शुक्रवार, नवंबर 25, 2011

चमत्कार का रहस्य


संत एकनाथ जी महाराज के पास एक बड़े अदभुत दण्डी संन्यासी आया करते थे। एकनाथ जी उन्हें बहुत प्यार करते थे। वे संन्यासी ये मंत्र जानते थेः

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्चयते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

और इसको ठीक से पचा चुके थे। वे पूर्ण का दर्शन करते थे सबमें। कोई भी मिल जाये तो मानसिक प्रणाम कर लेते थे। कभी बाहर से भी दण्डवत् कर लेते थे।
  
एक बार वे दण्डी संन्यासी बाजार से गुजर रहे थे। रास्ते में कोई गधा मरा हुआ पड़ा था। 'अरे, क्या हुआ ? कैसे मर गया ?' – इस प्रकार की कानाफूसी करते हुए लोग इकट्ठे हो गये। दण्डी संन्यासी की नजर भी मरे हुए गधे पर पड़ी। वे आ गये अपने संन्यासीपने में। 'हे चेतन ! तू सर्वव्यापक है। हे परमात्मा ! तू सबमें बस रहा है। - इस भाव में आकर संन्यासी ने उस गधे को दण्डवत् प्रणाम किये। गधा जिंदा हो गया ! अब इस चमत्कार की बात चारों ओर फैल गयी तो लोग दण्डी संन्यासी के दर्शन हेतु पीछे लग गये। दण्डी संन्यासी एकनाथ जी के पास पहुँचे। उनके दिल में एकनाथ जी के लिए बड़ा आदर था। उन्होंने एकनाथ जी को प्रार्थना कीः "....अब लोग मुझे तंग कर रहे हैं।"

एकनाथ जी बोलेः "फिर आपने गधे को जिन्दा क्यों किया ? करामात करके क्यों दिखायी ?"

संन्यासी ने कहाः "मैंने करामात दिखाने का सोचा भी नहीं था। मैंने तो सबमें एक और एक में सब – इस भाव से दण्डवत किया था। मैंने तो बस मंत्र दोहरा लिया कि 'हे सर्वव्यापक चैतन्य परमात्मा ! तुझे प्रणाम है।' मुझे भी पता नहीं कि गधा कैसे जिंदा हो गया !"

जब पता होता है तो कुछ नहीं होता, जब तुम खो जाते हो तभी कुछ होता है। किसी मरे हुए गधे को जिंदा करना, किसी के मृत बेटे को जिंदा करना – यह सब किया नहीं जाता, हो जाता है। जब अनजाने में चैतन्य तत्त्व के साथ एक हो जाते हैं तो वह कार्य फिर परमात्मा करते हैं। इसी प्रकार संन्यासी अपने चैतन्य के साथ एकाकार हो गये तो वह चमत्कार परमात्मा ने कर दिया, संन्यासी ने वह कार्य नहीं किया।

लोग कहते हैं- 'आसाराम बापूजी ने ऐसा-ऐसा चमत्कार कर दिया।' अरे, आसाराम बापू नहीं करते, जब हम इस वैदिक मंत्र के साथ एकाकार हो कर उसके अर्थ में खो जाते है तो परमात्मा हमारा कार्य कर देते हैं और तुमको लगता है कि बापू जी ने किया। यदि कोई व्यक्ति या साधु-संत ऐसा कहे कि यह मैंने किया है तो समझना कि या तो वह देहलोलुप है या अज्ञानी है। सच्चे संत कभी कुछ नहीं करते।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- 'ज्ञानी की दृष्टि उस तत्त्व पर है इसीलिए वे तत्त्व को सार और सत्य समझते हैं। तत्त्व की सत्ता से जो हो रहा है उसे वे खेल समझते हैं।'

हर मनुष्य अपनी-अपनी दृष्टि से जीता है। संन्यासी की दृष्टि ऐसी परिपक्व हो गयी थी कि गधे में चैतन्य आत्मा देखा तो वास्तव में उसके शरीर में चैतन्य आत्मा आ गया और वह जिन्दा हो गया। तुम अपनी दृष्टि को ऐसी ज्ञानमयी होने दो तो फिर सारा जगत तुम्हारे लिए आत्ममय हो जायेगा।

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गुरुवार, नवंबर 10, 2011

किसी का बेड़ा पार करना हो तो.......


हजारो-हजारों के जीवन में मैंने देखा कि जिन्होंने संतों का कुप्रचार किया, उन्हें सताया या संत के दैवी कार्य में बाधा डाली, उनको फिर खूब-खूब दुःख सहना पड़ा, मुसीबतें झेलनी पड़ीं। जो संत के दैवी कार्य में लगे उनको खूब सहयोग मिला और उन्होंने बिगड़ी बाजियाँ जीत लीं। उनके बुझे दीये जल गये, सूखे बाग लहराने लगे। ऐसे तो हजारों-लाखों लोग होंगे।
'गुरुवाणी' में जो आया है, बिल्कुल सच्ची बात हैः
संत का निंदकु महा हतिआरा।।
संत का निंदकु परमेसुरि मारा।।
संत का दोखी बिगड़ रूप हो जाइ।।
संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ।
संत के दोखी की पुजै न आसा।
संत के दोखी उठी चलै निरासा।।
संत के दोखी कउ अबरू न राखन हारू।
नानक संत भावै ता लए उवारि।
अगर वह सुधर जाता है और संत की शरण आता है तो फिर संत उसका अपनी कृपा से उद्धार भी कर देते हैं।
किसी का सत्यानाश करना हो तो उसे संत की निंदा सुना दो, अपने-आप सत्यानाश हो जायेगा और किसी का बेड़ा पार करना हो तो संत के सत्संग में तथा संत के दैवी कार्य में लगा दो, अपने आप उसका भविष्य उज्जवल हो जायेगा।
यह बात रामायणकार की दृष्टि से भी मिलती हैः
जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना।
आप भगवन्नाम-सुमिरन करते हो, दुष्ट प्रवृत्ति से बचते हो तो आपकी मति सुमति हो जाती है, अनेक प्रकार की दैवी सम्पदा आपकी सुरक्षा करती है। आपके पास वालों को भी फायदा हो जाता है। इस प्रकार जहाँ सुमति है वहाँ उस परमात्मदेव की सम्पदा रक्षा करती है।
जहाँ कुमति तहँ बिपत्ति निदाना।।
जो कुकर्म करते हैं, दूसरों की श्रद्धा तोड़ते हैं अथवा और कुछ गहरा कुकर्म करते हैं उन्हें महादुःख भोगना पड़ता है और यह जरूरी नहीं है कि किसी ने आज श्रद्धा तोड़ी तो उसको आज ही फल मिले। आज मिले, महीने के बाद मिले, दस साल के बाद मिले... अरे ! कर्म के विधान में तो ऐसा है कि 50 साल के बाद  भी फल मिल सकता है या बाद के किसी जन्म में भी मिल सकता है।श्रद्धा से प्रेमरस बढ़ता है, श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। कोई हमारा हाथ तोड़ दे तो इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा पैर तोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा सिर फोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है जितना वह पापी है जो हमारी श्रद्धा को तोड़ता है।
कबीरा निंदक निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।
जो भगवान की, हमारी साधना की अथवा गुरु की निंदा करके हमारी श्रद्धा तोड़ता है वह भयंकर पातकी माना जाता है। उसकी बातों में नहीं आना चाहिए।
रविदासजी, दादू दीनदयालजी आदि संतों के लिए अफवाहें और कहानियाँ बनाकर निंदा करने वाले लोग थे। स्वामी रामसुखदासजी के लिए निंदा करने वाले लोग थे। 60 साल की उम्र में उस महासंत के बारे में कई प्रकार के हथकंडे अपनाकर ऐसा कुप्रचार किया गया, जिसको झेलने में हमारी वाणी अपवित्र होगी और सुनने से आपके कान अपवित्र होंगे। ऐसी गंदी-गंदी बातों का प्रचार किया कि उस महान संत को अन्न और जल छोड़ देना पड़ा।
निंदा करके लोगों की श्रद्धा तोड़नेवाले लोगों को तो जब कष्ट होगा तब होगा लेकिन जिसकी श्रद्धा टूटी उसका तो सर्वनाश हुआ। बेचारे की शांति गयी, प्रेमरस गया, सत्य का प्रकाश गया। गुरु से नाता जुड़ा और फिर पापी ने तोड़ दिया।
आजकल हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने का षडयंत्र हिन्दुस्तान में चल रहा है। हम क्यों अपने धर्म पर से श्रद्धा टूटने देंगे? जिस धर्म में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए, श्रीराम अवतरित हुए, शिवजी प्रगट हुए, जिस धर्म में मीराबाई, संत कबीरजी, गुरु नानकजी जैसे महापुरुष प्रकट होते रहे, जिस धर्म में गंगाजी को प्रकट करने वाले राजा भगीरथ हुए ऐसा धर्म हम क्यों छोड़ेंगे?
गुरु तेगबहादुर बोलिया।
सुनो सिखो बड़भागियाँ।।
धड़ दीजिये धर्म न छोड़िये।।

सिर दीज सदगुरु मिले
तो भी सस्ता जान।

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रविवार, नवंबर 06, 2011

हँसते-खेलते मुक्तिमार्ग की यात्रा


कामी का साध्य कामिनी होता है, मोही का साध्य परिवार होता है, लोभी का साध्य धन होता है लेकिन साधक का साध्य तो परमात्मा होते हैं। जीवभाव की जंजीरों में जकड़ा साधक जब संसार की असारता को कुछ-कुछ जानने लगता है तो उसके हृदय में विशुद्ध आत्मिक सुख की प्यास जगती है। उसे पाने के लिए वह भिन्न-भिन्न शास्त्रों व अनेक साधनाओं का सहारा लेता है परंतु जब उसे यह अनुभव होता है कि उसका भीतरी खालीपन किसी प्रकार दूर नहीं हो रहा है तो वह अपने बल का अभिमान छोड़कर सर्वव्यापक सत्ता परमात्मा को सहाय के लिए पुकारता है। तब उसके साध्य परमात्मा ब्रह्मज्ञानी सदगुरू के रूप में अवतरित होकर साकार रूप में अठखेलियाँ करते हैं।

इसी श्रृंखला में वर्तमान में ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु परम पूजनीय बापू जी साधक-भक्तों को दर्शन, सत्संग, ध्यान तथा कुंडलिनी योग व नादानुसंधान योग आदि यौगिक कुंजियाँ द्वारा हँसते, खेलते, खाते, पहनते सहज में ही मुक्तिमार्ग की यात्रा करा रहे हैं। 'गुरुग्रंथ साहिब' में आता हैः

नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी हौवै जुगति।
हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे हौवे मुकति।।

पूज्य श्री कहते हैं- "हे साधक ! ईश्वर न दूर है न दुर्लभ। आज दृढ़ संकल्प कर कि 'मैं परमात्मा का साक्षात्कार करके ही रहूँगा।' तू केवल एक कदम उठा, नौ सौ निन्यानवे कदम वह परमात्मा उठाने को तैयार है। कातरभाव से प्रार्थना करते-करते खो जा, जिसका है उसी का हो जा !"

जिज्ञासु अपनी जिज्ञासापूर्ति के लिए शास्त्र पढ़ते हैं लेकिन उनके गूढ़ रहस्य को न समझ पाने के कारण उनसे रसमय जीवन जीने की कला नहीं प्राप्त कर पाते। यह तो तभी सम्भव है जब शास्त्रों की उक्ति ( 'वासुदेवः सर्वम् आदि) की अंतर में अनुभूति किये हुए कोई 'सुदुर्लभ' सत्पुरुष सुलभ हो जायें।

आत्मरस का पान कराने वाले पूज्य श्री से जो सौभाग्यशाली भक्त मंत्रदीक्षा लेते हैं व ध्यानयोग शिविरों में आते हैं, उन्हें आपकी अहैतुकी की करुणा-कृपा से चित्शक्ति-उत्थान के दिव्य अनुभव होते हैं, जिससे चिंता-तनाव, हताशा-निराशा आदि पलायन कर जाते हैं और जीवन की उलझी गुत्थियाँ सुलझने लगती हैं। उनका काम राम में बदलने लगता है, ध्यान स्वाभाविक लगने लगता है और मन अंतरात्मा में आराम पाने लगता है। लोगों को बारह-बारह साल तपस्याएँ करने के बाद भी जो सच्चा सुख, भगवदीय शांति नहीं मिलती, वह बारह-दिनों में ही उन्हें महसूस होने लगती है। कृपासिन्धु बापू जी के चरणों में बैठकर सत्संग-श्रवण करने मात्र से साधना में उन्नत होने की कुंजियाँ मिल जाती हैं और शास्त्रों के रहस्य हृदय में प्रकट होने लगते हैं।

साधकों के लिए आपका संदेश हैः "अपने देवत्व में जागो। एक ही शरीर, मन, अंतःकरण को कब तक अपना मानते रहोगे ? अनंत-अनंत अंतःकरण, अनंत-अनंत शरीर जिस सच्चिदानंद में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, वह शिवस्वरूप तुम हो। फूलों में सुगंध तुम्हीं हो। वृक्षों में रस तुम्हीं हो। पक्षियों में गीत तुम्हीं हो। सूर्य और चाँद में चमक तुम्हारी है। अपने 'सर्वोऽहम्' स्वरूप को पहचानकर खुली आँख समाधिस्थ हो जाओ। देर न करो, काल कराल सिर पर है।"

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शनिवार, नवंबर 05, 2011

भीष्म पंचक व्रत ( 06 से 10 नवंबर 2011 तक )



महाभारत युद्ध के बाद जब पांण्डवों की जीत हो गयी तब श्री कृष्ण भगवान पांण्डवों को भीष्म पितामह के पास ले गये और उनसे अनुरोध किया कि आप पांण्डवों को अमृत स्वरूप ज्ञान प्रदान करें. भीष्म भी उन दिनों शर सैय्या पर लेटे हुए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे. कृष्ण के अनुरोध पर परम वीर और परम ज्ञानी भीष्म ने कृष्ण सहित पाण्डवों को  राज धर्म, वर्ण धर्म एवं मोक्ष धर्म का ज्ञान दिया. भीष्म द्वारा ज्ञान देने का क्रम कार्तिक शुक्ल एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पांच दिनों तक चलता रहा. भीष्म ने जब पूरा ज्ञान दे दिया तब श्री कृष्ण ने कहा कि आपने जो पांच दिनों में ज्ञान दिया है यह पांच दिन आज से अति मंगलकारी हो गया है. इन पांच दिनों को भविष्य में भीष्म पंचक व्रत के नाम से जाना जाएगा. यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी होगा |


भीष्मजी को अर्ध्य देने से पुत्रहीन को पुत्र प्राप्त होता है ..... जिसको स्वप्नदोष या ब्रह्मचर्य सम्बन्धी गन्दी आदतें या तकलीफें हैं, वह इन पांच दिनों में भीष्मजी को अर्ध्य देने से ब्रह्मचर्य में सुदृढ़ बनता है | हम सभी साधकों को इन पांच दिनों में भीष्मजी को अर्ध्य जरुर देना चाहिए और ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए प्रयत्न करना चाहिए | 


सूर्योदय से पूर्व उठना और पवित्र नदियों का स्मरण करते हुए संभव हो तो तिल मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए | स्नान के बाद निम्न प्रार्थना करते हुए चन्दन  और तिल मिश्रित जल से भीष्मजी को अर्ध्य देना चाहिए : 
"गंगाजी के सुपुत्र, आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले पितामह भीष्म को यह अर्ध्य अर्पण है, हमें ब्रह्मचर्य में सहायता करना"


भीष्म पंचक व्रत का पूर्ण विवरण  जानने हेतु कृपया आश्रम से प्रकाशित एकादशी महात्म्य नाम की वीडियो सीडी देखें |