परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो !
बहुत से रास्ते यूँ तो दिल की तरफ जाते हैं।
राहे मोहब्बत से आओ तो फासला बहुत कम है।
जीवत्मा अगर परमात्मा से मिलने के लिए तैयार हो तो परमात्मा का मिलना भी असंभव नहीं। कुछ समय अवश्य लगेगा क्योंकि पुरानी आदतों से लड़ना पड़ता है, ऐहिक संसार के आकर्षणों से सावधानीपूर्वक बचना पड़ता है। तत्पश्चात् तो आपको रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होगी, मनोकामनाएँ पूर्ण होने लगेगी, वाकसिद्धि होगी, पूर्वाभ्यास होने लगेंगे, अप्राप्य एवं दुर्लभ वस्तुएँ प्राप्य एवं सुलभ होने लगेंगी, धन-सम्पत्ति, सम्मान आदि मिलने लगेंगे।
उपरोक्त सब सिद्धियाँ इन्द्रदेव के प्रलोभन हैं।
कभी व्यर्थ की निन्दा होने लगेगी। इससे भयभीत न हुए तो बेमाप प्रशंसा मिलेगी। उसमें भी न उलझे तब प्रियतम परमात्मा की पूर्णता का साक्षात्कार हो जाएगा।
दर्द दिल में छुपाकर मुस्कुराना सीख ले।
गम के पर्दे में खुशी के गीत गाना सीख ले।।
तू अगर चाहे तो तेरा गम खुशी हो जाएगा।
मुस्कुराकर गम के काँटों को जलाना सीख ले।।
दर्द का बार-बार चिन्तन मत करो, विक्षेप मत बढ़ाओ। विक्षेप बढ़े ऐसा न सोचो, विक्षेप मिटे ऐसा उपाय करो। विक्षेप मिटाने के लिए भगवान को प्यार करके 'हरि ॐ' तत् सत् और सब गपशप का मानसिक जप या स्मरण करो। ईश्वर को पाने के कई मार्ग हैं लेकिन जिसने ईश्वर को अथवा गुरूतत्त्व को प्रेम व समर्पण किया है, उसे बहुत कम फासला तय करना पड़ा है।
कुछ लोग कहते हैं- "बापू ! इधर आने से जो मुनाफा मिलता है उसे यदि समझ जाएँ तो फिर वह बाहर का, संसार का धन्धा ही न करें।"
कोई पूछता हैः "तो संसार का क्या होगा ?"
बड़ी चिन्ता है भैया ! तुम्हें संसार की ? अरे यह तो बनाने वाले, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जानें। तुम तो अपना काम कर लो।
कोई पूछता हैः "स्वामी जी ! आप तन्दरूस्ती के ऐसे नुस्खे बताते हैं कि कोई बीमार ही न पड़े। तो फिर बेचारे डॉक्टर क्या खाएँगे ?"
अरे भैया ! पहले इतने डॉक्टर नहीं थे तब भी लोग खा रहे थे। वे डॉक्टरी नहीं करते थे, दूसरा काम करते थे। या अभी तो तुम तंदुरुस्त रहो और डॉक्टर लोग जब भूखों मरें तब तुम बीमार हो जाना।
कोई पूछता हैः "सब अगर मुक्ति चाहेंगे तो संसार का क्या होगा ?"
अरे, फिर नये जन्म होंगे और संसार की गाड़ी चलती रहेगी, तुम तो मुक्त हो जाओ।
कोई पूछता हैः "हम बीमार न पडेंगे तो दवाइयों का क्या होगा ?"
अरे, दवाइयाँ बनना कम हो जाएगी और क्या होगा ? हम गुनाह न करें तो जेल खाली पड़ी रह जाएगी इसीलिए गुनाह कर रहे हैं। यह कैसी बेवकूफी की बात है ! अरे सरकार को तो आराम हो जाएगा बेचारी को।
ऐसे ही हम साधन भजन करके इन विकारों से, अपराधों से जब बच जाते हैं तो नरक थोड़ा खाली होने लगता है। यमराज व देवताओं को आराम हो जाता है।
दूसरों को आराम पहुँचाना तो अच्छी बात है न कि अपने को या दूसरों को सताना। अतः आप सत्कार्यों के माध्यम से स्नेहमयी वाणी व प्रेमपूर्वक व्यवहार को अपने में उतारकर प्रसन्नात्मा होकर स्वयं भी स्व में प्रतिष्ठित होकर आराम प्राप्त करने की चेष्टा करना व हमेशा औरों को खुशी मिले ऐसे प्रयास करना।
जीना उसी का है जो औरों के लिये जीता है।
ॐ नारायण..... नारायण...... नारायण....
किसी इन्सान का धन-सम्पदा, रूपया पैसा चला जाए अथवा मकान-दुकान चली जाए तो इतना घाटा नहीं क्योंकि वे तो आँख बन्द होते ही चले जाने वाले हैं लेकिन श्रद्धा चली गई, साधन भजन चला गया तो फिर कुछ भी शेष नहीं रहता, वह पूरा कंगाल ही हो जाता है। ये चीजें चली गई तो तुम इसी जन्म में दो चार वर्षों तक कुछ कंगाल दिखोगे लेकिन भीतर का खजाना चला गया तो जन्मों तक कंगालियत बनी रहेगी।
इसलिए हे तकदीर ! अगर तू मुझसे धोखा करना चाहती है, मुझसे छीनना चाहती है तो मेरे दो जोड़ी कपड़े छीन लेना, दो लाख रूपये छीन लेना, दो साधन छीन लेना, गाड़ियाँ मोटरें छीन लेना लेकिन मेरे दिल से भगवान के गुरू के दो शब्द मत छीनना। गुरू के लिए, भगवान के लिए, साधना के लिए जो मेरी दो वृत्तियाँ हैं – साधन और साध्य वृत्तियाँ हैं, ये मत छीनना।
एक प्रौढ़ महिला भोपाल में मेरे प्रवचन काल के दौरान मुझसे मिलने आई। वह बोलीः "बाबाजी ! आप कृपया मेरे स्कूल में पधारिये।"
वह बंगाली महिला स्कूल की प्रधानाध्यापिका थी।
मैंने कहाः "बहन ! अभी समय नहीं है।"
इतना सुनते ही उस महिला की आँखों से आँसू टपक पड़े। वह कहने लगीः "बाबा जी ! मैं आनन्दमयी माँ की शिष्या हूँ।"
मैंने महसूस किया है कि शिष्य की नजरों से जब गुरू का पार्थिव शरीर चला जाता है तो शिष्य पर क्या गुजरती है। मैं जानता हूँ। मैंने तुरन्त उस महिला से कहाः
"माई ! मैं तुम्हारे स्कूल में भी आऊँगा और घर भी आऊँगा।" उसे आश्चर्य हुआ होगा परन्तु मैं उसके घर भी गया और स्कूल में भी गया।
शिष्य को ज्ञान होता है कि गुरू के सान्निध्य से जो मिलता है वह दूसरा कभी दे नहीं सकता।
हमारे जीवन से गुरू का सान्निध्य जब चला जाता है तो वह जगह मरने के लिए दुनिया की कोई भी हस्ती सक्षम नहीं होती। मेरे लीलाशाह बापू की जगह भरने के लिए मुझे तो अभी कोई दीख नहीं रहा है। हजारों जन्मों के पिताओं ने, माताओं ने, हजारों मित्रों ने जो मुझे नहीं दिया वह हँसते हँसते देने वाले उस सम्राट ने अपने अच्युत पद का बोध व प्रसाद मुझे क्षणभर में दे डाला।
गुरू जीवित है तब भी गुरू, गुरू होते हैं और गुरू का शरीर नहीं होता तब भी गुरू गुरू ही होते हैं।
गुरू नजदीक होते हैं तब भी गुरू गुरू ही होते हैं और गुरू का शरीर दूर होता है तब भी गुरू दूर नहीं होते।
गुरू प्रेम करते हैं, डाँटते हैं, प्रसाद देते हैं, तब भी गुरू ही होते हैं और गुरू रोष भरी नजरों से देखते हैं, ताड़ते हैं तब भी गुरू ही होते हैं।
जैसे माँ मिठाई खिलाती है तब भी माँ ही होती है, दवाई पिलाती है तब भी माँ ही होती है, तमाचा मारती है तब भी माँ होती है। माँ कान पकड़ती है तब भी माँ होती है, ठण्डे पानी से नहलाती है तब भी माँ होती है और गरम थैली से सेंक करती है तब भी वह माँ ही होती है। वह जानती है कि तुम्हें किस समय किस चीज की आवश्यकता है।
तुम माँ की चेष्टा में सहयोग देते हो तो स्वस्थ रहते हो और उसके विपरीत चलते हो तो बीमार होते हो। ऐसे ही गुरू और भगवान की चेष्टा में जब हम सहयोग देते हैं तो आत्म-साक्षात्कार का स्वास्थ्य प्रकट होता है।
बच्चे का स्वास्थ्य एक बार ठीक हो जाए तो दोबारा वह पुनः बीमार हो सकता है लेकिन गुरू और भगवान द्वारा जब मनुष्य स्वस्थ हो जाता है, स्व में स्थित हो जाता है तो मृत्यु का प्रभाव भी उस पर नहीं होता। वह ऐसे अमर पद का अनुभव कर लेता है। ऐसी अनुभूति करवाने वाले गुरू, भगवान और शास्त्रों के विषय में नानकजी कहते हैं-
नानक ! मत करो वर्णन हर बेअन्त है।
जिस तरह भगवान के गुण अनन्त होते हैं उसी प्रकार भगवत्प्राप्त महापुरूषों की अनन्त करूणाएँ हैं, माँ की अनन्त करूणाएँ हैं।
एक बार बीरबल ने अपनी माँ से कहाः "मेरी प्यारी माँ ! तूने मुझे गर्भ में धारण किया, तूने मेरी अनगिनत सेवाएँ की। मैं किसी अन्य मुहूर्त में पैदा होता तो चपरासी या कलर्क होता। तू मुझे राजा होने के मुहूर्त में जन्म देना चाहती थी लेकिन विवशता के कारण तूने मंत्री होने के मुहूर्त में जन्म दिया। कई पीड़ाएँ सहते हुए भी तूने मुझको थामा और मेरे इतने ऊँचे पद के लिए क्या क्या कष्ट सहे ! माँ ! मेरी इच्छा होती है कि मैं अपने शरीर की चमड़ी उतरवाकर तेरी मोजड़ी बनवा लूँ।
माँ हँस पड़ीः "बेटे ! तू अपने शरीर की चमड़ी उतरवाकर मेरी मोजड़ी बनवाना चाहता है लेकिन यह चमड़ी भी तो मेरे ही शरीर से बनी हुई है।"
बच्चा कहता हैः "मेरी चमड़ी से तेरी मोजड़ी बना दूँ। लेकिन उस नादान को पता ही नहीं कि चमड़ी भी तो माँ के शरीर से बनी है। ऐसे ही शिष्य भी कहता है कि मेरे इस धन से, मेरी इस श्रद्धा से, इस प्रेम से, इस साधन से गुरूजी को अमुक-अमुक वस्तु दे दूँ लेकिन ये साधन और प्रेम भी गुरूजी के साध्य और प्रेम से ही तो पैदा हुए हैं !
चातक मीन पतंग जब पिया बिन नहीं रह पाय।
साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय।।
लेबल: asaramji, ashram, bapu, guru, hariom, india, saint, sant, sant Asaramji bapu
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ