सोमवार, जनवरी 16, 2023

अगर चाहते हैं अपने परिजनों का कल्याण तो कभी न करें रूदन किसी की मृत्यु पर ।



अगर चाहते हैं अपने परिजनों का कल्याण तो कभी न करें रूदन किसी की मृत्यु पर ! कीर्तन करें । 

जिनकी आयुष्य पूरी हो रही है और शरीर शांत हो गया है उनके लिए भजन बनाया ताकि उनको भी मदद मिले और मृतक व्यक्ति के पीछे लोग रूदन करके अपना भी मन शोकातुर न करें और मृतक व्यक्ति के लिए भी वासना और गंदगी पैदा न करें । गरुड़ पुराण में लिखा है जो मर जाता है उसके पीछे रोते हैं तो आंखों के आंसू और नाक से गंदगी बहती है उसको पीनी पड़ती है। इसलिए मृतक व्यक्ति के पीछे रूदन नहीं करना चाहिए, कीर्तन करना चाहिए । 



*जीवात्मा की सद्गति के लिए परम कल्याणकारी भजन - पूज्य बापूजी*

https://youtu.be/yzQBgMZviek

जो लोग साधक हैं उनको बड़ी उमर में यह रहता है कि हमारी सद्गति हो...। यह भक्तों को भी रहता है, आम-आदमी को भी रहता है कि मेरी अंत वेला सुहेली हो। कई लोग सुखद मरते हैं, कई लोग दुखद मरते हैं पीड़ा सहकर लेकिन मरना तो पक्का है । वास्तव में मरना जिसका होता है वह है पंचभौतिक शरीर और सूक्ष्म शरीर ( मन-बुद्धि-अहंकार)... इसके मेल को बोलते हैं जन्म और वियोग को बोलते हैं मृत्यु । उन दोनों को जाननेवाला जो तुम्हारा 'मैं' है जिसको तुम... जहां से तुम्हारा 'मैं' उठता है, तुम निर्लेप हो । जैसे दुख आते हैं सुख आते हैं, बचपन आता है । सब चला गया लेकिन तुम्हारा मैं वही का वही । जागृत चला गया, सपना चला गया, गहरी नींद चली गई लेकिन तुम्हारा वास्तविक दृष्टा चैतन्य जो हर समय रहता है इसीलिए उस परमेश्वर का नाम हरि है, वह परमेश्वर तुम्हारा अपना आपा है आत्मा । नित्य प्रलय नैमित्तिक प्रलय आत्यंतिक प्रलय महाप्रलय ब्रह्मलोक विष्णु लोक शिवलोक सब स्वाहा उनके साकार विग्रह में फिर भी जो रहता है वही चैतन्य अभी भी है इसलिए उस परमेश्वर का नाम हरि भी है, हर समय रहता है ।

तो अब मरते समय व्यक्ति को क्या सोचना चाहिए कि मैं मन, बुद्धि, अहंकार या शरीर नहीं हूं उसको देखने वाला हूं मृत्यु मेरी कभी थी नहीं है नहीं हो नहीं सकती। मैं अमर आत्मा आकाश की नाईं व्यापक हूं आकाश से भी ज्यादा सूक्ष्म अपना मेरा आपा है । ॐ ॐ ॐ बोलने से उसमें बड़ी मदद मिलती है और वास्तव में तुम्हारी मौत होती नहीं है बिल्कुल पक्की बात है । मौत होती है तो स्थूल और सूक्ष्म शरीर का वियोग, जन्म होता है तो उनका संयोग।

तो तुम्हारा वास्तविक स्वरूप तो मुक्त है लेकिन जन्म-मरण चित्त के दोष से होता है । तो चित्त की वासना मिटती है ना... वासनाक्षय, मनोनाश और बोध, यह तीन बातें हो जाए... 'बोध' माने अपने आप का ज्ञान । मुक्ति तो सहज में है लेकिन अभागे विकारों में और अभागे अहं में मुक्त आत्मा स्वभाव को ढक दिया और अपने को चौरासी में डाल दिया है । तो कुल मिलाकर जिसकी मृत्यु नजदीक है वो यह वेदांत विचार करें । समर्थ रामदास ने भी कहा भक्ति मार्ग में आगे बढ़ना हो तो वेदांत विचार करना चाहिए । दासबोध में लिखा है ।

तो जीवित व्यक्ति को सावधान रहना चाहिए कि सत्वगुणी खुराक सत्वगुणी माहौल । दुराचार से बचे, सदाचारी लोगों का संपर्क करे, नियम रखें, महीने में चार दिन, आठ दिन मौन रखें लेकिन जिनकी आयुष्य पूरी हो रही है और शरीर शांत हो गया है उनके लिए भजन बनाया ताकि उनको भी मदद मिले और मृतक व्यक्ति के पीछे लोग रूदन करके अपना भी मन शोकातुर न करें और मृतक व्यक्ति के लिए भी वासना और गंदगी पैदा न करें । गरुड़ पुराण में लिखा है जो मर जाता है उसके पीछे रोते हैं तो आंखों के आंसू और नाक से गंदगी बहती है उसको पीनी पड़ती है। इसलिए मृतक व्यक्ति के पीछे रूदन नहीं करना चाहिए, कीर्तन करना चाहिए । कीर्तन तो करते लोग हैं लेकिन महाकीर्तन क्या है ? कि मृतक व्यक्ति का सद्गति करने वाला ऐसा कोई भजन बना है कि उस भजन को आप लोग सुन लेना।

ऐसा कोई है ही नहीं जो नहीं मरे शरीर। तो आप भी उसके लिए भजन करना और भजन में वह भाव करना कि तुम आकाश रूप हो, चैतन्य हो, व्यापक हो। भगवान अपनी शरण में रखो तो अपने धाम में रखेंगे और भगवान अपने शरीर में ही ले लेंगे चलो । शिशुपाल भगवान के शरीर में समा गया फलाना समा गया ठीक है मान लिया लेकिन जब विष्णु लोक ब्रह्मलोक चल मेरे भैया तो ब्रह्माजी में जो घुसे हुए हैं वह भी तो चल हो जाएंगे ।

हां यह व्यवस्था है कि ब्रह्माजी ब्रह्म उपदेश देंगे तो भी अपने ब्रह्म स्वभाव में मुक्त हो जाएंगे । विष्णुजी भी देंगे... तो ऐसा भी हो सकता है लेकिन अभी से तुम भगवान में घुसकर इतने साल रहो उसकी अपेक्षा भगवान जिसमें अभी है उसीमें तुम पहुंच जाओ । आसान भी है और अभी से मुक्ति का अनुभव कर लो । मरने के बाद का वायदा बेकार है, जीते-जी अपने आत्मदेव को जान लो । तो कुल मिलाकर अभी आज जो भजन तुम सुनोगे उस भजन को अभी से ही मृतक व्यक्ति के लिए सद्गति दायक बने और अपने लिए भी अभी से ही काम में आए । यह भजन आदि, विचार आदि उठा तो सब लोगों तक पहुंचे । " *मंगलमय जीवन-मृत्यु* " पढ़ना, मृतक व्यक्ति के लिए उसमें भी प्रेरणा है और फिर इस भजन को जहां भी कोई मृतक व्यक्ति चले गए हो अथवा जाने वाले हो तो वहां भजन दोहरा दिया । कहीं भी समझो कि यह जाने वाला है अथवा अपन जाने वाले हैं तो तुलसी की सूखी लकड़ियां थोड़ी इकट्टी करके कुटुंबी अथवा कोई मृतक व्यक्ति के पेट पर, आंखों पर, मुंह पर, शरीर में अग्नि संस्कार के समय अगर तुलसी की लकड़ियों का या  तुलसी की माला का सानिध्य हो तो वह कैसा भी जीवन जीया हो, दुर्गति से बचेगा और ऊंची गति पाएगा ।

ऊंची गति के बाद भी परम शांति, परम गति तो परमात्म साक्षात्कार से होती है । यह भजन परमात्म साक्षात्कार के लिए नींव का काम करेगा । धन्य है वह लोग जो इसको सुन पाते हैं, सुना पाते हैं। इसके रहस्य में बुद्धि से थोड़ा सूक्ष्म करे तो कठिन नहीं है ।

अपना आपा जान ले आप मरने वाले नहीं हैं । अनुभव नहीं भी करते हो ना फिर भी ऐसे भी कैसे भी परिस्थिति हो गंदे से गंदा पापी से पापी व्यक्ति मरता नहीं है उसका सूक्ष्म शरीर दूसरे शरीरों में जाता है फिर जन्मता है मरता है जन्मता है मरता है लेकिन उसका शुद्ध स्वरूप कभी नहीं मरता है ।अभी तुम जो मरने की तैयारी में है उसको भी सुनाओगे तुम चैतन्य हो आत्मा हो दुख को जानते हो सुख को भी जानते हो और मृत्यु को भी जानते हो स्वप्न से तुम देख रहे हो अपने देखो तो तुम्हारी मृत्यु नहीं हुई शरीर की मृत्यु वास्तव में मृत्यु नहीं है। एक दूसरे को देख कर उसका भय है शरीर को मैं मानने की बेवकूफी है । अपने को मैं मानो तो बस हो गया ।

जो दुख को सुख को मृत्यु को जीवन को जानता है वह कौन है खोजोगे तो उसी में शांत हो जाओगे। रोज खोजना चालू करो मैं कौन हूं कौन हो तो उसी की शांति में गहराई में पहुंच जाओगे । तुम्हारा अपना आपा परम शुद्ध है, परम पवित्र है। शाश्वत हो तुम । *अधुना मुक्तोऽसि* । अभी तुम मुक्त हो लेकिन ऐसा सुना-सुनाया "मैं मुक्त हूं" और जो आया सो खा लिया, जो आया सो कर लिया वासना में तो तबाही हो जाएगी । कीट-पतंग आदि तिर्यक योनि में, वृक्ष आदि योनि में बहुत दुख भोगने पड़ते हैं । इसलिए ब्रह्म ज्ञान उसी को बचेगा जिसको सत्व गुण की प्रधानता है संयम की प्रधानता है सतगुरु के वचनों की प्रधानता है ।

अभी यह भजन ध्यान से सुनना उसका एक एक अक्षर ओम ओम । तो उसी ब्रह्मा को प्रार्थना करनी चाहिए जो अभी है सबके हृदय में।

जिसने तने छोड़ा है उनको अपनी शरण में लीजिए, अपने स्वरूप का दान दीजिए, अपने सच्चिदानंद स्वभाव में उसको जगाइए । देह जाने वाले का नाम लेकर भी बोलो फलाने सच्चिदानंद स्वरूप हो, चैतन्य हो । परमेश्वर तुम्हारा तुम परमेश्वर के हो, जगत की वासना छोड़ो । किसी से बदला लेने की या कुछ भोगने की वासना छोड़ो । सारे सुखों का सार है परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार । सार को महत्व दे दो । सार तो अपने बल से ही आवरण भंग कर देगा तुम्हारा।  मैंने प्रभु को पाने को महत्व दिया तो वही प्रभु ने बोला कि जाओ लीलाशाहजी के पास । सभी रूपों में मिलूंगा और मिल भी गए । यह तो मैं जिंदा-जागता इसका साक्षी हूं । ॐ नारायण नारायण नारायण नारायण धन्य हो सुनने वाले...

*हे नाथ ! जोड़े हाथ सब हैं प्रेम से मांगते*
*सांची शरण मिल जाए ऐसे आप से मांगते*
*जो जीव आया तव निकट ले चरण में स्वीकारिए*
*परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिए*
*परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिए*

आपको भगवान भी नहीं मार सकते ! क्यों ? कि आप आत्मा है जीवात्मा है। शरीर तो भगवान भी नहीं रखते तो मृत्यु तुम्हारी कोई नहीं कर सकता ब्रह्मा विष्णु महेश सब देवता मिलकर भी तुम्हारे को नष्ट नहीं कर सकते, शरीर तुम्हारा बदल सकते हैं लेकिन तुम्हारे को मिटा नहीं सकते।

*है कर्म के संयोग से जिस वंश में वह अवतरे*
*वहां पूर्ण प्रेम से आपकी गुरु रूप में भक्ति करें*
*चौरासी लक्ष के बंधनों को गुरुकृपा से काट दे*
*है आत्मा परमात्मा ही, ज्ञान पाकर मुक्त हो*
*है आत्मा परमात्मा ही, ज्ञान पाकर मुक्त हो*

*ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान ।*
*ज्ञान बिना आत्मा नहीं....*

है तो हम आत्मा लेकिन ज्ञान के बिना पता नहीं चलता कि हम वही आत्मा है हम वही सत् हैं, चित् हैं, आनंद स्वरूप हैं । हमें सुखी होने के लिए कोई वस्तु की, व्यक्ति की, परिस्थिति की जरूरत नहीं है, हम स्वयं सुख रूप हैं...

*इहलोक औ परलोक की होवे नहीं कुछ कामना*
*साधन चतुष्ट्य और सत्संग प्राप्त उसको हो सदा*
*जन्मे नहीं फिर वो कभी ऐसी कृपा अब कीजिए*
*परमात्मा निजरूप में उस जीव को भी जगाइए*
*परमात्मा निजरूप में उस जीव को भी जगाइए*

मुक्ति का मतलब यह नहीं कि तुम मिट जाओगे । तुम अपनी महिमा में जगोगे । मिटने वाले की ममता छूटेगी तो हो गए मुक्त । मिटने वाले की अहंता-ममता मिटी तो आप मुक्त हो गए । मिटने वाला है हाड़-मांस का शरीर। मन, बुद्धि, अहंकार बदलनेवाला है। तुम उसकी बदलाहट को अभी भी जानते हो । *अधुना मुक्तोऽसि*। अभी मुक्त हो ।

*संसार से मुख मोड़कर जो ब्रह्म केवल ध्याय है*
*करता उसीका चिंतवन निशदिन उसे ही पाय है*
*मन में न जिसके स्वप्न में भी अन्य आने पाय है*
*सो ब्रह्म ही हो जाय है ना जाय है ना आय है*

मनुष्य देह भी तो दुर्लभ है :

*दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः।*
*तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ॥*

जिनकी बुद्धि अकुंठित हुई है ऐसे का दर्शन-सत्संग पाना दुर्लभ है।

*आशा जगत की छोड़कर जो आप में मग्न है*
*सब वृत्तियां है शांत जिसकी आप में संलग्न है*
*ना एक क्षण भी वृत्ति जिसकी ब्रह्म से हट पाय है*
*सो तो सदा ही अमर ना जाय है ना आय है*
*सो तो सदा ही अमर ना जाय है ना आय है*

*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।*
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥*

पांच भूत, मन बुद्धि और अहंकार... और मैं इनसे भिन्न हूं। यह शरीर मर जाता है फिर भी मैं रहता हूं । अष्टधा प्रकृति का शरीर बदल जाता है ।

*संतुष्ट अपने आप में, संतृप्त अपने आप में*
*मन बुद्धि अपने आप में, है चित्त अपने आप में*
*अभिमान जिसका गल-गलाकर आप में रम जाय है*
*परिपूर्ण है सर्वत्र सो ना जाय है ना आय है*
*परिपूर्ण है सर्वत्र सो ना जाय है ना आय है*

मरने वाला शरीर मैं नहीं हूं । आने-जाने वाला, दुख-सुख भोगने वाला मैं नहीं हूं मन है । बीमारी शरीर को होती है, दुख-सुख मन को होता है उसको देखने वाला जो अकाल पुरुष है, ज्योति स्वरूप है - वह मेरा आत्मा साक्षी ज्योति स्वरूप है वही तेरा है । बस बुद्धि में बात बैठ गई काम बन गया।

*ना द्वेष करता भोग में ना राग करता योग में*
*हंसता नहीं है स्वास्थ्य में रोता नहीं है रोग में*
*इच्छा न जीने की जिसे ना मृत्यु से घबराय है*
*शम शांत जीवन्मुक्त सो ना जाय है ना आय है*
*शम शांत जीवन्मुक्त सो ना जाय है ना आय है*

*जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है*
*पुण्य पाप कछु कर्म नहीं है*
*मैं अज निर्लेपीरूप कोई कोई जाने रे*

मैं अजन्मा हूं निर्लेप हूं नारायण स्वरूप हूं ॐ ॐ आनंद ॐ माधुर्य

*मिथ्या जगत है ब्रह्म सत सो ब्रह्म मेरा तत्व है*
*मेरे सिवा जो भासता निस्सार सो निज तत्व है*
*ऐसा जिसे निश्चय हुआ ना मृत्यु उसको खाय है*
*सशरीर भी अशरीर है ना जाय है ना आय है*

*ब्रह्मानंदम  परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिमं ।*
*द्वन्द्वातीतम् गगनसदृशम् तत्वमस्यादि लक्ष्यम ।*
*एकं नित्यं विमलमचलं सर्व धिः साक्षीभूतम ।*
*भावातीतम त्रिगुण रहितम सद्गुरुम  तं नमामि ।*
*ब्रह्मस्वरूपाय नमः*
      

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