परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो ! (भाग 2)
समुद्र जैसी गंभीरता और सुमेरू जैसी दृढ़ता दीक्षित साधक को पार पहुँचाने में समर्थ है। साधक उसके आविष्कारों तथा रिद्धि-सिद्धियों में आकर्षित नहीं होता है तो और अधिक सूक्ष्मतर स्थिति में पहुँचता है। सूक्ष्मतर अवस्था में भी जो उपलब्धियाँ हैं – दूरश्रवण, दूरदर्शन, अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि जो सिद्धियाँ हैं इनमें भी जो नहीं रूकता वह सूक्ष्मतम सचराचर में व्यापक परमेश्वर का साक्षात्कार करके जीवन्मुक्त हो जाता है तथा जिस पद में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश प्रतिष्ठित हैं उसका वह अनुभव कर लेता है। जैसे, पानी के एक बुलबुले में से आकाश निकल जाए तो बुलबुले का पेट फट जाएगा। जीवत्व का, कर्त्ता का, बँधनों का, बुलबुले का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। घड़े का आकाश महाकाश से मिल जाएगा। बूँद सिंधु हो जाएगी। ऐसे ही अहं का पेट फट जाएगा। तब अहं हटते ही जीवात्मा परमात्मा से एक हो जाएगा।
जिस तरह पानी की एक बूँद वाष्पीभूत होती है तो वह तेरह सौ गुनी अधिक शक्तिशाली हो जाती है। ऐसे ही प्राणायाम, ध्यान और जप से प्राणशक्ति, सूक्ष्म करने पर आपका मन प्रसन्न, निर्मल और सूक्ष्म होता है। प्राण एक ऐसी शक्ति है जो सारे विश्व को संचालित करती है। बीजों का अंकुरण तथा पक्षियों का किलौल प्राणशक्ति से ही होता है। यहाँ तक कि मानुषी एवं दैवी सृष्टि भी प्राणशक्ति के प्रभाव से ही संचालित एवं जीवित रहती है। ग्रह-नक्षत्र भी प्राणशक्ति से ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होकर कार्य करते हैं अर्थात् प्राणशक्ति जितनी स्थूल होगी उतनी ही साधारण होगी और जितनी सूक्ष्म होगी उतनी ही महत्त्वपूर्ण होगी।
संसार का सार शरीर है शरीर का सार इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों का सार मन है और मन का सार प्राण है। अगर प्राण निकल जाए तो तुम्हारे हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि होते हुए भी तुम कुछ नहीं कर पाते। प्राण निकलने पर आदमी भीतर बाहर ठप्प हो जाता है। प्राण जितने स्वस्थ होंगे, आदमी उतना ही स्वस्थ और तंदरूस्त रहेगा। जैसे कोई रोगी अगर तरूण है तो उसका रोग शीघ्रता से दूर होगा तथा शल्यक्रिया के घाव शीघ्रता से भरेंगे। वृद्ध है तो देर से भरेंगे क्योंकि उसकी प्राणशक्ति वृद्धावस्था के कारण मंद हो जाती है। जो योगी लोग हैं, उनकी उम्र अधिक होने पर भी साधारण युवान की अपेक्षा उनकी रोगप्रतिकारक क्षमता अधिक होती है क्योंकि प्राणायाम आदि के माध्यम से वृद्धावस्था में भी वे अपनी प्राणशक्ति को जवान की भाँति सँभाले रहते हैं।
प्रत्येक धर्म के उपदेशक अथवा नेता व्यक्ति जो कि भाषण या उपदेश देते हैं अथवा प्रभावशाली व्यक्तित्व रखते हैं उनके पीछे भी प्राणशक्ति की सूक्ष्मता का ही प्रभाव रहता है।
प्राणशक्ति नियंत्रित और तालबद्ध होती है तो आपका मन प्रसन्न और नियंत्रित रहता है। जितने अशों में आपका मन नियंत्रित एवं प्रसन्न तथा प्राणशक्ति तालबद्ध रहती है उतने ही अंशों में आपके विचार उन्नत एवं व्यक्तित्व प्रभावशाली दिखता है।
बजाज कम्पनी वाले जमनादास बजाज के दामाद श्रीमन्नारायण गुजरात के गवर्नर रह चुके हैं। वे एक बार रिसर्च की दुनियाँ में बहुत सारे सुंदर आविष्कार करने वाले आइन्स्टीन से मिलने गये और उनसे पूछाः "आपकी उन्नति का क्या रहस्य है जिससे आपका विश्व के इतने आदरणीय वैज्ञानिक हो गये ?"
आइन्स्टीन ने स्नेह से श्रीमन्नारायण का हाथ पकड़ा और वे उन्हें अपने प्राइवेट कक्ष में ले गये। उस कमरे में फर्नीचर नहीं था। उसमें ऐहिक आकर्षण पैदा करके आदमी को धोखे में गुमराह करने वाले नाचगान के टी.वी., रेडियो आदि साधन नहीं थे अपितु वहाँ भूमि पर एक साफ सुथरी चटाई बिछी थी। उस पर एक आसन था और ध्यान करने के लिए सामने दीवार पर एक प्रतिमा, मूर्ति थी। आइन्स्टीन ने कहाः
"मेरे विकास का मूल कारण यही है कि मैं प्रतिदिन यहाँ ध्यान करता हूँ।"
ध्यान से मन एकाग्र होता है। प्राण तालबद्ध चलते हैं। प्राणायाम करने से भी प्राप्त तालबद्ध होकर मन की एकाग्रता में वृद्धि करते हैं। दुनिया के जितने भी प्रभावशाली उपदेशक, प्रचारक आदि हो गये हैं, चाहे वे राम हों, कृष्ण हों, मोहम्मद हों, ईसा हों, कबीर हों, नानक हों, इनका प्रभाव आमजनता पर इसलिए पड़ा कि उन्होंने धारणाशक्ति का अवलम्बन, बंदगी, प्रार्थना आदि का अवलम्बन लेकर जाने-अनजाने में अपनी प्राणशक्ति का विकास कर लिया था।
भगवान सबमें उतने का उतना ही है और शरीर का मसाला भी सबके पास करीब-करीब एक जैसा ही है। रक्त, हाड-माँस, श्वास लेने के लिए नाक और देखने की आँखे ये साधन तो एक से ही हैं फिर भी एक आदमी एकाध साधारण नौकरी करना चाहता है तो उसको मिलती नहीं और दूसरा आदमी बड़ी ऊँची कुर्सी पर होकर त्यागपत्र दे देता है तो भी उसकी दूसरी ऊँची नौकरी मिल जाती है। इसमें आकाश पाताल में बैठकर देवी-देवता भाग्य में परिवर्तन नहीं करते। वह तो तुम्हारा मन जितना एकाग्र होता है तथा प्राणों की रीधम जितनी तालबद्ध होती है उतना ही व्यवहार में तुम सुयोग्य बन जाते हो।
तुलसीदास जी ने कहा हैः
को काहू को नहीं सुख दुःख करि दाता।
निज कृत करम भोगत ही भ्राता।।
(स्रोत : शीघ्र ईश्वरप्राप्ति )
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