रविवार, अक्तूबर 31, 2010

जो शुद्ध ब्रह्म है, वही मैं हूँ !


वंशे सदैव भवतां हरिभक्तिरस्तु।
आपके कुल में सदैव हरिभक्ति बनी रहे। 
आपका यह नूतनवर्ष आपके लिए मंगलमय हो।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

   
धनतेरस, काली चौदस, दिवाली, नूतनवर्ष और भाईदूज.... इन पर्वों का पुञ्ज माने दिवाली के त्योहार। शरीर में पुरुषार्थ, हृदय में उत्साह, मन में उमंग और बुद्धि में समता.... वैरभाव की विस्मृति और स्नेह की सरिता  का प्रवाह... अतीत के अन्धकार को अलविदा और नूतनवर्ष के नवप्रभात का सत्कार... नया वर्ष और नयी बात.... नया उमंग और नया साहस... त्याग, उल्लास, माधुर्य और प्रसन्नता बढ़ाने के दिन याने दीपावली का पर्वपुञ्ज।

नूतनवर्ष के नवप्रभात में आत्म-प्रसाद का पान करके नये वर्ष का प्रारंभ करें...

प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वम्
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम्।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तमवैति नित्यम्
तद् ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघः।।

'प्रातःकाल में मैं अपने हृदय में स्फुरित होने वाले आत्म-तत्त्व का स्मरण करता हूँ। जो आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है, जो परमहंसों की अंतिम गति है, जो तुरीयावस्थारूप है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं को हमेशा जानता है और जो शुद्ध ब्रह्म है, वही मैं हूँ। पंचमहाभूतों से बनी हुई यह देह मैं नहीं हूँ।'

'जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, ये तीनों अवस्थाएँ तो बदल जाती हैं फिर भी जो चिदघन चैतन्य नहीं बदलता। उस अखण्ड आत्म-चैतन्य का मैं ध्यान करता हूँ। क्योंकि वही मेरा स्वभाव है। शरीर का स्वभाव बदलता है, मन का स्वभाव बदलता है, बुद्धि के निर्णय बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता वह अमर आत्मा मैं हूँ। मैं परमात्मा का सनातन अंश हूँ।' ऐसा चिन्तन करने वाला साधक
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गुरुवार, अक्तूबर 28, 2010

जब तक और तब तक


जब तक तुम्हें अपना लाभ और दूसरे का नुकसान सुखदायक प्रतीत होता है,
तब तक तुम नुकसान ही उठाते रहोगे।

जब तक तुम्हें अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा प्यारी लगती है,
तब तक तुम निन्दनीय ही रहोगे।

जब तक तुम्हें अपना सम्मान और दूसरे का अपमान सुख देता है,
तब तक तुम अपमानित ही होते रहोगे।

जब तक तुम्हें अपने लिए सुख की और दूसरे के लिए दुःख की चाह है,
तब तक तुम सदा दुःखी रहोगे।

जब तक तुम्हें अपने को न ठगाना और दूसरों को ठगना अच्छा लगता है,
तब तक तुम ठगाते ही रहोगे।

जब तक तुम्हें अपने दोष नहीं दीखते और दूसरे में खूब दोष दीखते हैं,
तब तक तुम दोषयुक्त ही रहोगे।

जब तक तुम्हें अपने हित की और दूसरे के अहित की चाह है,

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शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

आपमें और ईश्वर में क्या दूरी है ?



यह ईश्वरीय विधान है कि मार खाकर भी आदमी को सुधरना पड़ता है। डण्डे खाकर भी सुधरना पड़ता है और अगर मर गये तो नर्कों में जाकर या इतर योनियों में जाकर भी सुधार की प्रक्रिया तो चालू ही रहती है। आगे बढ़ो... आगे बढ़ो... आगे बढ़ो नहीं तो जन्मों और मरो... मरो और जन्मो.....।
पुण्य क्या है ? पाप क्या है ?
समझो कोई बालक पाँच साल का है। वह पहली क्लास में है तो पुण्य है। बड़ा होने पर भी फिर-फिर से पहली क्लास में ही रहता है तो वह पाप हो जाता है। जिस अवस्था में तुम आये हो उस अवस्था के अनुरूप उचित व्यवहार करके उन्नत होते हो तो वह पुण्य है। इससे विपरीत करते हो तो तुम दैवी विधान का उल्लंघन करते हो।
जिस समय जो शास्त्र-मर्यादा के अनुरूप कर्त्तव्य मिल जाय उस समय वह कर्त्तव्य अनासक्त भाव से ईश्वर की प्रसन्नता के निमित्त किया जाय तो वह पुण्य है। घर में महिला को भोजन बनाना है तो 'मैं साक्षात् मेरे नारायण को खिलाऊँगी' ऐसी भावना से बनायगी तो भोजन बनाना पूजा हो जायगा। झाड़ू लगाना है तो ऐसे चाव से लगाते रहो और चूहे की नाँई घर में भोजन बनाते रहो, कूपमण्डूक बने रहो। सत्संग भी सुनो, साधन भी करो, जप भी करो, ध्यान भी करो, सेवा भी करो और अपना मकान या घर भी सँभालो। जब छोड़ना पड़े तब पूरे तैयार भी रहो छोड़ने के लिए। अपने आत्मदेव को ऐसा सँभालो। किसी वस्तु में, व्यक्ति में, पद में आसक्ति नहीं। सारा का सारा छोड़ना पड़े तो भी तैयार। इसी को बोलते हैं अनासक्तियोग।
जीवन में त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए। सब कुछ त्यागने की शक्ति होनी चाहिए। जिनके पास त्यागने की शक्ति होती है वे ही वास्तव में भोग सकते हैं। जिसके पास त्यागने की शक्ति नहीं है वह भोग भी नहीं सकता। त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए। यश मिल गया तो यश के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए, धन के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए, सत्ता के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए।
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रविवार, अक्तूबर 17, 2010

रामायण का तात्विक अर्थ



पाप का फल ही दुख नहीं है । पुण्यमिश्रित फल भी विघ्न है । ऐसा कौन सा इंसान है जिसको  संसार में विघ्न नहीं है।  तो भगवान महा पापी होंगे इसलिए उनको दुख आया होगा,  14 साल वन में गए।  यदि पाप का फल ही दुख होता तो राज्यगद्दी की तैयारिया हो रही है और तुरिया बज रही है नगाड़े गुनगुना रहे है और राज्याभिषेक की जगह पर अब कैकेयी का मंथरा  की चाबी  चली और रामजी को बोलते है वनवास । एक तरफ तो राज्याभिषेक की तैयारी और दूसरी तरफ वनवास का सुनकर जिनके चेहरे पर जरा करचली नहीं पड़ती,  जिनके चित्त में जरा क्षोभ नहीं होता, राज्याभिषेक को सुनकर जिनके चित्त में हर्ष नहीं होता और वनवास सुनकर जिनके चित्त में शोक नहीं होता,  ऐसे जो अपने आप मे  ठहरे है वे ही तो रामस्वरूप है ।  ऐसे राम को हजार हजार प्रणाम । ॐ...  ॐ....  ॐ...  ॐ...  ॐ...  । दस इन्द्रियों के बीच रमण  करने वाला दशरथ (जीव) कहता है कि अब इस हृदय गादी पर जीव का राज्य नहीं, राम का राज्य होना चाहिए और गुरु बोलते है कि हाँ ! करो । गुरु जब राम राज्य का हुंकारा भरता है तो दशरथ को खुशी होती है लेकिन राम राज्य होने के पहले दशरथ, कैकेयी की मुलाक़ात मे आ जाता है । दशरथ की तीन  रानिया बताई, कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी । सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण । जब  सत्वगुण में से,  रजो गुण मे से हटकर दशरथ (जीव),  तमोगुण में, जाता है, रजोगुण में, तमोगुण में, फँसता है, तमस मिश्रित रजस में फँसता है, कैकेयी अर्थात कीर्ति में, वासना में फँसता है तो रामराज्य होने के बदले में  राम वनवास हो जाता है।  राम का राज्य नहीं,  राम वनवास ! ओर सब है राम ही जा रहे है । फिर रामायण के आध्यात्मिक कथा का अर्थ लगाने वाले महापुरुष लोग, आध्यात्मिक रामायण का अर्थ बताने वाले संत लोग कहते है, दशरथ छटपटाता है । राम वनवास होता है तो दशरथ भी चैन से नहीं जी सकता है और समाज में देखो !  कोई दशरथ चैन से नहीं है, सब बेचैन है । ज्यादा धन वाला-कम धन वाला, ज्यादा पढ़ा- कम पढ़ा,  अधिक मित्रों वाला- कम मित्रोंवाला, मोटा अथवा पतला, नेता अथवा जनता,  देखो !  सब बेचैन है ।  क्यों ? कि  राम वनवास है । कथा का दूसरा पॉइंट यह बता रहा है कि रामजी के साथ सीताजी थी । लक्ष्मण जी थे । राम माने ब्रह्म, सीता माने वृत्ति । राधा माने धारा, श्याम माने ब्रह्म । राधेश्याम....  सीताराम..... ।  सीता माने वृत्ति, राम के करीब है लेकिन सीता की नजर स्वर्ण के मृग पर जाती है और राम को बोलती है ला दो । जब सोने के मृग पर तुम्हारी सीता जाती है तो उसे राम का वियोग हो जाता है । सोने के मृग पर, धन दौलत पर जब हमारा चित्त जाता है तो अंदर आत्माराम से हम विमुख हो जाते है, फिर लंका मिलती है, स्वर्ण मिलता है, लेकिन शांति नहीं मिलती । उसी वृत्ति को यदि राम की मुलाक़ात करानी हो तो बीच मे हनुमानजी चाहिए । सौ  वर्ष आयुष वाला जीवन, उस जीवन को परमात्मा के लिए छलांग मार दे,  उस जीवन के भोग विलास से छ्लांग मार दे ।  जामवंत को बुलाया, उसको बुलाया, उसको बुलाया । कोई बोलता है एक  योजन कूदूंगा, कोई बोलता है दो योजन । हनुमानजी सौ योजन समुद्र कूद गए । माप करेंगे तो भारत के किनारे से लंका सौ योजन नहीं है लेकिन शास्त्र की कुछ गूढ़ बाते है । जीवन जो सौ वर्ष वाला है उस जीवन के रहस्य को पाने के लिए, छलांग मारने का अभ्यास और वैराग्य हो । हनुमानजी को अभ्यास और वैराग्य का प्रतीक कहा , जो  सीताजी को रामजी से मिला देगा । रामजी उत्तर भारत मे हुए और रावण दक्षिण  की तरफ । उत्तर ऊँचाई है और दक्षिण नीचाई है । ऐसे ही हमारी वृत्तियाँ शरीर के नीचे हिस्से मे रहती है । और जब हम काम से घिर  जाते  है तो हमारी आँख की पुतली नीचे आ जाती है । जब हम क्रोध से भर जाते है तो हमारी सीता नीचे आ जाती है और सीता जब रावण के करीब  होती है तो बेचैन होती है, ज्यादा समय  रावण के वहाँ ठहर नहीं सकती । काम के करीब हमारी सीता ज्यादा समय ठहर नहीं सकती । चित्त मे काम आ जाता है, बेचैनी आ जाती है और लेकिन  चित्त में राम आ जाता है तो आनंद आनंद आ जाता है । रावण की अशोक वाटिका मे सीताजी नजर कैद है लेकिन सीता में यदि निष्ठा है तो रावण अपना मनमाना कुछ कर नहीं सकता है। ऐसे ही हमारी वृत्ति मे यदि दृढ़ता है राम के प्रति पूर्ण आदर है तो काम हमे नचा नहीं सकता । उस दृढ़ता के लिए साधन और भजन है।  चित्तवृति को दृढ़ बनाने के लिए, सीता के संकल्प को मजबूत बनाने के लिए तप चाहिए ,जप चाहिए, स्वाध्याय चाहिए, सुमिरन चाहिए ।  जब कामनाएँ सताने लगे, नरसिंह भगवान ने जैसे कामना के पुतले को फाड़ दिया ऐसे ही काम को चीर दे, नरसिंह अवतार का चिंतन करने से फायदा होता है । इस कथा की आध्यात्मिक शैली को जानने वाले संतों का ये भी मानना है कि रावण मर नहीं रहा था और विभीषण से पूछा कि कैसे मरेगा ? बोले डुंटी  (नाभि ) में आपका बाण जब तक नहीं लगेगा तब तक वो रावण नहीं मरेगा अर्थात कामनाए नाभि केंद्र मे रहती है । योगी जब कुण्डलिनि योग करते है तो मूलाधार चक्र मे जंपिंग होता है और फिर स्वाधीस्थान चक्र मे खिंचाव होता है, पेट अंदर आता है बाहर जाता है, साधक लोग, तुम लोगो को भी अनुभव है । वो जन्म जन्मांतरों को कामनाए है, वासनाए है, उनको धकेलने के लिए हमारी चित्तवृत्ति हमारी जो सीता माता है, उस काम को धकेलने के लिए डांटती फटकरती है और जब डांट फटकार चालू होती है तो साधक के  शरीर मे क्रियाए होने लगती है। देखो समन्वय हो रहा है कथा का और कुण्डलिनि योग का । कभी कभी तो रावण का प्रभाव दिखता है और कभी कभी सीताजी का प्रभाव दिखता है । दोनों की लड़ाई चल रही है है । कभी कभी तो साधक के जीवन मे कामनाओं का प्रभाव दिखता है और कभी कभी तो सद्विचारों का प्रभाव दिखता है। अयोध्या को कहा कि नौ द्वार थे  । ऐसे ही तुम्हारा शरीर रूपी अयोध्या है, इसमे भी नौ द्वार है और नौ द्वार में जीने वाला ये जीव जो दशरथ है, राम को वनवास कर दिया कैकेयी के कारण, छटपटा के प्राण त्याग कर देता है । राम राम कही राम  हाय राम .... तव विरह में तन तजी राज=हू गयो सुरधाम । जब सीताजी को राम के करीब लाना है तो बंदर भी साथ देते है । रीछ भी साथ देते है । और तो क्या भी खिचकुलिया भी साथ देने लगी कण कण उठा कर रेती का और समुद्र मे डालने लगी तुम यदि रामजी और सीता की मुलाक़ात के रास्ते चलते हो, तुम्हारी वृत्ति को परमात्मा की ओर लगाते हो तो पृकृति और वातावरण तुम्हें अनुकूलता भी देता है, सहयोग भी देता है और तुम  यदि भोग कि तरफ होते हो तो वातावरण तुम्हें नोच भी लेता है । अयोध्या सुनी सुनी थी तब तक, जब तक राम नहीं आए जब राम आ रहे है, ऐसे खबर सुनी अयोध्या वासियो ने तो नगर को सजाया और नगरवासियों ने साफ सफाई की । राम आने को है, राम आने को होते है तो साफ सफाई पहले हो जाती है ऐसे ही तुम्हारा चित्त रूपी नगर अथवा देह रूपी नगर, जब परमात्म साक्षात्कार होता हो तो कल्मष तुम्हारे पहले कट जाते है। तुम्हारे पाप तुम्हारा मल, विक्षेप हट जाता है। तुम स्वच्छ पवित्र हो जाते हो  और राम जब नगर मे प्रवेश करते है वो दिन दीवाली का दिन माना जाता है। लौकिक दीवाली व्यापारी पूजते है लेकिन साधक की दिवाली तब है जब हृदया मे छुपे हुए राम जो है न,  काम के करीब गए है सीता को छुड़ाने के लिए,  वो राम जब अपने सिंहासन पर आ जाए और अपने स्वरूप मे जाग्रत हो जाए उस दिन साधक की दिवाली। बड़ा दिन तो वह है कि बड़े मे बड़ा जब परमात्वतत्व का ज्ञान हो  उससे बड़ा दिन कोई नहीं । लब पर किसी का नाम लूँ तो तेरा नाम आए । ॐ .... ॐ  
 इस सत्संग को सुनने के लिए कृपया यहाँ जाएँ :
http://www.hariomgroup.net/hariomaudio/satsang/Ramayan-Tatvik-Arth.mp3
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गुरुवार, अक्तूबर 14, 2010

प्रतीति को प्राप्ति मत समझो

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।
"अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली भाँति स्थिर हो जाती है।" (भगवदगीताः 2.65)
चित्त की मधुरता से, बुद्धि की स्थिरता से सारे दुःख दूर हो जाते हैं। चित्त की प्रसन्नता से दुःख तो दूर होते ही हैं लेकिन भगवद-भक्ति और भगवान में भी मन लगता है। इसीलिए कपड़ा बिगड़ जाये तो ज्यादा चिन्ता नहीं, दाल बिगड़ जाये तो बहुत फिकर नहीं, रूपया बिगड़ जाये तो ज्यादा फिकर नहीं लेकिन अपना दिल मत बिगड़ने देना। क्योंकि इस दिल में दिलबर परमात्मा स्वयं विराजते हैं। चाहे फिर तुम अपने आपको महावीर के भक्त मानो चाहे श्रीकृष्ण के भक्त मानो चाहे मोहम्मद के मानो चाहे किसी के भी मानो, लेकिन जो मान्यता उठेगी वह मन से उठेगी और मन को सत्ता देने वाली जो चेतना है वह सबके अन्दर एक जैसी है।
ईश्वर को पाने के लिए, तत्त्वज्ञान पाने के लिए हमें प्रतीति से प्राप्ति में जाना पड़ेगा।
एक होती है प्रतीति और दूसरी होती है प्राप्ति। प्रतीति माने : देखने भर को जो प्राप्त हो वह है प्रतीति। जैसे गुलाब जामुन खाया। जिह्वा को स्वाद अच्छा लगा लेकिन कब तक ? जब तक गुलाब जामुन जीभ पर रहा तब तक गले से नीचे उतरने पर वह पेट में खिचड़ी बन गया। सिनेमा में कोई दृश्य बड़ा अच्छा लगा आँखों को। ट्रेन या बस में बैठे पहाड़ियों के बीच से गुजर रहे हैं। संध्या का समय है। घना जंगल है। सूर्यास्त के इस मनोरम दृश्य को बादलों की घटा और अधिक मनोरम बना रही है। लेकिन कब तक ? जब तक आपको वह दृश्य दिखता रहा तब तक। आँखों से ओझल होने पर कुछ भी नहीं। सब प्रतीति मात्र था।
डिग्रियां मिल गई यह प्रतीति है। धन मिल गया, पद मिल गया, वैभव मिल गया यह भी प्रतीत है। मृत्यु का झटका आया कि सब मिला अमिला हो गया। रोज रात को नींद में सब मिला अमिला हो जाता है। तो यह सब मिला कुछ नहीं, मात्र धोखा है, धोखा। मुझे यह मिला.... मुझे वह मिला..... इस प्रकार सारी जिन्दगी जम्पींग करते-करते अंत में देखो तो कुछ नहीं मिला। जिसको मिला कहा वह शरीर भी जलाने को ले गये।
यह सब प्रतीति मात्र है, धोखा है। वास्तव में मिला कुछ नहीं।
दूसरी होती है प्राप्ति। प्राप्ति होती है परमात्मा की। वास्तव में मिलता तो है परमात्मा, बाकी जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है।
परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।
प्रतीति में आसक्त न हो और प्राप्ति में टिक जाओ तो जीते जी मुक्त हो।
प्रतीति मात्र में लोग उलझ जाते हैं परमात्मा के सिवाय जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है। वास्तविक प्राप्ति होती है सत्संग से, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के संग से।
महावीर के जीवन में भी जो प्रतीति का प्रकाश हुआ वह तो कुछ धोखा था। वे इस हकीकत को जान गये। घरवालों के आग्रह से घर में रह रहे थे लेकिन घर में होते हुए भी वे अपनी आत्मा में चले जाते थे। आखिर घरवालों ने कहा कि तुम घर में रहो या बाहर, कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर एकान्त में चले गये। प्रतीति से मुख मोड़कर प्राप्ति में चले गये।
जब रामजी का राज्याभिषेक हुआ तो कुछ ही दिनों के बाद कौशल्याजी रामजी से कहती हैं-
"हे राम ! हमारे वनवास जाने की व्यवस्था करो।" तब राम जी कहते हैं-
"माँ ! इतने दिन तो आपका सान्निध्य न पाया। चौदह वर्ष का वनवास काटा। अभी तो जब राजकाज से थकूँगा तब तुम्हारी गोद में सिर रखूँगा। माँ, अगर कोई मार्गदर्शन चाहिएगा तो तुम्हारे पास आऊँगा। मुझे साँत्वना मिलेगी, विश्रान्ति मिलेगी तुम्हारी गोद में। अभी तो तुम्हारी बहुत आवश्यकता है।"
कौशल्याजी सहज भाव से कहती हैं-
"हे राम ! इस जीव को मोह है। वह जब बालक होता है तो समझता है माँ-बाप को मेरी आवश्यकता है। बड़ा होता है तो समझता है कुटुम्बियों को मेरी आवश्यकता है और मुझे कुटुम्बियों की आवश्यकता है। जब बूढ़ा होता है तो बाल-बच्चे, पोते-पोती, नाते-रिश्तों को अभी मेरी आवश्यकता है। लेकिन हे राम ! जीव की अपनी यह आवश्यकता  कि वह अपना उद्धार करे। तुम मेरे पुत्र राम भी हो, राजा राम भी हो और भगवान राम भी हो। तुम तो स्वयं त्रिकालदर्शी हो। तुम तो मोह हटाने की बात करो। तुम स्वयं मोह की बात कर रहे हो ?"
रामजी मुस्कराते हैं किः माँ ! तुम धन्य हो। पिता जी कहते थे कि भक्ति में, धर्म में तो तुम अग्रणी हो लेकिन आज देख रहा हूँ कि आत्मा-अनात्मा विवेक में और वैराग्य में भी तुम्हारी गति बहुत उन्नत है।"
श्रीरामचन्द्रजी ने कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी को एकान्तवास में भेजने की व्यवस्था की। श्रृंगी-आश्रम में कौशल्या माता ने साधना की। प्राप्ति में टिकी।
राम तो बेटा है जिनका, अयोध्या का राज्य, राजमाता का ऊँचा पद और साधन-भजन के लिए जितने चाहिए उतने स्वतंत्र कमरे। फिर भी कौशल्याजी प्रतीति में उलझी नहीं। प्राप्ति में ठहरने के लिए एकान्त में गई। एक में ही सब वृत्तियों का अंत हो जाय उस चैतन्य राम में विश्रान्ति पाने को गई।
तुलसीदास जी कहते हैं-
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अर्थात् ब्रह्म ने ही परमार्थ के लिए राम रूप धारण किया था। अवधपति राम प्रकट हुए और हमें आचरण करके सिखाया कि उन्नत जीवन कैसे जीया जा सकता है। हर परिस्थिति में रामजी का ज्ञान तो ज्यों का त्यों है। कभी दुःख आता है कभी सुख आता है, कभी यश आता है कभी अपयश आता है, फिर भी रामजी ज्यों के त्यों हैं। कभी साधु-संतो से रामजी का सम्मान होता है तो कभी दुर्जनों से अपमान होता है। कभी कंदमूल खाते हैं तो कभी मोहनभोग पाते हैं। कभी महल में शयन करते हैं तो कभी झोंपड़ी में। कभी वस्त्र-अलंकार, मुकुट-आभूषण धारण करते हैं तो कभी वल्कल पहनते हैं लेकिन रामजी का ज्ञान ज्यों का त्यों है। प्राप्ति में जो ठहरे हैं!
रामचन्द्रजी प्रतीति में बहे नहीं। श्रीकृष्ण प्रतीति में बहे नहीं। राजा जनक प्रतीति में बहे नहीं। हम लोग प्रतीति में बह जाते हैं। प्रतीति माने दिखने वाली चीजों में सत्यबुद्धि करके बह जाना। प्रतीति बहने वाली चीज है। बहने वाली चीज के बहाव का सदुपयोग करके बहने का मजा लो और सदा रहने वाले जो आत्मदेव हैं उनसे मुलाकात करके परमात्म-साक्षात्कार कर लो, बेड़ा पार हो जायेगा। दोनों हाथों में लड्डू हैं। प्रतीति में प्रतीति का उपयोग करो और प्राप्ति में स्थिति करके जीते जी मुक्ति का अनुभव करो।
हम लोग क्या करते हैं कि प्राप्ति के लक्ष्य की ओर नहीं जाते और प्रतीति को प्राप्ति समझ लेते हैं। यह मूल गलती कर बैठते हैं। दो ही बाते हैं, बस। फिर भी हम गलती से बचते नहीं।
अपने बचपन की एक बेवकूफी हम बताते हैं। एक बार हमने भी गुड्डा-गुडिया का खेल खेला था। उस समय होंगे करीब नौ दस साल के। हमारे पक्ष में गुड्डा था और हम बारात लेकर गये। गुड़ियावालों के यहाँ से उसकी शादी कराके लाये। पार्टीवार्टी का रिवाज था तो थोड़ा हलवा बनाया था, चने बनाये थे। छोटी छोटी कटोरियों में सबको खिलाया था। फंक्शन भी किया गुड्डे-गुड़िया की शादी में। बच्चों का खेल था सब।
फिर हमने कौतूहलवश उन गुड्डे-गुड़िया को खोला। ऊपर से तो रेशम की चुन्दड़ी थी, रेशम का जामा था और अन्दर देखो तो कपड़े के सड़े-गले गन्दे-गन्दे चिथड़े थे। और कुछ नहीं था। गुड़िया को भी देख लिया, गुड़्डे को भी देख लिया। ये दुल्हा और दुल्हन ! है तो कुछ नहीं। भीतर चिथड़े भरे हैं।
ऐसे ही संसार में भी वही है। लड़का शादी करके सोचता है। मुझे गुड़िया मिल गई... लड़की शादी करके सोचती है मुझे गुड्डा मिल गया। मुझे राजा मिल गया... मुझे पटरानी मिल गई।
जरा ऊपर की चमड़ी का कवर खोलकर देखो तो राम.... राम ! भीतर क्या मसाला भरा है....! लेकिन राजी होते हैं कि मैंने शादी की। दुल्हा सोचता है मैं दुल्हा हूँ। दुल्हन सोचती है कि मैं दुल्हन हूँ। अरे भाई ! तू दुल्हा भी नहीं, तू दुल्हन भी नहीं। तू तो है आत्मा। वह है प्राप्ति। तूने प्रतीति की कि मैं दुल्हा हूँ।
जीव वास्तव में है तो आत्मा लेकिन प्रतीति करता है कि मैं जैन हूँ.... मैं अग्रवाल हूँ.... मैं हिन्दू हूँ..... मैं मुसलमान हूँ..... मैं सेठ हूँ... मैं साहब हूँ... मैं जवान हूँ... मैं बूढ़ा हूँ।
है तो आत्मा और मान बैठा है कि मैं विद्यार्थी हूँ। यह प्रतीति है। प्रतीति का उपयोग करो लेकिन प्रतीति को प्राप्ति मत समझो। वास्तविक प्राप्ति की ओर लापरवाही मत करो।
आज विश्व में जो अशांति और झगड़े हुए हैं वे केवल इसलिए कि हम प्रतीति में आसक्त हुए और प्राप्ति से विमुख रहे। कौमी झगड़े.... मजहबी झगड़े..... मेरे-तेरे के झगड़े। ऐसा नहीं कि हिन्दू और मुसलमान ही लड़ते हैं। मुसलमानों में शिया और सुन्नी भी लड़ते हैं। जैन-जैन भी लड़ते हैं। एक माँ-बाप के बेटे-बेटियाँ भी लड़ते हैं। आदमी नीचे के केन्द्रों में जी रहा है, प्रतीति की वस्तुओं में आसक्त हुआ है। सास और बहू लड़ती है। एक ही माँ-बाप के बेटे, दो भाई भी लड़ते हैं। हम लोग प्रतीति में उलझ गये हैं इसलिए लड़-लड़कर मर रहे हैं। हम लोग अगर प्राप्ति की ओर लग जायँ तो पृथ्वी स्वर्ग बन जाय।
विवेकानन्द बोलते थेः
"लाख आदमी में अगर एक आदमी आत्मारामी हो जाय, लाख आदमी में अगर एक आदमी प्राप्ति में टिक जाय तो पृथ्वी चन्द दिनों में स्वर्ग बन जाय।"
भगवान ऋषभदेव ने प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग दोनों का आचरण करके दिखाया और बाद में साबित कर दिखाया कि दोनों प्रतीति मात्र हैं। प्रवृत्ति भी प्रतीति है और निवृत्ति भी प्रतीति है। प्रकृति और निवृत्ति इन दोनों की सिद्धि जिससे होती है वह आत्मा ही सार है। उस आत्मा की ओर जितनी जितनी हमारी नजर जाती है उतना उतना समय सार्थक होता है। उतना उतना जीवन उदार होता है, व्यापक होता है, निर्भीक होता है, निर्द्वन्द्व होता है और निजानन्द के रस से परिपूर्ण होता है।
युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण बंसी रहे हैं, क्योंकि वे प्राप्ति में ठहरे हैं। रामचन्द्रजी कभी मोहनभोग पाते हैं कभी कन्दमूल खाते हैं फिर भी उद्विग्न नहीं होते, क्योंकि प्राप्ति में ठहरे हैं। विषम परिस्थितियों में भी रामचन्द्रजी मधुर भाषण तो करते ही थे, सारगर्भित भी बोलते थे। रामचन्द्रजी के आगे कभी कोई आकर बात करता था तो वे बड़े ध्यान से सुनते और तब तक सुनते थे जब तक कि सामने वाले का अहित न होता हो, चित्त कलुषित न होता हो, कान अपवित्र न होते हों। अगर वह किसी की निन्दा या अहित की बात बोलता तो रामजी युक्ति से उसकी बात को मोड़ देते थे। अतः यह गुण आप सबको अपनाना चाहिए।
रामचन्द्रजी की सभा में कभी-कभी दो पक्ष हो जाते किसी निर्णय देने में। रामचन्द्रजी इतिहास के, शास्त्रों के तथा पूर्वकाल में जिये हुए उदार पुरुषों के निर्णय का उद्धरण देकर सत्य के पक्ष को पुष्ट कर देते थे और जिस पक्ष मे दुराग्रह होता था उस पक्ष को रामचन्द्रजी नीचा भी नहीं दिखाते थे लेकिन सत्य के पक्ष को एक लकीर ऊँचा कर देते तो उसको पता चल जाता कि हमारी बात सही नहीं है।
हम घर में, कुटुम्ब में क्या करते हैं ? बहू चाहती है घर में मेरा कहना चले, बेटी चाहती है मेरा कहना चले, भाभी चाहती है मेरा कहना चले, ननद चाहती है मेरा कहना चले। सुबह उठकर कुटुम्बी लोग सब एक दूसरे से सुख चाहते हैं और सब एक दूसरे से अपना कहना मनवाना चाहते हैं। घर में सब लोग भिखारी हैं। सब चाहते हैं कि दूसरा मुझे सुख दे।
सुख लेने की चीज नहीं है, देने की चीज है। मान लेने की चीज नहीं है, मान देने की चीज है। हम लोग मान लेना चाहते हैं, मान देना नहीं चाहते। इसलिए झंझट पैदा होती है, झगड़े पैदा होते हैं।

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शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010

आत्मसाक्षात्कार- भगवान के दर्शन से भी ऊँचा


 
आत्मसाक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। जीव, जगत (स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत) और ईश्वर – ये सब माया के अन्तर्गत आते हैं। आत्मसाक्षात्कार माया से परे है। जिसकी सत्ता से जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को मैं रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना, इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार। जन्मदिवस से भी हजारों गुना ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। आत्मासाक्षात्कार दिवस। भगवान कहते हैं-
 
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।
 
हजारों मनुष्यों में कोई विरला सिद्धि के लिए यत्न करता है और उन सिद्धों में से कोई विरला मुझे तत्वतः जानता है।
आत्मसाक्षात्कार को ऐसे कोई विरले महात्मा ही पाते हैं। योगसिद्धि, दिव्य दर्शन, योगियों का आकाशगमन, खेचरी, भूचरी सिद्धियाँ, भूमि में अदृश्य हो जाना, अग्नि में प्रवेश करके अग्निमय होना, लोक-लोकान्तर में जाना, छोटा होना, बड़ा होना इन अष्टसिद्धियों और नवनिधियों के धनी हनुमानजी आत्मज्ञानी श्रीरामजी के चरणों में गये, ऐसी आत्मसाक्षात्कार की सर्वोपरि महिमा है। साधना चाह कोई कितनी भी ऊँची कर ले, भगवान राम, श्रीकृष्ण, शिव के साथ बातचीत कर ले, शिवलोक में शिवजी के गण या विष्णुलोक में जय-विजय की नाईं रहने को भी मिल जाय फिर भी साक्षात्कार के बिन यात्रा अधूरी रहती है।
 
आज हमारी असली शादी का दिवस है। आज ईश्वर मिलन दिवस, मेरे गुरूदेव का विजय दिवस है, मेरे गुरूदेव का दान दिवस है, गुरूदेव के पूरे बरसने का दिवस है। दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो पूरी मानवता के लिए अपने परम तत्त्व को पा सकने की खबर देने वाला दिवस आत्मसाक्षात्कार दिवस है। आज वह पावन दिवस है जब जीवात्मा सदियों की अधूरी यात्रा पूरी करने में सफल हो गया। धरती पर तो रोज करीब डेढ़ करोड़ो लोगों का जन्म दिवस होता है।
 
शादी दिवस और प्रमोशन दिवस भी लाखों लोगों का हो सकता है। ईश्वर के दर्शन का दिवस भी दर्जनों भक्तों का हो सकता है लेकिन ईश्वर-साक्षात्कार दिवस तो कभी-कभी और कहीं-कहीं किसी-किसी विरले को देखने को मिलता है। जो लोक संत हैं और प्रसिद्ध हैं उनके साक्षात्कार दिवस का तो पता चलता है, बाकी तो कई ऐसे आत्मारामी संत हैं जिसका हमको आपको पता ही नहीं। ऐसे दिवस पर कुछ न करें तब भी वातावरण में आध्यात्मिकता की अद्भुत तरंगें फैलती रहती हैं।
 
आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस।
मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।
 
देह मिथ्या हुई पढ़ते तो हो, बोलते तो हो लेकिन देह कौनसी, पता है जो दिखती है वह स्थूल देह है, इसके अंदर सूक्ष्म देह है। विष्णुभक्त होगा तो विष्णुलोक में जायगा, तत्त्वज्ञान नहीं है तो अभी देह मिथ्या नहीं हुई। अगर पापी है तो नरकों में जायेगा फिर पशुयोनि में आयेगा, पुण्यात्मा है तो स्वर्ग में जायेगा फिर अच्छे घर में आयेगा, लेकिन अब न आना न जाना, अपने आपमें व्यापक हो जाना है। जब तत्त्व ज्ञान हो गया तो देह और आकृति का अस्तित्व अंदर टिकाने वाला शरीर मिथ्या हो गया। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर सारे बाधित हो गये। जली हुई रस्सी देखने में तो आती है लेकिन उससे आप किसी को बाँध नहीं सकते। ऐसे ही जन्म जन्मांतरों की यात्रा का कारण जो अज्ञान था, वह गुरु की कृपादृष्टि से पूरा हो गया (मिट गया)। जैसे धान से चावल ले लिया भूसी की ऐसी-तैसी, केले से गूदा ले लिया फिर केले के छिलके को तुम कैसे निरर्थक समझते हो, ऐसे ही शरीर होते हुए भी-
 
देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार।
हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार।।
 
आज तो आप लोग भी मुझे साक्षात्कार-दिवस की खूब मुबारकबादी देना, इससे आपका हौसला बुलंद होगा। जैसे खाते पीते, सुख-दुःख, निंदा स्तुति के माहौल से गुजरते हुए पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाहजी बापू, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि अथवा तो और कई नामी-अनामी संत समत्वयोग की ऊँचाई तक पहुँच गये, साक्षात्कार कर लिया, ऐसे ही आप भी उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं, ऐसे ही साक्षात्कारी पुरूषों के इस पर्व को समझने सुनने से आत्मचाँद की यात्रा करने का मोक्षद्वार खुल जाता है।
 
मनुष्य तू इतना छोटा नहीं कि रोटी, कपड़े मकान, दुकान या रूपयों में ही सारी जिंदगी पूरी कर दे। इन छूट जाने वाली असत् चीजों में ही जीवन पूरा करके अपने साथ अन्याय मत कर। तू तो उस सत्स्वरूप परमात्मा के साक्षात्कार का लक्ष्य बना। वह कोई कठिन नहीं है, बस उससे प्रीति हो जाये।
असत् पदार्थों की और दृष्टि रहेगी तो विषमता बढ़ेगी। यह शरीर मिथ्या है, पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा। धन, पद ये मिथ्या हैं, इनकी तरफ नजर रहेगी तो आपका व्यवहार समतावाला होगा। धीरे धीरे समता में स्थिति आने से आप कर्मयोगी होने में सफल हो जाओगे। ज्ञान के द्वारा सत् असत् का विवेक करके सत् का अनुसंधान करोगे और असत् की आसक्ति मिटाकर समता में खड़े रहोगे तो आपका ज्ञानयोग हो जायगा। बिना साक्षात्कार के समता कभी आ ही नहीं सकती चाहे भक्ति में प्रखर हो, योग में प्रखर हो, ज्ञान का बस भंडार हो लेकिन अगर साक्षात्कार नहीं हुआ तो वह सिद्धपुरूष नहीं साधक है। साक्षात्कार हुआ तो बस सिद्ध हो गया।
 
इस महान से महान दिवस पर साधकों के लिए एक उत्तम तोहफा यह है कि आप अपने दोनों हाथों की उँगलियों को आमने सामने करके मिला दें। होंठ बंद करके जीभ ऐसे रखें कि न ऊपर लगे न नीचे, बीच में रखें। फिर जीव-ब्रह्म की एकता का संकल्प करके, तत्त्वरूप से जो मौत के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता उसमें शांत हो जायें। यह अभ्यास प्रतिदिन करें, कुछ समय श्वासोच्छवास की गिनती करें जिससे मन एकाग्र होने लगेगा, शक्ति का संचय होने लगेगा। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाते जायेंगे तो तत्त्व में स्थिति हो जायेगी। जीवन की शाम होने के पहले साक्षात्कारी महापुरूषों की कृपा की कुंजी से साक्षात्कार कर लेना चाहिए।
 
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गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

संगति करें यदि संत की


'हे पुत्र ! इस देहाध्यास ने तुझे चिर काल से बाँध रखा था। अब ॐकार का गुँजन करके देहाभिमान को भगाकर आत्म-अभिमान को जगा दे। काँटे से काँटा निकलता है। जीवभाव को हटाने के लिए अपने चैतन्य स्वभाव को, अपने आत्मस्वभाव को जगाओ। विकार और विषयों के आकर्षण को हटाने के लिए अपने आत्मानन्द को जगाओ। अपने आत्मा के सुख में सुखी हो जाओ तो बाहर का सुख तुम्हें क्यों बाँधेगा ? उसकी कहाँ ताकत है तुम्हें बाँधने की ? तुम्हीं बँध जाते थे वत्स ! अब तुम मुझ मुक्त आत्मा की शरण में आये हो तो तुम भी मुक्त हो जाओ। ले लो यह ॐकार की गुँजन और ज्ञान की कैंची। काट दो मोह-ममता के जाल को। तुम्हें बाँध सके या नर्कों में ले जा सके अथवा स्वर्ग में फँसा सके ऐसी ताकत किसी में भी नहीं। तुम ही नर्क और स्वर्ग के रास्ते बनाकर उसमें पचने और फँसने जाते थे, अज्ञान के कारण। अब ज्ञान के प्रसाद से तुम्हारा अज्ञान भाग गया। अगर थोड़ा रहा हो तो मार दो 'ॐ' की गदा फिर से। प्रकट कर दो अपना आनन्द। प्रकट कर दो अपनी मस्ती। प्रकट कर दो अपनी निर्वासनिकता। मुझे अब कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि सर्व मैं ही बना बैठा हूँ। मुझे नर्क का भय नहीं, स्वर्ग की लालसा नहींष मृत्यु मेरी होती नहीं। जन्म मेरा कभी था नहीं। मैं वह आत्मा हूँ।
तुम सब आत्मा ही हो। सब परमेश्वर हो। मैं भी वही हूँ। तुम भी वही हो। जो मैं हूँ वही तुम भी हो। जो तुम हो वह मैं हूँ।
हे किल्लोल करते पक्षी ! तुम भी चैतन्य देव हो। हे गगनगामी योगी ! तुम अपने चैतन्य स्वभाव को जानो। देह से जुड़कर तुम कब तक आकाशगमन करते रहोगे ? तुम तो चिदाकाश स्वरूप में विश्रान्ति पा लो।
हे आकाशचारी सिद्धों ! आकाश में विचरण करने वाले उत्तम कोटि के साधकों ! तुम अपने साध्य स्वभाव को जान लो। तुम तो धन्य हो ही जाओगे, तुम्हारी धन्यता का होना प्राकृतिक जीवों के लिए बहुत कुछ आशीर्वाद हो जाएगा।
हे सिद्धों ! तुम परम सिद्धता को पा लो। हे साधकों ! तुम परम साध्य को पा लो। परम साध्य तुम्हारा परमात्मा है न ! खूब मधुर अलौकिक अनुभूति में तुम गोता मारते जाओ। तुम अगर आनन्दस्वरूप न होते, सुखस्वरूप न होते तो अभी अपने आत्मस्वभाव की बात सुनते तुम इतने पवित्र, शांत और सुखस्वरूप नहीं हो सकते थे। तुम पहले से ही ऐसे थे। ज्यों-ज्यों भूल मिटती है त्यों-त्यों तुम्हें अपने स्वभाव की शांति और मस्ती आती है।

जय हो....! प्रभु तेरी जय हो....! हे गुरूदेव तुम्हारी जय हो....!

ना जीना है ना मरना है मगन अपने में रहना है।
आन पड़े सो सहना है,
आतम नशे में देह भुलाकर साक्षी होकर रहना है।।
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संगति करें यदि संत की तो चित्त समता पाय है।
यदि दुर्जनों में बैठते बुद्धि बिगड़ तो जाय है।
दुःसंग में बैठे सदा सत्संग में ना जा सके।
सुख है यहाँ या दुःख है कैसे इन्हें समझा सकें।।


निर्जीव सारे शास्त्र सच्चा मार्ग ही दिखलाय हैं।
दृढ़ ग्रन्थि चिज्जड़ खोलने की युक्ति नहीं बतलाय हैं।
निस्संग होने के सबब से ईश भी रूक जाय है।
गुरू गाँठ खोलन रीति तो गुरूदेव ही बतलाय है।।

गुरूदेव अदभुत रूप है परधाम माँहि विराजते।
उपदेश देने सत्य का इस लोक में आ जावते।
दुर्गम्य का अनुभव करा भय से परे ले जावते।
पर धाम में पहुँचाय कर स्वराज्य पद दिलवावते।।

ना भोग जिसको खींचते ना क्षोभ मन में आय है।
कैसी सुहावनी वस्तु हो ना लोभ मन उपजाय है।
है वस्तु सच्ची कौन-सी किस वस्तु माँही सार है।
उस वस्तु की हो खोज उसका ज्ञान में अधिकार है।।

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

तू पाँच भूतों का पुतला नहीं है....


जो लोग सिंध में रहते थे और विदेशों में जाकर कमाते थे उनको सिंधवर्की कहा जाता था।
सिंधवर्की खूबचन्द अपनी पत्नी, माँ बाप को छोड़कर विदेश में कमाने गया। धन्धे-रोजगार में खूब बरकत रही। साल-दो-साल के अंतर पर घर आता-जाता रहा। इसी बीच उसको एक बेटा हो गया। फिर वह कमाने के लिए विदेश चला गया और इधर बेटे को न्यमोनिया हुआ और वह चल बसा। पत्नी ने सोचा किः "पति को खबर देने से बेटा लौटेगा तो नहीं और पति वहाँ बेचैन हो जाएगा।" पत्नी ने खूबचन्द को बेटे के अवसान की खबर नहीं दी।
कुछ समय बाद खूबचन्द जब घर लौटने को हुआ तब उसकी पत्नी ने एक युक्ति रची। अपनी पड़ोसन के गहने ले आयी और पहन लिये। खूब सज-धजकर पति का स्वागत करने के लिए तैयार हो गयी। पति घर आया। पत्नी ने स्वागत किया। पति ने पूछाः "बेटा किशोर कहाँ है ?"
"होगा कहीं अड़ोस-पड़ोस में। खेलता होगा। आप स्नानादि कीजिए, आराम कीजिए।"
खूबचन्द ने स्नान भोजन किया। फिर आराम करने लगा तो पत्नी चरणसेवा करने आ गई। बात-बात में कहने लगीः
"देखिये, ये गहने कितने सुन्दर हैं ! पड़ोसन के हैं और वह वापस माँग रही है मगर मैं उसे वापस देना नहीं चाहती।"
पति बोलाः "पगली ! किसी की अमानत है, उसे वापस देने में विलंब कैसा ? ऐसा क्यों करती है ? तेरा स्वभाव क्यों बदल गया ?"
"जा दे आ। पहले वह काम कर, जा गहने दे आ।"
"नहीं नहीं, ये तो मेरे हैं।" पत्नी नट गई।
"तू बोलती है कि पड़ोसन के हैं ? मैंने तुझे बनवाकर नहीं दिये तो ये गहने तेरे कैसे हो गये ? तुम्हारे नहीं है फिर उनमें अपनापन क्यों करती है ? ऐसी क्या मूर्खता ? जा, गहने दे आ।"
लम्बी-चौड़ी बातचीत के बाद वह सचमुच में गहने पड़ोसन को दे आई, फिर आकर पति से बोलीः
"जैसे, वे गहने पराये थे और मैं अपना मान रही थी तो बेवकूफ थी, ऐसे ही वह पाँच भूतों का पुतला था न, हमारा किशोर..... वह पाँच भूतों का था और पाँच भूतों में वापस चला गया। अब मुझे दुःख होता है तो मैं बेवकूफ हूँ न ?"
पति बोलाः "अच्छा ! तूने चिट्ठी क्यों नहीं लिखी ?"
"चिट्ठी इसलिए नहीं लिखी कि आप शायद वहाँ दुःखी हों। ऐसी बेवकूफी की चिट्ठी क्या लिखना ?"
पति ने कहाः "ठीक है, बात तो सही है। पाँच भूतों के पुतले बनते हैं और बिगड़ते है। किशोर की आत्मा और हमारी आत्मा एक है। आत्मा की कभी मौत नहीं होती और शरीर कभी शाश्वत टिकते नहीं। कोई बात नहीं.....।"
वह महिला निर्दय नहीं थी, समझदार थी।
अनुचित प्रसंग में, मोह के प्रसंग में, अशांति के प्रसंग में अगर तुम कृत उपासक हो, अगर तुम्हारी कोई समझ है तो ऐसे दुःख या अशांति के प्रसंग भी तुम्हें अशांति नहीं दे सकेंगे।
अष्टावक्र जी कहते हैं-
न त्वं विप्रदिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।
'तू ब्राह्मण आदि जाति नहीं है और न तू चारों आश्रम वाला है, न तू आँख आदि इन्द्रियों का विषय है वरन् तू असंग, निराकार, विश्व का साक्षी है ऐसा जानकर सुखी हो।'
जैसे तुम शरीर के साक्षी हो वैसे ही तुम मन के साक्षी हो, बुद्धि के साक्षी हो, सुख और दुःख के साक्षी हो, सारे संसार के साक्षी हो।

धर्माऽधर्मो सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्त्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।
'हे व्यापक ! मन सम्बन्धी धर्म और अधर्म, सुख और दुःख तेरे लिए नहीं है और न तू कर्त्ता है और न तू भोक्ता है। तू तो सदा मुक्त ही है।'
सुख और दुःख, धर्म अधर्म, पुण्य और पाप ये सब मन के भाव हैं, उस विभु आत्मा के नहीं। ये भाव सब मन में आते हैं। तुम मन नहीं हो। ये भाव तुम्हारे नहीं हैं। तुम विश्वसाक्षी हो।
रानी मदालसा अपने बच्चों को उपदेश देती थीः न कर्त्ता असि न भोक्ता असि। शुद्धोऽसि.... बुद्धोऽसि... निरंजनो नारायणोऽसि....
जो मूढ़ अपने को बँधन में मानता है वह बँध जाता है और जो अपने मुक्त स्वभाव, आत्मस्वरूप, आत्मा का मनन करता है वह मुक्त हो जाता है।
अष्टावक्र बहुत ऊँची बात कह रहे हैं। बुद्ध तो सात कदम चले, बाद में कहते हैं- "संसार दुःखरूप है, दुःख का उपाय है, दुःख से छूटा जा सकता है, मुक्ति हो सकती है।" जबकि अष्टावक्र तो प्रारंभ से ही आखिरी सत्य कह देते हैं- "तू पाँच भूतों का पुतला नहीं है....।" यह एकदम स्वच्छ सीधी सी बात है लेकिन हम लोगों की उपासना नहीं है, गैर-संस्कार चित्त में पड़ गये हैं अतः कुछ करो। इतना-इतना कमाओ, इतना खाओ, इतना धरो आदि.... बाद में कहीं सुखी होंगे।

सुख का दरिया लहरा रहा है, सुख का सिन्धु आपके पास है। वह सुखस्वरूप परमात्मा आपको दुःखी करना भी नहीं चाहता। जैसे बच्चों पर दुःख पड़े तो माँ बेचैन हो जाती है ऐसे ही आप पर अगर दुःख का प्रभाव पड़ता है तो सब माँ की भी जो माँ है वह परमात्मा, वह अस्तित्व कोई खुश नहीं होता। ईश्वर आपको दुःखी करके खुश नहीं होता, बल्कि आपको सुखी देखकर खुश होता है। ईश्वर कहो, गुरू कहो.... एक ही तत्त्व के दो नाम हैं।

ईश्वरो गुरूरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनो।
व्योमवत् व्याप्तदेहाय तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

हम जब शांत होते हैं, मौन होते हैं, अपनी ओर लौटते हैं, अपने घर की ओर जाते हैं तो भगवान और गुरू प्रसन्न होते हैं। जितना-जितना आदमी मौन होता है, निर्वासनिक होता है, निःसंकल्प होता है उतना-उतना वह महान् हो जाता है। जितना-जितना वह बहिर्मुख होता है उतना-उतना तुच्छ होता है, दुःखी होता है। फिर कुछ करके, कुछ खाकर, कुछ देखकर आदमी सुखी होने का प्रयास करता है। वह सुख भी टिकता नहीं है।

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शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010

आत्मसुख की झलक

अष्टावक्र जी कहते हैं- सुखी होने के लिए कुछ करना नहीं है, केवल जानना है। कोई मजदूरी करने की जरूरत नहीं है। केवल चित्त की विश्रांति...। चित्त जहाँ-जहाँ जाता है उसको देखो। जितना अधिक तुम शांत बैठ सकोगे उतना तुम महान हो जाओगे।



कीर्तन करते-करते देहाध्यास को भूलना है। जप करते-करते इधर-उधर की बातों को भूलना है। जब इधर-उधर की बातें भूल गये फिर जप भी भूल जाओ तो कोई हरकत नहीं।


शांतो भव। सुखी भव।
भगवान विष्णु की पूजा में स्तुति आती हैः


शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्।।

भगवान को मेघवर्ण क्यों कहा ? व्यापक चीज सदा मेघवर्णी होती है, गगन सदृश होती है। आकाश नीला दिखता है, सागर का पानी नीला दिखता है। ऐसे जो परमात्मा है, जो विष्णु है, जो सबमें बस रहा है वह व्यापक है इसलिए उसको मेघवर्ण कह दिया।


शिवजी का चित्र, विष्णुजी का चित्र, रामजी का चित्र, श्रीकृष्ण का चित्र इसीलिए नीलवर्ण बनाये हैं जानकारों ने। वास्तव में परमात्मा का कोई रंग नहीं होता। परमात्मा की व्यापकता दिखाने के लिए नीलवर्ण की कल्पना की गई है।


इसी प्रकार आपका आत्मा किसी वर्ण का नहीं है, किसी जाति का नहीं है, किसी आश्रम का नहीं है। लेकिन वह जिस देह में आता है उस देह के मुताबिक वर्णाश्रमवाला हो भासता है। अपने को ऐसा मानते-मानते सुखी-दुःखी होता है, जन्मता-मरता है। जीवपने की मान्यता बदल जाय तो भीतर इतना दिव्य खजाना छुपा है, इतनी गरिमा छुपी है कि उसको सुखी होने के लिए न स्वर्ग की जरूरत है न इलेक्ट्रोनिक साधनों की जरूरत है न दारू की जरूरत है। सुखी होने के लिए किसी भी चीज की जरूरत नहीं है। शरीर जिन्दा रखने के लिए किसी भी वस्तु की जरूरत नहीं है। आत्मा ऐसा सुख स्वरूप है। .....और मजे की बात है कि संसार में बिना वस्तु के कोई सुखी दिखता ही नहीं। वस्तु मिलती है तो वह सुखी होता है। अज्ञान की बलिहारी है !


वास्तव में वस्तुओं से सुख नहीं मिलता अपितु वस्तुओं में सुख है यह मानने की बेवकूफी बढ़ती जाती है।


चित्त जब अन्तर्मुख होता है तब जो शांति मिलती है, आत्मसुख की झलक मिलती है उसके आगे संसार भर की चीजों का सुख काकविष्ठा जैसा तुच्छ है। फिर संसार के पदार्थ आकर्षित नहीं कर सकते। एक बार खीर खाकर तृप्त हुए हो तो फिर भिखारिन के जूठे टुकड़े तुम्हें आकर्षित नहीं करेंगे। एक बार तुम्हें सम्राट पद मिल जाय फिर चपरासी की नौकरी तुम्हें आकर्षित नहीं करेगी।


ऐसे ही मन को एक बार परमात्मा का सुख मिल जाय, एक बार ध्यान का सुख मिल जाय, मौन होते-होते परमात्म-शांति का पूर्ण सुख मिल जाय तो फिर मन तुम्हें धोखा नहीं देगा। मन का स्वभाव है कि जहाँ उसको सुख मिल जाता है फिर उसी का वह चिन्तन करता है। उसी के पीछे तुम्हें दौड़ाता है।


संसार की चीजों में जो सुख की झलकें मिलती हैं वे अज्ञानवश इन्द्रियों के द्वारा मिलती हैं। इसीलिए अज्ञानवश जीव बेचारे उनके पीछे भागे जाते हैं।


सत्संग के द्वारा, पुण्य प्राप्ति के द्वारा, संतों की...... गुरू की कृपा के द्वारा जब आत्मसुख की झलक मिलती है तब संसार के सारे सुख की झलकें व्यर्थ हो जाती हैं। भरथरी महाराज ने इसी को लक्ष्य करके कहा होगाः


जब स्वच्छ सत्संग कीनो तब कछु कछु चीन्यो
मूढ़ जान्यो आपको......

'रथ में घूमकर सुख लेना, फूलों की शैया में सुख लेना... ये सब मूढ़ता के खेल थे। सुख तो मेरे आत्मा में यो ही भरा हुआ था।'


सुख को सब चाहते हैं। आपको अन्तर्मुखता से जितना-जितना सुख मिलता जाता है उतने-उतने आप महान् होते जाते हैं। बहिर्मुखता से जो सुख का एहसास होता है, वह केवल अभ्यास होता है।


चैतन्य परमात्मारूपी सरोवर में एक लहर उठी, उसका नाम चिदावली। चिदावली से बुद्धिवृत्ति हुई। बुद्धि में विकल्प आये तो मन हुआ। मन ने चिन्तन किया तो चित्त कहलाया। देह के साथ अहंबुद्धि की तो अहंकार हुआ। वह वृत्ति इन्द्रियों के द्वारा जगत में आयी। फिर जगत में जात-पात आ गई। फिर वर्ण आये, आश्रम आये, राष्ट्रीयता आयी, कालापना आया, गोरापना आया। ये सब हमने थोप लिये।


परमात्मारूपी सरोवर में स्पन्दनरूपी चिदावली हुई। चिदावली में फिर बुद्धिवृत्ति। बुद्धिवृत्ति से संकल्प-विकल्प हुए तो मनःवृत्ति। उस वृत्ति ने चिंतन किया तो चित्त कहलाया। उस वृत्ति ने देह में अहं किया तो अहंकार कहलाया।


तीन प्रकार के अहंकार हैं-


पहलाः 'मैं शरीर हूँ... शरीर के मुताबिक जाति वाला, धर्मवाला, काला, गोरा, धनवान, गरीब इत्यादि हूँ....' ऐसा अहंकार नर्क में ले जाने वाला है। देह को मैं मानकर, देह के सम्बन्धियों को मेरे मानकर, देह से सम्बन्धित वस्तुओं को मेरी मानकर जो अहंकार होता है वह क्षुद्र अहंकार है। क्षुद्र चीजों में अहंकार अटक गया है। यह अहंकार नर्क में ले जाता है।


दूसराः "मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं.....' यह अहंकार उद्धार करने वाला है। भगवान का हो जाय तो जीव का बेड़ा पार है।


तीसराः 'मैं शुद्ध बुद्ध चिदाकाश, मायामल से रहित आकाशरूप, व्यापक, निर्लेप, असंग आत्मा, ब्रह्म हूँ।' यह अहंकार भी बेड़ा पार करने वाला है।'


प्रह्लाद ने किसी कुम्हार को देखा कि वह भट्ठे को आग लगाने के बाद रो रहा है। वह आकाश की ओर हाथ उठा-उठाकर प्रार्थनाएँ किये जा रहा है.... आँसू बहा रहा है।


प्रह्लाद ने पूछाः "क्यों रोते हो भाई ? क्यों प्रार्थनाएँ करते हो ?"


कुम्हार ने कहाः "मेरे भट्ठे (पजावे) के बीच के एक मटके में बिल्ली ने अपने द बच्चे रखे थे। मैं उन्हें निकालना भूल गया और अब चारों और आग लग चुकी है। अब बच्चों को उबारना मेरे बस की बात नहीं है। आग बुझाना भी संभव नहीं है। मेरे बस में नहीं है कि उन मासूम कोमल बच्चों को जिला दूँ लेकिन वह परमात्मा चाहे तो उन्हें जिन्दा रख सकता है। इसलिए अपनी गलती का पश्चाताप भी किये जा रहा हूँ और बच्चों को बचा लेने के लिए प्रार्थना भी किये जा रहा हूँ किः


"हे प्रभु ! मेरी बेवकूफी को, मेरी नादानी को नहीं देखना... तू अपनी उदारता को देखना। मेरे अपराध को न निहारना..... अपनी करूणा को निहारना नाथ ! उन बच्चों को बचा लेना। तू चाहे तो उन्हें बचा सकता है। तेरे लिए कुछ असम्भव नहीं। हे करूणासिंधो ! इतनी हम पर करूणा बरसा देना।'


कुम्हार का हृदय प्रार्थना से भर गया। अनजाने में उसका देहाध्यास खो गया। अस्तित्व ने अपनी लीला खेल ली।


भट्ठे में मटके पक गये। जिस मटके में बच्चे बैठे थे वह मटका भी पक गया लेकिन बच्चे कच्चे के कच्चे..... जिन्दे के जिन्दे रहे।


मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्।

वह ईश्वर चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? वह तो सतत करता ही है।


परमात्मा तो चाहता है, अस्तित्व तो चाहता है कि आप सदा के लिए सुखी हो जाओ। इसीलिए तो सत्संग में आने की आपको प्रेरणा देता है। अपनी अक्ल और होशियारी से तो कर-कर के सब लोग थक गये हैं। परमात्मा की बार-बार करूणा हुई है और हम लोग बार-बार उसे ठुकराते हैं फिर भी वह थकता नहीं है। हमारे पीछे लगा रहता है हमें जगाने के लिए। कई योजनाएँ बनाता है, कई तकलीफें देता है, कई सुख देता है, कई प्रलोभन देता है, संतों के द्वारा दिलाता है।


वह करूणासागर परमात्मा इतना इतना करता है, तुम्हारा इतना ख्याल रखता है। बिल्ली के बच्चों को भट्ठे में बचाया ! बिल्ली के बच्चों को जलते भट्ठे में बचा सकता है तो अपने बच्चों को संसार की भट्ठी से बचा ले और अपने आपमें मिला ले तो उसके लिए कोई कठिन बात नहीं है।


अस्तित्व चाहता है कि तुम अपने घर लौट आओ.... संसार की भट्ठी में मत जलो। मेरे आनन्द-सागर में आओ.... हिलोरें ले रहा हूँ। तुम भी मुझमें मिल जाओ।


ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ.....ॐ.....

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