परमात्मप्रेम में साधक और बाधक 5 बातें
परमात्म प्रेम में सहायक पाँच बातें
1. परमात्म प्रेम बढ़ाने के लिए जीवन में निम्नलिखित पाँच बातें आ जायें ऐसा यत्न करना चाहिए:
भगवच्चरित्र का श्रवण करो । महापुरुषों के जीवन की गाथाएँ सुनो या पढ़ो । इससे भक्ति बढ़ेगी एवं ज्ञान वैराग्य में मदद मिलेगी ।
2. भगवान की स्तुति भजन गाओ या सुनो ।
3. अकेले बैठो तब भजन गुनगुनाओ । अन्यथा, मन खाली रहेगा तो उसमे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आयेंगे । कहा भी गया है कि “खाली मन - शैतान का घर”
4. जब परस्पर मिलो तब परमेश्वर की, परमेश्वर-प्राप्त महापुरुषों की चर्चा करो । दिये तले अँधेरा होता है लेकिन दो दियों को आमने सामने रखो तो अँधेरा भाग जाता है । फिर प्रकाश ही प्रकाश रहता है । अकेले में भले कुछ अच्छे विचार आयें किंतु वे ज्यादा अभिव्यक्त नहीं होते । जब ईश्वर की चर्चा होती है तब नये-नये विचार आते हैं, एक दूसरे का अज्ञान और प्रमाद हटता है तथा एक दूसरे की अश्रद्धा मिटती है । भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुषों में हमारी श्रद्धा बढ़े ऐसी ही चर्चा करनी सुननी चाहिए । सारा दिन ध्यान नहीं लगेगा, सारा दिन समाधि नहीं होगी । अत: ईश्वर की चर्चा करो, ईश्वर सम्बन्धी बातों का श्रवण करो । इससे समझ बढ़ती जायेगी, प्रकाश बढ़ता जायेगा, शांति बढ़ती जायेगी ।
5. सदैव प्रभु की स्मृति करते-करते चित्त को आनंदित होने की आदत डाल दो ।
ये पाँच बातें परमात्म प्रेम बढ़ाने में अत्यंत सहायक हैं ।
परमात्म प्रेम में पाँच बाधक बातें
निम्नलिखित पाँच कारणों से परमात्म प्रेम में कमी आती है :
1. अधिक प्रकार के ग्रंथ पढ़ने से परमात्म प्रेम बिखर जाता है ।
2. बहिर्मुख लोगों की बातों में आने से और उनकी लिखी हुई पुस्तकें पढ़ने से परमात्म-प्रेम बिखर जाता है ।
3. बहिर्मुख लोगों के संग से, उनके साथ खाने पीने अथवा हाथ मिलाने से और उनके श्वासोच्छवास में आने से हलके स्पंदन (vibraton) आते हैं, जिससे परमात्म प्रेम में कमी आती है ।
4. किसी भी व्यक्ति में आसक्ति करोगे तो आपका परमात्म प्रेम खंड़ में फँस जायेगा, गिर जायेगा । जिसने परमात्मा को नहीं पाया है उससे अधिक प्रेम करोगे तो वह आपको अपने स्वभाव में गिरायेगा । परमात्म प्राप्त महापुरुषों का ही संग करना चाहिए । ‘श्रीमद्भागवत’ में भगवान कपिल देवहूति से कहते हैं: “आसक्ति बड़ी दुर्जय है । वह जल्दी नहीं मिटती । वही आसक्ति जब सत्पुरुषों में होती है, तब वह संसार सागर से पार लगानेवाली हो जाती है ” प्रेम करो तो ब्रह्मवेत्ताओं से, उनकी वाणी से, उनके ग्रंथों से करो । संग करो तो ब्रह्मवेत्ताओं का ही । इससे प्रेमरस बढ़ता है, भक्ति का माधुर्य निखरता है, ज्ञान का प्रकाश होने लगता है ।
5. अधिकारी न होते हुए भी उपदेशक या वक्ता बनने से भी प्रेमरस सूख जाता है ।
(स्रोत: जीवनोपयोगी कुंजियाँ)
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