मंगलवार, जुलाई 20, 2010

परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो ! (भाग 4)

मुक्ति मुख्य दो प्रकार की होती है। एक होती है क्रममुक्ति और दूसरी होती है सद्योमुक्ति। धारणा, ध्यान, भजन, जप, तप, सुमिरन, सत्संग, ब्रह्मज्ञान आदि के बाद भी जिसे सुख लेने की वासना होती है, उसकी सद्योमुक्ति नहीं होगी, क्रममुक्ति होगी। शरीर छूटेगा तो उसका अन्तःकरण चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल को लांघता हुआ अन्तवाहक शरीर से ब्रह्मलोक तक पहुँचकर वहाँ भोग-काया पाकर ब्रह्माजी के समान सुविधाएँ और भोग पदार्थ भोगता है। जब ब्रह्मा जी के कल्प का अन्त होता है तब वहाँ ब्रह्मदेवता के श्रीमुख से पुनः ब्रह्मज्ञान सुनता है। इससे उसे अपने स्वरूप का स्मरण हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है। इसे क्रममुक्ति कहते हैं।

क्रममुक्ति भी दो प्रकार की होती हैः एक तो जीव ब्रह्मलोक में कल्प तक सुख भोगता रहे और अन्त में ब्रह्माजी जब अपनी काया विलय करना चाहते हों, जब आत्यंतिक प्रलय हो, तब उसमें उपदेश मात्र से जगकर अन्तःकरण परब्रह्म परमात्मा में लीन होता है।
दूसरी क्रममुक्ति में ऐसे लोग होते हैं, जिन्होंने साधन-भजन तो किया लेकिन किसी सुख-भोग की इच्छा रह गई तो सद्योमुक्ति नहीं हुई। वे ऊपर के लोग-स्वर्गलोक ब्रह्मलोक आदि में गये और वहाँ फिर स्मरण हुआ की सभी भोग पुनरागमन करवाने वाले हैं, मुझे तो शीघ्रातिशीघ्र अपने परमात्मपद में जागना है। ऐसे लोग फिर किसी धनवान श्रीमान और सदाचारी के कुल में जन्म लेते हैं। सब सुख-सुविधाएँ होने के बावजूद भी उनका चित्त उनमें नहीं लगता। उन्हें त्याग की एकाध बात मिल जाती है, सत्संग में विवेक, वैराग्य की बात मिल जाती है तो पिछले जन्म का किया हुआ साधन भजन पुनः जाग्रत हो जाता है और वे साधन-भजन में जुटकर यहीं पर परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करके उनकी काया जब पंचभूतों में लीन होती है तो वे परब्रह्म परमात्मा में लीन होते हैं। ये भी क्रममुक्ति में आते हैं।

त्यागो हि महत्पूज्यो सद्यो मोक्षपदायकः।
त्याग महान पूजनीय है। इससे शीघ्र मोक्ष मिलता है।
अतः इस लोक के सुख-सुविधा, भोग सब नश्वर हैं, स्वर्ग का सुख भी नश्वर है, ब्रह्मलोक का सुख भी नश्वर है..... ऐसा तीव्र विवेक जिसे होता है उसके चित्त में सांसारिक सुखों के भोग की वासना नहीं होती अपितु परमपद को पाकर मुक्त हो जाएँ, ऐसी तीव्र लालसा होती है। ऐसे महाभाग्यवान विरले ही होते हैं जो सद्योमुक्ति का अनुभव करते हैं। उन्हें किसी भी लोक-लोकांतर के सुख-वैभव की इच्छा नहीं होती है। वे साक्षात् नारायण स्वरूप हो जाते हैं।
ऐसे ज्ञानवान जो सद्योमुक्ति को प्राप्त हैं, वे अपना शेष प्रारब्ध लेना-देना, खाना-पीना इत्यादि करते हैं। किसी से कुछ लेते हैं तो उसके आनन्द के लिए किसी को कुछ देते हैं तो उसके आनन्द के लिए। वे अपने आनन्द के लिए कुछ देते-लेते हुए दिखते हैं परन्तु उनके चित्त में लेने देने का भाव नहीं रहता है। वे हँसने के समय हँसते हैं, ताड़न के समय ताड़न करते हैं, अनुशासन के समय अनुशासन करते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर सारथि बनकर अर्जुन जैसों का रथ भी चलाते हैं। ऐसे ही वे जीवन्मुक्त महापुरूष हमारे जीवनरूपी रथ का भी मार्गदर्शन करते हैं तथापि उनके चित्त में कर्त्तृत्व भाव नहीं आता है।

अष्टावक्र मुनि राजा जनक से कहते हैं-
अकर्त्तृत्वममोकृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
जब पुरूष अपने अकर्त्तापन और अभोक्तापन को जान लेता है तब उस पुरूष की संपूर्ण चित्तवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं।(अष्टावक्र गीताः 18.59)
अर्थात् अपनी आत्मा को जब अकर्त्ता-अभोक्ता जानता है तब उसके चित्त के सारे संकल्प और वासनाएँ क्षीण होने लगती हैं।
हकीकत में करना-धरना इन हाथ पैरों का होता है। उसमें मन जुड़ता है। अपनी आत्मा अकर्त्ता है। जैसे बीमार तो शरीर होता है परन्तु चिन्तित मन होता है। बीमारी और चिन्ता का दृष्टा जो मैं है वह निश्चिन्त, निर्विकार और निराकार है। इस प्रकार का अनुसंधान करके जो अपने असली मैं में आते हैं, फिर चाहे मदालसा हो, गार्गी हो, विदुषी सुलभा हो अथवा राजा जनक हो, वे जीते जी यहीं सद्योमुक्ति का अनुभव कर लेते हैं।
सद्योमुक्ति का अनुभव करने वाले महापुरूष विष्णु, महेश, इन्द्र, वरूण, कुबेर आदि के सुख का एक साथ अनुभव कर लेते हैं क्योंकि उनका चित्त एकदम व्यापक आकाशवत् हो जाता है और वे एक शरीर में रहते हुए भी अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त होते हैं। जैसे घड़े का आकाश एक घड़े में होते हुए भी ब्रह्माण्ड में फैला है वैसे ही उनका चित्त चैतन्य स्वरूप के अनुभव में व्यापक हो जाता है।
रामायण में आता है-
चिदानंदमय देह तुम्हारी।
विगतविकार कोई जाने अधिकारी।।
रामजी को विरले ही जान पाते हैं। भगवान राम के बाहर के श्रीविग्रह का दर्शन तो कैकेयी, मन्थरा को हो सकता है, लेकिन रामतत्त्व को तो कोई विरला योगी महापुरूष ही समझ पाता है। ऐसे ही अपने बाहर के, एक दूसरे के शरीरों क दर्शन तो हो जाता है लेकिन अपना जो वास्तविक 'रामतत्त्व' है, 'मैं' तत्त्व है, जहाँ से 'मैं' स्फुरित होता है वह चिदानन्दमय है, निर्विकार है। उस पर जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि का प्रभाव नहीं पड़ता।
बीमार शरीर होता है, वास्तव में तुम कभी बीमार नहीं होते। तुम कभी चिन्तित नहीं होते, चिन्तित मन होता है। तुम कभी भयभीत नहीं होते, मन में भय आता है। तुम कभी शोक नहीं करते, शोक तुम्हारे चित्त में आता है लेकिन तुम अपने को उसमें जोड़े देते हो।

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