

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