रविवार, मई 30, 2010

भोजन कैसा करें ?

सुखी रहने के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक है। शरीर स्वस्थ तो मन स्वस्थ। शरीर की तंदुरूस्ती भोजन, व्यायाम आदि पर निर्भर करती है। भोजन कब एवं कैसे करें, इसका ध्यान रखना चाहिए। यदि भोजन करने का सही ढंग आ जाय तो भारत में कुल प्रयोग होने वाले खाद्यान्न का पाँचवाँ भाग बचाया जा सकता है।
भोजन नियम से, मौन रहकर एवं शांत चित्त होकर करो। जो भी सादा भोजन मिले, उसे भगवान का प्रसाद समझकर खाओ। हम भोजन करने बैठते हैं तो भी बोलते रहते हैं।
 'पद्म पुराण' में आता है कि 'जो बातें करते हुए भोजन करता है, वह मानों पाप खाता है।' कुछ लोग चलते-चलते अथवा खड़े-खड़े जल्दबाजी में भोजन करते हैं। नहीं ! शरीर से इतना काम लेते हो, उसे खाना देने के लिए आधा घंटा, एक घंटा दे दिया तो क्या हुआ ? यदि बीमारियों से बचना है तो खूब चबा-चबाकर खाना खाओ। एक ग्रास को कम से कम 32 बार चबायें। एक बार में एक तोला (लगभग 11.5 ग्राम) से अधिक दूध मुँह में नहीं डालना चाहिए। यदि घूँट-घूँट करके पियेंगे तो एक पाव दूध भी ढाई पाव जितनी शक्ति देगा। चबा-चबाकर खाने से कब्ज दूर होती है, दाँत मजबूत होते हैं, भूख बढ़ती है तथा पेट की कई बीमारियाँ भी ठीक हो जाती हैं।
भोजन पूर्ण रूप से सात्त्विक होना चाहिए। राजसी एवं तामसी आहार शरीर एवं मन बुद्धि को रूग्न तथा कमजोर करता है। भोजन करने का गुण शेर से ग्रहण करो। न खाने योग्य चीज को वह सात दिन तक भूखा होने पर भी नहीं खाता। मिर्च-मसाले कम खाने चाहिए। मैं भोजन पर इसलिए जोर देता हूँ क्योंकि भोजन से ही शरीर चलता है। जब शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तब साधना कहाँ से होगी ? भोजन का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। इसीलिए कहते हैं- 'जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।' अतः सात्त्विक एवं पौष्टिक आहार ही लेना चाहिए।
मांस, अण्डे, शराब, बासी, जूठा, अपवित्र आदि तामसी भोजन करने से शरीर एवं मन-बुद्धि पर घातक प्रभाव पड़ता है, शरीर में बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। मन तामसी स्वभाववाला, कामी, क्रोधी, चिड़चिड़ा, चिंताग्रस्त हो जाता है तथा बुद्धि स्थूल एवं जड़ प्रकृति की हो जाती है। ऐसे लोगों का हृदय मानवीय संवेदनाओं से शून्य हो जाता है।
खूब भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। खाने का अधिकार उसी का है जिसे भूख लगी हो। कुछ नासमझ लोग स्वाद लेने के लिए बार-बार खाते रहते हैं। पहले का खाया हुआ पूरा पचा न पचा कि ऊपर से दुबारा ठूँस लिया। ऐसा नहीं करें। भोजन स्वाद लेने की वासना से नहीं अपितु भगवान का प्रसाद समझकर स्वस्थ रहने के लिए करना चाहिए।
बंगाल का सम्राट गोपीचंद संन्यास लेने के बाद जब अपनी माँ के पास भिक्षा लेने आया तो उसकी माँ ने कहाः "बेटा ! मोहनभोग ही खाना।" जब गोपीचन्द ने पूछाः "माँ ! जंगलों में कंदमूल-फल एवं रूखे-सूखे पत्ते मिलेंगे, वहाँ मोहनभोग कहाँ से खाऊँगा ?" तब उसकी माँ ने अपने कहने का तात्पर्य यह बताया कि "जब खूब भूख लगने पर भोजन करेगा तो तेरे लिए कंदमूल-फल भी मोहनभोग से कम नहीं होंगे।"
चबा-चबाकर भोजन करें, सात्त्विक आहार लें, मधुर व्यवहार करें, सभी में भगवान का दर्शन करें, सत्पुरूषों के सान्निध्य में जाकर आत्मज्ञान को पाने की इच्छा करें तथा उनके उपदेशों का भलीभाँति मनन करें तो आप जीते-जी मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं।

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शनिवार, मई 29, 2010

'जिसने मन जीता, उसने जग जीता'


                 जब तक मन नहीं मरा, तब तक वेदान्त का ज्ञान अच्छा नहीं लगता। विद्यारण्य स्वामी अपनी पुस्तक 'जीवन्मुक्त विवेक' में कहते हैं कि 'सहस्र अंकुरों, टहनियों और पत्तोंवाले संसाररूपी वृक्ष की जड़ मन ही है। यह आवश्यक है कि संकल्प को दबाने के लिए मन का रक्त बलपूर्वक सुखा देना चाहिए, उसका नाश कर देना चाहिए। ऐसा करने से यह संसाररूपी वृक्ष सूख जायेगा।'

                   वसिष्ठजी कहते हैं- 'मन का स्वच्छंद होना ही पतन का कारण है एवं उसका निग्रह होना ही उन्नति का कारण है। अतः अनेक प्रकार की अशांति के फलदाता संसाररूपी वृक्ष को जड़ से उखाड़ने का तथा अपने मन को वश करने का उपाय केवल मनोनिग्रह ही है।
 
                   हृदयरूपी वन में फन उठाकर बैठा साँप मन है। इसमें संकल्प-विकल्परूपी घातक विष भरे होते हैं। ऐसा मनरूपी साँप जिसने मारा है, उस पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा की तरह पूर्ण हुए निर्विकार पुरूष को मैं नमस्कार करता हूँ।
 
                    ज्ञानी का मन नाश को प्राप्त होता है परंतु अज्ञानी का मन उसे बाँधने वाली एक जंजीर है। जब तक परम तत्त्व के दृढ़ अभ्यास से अपने मन को जीता नहीं जाता, तब तक वह आधी रात में नृत्य करने वाले प्रेत, पिशाच आदि की तरह नाचता रहता है।
 
                   वर्तमान परिवर्तनशील जीवन में मनुष्य को सत्ता एवं प्रभुता से प्रीति हो गयी है। इसका मूल कारण है, अपने में अपूर्णता का अनुभव करना। 'मैं शरीर हूँ' यह भावना मिट जाने से देह की आसक्ति हट जाती है। देह में आसक्ति हट जाने से देह तथा उससे सम्बन्धित पदार्थों और सम्बन्धों में किंचित् भी ममता नहीं रहती।
 
                   जिसके चित्त से अभिमान नष्ट हो गया, जो संसार की वस्तुओं में मैं-मेरा का भाव नहीं रखता उसके मन में वासनाएँ कैसे ठहर सकती हैं ? उसकी भोग-वासनाएँ शरद ऋतु के कमल के फूल की तरह नष्ट हो जाती हैं। जिसकी वासनाएँ नष्ट हो गयीं वह मुक्त ही तो है।
 
                    जो हाथ से दबाकर, दाँतों से दाँतों को भींचकर, कमर कसकर अपने मन-इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं, वे ही इस संसार में बुद्धिमान एवं भाग्यवान है। उनकी ही गिनती देवपुरूषों में होती है।
                    इस संसाररूपी वन का बीज चित्त है। जिसने इस बीज को नष्ट कर लिया, उसे फिर कोई भी भय-बाधा नहीं रहती। जैसे, केसरी सिंह जंगल के विभिन्न प्रकार के खूँखार प्राणियों के बीच भी निर्भय होकर विचरता है, उसी प्रकार वह पुरूष भी संसार की विघ्न-बाधाओं, दुःख-सुख तथा मान-अपमान के बीच भी निर्भय एवं निर्द्वन्द्व होकर आनंदपूर्वक विचरण करता है।
 
                   सभी लोग सदा सुखी, आनंदित एवं शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं परंतु अपने मन को वश में नहीं करते। मन को वश करने से ये सभी वस्तुएँ सहज में ही प्राप्त हो जाती हैं परंतु लोग मन को वश न करके मन के वश हो जाते हैं। जो मन में आया वही खाया, मन में आया वही किया। संत एवं शास्त्र सच्चा मार्ग बताते हैं परंतु उनके वचनों आदर-आचरण नहीं करते और मन के गुलाम हो जाते है। परंतु जो संत एवं शास्त्र के ज्ञान को पूरी तरह से पचा लेता है वह मुक्त हो जाता है। वह सिर्फ मन का ही नहीं अपितु त्रिलोकी का स्वामी हो जाता है।
 
                   अतः महापुरूषों द्वारा बतायी हुई युक्तियों से मन को वश में करो। 'जिसने मन जीता, उसने जग जीता'। क्योंकि जगत का मूल मन ही है। जब मन अमनीभाव को प्राप्त होगा तब तुम्हारा जीवन सुखमय, आनंदमय, परोपकारमय हो जायगा।

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बुधवार, मई 26, 2010

सावधान ! प्रभु के प्‍यारे सावधान !

यह समस्त दुनिया तो एक मुसाफिरखाना (सराय)  है। दुनियारूपी सराय में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहा करो। जैसे कमल का फूल पानी में रहता है परंतु पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं ठहरती, उसी प्रकार संसार में रहो।


तुलसीदासजी कहते हैं-

तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग।

हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।

जैसे नौका में कई लोग चढ़ते, बैठते और उतरते हैं परंतु कोई भी उसमें ममता या आसक्ति नहीं रखता, उसे अपना रहने का स्थान नहीं समझता, ऐसे ही हम भी संसार में सबसे हिल-मिलकर रहे परंतु संसार में आसक्त न बनें। जैसे, मुसाफिरखाने में कई चीजें रखी रहती हैं किंतु मुसाफिर उनसे केवल अपना काम निकाल सकता है, उन्हें अपना मानकर ले नहीं जा सकता। वैसे ही संसार के पदार्थों का शास्त्रानुसार उपयोग तो करो किंतु उनमें मोह-ममता न रखो। वे पदार्थ काम निकालने के लिए हैं, उनमें आसक्ति रखकर अपना जीवन बरबाद करने के लिए नहीं हैं।


सपने के संसार पर, क्यों मोहित किया मन मस्ताना है ?

घर मकान महल न अपने, तन मन धन बेगाना है,

चार दिनों का चैत चमन में, बुलबुल के लिए बहाना है,

आयी खिजाँ हुई पतझड़, था जहाँ जंगल, वहाँ वीराना है,

जाग मुसाफिर कर तैयारी, होना आखिर रवाना है,


दुनिया जिसे कहते हैं, वह तो स्वयं मुसाफिरखाना है।

अपना असली वतन आत्मा है। उसे अच्छी तरह से जाने बिन शांति नहीं मिलेगी और न ही यह पता लगेगा कि 'मैं कौन हूँ'। जिन्होंने स्वयं को पहचाना है, उन्होंने ईश्वर को जाना है।

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सोमवार, मई 24, 2010

साधक ऐसा चाहिये ..........

अनेक संतों, ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जन्म की बड़ी महिमा गायी है। भगवान श्रीराम ने भी कहाः बड़े भाग मानुष तन पावा। देवयोनियों में सिर्फ भोग-सामग्रियाँ हैं। पशुयोनियों में दुःख और मूढ़ता है। एक मनुष्ययोनि ही ऐसी है, जिसमें सब दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पाने का अवसर मिलता है।


सारे दुःखों का मूल कारण आत्म-अज्ञान है। इस अज्ञान को मिटाने के लिए आत्मविचार करो। स्वयं से बार बार पूछो कि 'मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? और कहाँ जाना है ?' इस प्रकार आत्मचिंतन करते-करते अज्ञान कम होने लगेगा और आपका वास्तविक सुख प्रकट होने लगेगा।

जगत के पदार्थों की तृष्णा मत करो। तृष्णा का पेट बहुत बड़ा होता है, वह कभी नहीं भरता। तृष्णा को संतोष से मिटाओ। यथाप्राप्त में संतोष और ईश्वरप्राप्ति की इच्छा यह परम कल्याण का मार्ग है। जैसे आकाश प्रत्येक स्थान पर है, ऐसे ही ईश्वर सर्वत्र है. उसकी अपार शक्ति हर जगह भरपूर है। आवश्यकता है ऐसी दृष्टि की जो उसे पहचान सके। संत नामदेव ने कुत्ते में भगवान का दर्शन किया। उसे घी और रोटी खिलायी। चित्त की सब इच्छाएँ भगवान को अर्पित कर दो। जब घोड़े पर सवार हो गये तो फिर इच्छारूपी बोझा अपने सिर पर क्यों रहने देते हो ? निर्वासनिक होकर सत्कर्म करो। ऐसा करने पर परमात्मा स्वयं तुम्हारे पास दौड़ता हुआ आयेगा।

प्रतिदिन रात को सोने से पहले और सुबह उठते ही भगवान से प्रार्थना करो। भगवन्नाम का जप करो। जो भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए भगवान भी कष्ट सहन करते हैं। जिसकी भगवान में प्रीति है वह उनके उस धाम में पहुँचेगा, जहाँ पहुँचने पर फिर से जन्म-मृत्यु के महादुःख को नहीं सहना पड़ता।

भगवान का स्मरण करते हुए प्रतिदिन अपने व्यवहार में सुधार, पवित्रता और विवेक को बढ़ाओ। आहार, निद्रा, भोग आदि में मनुष्य और पशु में समानता है। उन्हें संयोग और वियोग पर होने वाले सुख-दुःख की अवस्था भी दोनों में है। फिर भी मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है, ऐसा क्यों ? क्योंकि उसमें एक ऐसी विशेष शक्ति है जो किसी भी दूसरे प्राणी में नहीं है। वह है विवेकशक्ति। इसके प्रभाव से मनुष्य यह जान सकता है कि सत्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? ....परंतु यदि मनुष्य इस विवेकशक्ति का आदर नहीं करता और भोगों में ही अपने जीवन को समाप्त कर देता है तो फिर उसमें और पशु पक्षियों में कोई विशेष अंतर नहीं है। उसकी शारीरिक रचना भले भिन्न हो फिर भी वह पशु ही है।

जिसके पास विवेक नहीं है वह कभी भी पूर्ण सफल और सुखी नहीं हो सकता। सत्-असत् को पहचान कर सत् को अपनाओ। मैं देह हूँ.... संसार की वस्तुएँ मेरी हैं....यह विचार असत् है। इस मिथ्या अभिमान से सत् में स्थिति नहीं होगी। कैसी भी चिंता न करो क्योंकि चिंता चिता से बढ़कर है। चिता तो मुर्दे को जलाती है परंतु चिंता जीवित मनुष्य को ही भस्म कर देती है।

भगवान का नाम जपने से मंगल होता है क्योंकि भगवान मंगलस्वरूप हैं। जैसी प्रीति संसार के नश्वर पदार्थों में रखते हो, ऐसी यदि शाश्वत परमात्मा में रखोगे तो संसारसागर को सुगमता से पार कर लोगे। गृहस्थाश्रम में नीति व मर्यादा के मार्ग पर चलने से सुख प्राप्त होता है।

साधक को चाहिए कि वह अपने विवेक का आधार लेकर यह बात समझे कि उसे मनुष्य शरीर क्यों मिला है और उसका सदुपयोग कैसे किया जाय ? यदि विवेक को आगे रखकर संसार में रहोगे तो संसार में जो सार वस्तु है उस परमानंदस्वरूप परमात्मा को, वास्तविक सुख को पाने में सफल हो जाओगे।

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रविवार, मई 23, 2010

ऐसा कोई सुखभोग नहीं;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;


भोगे रोग भयं। भोगों में रोगों का डर रहता ही है। भोग भोगने का परिणाम रोग ही होता है। भोग बुरी बला है। भोग भोगने के पश्चात् चित्त कदापि तृप्त नहीं होता, सदैव व्याकुल रहता है। भोगों का सुख अनित्य होता है। दिल चाहता है कि बार-बार भोग भोगूँ। अतः मन में शांति नहीं रहती। जैसे घी को अग्नि में डालते समय पहले तो अग्नि बुझने लगती है, परंतु बाद में भड़क उठती है, वैसे ही भोग भी हैं। भोगते समय थोड़ी प्रसन्नता एवं तृप्ति होती है, परंतु बाद में भोग-वासना भड़ककर मनुष्य को जलाती, मनुष्य को सदैव अपना गुलाम बनाकर रखना चाहती है। 'गुरूग्रन्थ साहिब' के राग आसा, वाणी श्री रविदास शब्द में आता हैः
म्रिग मीन भ्रिंग पतंग कुंचर, एक दोख बिनास।
पंच दोख असाध जा महि, ता कि केतक आस।।
श्री रविदासजी फरमाते हैं  कि 'हिरन केवल शब्दों पर रीझकर शिकारी के वश में हो जाता है, मछली खाने के लोभ में धीवर के जाल में फँसती है, भ्रमर फूल की सुगंध पर आसक्त होकर अपनी जान गँवा देता है, पतंग दीपक की ज्योति पर मस्त होकर अपने को जलाकर समाप्त कर देता है, हाथी काम के वश  होकर गड्ढे में गिरता है। अर्थात् मनुष्येतर प्राणी एक-एक विषय के वश में होकर स्वयं को नष्ट कर देता है, जबकि मनुष्य तो पाँचों विषयों में फँसा हुआ है। अतः उसके बचने की कौन सी आशा होगी ? अवश्य ही वह नष्ट होगा।
भोग को सदैव रोग समझो। विषय-विकारों में डूबकर सुख-शांति की अभिलाषा कर रहे हो। शोक तुम्हारे ऐसे जीने पर !
स्मरण रखो कि तुम्हें धर्मराज के समक्ष आँखें नीची करनी पड़ेंगी। कबीर साहब ने फरमाया हैः
धर्मराय जब लेखा माँगे, क्या मुख ले के जायेगा ?
कहत कबीर सुनो रे साधो, साध संगत तर जायेगा।।
भूलो नहीं कि वहाँ कर्म का प्रत्येक अंश प्रकट होगा, प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी रहेगा। तुम्हें वहाँ अपना सिर नीचा करना पड़ेगा। अतः सोचो, अभी भी समय गया नहीं है। सामी साहब कहते हैं कि 'जो समय बीत गया सो बीत गया, शेष समय तो अच्छा आचरण करो। अपने अंतःकरण में अपने प्रियतम को देखो।' मनुष्य-देह वापस नहीं मिलेगी।
अतः आज अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लो कि मैं सत्पुरूषों के संग से, सत्शास्त्रों के अध्ययन से, विवेक एवं वैराग्य का आश्रय लेकर किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरूष की शरण में जाकर तथा अपने कर्त्तव्यों का पालन करके इस मनुष्य-योनि में ही मोक्ष प्राप्त करूँगा, इस अमूल्य मनुष्य जन्म को विषय भोगों में बरबाद नहीं करूँगा, इस मानव जीवन को सार्थक बनाऊँगा तथा आत्मज्ञान (मोक्ष) प्राप्त कर जन्म-मरण के चक्र से निकल जाऊँगा, जीवन को सफल बनाऊँगा।

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शुक्रवार, मई 21, 2010

सुखी होने का नुस्‍खा

जिस प्रकार पानी में दिखने वाला सूर्य का प्रतिबिम्ब वास्तविक सूर्य नहीं है अपितु सूर्य का आभासमात्र है, उसी प्रकार विषय-भोगों में जो आनंद दिखता है वह आभास मात्र ही है, सच्चा आनंद नहीं है। वह ईश्वरीय आनंद का ही आभासमात्र है। एक परब्रह्म परमेश्वर ही सत्, चित् तथा आनंदस्वरूप है। वही एक तत्त्व किसी में सत् रूप में भास रहा है, किसी में चेतनरूप में तो किसी में आनंदरूप में। किंतु जिसका हृदय शुद्ध है उसे ईश्वर एक ही अभेदरूप में प्रतीत होता है। वह सत् भी स्वयं है, चेतन भी स्वयं है और आनंद भी स्वयं है।
स्वामी रामतीर्थ से एक व्यक्ति ने प्रार्थना कीः "स्वामी जी ! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं दुनिया का राजा बन जाऊँ।"
स्वामी रामतीर्थः "दुनिया का राजा बनकर क्या करोगे ?"
"व्यक्तिः "मुझे आनंद मिलेगा, प्रसन्नता होगी।"
स्वामी रामतीर्थ बोलेः "समझो, तुम राजा हो गये परंतु राजा होने के बाद भी कई दुःख आयेंगे क्योंकि तुम ऐसे पदार्थों से सुखी होना चाहते हो जो नश्वर हैं। वे सदा किसी के पास नहीं रहते तो तुम्हारे पास कहाँ से रहेंगे ? इससे बढ़िया, यदि तुम नश्वर पदार्थों से सुखी होने की इच्छा ही छोड़ दो तो इसी क्षण परम सुखी हो जाओगे। तुम्हें अपने भीतर आनंद के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु मिलेगी ही नहीं। जिस आनंद की प्राप्ति के लिए तुम राज्य माँग रहे हो, उससे अधिक आनंद तो वस्तुओं अथवा परिस्थितियों की इच्छा निवृत्ति में है।"
हम भोगों को नहीं भोगते बल्कि भोग ही हमें भोग डालते हैं। क्षणिक सुख के लिए हम बल, बुद्धि, आयु और स्वास्थ्य को नष्ट कर देते हैं। वह क्षणिक सुख भी भोग का फल नहीं होता बल्कि हमारे मन की स्थिरता तथा भोग को पाने की इच्छा के शांत होने का परिणाम होता है। वह आनंद हमारे आत्मा का होता है, भोग भोगने का नहीं।
इच्छा की निवृत्ति से मन शांत होता है और आनंद मिलता है। अतः इच्छाओं और वासनाओं का त्याग करो तो मन शांत होगा तथा अक्षय आनंद की प्राप्ति होगी। इच्छाओं को त्यागने में ही सच्ची शांति है।
संतोषी व्यक्ति ही सुखी रह सकता है। भले ही कोई व्यक्ति करोड़पति क्यों न हो किंतु यदि उसे संतोष नहीं हो तो वह कंगाल है। संतोषी व्यक्ति ही सबसे अधिक धनवान है। उसी को शांति प्राप्त होती है, जिसे प्राप्त वस्तु अथवा परिस्थिति में संतोष होता है।
इच्छा-वासनाओं का त्याग और प्राप्त वस्तुओं में संतुष्टि का अवलंबन मनुष्य को महान बना देता है। अतः वासनाओं का त्याग करके प्राप्त वस्तुओं में संतुष्ट रहो तथा अपने मन को परमात्मा में लगाओ तो आप सुख और आनंद को बाँटने वाले बन सकते हो।

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गुरुवार, मई 20, 2010

कुसंग से बचो, सत्संग करो

दो नाविक थे। वे नाव द्वारा नदी की सैर करके सायंकाल तट पर पहुँचे और एक-दूसरे से कुशलता का समाचार एवं अनुभव पूछने लगे। पहले नाविक ने कहाः "भाई ! मैं तो ऐसा चतुर हूँ कि जब नाव भँवर के पास जाती है, तब चतुराई से उसे तत्काल बाहर निकाल लेता हूँ।" तब दूसरा नाविक बोलाः "मैं ऐसा कुशल नाविक हूँ कि नाव को भँवर के पास जाने ही नहीं देता।"
अब दोनों में से श्रेष्ठ नाविक कौन है ? स्पष्टतः दूसरा नाविक ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह भँवर के पास जाता ही नहीं। पहला नाविक तो किसी न किसी दिन भँवर का शिकार हो ही जायगा।
इसी प्रकार सत्य के मार्ग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए विषय विकार एवं कुसंगरूपी भँवरों के पास न जाना ही श्रेयस्कर है।
अगर आग के नजदीक बैठोगे जाकर, उठोगे एक दिन कपड़े जलाकर।
माना कि दामन बचाते रहे तुम, मगर सेंक हरदम लाते रहे तुम।।
कोई जुआ नहीं खेलता, किंतु देखता है तो देखते-देखते वह जुआ खेलना भी सीख जायगा और एक समय ऐसा आयगा कि वह जुआ खेले बिना रह नहीं पायेगा।
इसी प्रकार अन्य विषयों के संदर्भ में भी समझना चाहिए और विषय विकारों एवं कुसंग से दूर ही रहना चाहिए। जो विषय एवं कुसंग से दूर रहते हैं, वे बड़े भाग्यवान हैं।
जिस प्रकार धुआँ सफेद मकान को काला कर देता है, उसी प्रकार विषय-विकार एवं कुसंग नेक व्यक्ति का भी पतन कर देते है।
'सत्संग तारे, कुसंग डुबोवे।'
जैसे हरी लता पर बैठने वाला कीड़ा लता की भाँति हरे रंग का हो जाता है, उसी प्रकार विषय-विकार एवं कुसंग से मन मलिन हो जाता है। इसलिए विषय-विकारों और कुसंग से बचने के लिए संतों का संग अधिकाधिक करना चाहिए। कबीर जी ने कहाः
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत।।
कबीर संगत साध की, दिन-दिन दूना हेत।
साकत कारे कानेबरे, धोए होय न सेत।।
अर्थात् संत-महापुरूषों की ही संगति करनी चाहिए क्योंकि वे अंत में निहाल कर देते हैं। दुष्टों की संगति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनके संपर्क में जाते ही मनुष्य का पतन हो जाता है।
संतों की संगति से सदैव हित होता है, जबकि दुष्ट लोगों की संगति गुणवान मनुष्यों का भी पतन हो जाता है।

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सोमवार, मई 17, 2010

सदगुरु के अनुभव का ध्यान-प्रसाद

सदगुरू सत्पात्र शिष्य को अपना हृदय खोलकर आत्मिक अनुभूति का प्रसाद दे रहे हैं-
 
स्वामी रामतीर्थ के बोलने का स्वभाव था किः "मैं बादशाह हूँ, मैं शाहों का शाह हूँ।" अमेरिका के लोगों ने पूछाः "आपके पास है तो कुछ नहीं, सिर्फ दो जोड़ी गेरूए कपड़े हैं। राज्य नहीं, सत्ता नहीं, कुछ नहीं, फिर आप शाहों के शाह कैसे ?"

रामतीर्थ ने कहाः "मेरे पास कुछ नहीं इसलिए तो मैं बादशाह हूँ। तुम मेरी आँखों में निहारो.... मेरे दिल में निहारो। मैं ही सच्चा बादशाह हूँ। बिना ताज का बादशाह हूँ। बिना वस्तुओं का बादशाह हूँ। मुझ जैसा बादशाह कहाँ ? जो चीजों का, विषयों का गुलाम है उसे तुम बादशाह कहते हो पागलों ! जो अपने आप में आनन्दित है वही तो बादशाह है। विश्व का सम्राट तुम्हारे पास से गुजर रहा है। ऐ दुनियाँदारों ! वस्तुओं का बादशाह होना तो अहंकार की निशानी है लेकिन अपने मन का बादशाह होना अपने प्रियतम की खबर पाना है। मेरी आँखों में तो निहारो ! मेरे दिल में तो गोता मार के जरा देखो ! मेरे जैसा बादशाह और कहाँ मिलेगा ? मैं अपना राज्य, अपना वैभव बिना शर्त के दिये जा रहा हूँ.... लुटाये जा रहा हूँ।"

जो स्वार्थ के लिए कुछ दे वह तो कंगाल है लेकिन जो अपना प्यारा समझकर लुटाता रहे वही तो सच्चा बादशाह है।

'मुझ बादशाह को अपने आपसे दूरी कहाँ ?'

किसी ने पूछाः "तुम बादशाह हो ?"

"हाँ...."

"तुम आत्मा हो ?"

"हाँ।"

"तुम God हो?"

"हाँ....। इन चाँद सितारों में मेरी ही चमक है। हवाओं में मेरी ही अठखेलियाँ हैं। फूलों में मेरी ही सुगन्ध और चेतना है।"

"ये तुमने बनाये ?"

"हाँ.... जबसे बनाये हैं तब से उसी नियम से चले आ रहे हैं। यह अपना शरीर भी मैंने ही बनाया है, मैं वह बादशाह हूँ।"

जो अपने को आत्मा मानता है, अपने को बादशाहों की जगह पर नियुक्त करता है वह अपने बादशाही स्वभाव को पा लेता है। जो राग-द्वेष के चिन्तन में फँसता है वह ऐसे ही कल्पनाओं के नीचे पीसा जाता है।

मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ। आत्मा ही तो बादशाह है.... बादशाहों का बादशाह है। सब बादशाहों को नचानेवाला जो बादशाहों का बादशाह है वह आत्मा हूँ मैं।

अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

मुक्ति और बन्धन तन और मन को होते है। मैं तो सदा मुक्त आत्मा हूँ। अब मुझे कुछ पता चल रहा है अपने घर का। मैं अपने गाँव जाने वाली गाड़ी में बैठा तब मुझे अपने घर की शीतलता आ रही है। योगियों की गाड़ी मैं बैठा तो लगता है कि अब घर बहुत नजदीक है। भोगियों की गाड़ियों में सदियों तक घूमता रहा तो घर दूर होता जा रहा था। अपने घर में कैसे आया जाता है, मस्ती कैसे लूटी जाती है यह मैंने अब जान लिया।

मस्तों के साथ मिलकर मस्ताना हो रहा हूँ।
शाहों के साथ मिलकर शाहाना हो रहा हूँ।।

कोई काम का दीवाना, कोई दाम का दीवाना, कोई चाम का दीवाना, कोई नाम का दीवाना, लेकिन कोई कोई होता है जो राम का दीवाना होता है।

दाम दीवाना दाम न पायो। हर जन्म में दाम को छोड़कर मरता रहा। चाम दीवाना चाम न पायो, नाम दीवाना नाम न पायो लेकिन राम दीवाना राम समायो। मैं वही दीवाना हूँ।

ऐसा महसूस करो कि मैं राम का दीवाना हूँ। लोभी धन का दीवाना है, मोही परिवार का दीवाना है, अहंकारी पद का दीवाना है, विषयी विषय का दीवाना है। साधक तो राम दीवाना ही हुआ करता है। उसका चिन्तन होता है किः

चातक मीन पतंग जब पिया बन नहीं रह पाय।
साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय ?

हम अपने साध्य तक पहुँचने के लिए जेट विमान की यात्रा किये जा रहे हैं। जिन्हें पसन्द हो, इस जेट का उपयोग करें, नहीं तो लोकल ट्रेन में लटकते रहें, मौज उन्हीं की है।

यह सिद्धयोग, यह कुण्डलिनी योग, यह आत्मयोग, जेट विमान की यात्रा है, विहंग मार्ग है। बैलगाड़ीवाला चाहे पच्चीस साल से चलता हो लेकिन जेटवाला दो ही घण्टों में दरियापार की खबरें सुना देगा। हम दरियापार माने संसारपार की खबरों में पहुँच रहे हैं।

ऐ मन रूपी घोड़े ! तू और छलांग मार। ऐ नील गगन के घोड़े ! तू और उड़ान ले। आत्म-गगन के विशाल मैदान में विहार कर। खुले विचारों में मस्ती लूट। देह के पिंजरे में कब तक छटपटाता रहेगा ? कब तक विचारों की जाल में तड़पता रहेगा ? ओ आत्मपंछी ! तू और छलांग मार। और खुले आकाश में खोल अपने पंख। निकल अण्डे से बाहर। कब तक कोचले में पड़ा रहेगा ? फोड़ इस अण्डे को। तोड़ इस देहाध्यास को। हटा इस कल्पना को। नहीं हटती तो ॐ की गदा से चकनाचूर कर दे।

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शुक्रवार, मई 14, 2010

एकाग्रता और भगवददर्शन



मनसश्चेन्द्रियाणां च ह्यैक्राग्यं परमं तपः।

तज्जयः सर्व धर्मेभ्यः स धर्मः पर उच्यते।।

'मन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही परम तप है। उनका जय सब धर्मों से महान है।'

(श्रीमद् आद्य शंकराचार्य)

तपः सु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः।

तमाम प्रकार के धर्मों का अनुष्ठान करने से भी एकाग्रतारूपी धर्म, एकाग्रतारूपी तप बड़ा होता है। हम लोग देखते हैं कि जिस जिस व्यक्ति के जीवन में जितनी एकाग्रता है वह उतने अंश में उस क्षेत्र में सफल होता है, फिर वह आईन्स्टीन का विज्ञान हो चाहे सॉक्रेटीज का तत्त्वचिन्तन हो, रामानुजाचार्य का भक्तिभाव हो चाहे शंकराचार्य का अद्वैतवाद हो, कबीर जी का अव्यक्त हो चाहे मीरा का गिरधर गोपाल हो। जिस विषय में जितने अंश में एकाग्रता होती है उतने ही अंश में उस व्यक्ति का जीवन उस विषय में चमकता है।

जिस मूर्ति को गौरांग निहारते थे उस जगन्नाथजी को औरों ने भी निहारा था। लेकिन गौरांग की इतनी एकाग्रता थी कि वे सशरीर उसी मूर्ति में समा गये। जिस मूर्ति को मीराजी देखती थी उस मूर्ति को और लोग भी देखते थे। लेकिन मीरा की एकाग्रता ने अदभुत चमत्कार कर दिया। धन्ना जाट ने सिलबट्टा पाया पण्डित से। जिस सिलबट्टे से पण्डित रोज भाँग रगड़ता था वही सिलबट्टा धन्ना जाट की दृष्टि में ठाकुरजी बना और पूजा में रखा गया। धन्ना जाट की इतनी एकाग्रता हुई कि ठाकुर जी को उसी सिलबट्टे में से प्रकट होना पड़ा। काले कुत्ते को अनेक यात्रियों ने देखा। नामदेव भी एक यात्री थे। अलग-अलग तम्बू लगाकर यात्री लोग भोजन बना रहे थे। कुत्ते को आया देखकर कोई बोलाः यह अपशकुन है। किसी ने कहाः काला कुत्ता तो शकुन माना जाता है। वे लोग कुत्ते की चर्चा कर रहे थे और इतने में कुत्ता नामदेव की रोटी लेकर भागा। कुत्ते में भी भगवान को निहारनेवाले भक्त नामदेव घी की कटोरी लेकर पीछे भागे। सबमें भगवान को निहारने की उनकी इतनी एकाग्रता थी, इतनी दृढ़ता थी कि उस कुत्ते में से भगवान को प्रकट होना पड़ा।

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सोमवार, मई 10, 2010

सदगुरु के अनुभव का ध्यान-प्रसाद

सदगुरू सत्पात्र शिष्य को अपना हृदय खोलकर आत्मिक अनुभूति का प्रसाद दे रहे हैं-

समता जीवन है। ईश्वरार्पणबुद्धि जीवन है। ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान ही सच्चा ज्ञान और सच्चे जीवन का प्रागट्य है। ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान ही वास्तविक जीवन का द्वार खोलता है। यह आत्मा परमात्मा है। यह आत्मा ब्रह्म है। यह आत्मा शुद्ध बुद्ध चिदघन चैतन्य है। यह आत्मा ही सब देवों का देव है, सर्व कालों का काल है। यह हमारा आत्मा ही परब्रह्म परमात्मा है। यह आत्मा ही जननियंता है। यही हमारे अन्तःकरण का नियमन कर रहा है। यही हमारी आँखों को देखने की शक्ति देता है। यही परमेश्वर हमारे साथ था, हमें पता न था। यही आनन्दकन्द हमारा आत्मा था हमें मालूम न था।

'मरने के बाद कहीं जाएँगे और परमेश्वर मिलेंगे' यह तो शुरूआत में बच्चों को थोड़ा-सा मोटा मोटा ज्ञान देने की व्यवस्था थी। जब बुद्धि सूक्ष्म होती है तो पता चलता हैः

जो बिछड़े हैं प्यारे से

दर बदर भटकते फिरते हैं।

हमारा यार है हममें

हमन को बेकरारी क्या ?

हमारा राम हमारा आत्मा है। हमारा श्याम हमारा आत्मा ही है। हमारा विट्ठल हमारा आत्मा ही है। वही आत्मा परमात्मा है। घड़े का आकाश ही महाकाश है। तरंग का जल ही सागर का जल है।

ऐसे ही चित्त में जो चेतना है, व्यापक ब्रह्माण्ड में वही की वही चेतना है।

ॐ.....आनन्द..... खूब आनन्द...

जो श्रीकृष्ण हैं वह तुम हो। जो श्रीराम हैं वह तुम हो। जो शिव हैं वह तुम हो। जो जगदम्बा हैं वह तुम हो। वे अपने चैतन्य स्वभाव को जानते हैं और हम नहीं जानते थे। अब जान लिया तो बन गया काम।

लाख चोर्यासी के चक्कर से थका, खोली कमर।

अब रहा आराम पाना, काम क्या बाकी रहा ?

खूब आनन्द.... मधुर आनन्द..... मधुर शान्ति.... आत्म शांति.....

परमात्म-प्रसाद में हम परितृप्त हो रहे है। अब हमें यह वासना नहीं रही कि हम मरकर भगवान के लोक में जाएँगे। यह बेवकूफी भी हमने छोड़ दी। मरने के बाद भगवान मिलेगा यह तो बालकों को सिखाया गया था और बालकों ने सिखाया था। ब्रह्मवेत्ता कभी ऐसा नहीं सिखाते कि मरने के बाद भगवान मिलेगा। अभी तू वह चैतन्य हैः तत्त्वमसि। तेरा ही स्वभाव है 'ॐ'कार गुंजाना। 'ॐ'कार तेरे आत्म-स्वभाव से निकलता है। इसलिए तू अभी चैतन्य है।

दुराचारी मन ने, पापाचारी इच्छाओं ने, भयभीत विचारों ने राग-द्वेष के तरंगों ने तुम्हें अपनी महिमा से वंचित रखा था। अब गुरू का ज्ञान पचाने का अधिकार हो रहा है इसलिए भय के विचार, राग-द्वेष की आग, विषमता की चेष्टाएँ आदि को विदा देकर देहाध्यास को छोड़। गुरू अपने परमात्म-भाव में स्थित होकर तुम्हें आत्मा में जगा रहे हैं जो वास्तव में सत्य है। यही सर्व सफलताओं की कुंजी है। 'मैं आत्मा हूँ' यह बिल्कुल हकीकत है। 'मैं चैतन्य हूँ' यह बिल्कुल सच्ची बात है। 'मेरा आत्मा ही परमात्मा है' बिल्कुल निःसन्देह है।

मैं अपने अनुभूत आत्मस्वभाव में जग रहा हूँ। देह की मान्यताओं से मैं मर रहा था और जन्म हो रहा था। अब आत्मा के स्वभाव से मैं अपने अमर स्वभाव में आ रहा हूँ।

शिष्य के ये अनुभवयुक्त वचन सुनकर गुरूवाणी भीतर से प्रकट हुईः

'हे पुत्र ! इस देहाध्यास ने तुझे चिर काल से बाँध रखा था। अब ॐकार का गुँजन करके देहाभिमान को भगाकर आत्म-अभिमान को जगा दे। काँटे से काँटा निकलता है। जीवभाव को हटाने के लिए अपने चैतन्य स्वभाव को, अपने आत्मस्वभाव को जगाओ। विकार और विषयों के आकर्षण को हटाने के लिए अपने आत्मानन्द को जगाओ। अपने आत्मा के सुख में सुखी हो जाओ तो बाहर का सुख तुम्हें क्यों बाँधेगा ? उसकी कहाँ ताकत है तुम्हें बाँधने की ? तुम्हीं बँध जाते थे वत्स ! अब तुम मुझ मुक्त आत्मा की शरण में आये हो तो तुम भी मुक्त हो जाओ। ले लो यह ॐकार की गुँजन और ज्ञान की कैंची। काट दो मोह-ममता के जाल को। तुम्हें बाँध सके या नर्कों में ले जा सके अथवा स्वर्ग में फँसा सके ऐसी ताकत किसी में भी नहीं। तुम ही नर्क और स्वर्ग के रास्ते बनाकर उसमें पचने और फँसने जाते थे, अज्ञान के कारण। अब ज्ञान के प्रसाद से तुम्हारा अज्ञान भाग गया। अगर थोड़ा रहा हो तो मार दो 'ॐ' की गदा फिर से। प्रकट कर दो अपना आनन्द। प्रकट कर दो अपनी मस्ती। प्रकट कर दो अपनी निर्वासनिकता। मुझे अब कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि सर्व मैं ही बना बैठा हूँ। मुझे नर्क का भय नहीं, स्वर्ग की लालसा नहींष मृत्यु मेरी होती नहीं। जन्म मेरा कभी था नहीं। मैं वह आत्मा हूँ।

तुम सब आत्मा ही हो। सब परमेश्वर हो। मैं भी वही हूँ। तुम भी वही हो। जो मैं हूँ वही तुम भी हो। जो तुम हो वह मैं हूँ।

हे किल्लोल करते पक्षी ! तुम भी चैतन्य देव हो। हे गगनगामी योगी ! तुम अपने चैतन्य स्वभाव को जानो। देह से जुड़कर तुम कब तक आकाशगमन करते रहोगे ? तुम तो चिदाकाश स्वरूप में विश्रान्ति पा लो।

हे आकाशचारी सिद्धों ! आकाश में विचरण करने वाले उत्तम कोटि के साधकों ! तुम अपने साध्य स्वभाव को जान लो। तुम तो धन्य हो ही जाओगे, तुम्हारी धन्यता का होना प्राकृतिक जीवों के लिए बहुत कुछ आशीर्वाद हो जाएगा।

हे सिद्धों ! तुम परम सिद्धता को पा लो। हे साधकों ! तुम परम साध्य को पा लो। परम साध्य तुम्हारा परमात्मा है न ! खूब मधुर अलौकिक अनुभूति में तुम गोता मारते जाओ। तुम अगर आनन्दस्वरूप न होते, सुखस्वरूप न होते तो अभी अपने आत्मस्वभाव की बात सुनते तुम इतने पवित्र, शांत और सुखस्वरूप नहीं हो सकते थे। तुम पहले से ही ऐसे थे। ज्यों-ज्यों भूल मिटती है त्यों-त्यों तुम्हें अपने स्वभाव की शांति और मस्ती आती है।

जय हो....! प्रभु तेरी जय हो....! हे गुरूदेव तुम्हारी जय हो....!

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गुरुवार, मई 06, 2010

मन मित्र- मन शत्रु

मन को अगर अच्छी तरह शिक्षित किया जाय तो वह हमारा बड़ा, भारी में भारी, ऊँचे में ऊँचा मित्र है। सारे विश्व में ऐसा कोई मित्र नहीं हो सकता। इसके विपरीत, मन हमारा भारी में भारी शत्रु भी है। मन जैसा शत्रु सारे विश्व में नहीं हो सकता। मन शत्रु क्यों है ?
मन अगर इन्द्रियों के विकारी सुखों में भटकता रहा तो चौरासी लाख योनियों में युगयुगान्तर तक हमें भटकना पड़ेगा। ऐसा वह खतरनाक शत्रु है।
मन मित्र कैसे है ?
मन अगर तप और परमात्मा के ध्यान की तरफ मुड़ गया तो वह ऐसा मित्र बन जाता है कि करोड़ों-करोड़ों जन्मों के अरबों-अरबों संस्कारों को मिटाकर, इसी जन्म में ज्ञानाग्नि जलाकर, आत्मा-परमात्मा की मुलाकात कराकर मुक्ति का अनुभव करा देता है।
इसलिए शास्त्र कहते हैं किः
मनः एव मनुष्याणां कारणं बन्धनमोक्षयोः।
हमारा मन ही हमारे बन्धन और मोक्ष का कारण बनता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
बन्धुरात्मानस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।

'अपने द्वारा संसार-समुद्र से अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है आप ही अपना शत्रु है।'
'जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियाँ नहीं जीती गई हैं, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।'
(भगवद् गीताः 6.5.6)

जब इन्द्रियाँ और मन अनात्म वस्तुओं में सत्यबुद्धि करके सुख पाने की मजदूरी करते हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका शत्रु है। जब मन और इन्द्रियाँ आत्मा-परमात्मा के सुख में अन्तर्मुख होती हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका मित्र है। हम जब विकारों का सुख लेते हैं तब हम अपने आपसे शत्रुता करते हैं और जब निर्विकारी सुख की ओर आते हैं तब हम अपने आपके मित्र हैं।
भगवान कहते हैं कि अपने आपको अधोगति की ओर नहीं ले जाना चाहिए। अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को परमात्मा की ओर ले जाना चाहिए। हम जब परमात्मा के विषय में सुनेंगे, उनकी महिमा और गुण सुनेंगे, उनके नाम का जप, ध्यान आदि करेंगे तब भीतर का सुख मिलेगा। भीतर का सुख मिलेगा तो हम आपके मित्र बन गये।
भीतर का सुख मिल जाता है लेकिन विकारी सुख में गिरने की पुरानी आदत है इसलिए बार-बार उधर चले जाते हैं। इसलिए हमें विवेक जगाना चाहिए, थोड़े नियम, थोड़े व्रत ले लेने चाहिए। व्रत ले लेते हैं तो मन धोखेबाजी कम करता है। सच्चा सुख पाने का आपका संकल्प नहीं होता, उसके लिए व्रत नहीं करते इसलिए मन और इन्द्रियाँ अपने पुराने अभ्यास के मुताबिक बुद्धि को वहीं घसीट ले जाते हैं। ऋतंभरा प्रज्ञावाले महापुरूषों का संग करने से अपनी मति में, बुद्धि में शक्ति बढ़ती है।
भगवान शिवजी पार्वती से कहते हैं-
उमा संत समागम सम और न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा उपजै नहीं गावहिं वेद पुरान।।

यह भी हरि की अहैतुकी कृपा है कि हमें ऊँचे में ऊँची चीज, ब्रह्मज्ञान का सत्संग सहज में मिल रहा है। जो हल्की चीज होती है उसके लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता है। जो ऊँची चीज होती है उसके लिए परिश्रम करो, सौ रूपये कमाओ फिर दारू खरीद सकते हो। शरीर के लिए दारू बिल्कुल आवश्यक नहीं है। पानी शरीर के लिए बहुत जरूरी है और वह मुफ्त में मिल जाता है।
प्रवास पर जाते हैं तो भोजन का टिफिन घर से ले जाते हैं लेकिन भोजन से भी अधिक आवश्यक पानी घर से नहीं ले जाते। वह स्टेशन पर भी मिल जाता है। पानी के लिए भी बर्तन तो लेना पड़ता है जबकि पानी से भी अधिक आवश्यक हवा के लिए कुछ नहीं लेना पड़ता, कुछ नहीं करना पड़ता। पानी के बिना तो कुछ घण्टे चल सकता है लेकिन हवा के बिना शरीर जी नहीं सकता। ऐसी मूल्यवान हवा सर्वत्र निःशुल्क और प्रचुर मात्रा में सबको प्राप्त है।
ऐसे ही जो अत्यंत जरूरी हैं, महान हैं वे परमात्मा स्वर्ग-नरक में सर्वत्र विद्यमान हैं, केवल मति को उन्हें देखने की कला आ जाय, बस। परमात्मा को देखने की कला आ जाय तो सदा सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है।
हररोज खुशी हरदम खुशी हर हाल खुशी
जब आशिक मस्त फकीर हुआ
तो फिर क्या दिलगिरी बाबा ?

जैसे हवा सर्वत्र है ऐसे ही ज्ञानी जहाँ कभी जाएगा वहाँ उसके लिए सत् चित् आनन्दस्वरूप परमात्मा हाजिर हैं। उसके लिए इन्द्रियों और शरीर में रहते हुए मन, इन्द्रियों और शरीर के आकर्षण से जो पार है, अपने परमात्मानन्द में है, ब्रह्मानन्द में है ऐसे महापुरूष की तुलना तुम किससे करोगे ?
तस्य तुलना केन जायते।
ऐसा महापुरूष संसार की किसी भी परिस्थिति से द्वेष नहीं करता क्योंकि उसको किसी के लिए राग नहीं है तो द्वेष भी कहाँ से लायगा ? रागी को द्वेष होता है।
ज्ञानी का राग तो संसार में है नहीं। उसका राग तो परमात्मा में है और परमात्मा सब जगह मिलते हैं, परमात्मा सर्वत्र मौजूद हैं, परमात्मा ज्ञानी का अपना आपा होकर बैठे हैं। इसलिए ज्ञानी को कोई भी सासांरिक परिस्थिति का राग नहीं है। राग नहीं है तो द्वेष भी नहीं है। राग द्वेष नहीं है तो उसका चित्त सदा समाहित है।
सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।
अकलमता कोई उपज्या गिने इन्द्र को रंक।।

जिसकी वासनाओं का, अज्ञान का अन्त हो गया है उनको संत बोलते हैं। ऐसे संत इन्द्र के वैभव को भी तुच्छ गिनते हैं। ऐसा वैभव उनको प्राप्त हो गया है।

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कुंभ स्नान का अधिक से अधिक पुण्य


एक जीवन्मुक्त महात्मा को स्वप्न आया। स्वप्न में सब तीर्थ मिलकर चर्चा कर रहे थे कि कुंभ के मेले में किसको अधिक से अधिक पुण्य मिला होगा। प्रयागराज ने कहा किः "अधिक से अधिक पुण्य तो उस रामू मोची को मिला है।"
गंगाजी ने कहाः "रामू मोची तो मुझमें स्नान करने नहीं आया था।"
देव प्रयाग ने कहाः "मुझमें भी नहीं आया था।"
रूद्र प्रयाग ने कहाः "मुझमें भी नहीं।"
प्रयागराज ने फिर कहाः "कुंभ के मेले में कुंभ स्नान का अधिक से अधिक पुण्य यदि किसी को मिला है तो राम मोची को मिला है।
सब तीर्थों ने एक स्वर से पूछाः
"यह रामू मोची कहाँ रहता है और क्या करता है ?"
प्रयागराज ने कहाः "रामू मोची जूता सीता है और केरल प्रदेश में दीवा गाँव में रहता है।"
महात्मा नींद से जाग उठे। सोचने लगे कि यह भ्रांति है या सत्य है ! प्रभातकालीन स्वप्न प्रायः सच्चे पड़ते हैं। इसकी खोजबीन करनी चाहिए।
संत पुरूष निश्चय के पक्के होते हैं। चल पड़े केरल प्रदेश की ओर। घूमते-घामते पूछते-पूछते स्वप्न में निर्दिष्ट दीवा गाँव में पहुँच गये। तालाश की तो सचमुच रामू मोची मिल गया। स्वप्न की बात सच निकली।
जीवन्मुक्त महापुरूष रामू मोची से मिले। रामू मोची भावविभोर हो गयाः
"महाराज ! आप मेरे द्वार पर ? मैं तो जाति से चमार हूँ। चमड़े का धन्धा करता हूँ। वर्ण से शूद्र हूँ। उम्र में लाचार हूँ। विद्या से अनपढ़ हूँ और आप मेरे यहाँ ?"
"हाँ....." महात्मा बोले। "मैं तुमसे यह पूछने आया हूँ कि तुम कुंभ में गंगा स्नान करने गये थे ? इतना सारा पुण्य तुमने कमाया है ?"
रामू बोलता हैः "नहीं बाबा जी ! कुंभ के मेले में जाने की बहुत इच्छा थी इसलिए हररोज टका-टका करके बचत करता था। (एक टका माने आज के तीन पैसे।) इस प्रकार महीने में करीब एक रूपया इकट्ठा होता था। बारह महीने के बारह रूपये हो गये। मुझे कुंभ के मेले में गंगा स्नान करने अवश्य जाना ही था, लेकिन हुआ ऐसा कि मेरी पत्नी माँ बनने वाली थी। कुछ समय पहले की बात है। एक दिन उसे पड़ोसे के घर से मेथी की सब्जी की सुगन्ध आयी। उसे वह सब्जी खाने की इच्छा हुई। शास्त्रों में सुना था कि गर्भवती स्त्री की इच्छा पूरी करनी चाहिए। अपने घर में वह गुंजाइश नहीं थी तो मैं पड़ोसी के घर सब्जी लेने गया। उनसे कहाः
"बहन जी ! थोड़ी-से सब्जी देने की कृपा करें। मेरी पत्नी को दिन रहे हैं। उसे सब्जी खाने की इच्छा हो आई है तो आप.....।"
"हाँ भैया ! हमने सब्जी तो बनाई है...." वह माई हिचकिचाने लगी। आखिर कह ही दियाः ".....यह सब्जी आपको देने जैसी नहीं है।"
"क्यों माता जी ?"
"हम लोगों ने तीन दिन से कुछ खाया नहीं था। भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई। आपके भैया काफी परेशान थे। कोई उपाय नहीं था। घूमते-घामते स्मशान की ओर वे गये थे। वहाँ किसी ने अपने पितरों के निमित्त ये पदार्थ रख दिये थे। आपके भाई वह छिप-छिपाकर यहाँ लाये। आपको ऐसा अशुद्ध भोजन कैसे दें ?"
यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ कि अरे ! मैं ही गरीब नहीं हूँ। अच्छे कपड़ों में दिखने वाले लोग अपनी मुसीबत कह भी नहीं सकते, किसी से माँग भी नहीं सकते और तीन-तीन दिन तक भूखे रह लेते हैं ! मेरे पड़ोस में ऐसे लोग हैं और मैं टका-टका बचाकर गंगा स्नान करने जाता हूँ ? मेरा गंगा-स्ना तो यहीं है। मैंने जो बारह रूपये इकट्ठे किये थे वे निकाल लाया। सीधा सामान लेकर उनके घर छोड़ आया। मेरा हृदय बड़ा सन्तुष्ट हुआ। रात्रि को मुझे स्वप्न आया और सब तीर्थ मुझसे कहने लगेः "बेटा ! तूने सब तीर्थों में स्नान कर लिया। तेरा पुण्य असीम है।"
बाबाजी ! तबसे मेरे हृदय में शान्ति और आनन्द हिलोरें ले रहे हैं।"
बाबाजी बोलेः "मैंने भी स्वप्न देखा था और उसमें सब तीर्थ मिलकर तुम्हारी प्रशंसा कर रहे थे।"

वैष्णव जन तो तेने रे कहीए जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे।।

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मंगलवार, मई 04, 2010

महाकामी बिल्वमंगल संत सूरदास कैसे बना ?


महाकामी, वेश्यागामी बिल्वमंगल अपनी पत्नी होते हुए भी वेश्या के फंदे में बुरी तरह फैल गया था।

सावन का महीना था। रात्रि का समय था। जोरों की वर्षा हो रही थी। यमुना नदी पागल-सी होकर बह रही थी। आँधी-तूफान चल रहा था। वृक्ष गिर रहे थे। घनघोर रात्रि में बिजली चमक रही थी। बिल्वमंगल के दिमाग में काम विकार का कीड़ा कुरेद रहा था।

वह उठा। घर का दरवाजा खोला। अपनी पत्नी का त्याग करके घनघोर अन्धकार में, बरसात में चल पड़ा। बिजली के चमकारे में अपने पगडंडी खोजता हुआ जा रहा था अपनी प्रेयसी चिनतामणि वेश्या के भवन की ओर.... उफनती हुई यमुना नदी के उस पार।

बिल्वमंगल नदी के किनारे पर आया। नाविकों से कहाः

"मुझे उस पार जाना है। नाव ले चलो......|"

नाविकों ने कहाः "पागल हुए हो ? अपनी जान प्यारी नहीं है क्या ? घर पर बीबी-बच्चे हैं कि नहीं ? तुम्हारी चवन्नी के लिए हमें नाव के साथ सागर में नहीं पहुँचना है। रात्रि के बारह बजे हैं। बिल्वमंगल ! तुम्हारी बुद्धि क्यों नष्ट हो गई है ? मूसलधार वर्षा हो रही है। घनघोर अन्धकार है। नदी दोनों किनारों को डुबाती हुई बह रही है । ऐसी परिस्थितियों में तुम्हे नदी के उस पार जाना है ? कुछ होश है कि नहीं ? "

बिल्वमंगल कहता हैः "चिन्तामणि के यहाँ पहुँचूँगा तब मैं होश में आऊँगा। अभी तो मानो बेहोश ही हूँ। तुम मुझे नदी के उस पार ले चलो।"

कोई नाविक जाने के लिए तैयार नहीं था। बिल्वमंगल ने अधिक किराये का प्रलोभन दिया लेकिन व्यर्थ। अपने प्राणों की बाजी लगाने को कोई तैयार नहीं था।

लेकिन बिल्वमंगल....! अपनी प्रेयसी से मिलने के लिए बेचैन था वह। कामातुर बिल्वमंगल बाढ़ में उफनती हुई यमुना में कूद पड़ा। हाथ-पैर चलाते हुए आगे बढ़ा। नदी के प्रवाह से बिल्वमंगल का कामावेग का प्रवाह अधिक बलवान सिद्ध हुआ। प्रेयसी चिन्तामणि के मिलन के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

बिल्वमंगल हाथ-पैर मारता हुआ, तीव्र गति से बहती हुई यमुना के प्रवाह में डूबता-उतरता आखिर कैसे भी करके सामने किनारे पहुँच गया। शरीर भीगा हुआ था। साँस फूल गई थी। ठंडी के मारे ठिठुर रहा था। तन-बदन परिश्रम से थक चुका था। थोड़ी देर में स्वस्थ होकर बिल्वमंगल चल पड़ा अपनी माशुका के द्वार की ओर। पहुँचते ही द्वार पर दस्तक दी, पुकार लगायी।

चिन्तामणि उसकी दस्तक पहचान गई। दंग रह गई वह वेश्या। 'ऐसी मूसलाधार वर्षा हो रही है..... यमुना नदी बाढ़ से उफन रही है। मध्यरात्रि का घनघोर अन्धकार है फिर भी यह पुरूष आ पहुँचा ! नदी को पार करके ! ऐसी हिम्मत ! ऐसा प्राणबल ! ऐसी शक्ति ! मेरे हाड़-मांस के लिए इतना प्रेम ! यह प्रेम अगर विश्वनियन्ता परमात्मा के लिए होता तो यह पुरूष विश्व की महान् विभूति बन जाता।'

चिन्तामणि के चित्त में प्रभु की पावन प्रेरणा का संचार हुआ। हृदय में बैठे हुए हरि ने चिन्तामणि को सत्प्रेरणा दी।

बिल्वमंगल बार-बार द्वार खटखटाने लगा। चिन्तामणि ने द्वार नहीं खोला। वह किवाड़ के पीछे खड़ी होकर अपने ग्राहक को कहने लगीः

"बिल्वमंगल ! ऐसी जोरों की बारिश में तू बाढ़ के पानी से भरपूर यमुना को पार करके आ गया ?"

"हाँ प्रिये ! कोई नाविक नाव चलाने के लिए तैयार नहीं था तो मैं नदी तैरकर तेरे पास आया हूँ। तू दरवाजा खोल।"

तब चिन्तामणि कहने लगीः "यह दरवाजा अब तेरे लिए नहीं खुलेगा। सदा के लिए बन्द रहेगा। अब तू अपने हृदय के द्वार खोल। अब तू प्रभु के द्वार खटखटा। मेरा द्वार तू कब तक खटखटाता रहेगा ?"

बिल्वमंगल के दिल में धक्का सा लगाः

"अरे चिन्तामणि ! यह तू क्या कह रही है ? तुझे देने के लिए मैं कितना धन लाया हूँ, द्वार खोलकर जरा देख तो सही !"

चिन्तामणि ने दृढ़ स्वर से कह दियाः

"ये द्वार अब तेरे लिए कभी नहीं खुलेंगे। तू प्रभु का द्वार खटखटा। मेरे जैसी वेश्या का द्वार खटखटाने के लिए तू मध्यरात्रि में इतना साहस कर सकता है तो हे बिल्वमंगल ! मेरे हरि का द्वार तू खटखटायेगा तो महान संत हो जाएगा।"

बिल्वमंगल कहता हैः "इन सब बेकार बातों को छोड़ चिन्तामणि ! भगतड़ों की ये बाते तेरे मुँह में नहीं सोहती प्रिये ! मैं तुझसे मिलने के लिए लालायति हो रहा हूँ और तू बातें बनाये जा रही है ! अब मुझे ज्यादा मत तड़पा। जल्दी द्वार खोल। मुझे तेरे दर्शन करने दे। तेरे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता।"

आँखों में आँसू लाकर बिल्वमंगल गिड़गिड़ा रहा है। उधर चिन्तामणि अपने हृदय पर भारी शिला रखकर अपने हृदय को जबरन कठोर बना रही है। बाहर खड़े अपने पर फिदा होने वाले से कहने लगीः

"बिल्वमंगल ! मेरे दर्शन करके क्या करेगा ? इन हाड़-मांस पर मोह करके कितने ही लोग बरबाद हो गये हैं। हे बिल्वमंगल ! तुझे अगर दर्शन ही करने हों तो हरि बैठा है तेरे हृदय में। उसी प्यारे प्रभु के दर्शन कर। तेरा कल्याण हो जाएगा। वह परमात्मा जन्म-जन्म से तेरे साथ है। मेरे दर्शन से तेरा कोई काम नहीं बनेगा। मैं तुझे क्या दर्शन दूँगी ? मैं तो पापिन हूँ.... मैंने अपना जीवन पापकर्म में नष्ट किया और कइयों के घर बरबाद किये। मेरे दर्शन से तेरा उद्धार नहीं होगा। सच्चा दर्शन तो हरि का दर्शन है। तेरा उद्धार तो हरि के दर्शन से होगा।"

मानो, आज चिन्तामणि के मुँह से स्वयं हरि बोल रहे हैं। चिन्तामणि के हृदय का कब्जा मानो प्रभु ने ले लिया है। चिन्तामणि रूपी चिराग के द्वारा हरि स्वयं बिल्वमंगल का पथप्रदर्शन कर रहे हैं।

बिल्वमंगल तीव्र कामावेग में आकर फिर से गिड़गिड़ाने लगाः

"चिन्तामणि ! प्रिय तू दरवाजा खोल। एक बार.... सिर्फ एक बार तेरा दीदार कर लेने दे। मैं अपनी पत्नी को छोड़कर तेरे पास आया हूँ। नाविकों ने मुझे समझाया बुझाया तो उनकी बातों का भी त्याग करके तेरे पास आया हूँ। नदी की बाढ़ में कूदकर अपने प्राणों की बाजी लगाकर तेरे पास आया हूँ, प्रिये ! मेरा आगमन व्यर्थ मत कर चिन्तामणि ! द्वार खोल।"

चिन्तामणि कहती हैः "तेरे कई आगमन व्यर्थ हुए बिल्वमंगल ! अनेक जन्मों का आवागमन तू व्यर्थ करता चला आ रहा है। मेरे दर्शन से भी तेरा आगमन व्यर्थ ही रहेगा। तेरा आगमन तभी सफल होगा जब तू हरि के दर्शन करेगा, आत्मा के दर्शन करेगा, किसी संत महात्मा के दर्शन करेगा, किसी आत्मज्ञानी महापुरूष के चरणों में अपना सिर झुकायेगा। तभी तेरा आगमन सफल होगा बिल्वमंगल ! अब ये द्वार तुम्हारे लिए नहीं खुलेंगे..... नहीं खुलेंगे..... नहीं खुलेंगे....।"

बिल्वमंगल की आँखों में आँसू हैं..... दिल में बेचैनी है.... बुद्धि में आश्चर्य है... चित्त में स्पन्दन है। वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा है। एक बार फिर से वह प्रयास करता हैः "हे कामिनी चिन्तामणि ! आज तुझे क्या हो गया है ? किसने तुझे यह पागलपन सिखाया है ? तू पागल मत बन.... हे प्रिये ! इतनी कठोर मत बन। मेरा दिल तेरे प्यार में तड़प रहा है। अब अधिक तड़पाना छोड़ दे। अब दिल्लगी करना छोड़ दे। मेरे धैर्य की क्यों कसौटी कर रही है ? मेरे जैसा पिपासु प्रेमी तुझे दूसरा कोई नहीं मिलेगा प्रिये ! हे सुंदरी ! अब तो द्वार खोल दे।"

तब चिन्तामणि बोली उठीः "बिल्वमंगल ! मेरे जैसी वेश्या भी तुझे नहीं मिलेगी मेरे भाई !"

"अरे पगली ! तू मुझे क्या कहती है ? मुझे भाई कहकर पुकारती है ?"

"हाँ भैया ! आज से तू मेरा भाई है। मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ। हे भाई ! तेरा कल्याण हो... तेरा उद्धार हो.... भाई ! तुझे भक्ति मिले..... भाई ! तुझे ज्ञान मिले..... भाई ! तुझे प्रभु का प्रेम मिले। मेरे जैसी दुष्ट स्त्री की छाया भी तुझ पर न पड़े। हे मेरे भाई ! मैं तुझे आशीर्वाद देती हूँ।"

उस वेश्या के हृदय से हरि नहीं बोल रहे थे तो और कौन बोल रहा था ? और किसका सामर्थ्य है कि वेश्या के मुख से ऐसे पवित्र वचन बोल सके ?

बिल्वमंगल का हृदय परिवर्तित हो गया। उसके उदगार निकलेः

"हे देवी ! मेरे लिए तेरा यह द्वार नहीं खुलेगा तो और किसी का भी द्वार मैं नहीं खटखटाऊँगा। आज के बाद मैं कभी अपने घर नहीं जाऊँगा..... आज के बाद किसी सम्बन्धी के घर नहीं जाऊँगा.... आज के बाद किसी सेठ के घर नहीं जाऊँगा। जो सबका घर है, जो उसका सम्बन्धी है, जो उसका सेठ है, जो सबका स्वामी है, जो सबका मित्र है, जो सबका बाप है, जो सबकी माँ है, जो सबका बन्धु है, जो सबका सुहृद है, उस हरि का द्वार मैं अब खटखटाऊँगा। अब मैं किसी के द्वार पर खड़ा नहीं रहूँगा।"

बिल्वमंगल चिन्तामणि के द्वार से लौट पड़ा।

घूमता-घामता बिल्वमंगल किसी देवमंदिर में पहुँचा। सूखे बाँस की भाँति बिल्वमंगल ने देवमूर्ति के सामने गिरकर दंडवत् प्रणाम किये। लम्बे समय तक इसी अवस्था में रहकर वह प्रभु से प्रार्थना करने लगा। हृदय में आज तक किये हुए दुश्चरित्र का पश्चाताप है। आँखों से आँसू की धाराएँ बह रही हैं।

पुजारी ने बिल्वमंगल को उठाया। बिल्वमंगल कहने लगाः

"मुझे उठाओ नहीं। काफी जन्मों तक मैं भटका हूँ। अब प्रभु के चरणों में मुझे विश्रान्ति लेने दो। पतितपावन के चरणों में मुझे पाप धोने दो।

मुझे वेद पुरान कुरान से क्या

मुझे प्रभु का अमृत पिला दे कोई।।

मुझे कोई प्रभु का अमृत पिला दे.... मुझे कोई प्रभु की भक्ति दिला दे.... मुझे कोई प्रभु का प्रेम प्राप्त करा दे.... चिन्तामणि का प्रेम तो मुझे बरबाद कर चुका है। अब प्रभु का प्रेम मुझे आबाद करेगा।"

बिल्वमंगल मंदिर में दंडवत प्रणाम करके पड़ा रहा है। लोग उसे समझाकर उठाते हैं। बिल्वमंगल की आँखों में आँसू हैं। वे मानो कह रहे हैं-

एवो दी देखाड़ वहाला एवो दी देखाड़।

देखूं तारूँ रूप बधे एवो दी देखाड।।

"हे प्रभु ! अब मैं तेरा द्वार छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।"

बिल्वमंगल ने प्रभु के द्वार पर पड़े रहते हुए सारा जीवन बिताने का संकल्प किया और वहीं रहने लगा। लोगों ने उसका जीवन देखा, उसकी प्रेमाभक्ति देखी, उसका दृढ़ संकल्प सुना। कुछ समय बीतने पर बिल्वमंगल को मंदिर का पुजारी बनाया गया। पुजारी को खाने पीने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती। ठाकुर जी का चढ़ाया हुआ प्रसाद मिल जाता है।

वैराग्य आने पर घर छोड़ना सरल है। पुजारी बनकर पूजा करना सरल है लेकिन दुष्ट मन को सदा के लिए प्रभु के चरणों में ही रखना कठिन है। जब तक परमात्मा का रस पूरा नहीं मिल जाता तब तक मन कब धोखा दे दे कुछ पता नहीं।

बिल्वमंगल मंदिर में रहता है, देवमूर्तियों की पूजा करता है, मंदिर को संभालने का कर्त्तव्य ठीक से उठा रहा है। साथ ही साथ अपना भक्तिभाव भी बढ़ा रहा है। लोगों में उसका अच्छा नाम हो रहा है।

एक दिन एक नववधू हार-सिंगार करके मंदिर में दर्शन करने आयी। नयी नयी शादी हुई थी। उसने भगवान के दर्शन किये, फूल चढ़ाये, दीपक जलाया, प्रसाद रखा। बिल्वमंगल की नजर उस सुंदर अंगना पर पड़ी। संयोगवश उसकी मुखाकृति चिन्तामणि जैसी थी। उसे देखते ही बिल्वमंगल की सुषुप्त कामवासना जाग उठी। वह भिन्न भिन्न निमित्त बनाकर उस युवती के नजदीक रहने की चेष्टा करने लगाः

"लो, ये फूल अच्छे हैं, प्रभु को चढ़ाओ..... यह प्रभु का चरणामृत है, ग्रहण करो....यह लो भगवान का प्रसाद...." बिल्वमंगल की दृष्टि मानो उस युवती का सौन्दर्य पी रही थी। उसकी आँखों से आँखें मिलाकर मोहित हो रो रहा था। वह युवती समझ गई कि यह पुजारी मुँआ बदमाश है। वह जल्दी से घूँघट खींचकर भागती हुई घर जाने लगी।

काम-विकार ने बिल्वमंगल को अन्धा बना दिया। उसकी पुरानी आदत ने उसे अपने शिकंजे में झपेट लिया। प्रभुमय पवित्र जीवन बिताने का संकल्प हवा हो गया। सारासार का विवेक उसका धुँधला हो गया। वह अपने को वश में नहीं रख पाया। मंदिर छोड़कर वह भी उस युवती के पीछे-पीछे जाने लगा। वह युवती अपने घर पहुँच गई, दरवाजा बन्द कर दिया और पति से कहा कि वह पुजारी मुँआ बदमाश है।

बिल्वमंगल उसके घर पहुँचा। द्वार खटखटाया, नवविवाहित युवक ने द्वार खोले। वह समझदार इन्सान था। पुजारी से बोलाः

"आइये पुजारी जी ! कैसे आना हुआ ?"

बिल्वमंगल ने विनती कीः "आपकी नववधू मंदिर में प्रभु के दर्शन करने आयी थी। मैंने उसके दीदार किये। मेरा चित्त मेरे वश में नहीं हो रहा है। आप कृपा करो। एक बार फिर मुझे उसके दर्शन करा दो। मंदिर मैं जैसा हार-सिंगार करके आयी थी वैसे की वैसी ही फिर से एक बार मेरे सामने खड़ी कर दो, सिर्फ एक ही बार.... केवल एक ही बार मुझे उसके दर्शन कर लेने दो। मुझसे रहा नही जाता। कृपा करो। मेरी इतनी सी प्रार्थना स्वीकार करो। आपका उपकार कभी नहीं भूलूँगा।"

वह युवक समझदार आदमी था। इस कामातुर जीव की दुर्दशा शायद वह समझ रहा है। वह भीतर गया। अपनी पत्नी को समझायाः

"तू वैसा ही सिंगार करके उसके सामने एक बार जा। उसे देख लेने दे तेरा मुखचन्द्र। मैं दूसरे कमरे में बैठता हूँ। वह कुछ अनुचित चेष्टा करने की कोशिश करे तो मुझे आवाज देना। मैं उस पुजारी के बच्चे की धुलाई कर दूँगा।"

पत्नी पति की बात से सहमत हुई। सजधजकर पुजारी के सामने आयी। अपने घूँघट हटाया और बिल्वमंगल के सामने देखने लगी। बिल्वमंगल उस सुहागिनी नववधू को देखते हुए अपने आपसे, अपनी आँखों से कहने लगाः

"हे अन्धी आँखें ! अब देख लो, इस हाड़-मांस के शरीर को जीभर के देख लो। बार-बार वहाँ जाती थी। क्या रखा उस पिंजर में देख लो....।"

फिर बिल्वमंगल ने उस नववधू से कहाः

"बहन ! दो सूए लाओ न....।"

नववधू को कुछ कल्पना नहीं थी। वह तो दो बड़े बड़े सुए लायी। बिल्वमंगल ने दोनों सुओं को दोनों हाथों में पकड़ा। फिर अपनी आँखों से कहने लगाः

"हे मेरी धोखेबाज आँखें ! जहाँ हरि को देखना है, जहाँ प्रभु के दर्शन करने हैं वहाँ संसार को देखती हो ? संसारी हाड़-मांस में सौन्दर्य को निहारती हो ? हे मेरी अन्धी आँखें ! इससे तो तुम न हो तो अच्छा है।"

ऐसा कहते हुए बिल्वमंगल ने दोनों हाथों से अपनी दोनों आँखों में सुए घुसेड़ दिये। दोनों आँखें फूट गईं। रक्त की दो धाराएँ बह चलीं। यह देखकर नववधू एकदम घबड़ा गई। चीख निकल गई उसके मुँह से। पासवाले कमरे में ही बैठा हुआ पति वहाँ आ गया। कल्पनातीत दृश्य देखकर वह हक्का-बक्का सा हो गया। पत्नी से पूछाः

"यह क्या हो गया ?"

पत्नी ने बतायाः "मुझे क्या पता ये ऐसा करेंगे ? उन्होंने मुझसे दो सूए माँगे और मैंने ला दिय। मुझे जरा सा भी ख्याल आता तो मैं क्यों देती ?"

पति ने पत्नी को उलाहना दिया। बिल्वमंगल की आँखों का खून साफ किया, औषधि लगाई और आँखों पर पट्टी बाँध दी। हाथ में लाठी पकड़ा दी।

लाठी टेकते-टेकते बिल्वमंगल जाने लगा। रास्ते में ठोकरें खाते-खाते आगे बढ़ने लगा।

ईश्वर के मार्ग पर चलते-चलते कितनी भी ठोकरें खानी पड़े लेकिन वे सार्थक हैं।

बिल्वमंगल गाँव से बाहर निकल गया। जंगल के रास्ते से जाते वक्त कुएँ जैसे खड्डे में गिर पड़ा। आसपास में कोई मनुष्य नहीं था। बिल्वमंगल प्रभु से प्रार्थना करने लगाः

"हे नाथ ! मुझ अनाथ का अब तेरे सिवा कोई नहीं है। मुझ अन्धे की आँख भी तू है और लाठी भी तू है। जगत में एक ही अन्धा नहीं है, हजारों-हजारों अन्धे हैं, आँखें होते हुए भी अन्धे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि हम अन्धे हैं। हे प्रभु ! तूने मुझे जगाया है, मुझे पता चल गया है कि मैं अन्धा हूँ। हे प्रभु ! मैं पहले भी अन्धा था और अब भी अन्धा हूँ। पहले मुझे बाहर की आँखों पर भरोसा था लेकिन अब केवल तेरा भरोसा है। तू मुझे इस कूप से एवं संसाररूपी कूप से नहीं निकालेगा तो और कौन निकालेगा ? तू मेरा हाथ नहीं पकड़ेगा तो हे स्वामी ! और कौन मेरा हाथ पकड़ेगा ? हे मेरे हरि ! तू कृपा कर।"

बिल्वमंगल प्रभु से करूण प्रार्थना कर रहा है। प्रभु को लगा होगा कि यह जीव मेरी शरण में आया है। चाहे करोड़ों पाप किये हों, अरबों पाप किये हों, अरबों पाप किये हों लेकिन जीव जब कहे कि मैं तेरी शरण हूँ तो मुझे उसका हाथ पकड़ना ही पड़ेगा।

भगवान कुएँ के पास प्रकट हुए। बिल्वमंगल को बाहर निकाला। लाठी का आगे का छोर पकड़कर भगवान आगे-आगे चल रहे हैं। दूसरा छोर पकड़कर पीछे-पीछे बिल्वमंगल चल रहा है। चलते-चलते भगवान ने कहाः

"हे सूरदास !"

बिल्वमंगल के हृदय में एहसास हुआ कि यह कोई ग्वाला नहीं है, यह कोई बालक नहीं है लेकिन सबके रूप में जो खेल खेल रहा है वह कन्हैया है।

सूरदास ने अपनी पकड़ी हुई लाठी पर धीरे-धीरे हाथ आगे बढ़ाया। प्रभु समझ गये कि सूरदास की नीयत बिगड़ी है.... वह मुझे पकड़ना चाहता । भक्त मुझे समर्पण से पकड़ना चाहे तो मैं पकड़ा जाने के लिए तैयार हूँ लेकिन चालाकी से पकड़ना चाहे तो मैं कभी पकड़ में नहीं आता।

सूरदास धीरे-धीरे अपना हाथ लाठी के दूसरे छोर तक ले जाते हैं लेकिन भगवान युक्ति से लाठी का दूसरा हिस्सा पकड़कर पहलेवाला छोड़ देते हैं। कैसे भी करके सूरदास को अपना स्पर्श नहीं होने देते। उनको रास्ता बताते हुए आगे-आगे चलते हैं।

सूरदास ने सोचा कि श्यामसुन्दर बड़े होशियार हैं। उन्हें बातों में लगाते हुए सूरदास ने कहाः

"आपका नाम क्या है ?"

"सब नाम मेरे ही हैं।"

"आप कहाँ रहते हैं ?"

"मैं सब जगह रहता हूँ और जो मुझे बुलाता है वहाँ जाता हूँ।"

"आपके बाप कौन हैं ?"

"जो चाहे मेरा बाप बन जाए, कोई हर्ज नहीं है।"

"आपकी माँ कौन हैं ?"

"जिसको मेरी माँ बनना हो, बन जाय, मैं उसका बेटा बनने को तैयार हूँ।"

सूरदास समझ गये कि परमात्मा के सिवाय ऐसा कोई कह नहीं सकता, ऐसा कोई बन नहीं सकता। उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि साक्षात परात्पर परब्रह्म, अच्युत, अविनाशी, निर्गुण निराकार परमात्मा सगुण होकर मेरे जैसे सूरदास को मार्ग दिखाने आये है। अब मैं उनका स्पर्श कर लूँ..... उनका हाथ पकड़ लूँ..... उनके चरणों में अपना सिर रगड़ लूँ... अपना भाग्य बदल लूँ।

अभी सूरदास भूल रहे थे। भगवान को पकड़ लेने की नीयत थी। भगवान में मिट जाने की नीयत नहीं बनी, भगवान के द्वारा पकड़ जाने की नीयत नहीं बनी।

सूरदास आगे पूछने लगेः

"आपका गाँव कौन सा है ?"

"सब गाँव मेरे ही हैं और एक भी गाँव मेरा नहीं है। सब नाम मेरे हैं और एक भी नाम मेरा नहीं है। सच्चे हृदय स कोई किसी भी नाम से पुकारता है तो मैं वहाँ जाता हूँ।"

"आपको मक्खन-मिश्री भाते है या रबड़ी-शिखण्ड भाते हैं ?"

"कोई पदार्थ मुझे नहीं भाते क्योंकि कोई गरीब आदमी मुझे पदार्थ न भी दे सके। मक्खन-मिश्री, दूधपाक-पूरी, रबड़ी-शिखण्ड तो केवल अमीर लोग ही दे सकते हैं। गरीब में भी जो गरीब हो, अत्यंत गरीब हो वह भी मुझे खिला सके ऐसी चीज मुझे भाती है। मैं तो प्रेम का भूखा हूँ। कोई मुझे भाजी खिला दे तो भी खा लेता हूँ, केले के छिलके खिला दे तो भी खा लेता हूँ। बाजरे की बाटी खिला दे तो भी खा लेता हूँ और कोई पत्रं पुष्पं चढ़ा दे, तुलसीदल चढ़ा दे तो भी सन्तुष्ट हो जाता हूँ।"

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतं अश्नामि प्रयतात्मनः।।


"जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि, निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ।"

(भगवद् गीताः 9.26)


राहबर ने सूरदास को कहाः

"सूरदास ! मैं तुझे क्या बताऊँ ? कोई सच्चे हृदय से मुझे कह दे कि "मैं तेरा हूँ" तो वह मुझे सबसे अधिक भाता है। रूपयों-पैसों के द्वारा मिलने वाले पदार्थ मुझे उतने नहीं भाते। जितना किसी का प्रेमपूर्वक दिया हुआ अपना अहं भाता है। जो मेरा हो जाता है उसका सब कुछ मुझे भाता है।"

सूरदास को यकीन हो गया कि मानो न मानो, ये भगवान के सिवाय और कोई नहीं हैं। 'हे मेरे स्वामी ! हे मेरे प्रभु !..... पुकारते हुए ठाकुरजी का हाथ पकड़ने गये तो भगवान सूरदास की लकड़ी छोड़कर दूर चले गये। तब सूरदास कहते हैं-

"मुझे दुर्बल जानकर अपना हाथ छुड़ाकर भागते है लेकिन मेरे हृदय में से निकल जाओ तो मैं जानूँ कि आप भाग सकते हैं। हे प्रभु ! अपने हृदय से मैं आपको नहीं जाने दूँगा.... नहीं जाने दूँगा।"

भगवान कहते हैं- "अपने हृदय से मत जाने दो लेकिन मुझे अभी बहुत काम है। संसार की भीड़ में से तेरे जैसे कई अन्धों को मुझे बाहर निकालना है इसलिए अब मैं जाता हूँ। तू इतना अन्धा नहीं है लेकिन लोग तो आँखें होते हुए भी अन्धे हैं। जिन पदार्थों को छोड़कर जाना है पदार्थों से चिपक रहे हैं। जिस शरीर को जला देना है उस शरीर को सुखी करने के लिए मजदूरी करते हैं। ऐसे एक-दो लोग अन्धे नहीं है, लाखों-लाखों करोड़ों-करोड़ों लोग अन्धे हैं। अब मुझे संतों के हृदय में जाने दो, संतों के हृदय द्वारा लोगों को उपदेश देने दो कि यह अन्धापन छोड़कर हरि की शरण जाओ, ध्यान की शरण जाओ, विकारों का अन्धापन छोड़कर प्रेमाभक्ति की शरण जाओ, अहंकार का अन्धापन छोड़कर ज्ञान की शरण जाओ। कइयों को यह सन्देश देना है। संतों के हृदय में बैठकर बहुत काम करना है। अतः हे सूरदास ! मैं जाता हूँ। आज के बाद लोग तुम्हें बिल्वमंगल के बदले 'सूरदास' के नाम से पुकारेंगे, तुम्हारे पद जो लोग गायेंगे उनका हृदय पवित्र होगा। तुम्हारी कथा जो सुनेगा उसका हृदय भी पिघलेगा, निष्पाप होगा। उसे भक्ति-मुक्ति की प्राप्ति होगी। जाओ, मेरे आशीर्वाद हैं।"

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