मंगलवार, जुलाई 13, 2010

भगवतप्राप्ति की कुंजी

भगवान महावीर के जमाने में पुष्य नाम का एक बड़ा सुप्रसिद्ध ज्योतिषी हो गया। उसका ज्योतिष इतना बढ़िया रहता था कि उसको अपने ज्योतिष विषय पर पूरा विश्वास था। देशदेशान्तर से लोग उससे पूछने आते थे। वह जो कह देता, अक्षरशः सच्चा पड़ जाता। लोगों के पदचिह्न की रेखाएँ देखकर भी वह लोगों की स्थिति बता सकता था। ऐसा बढ़िया कुशाग्र ज्योतिषी था।
उन दिनों में वर्धमान (बाद में महावीर हुए) घर छोड़कर दिन में तो विचरण करते और संध्या होती, रात पड़ती तो एकान्त खोजकर बैठ जाते। थोड़ी देर आराम कर लेते फिर सन्नाटे  बैठ जाते चुपचाप, ध्यान में स्थिर हो जाते।
पुष्य ज्योतिषी ने देखा कि रेत पर किसी के पदचिह्न हैं। पदचिह्नों को ज्योतिष विद्या से परखा तो जाना कि ये तो चक्रवर्ती के हैं। चक्रवर्ती अगर यहाँ से गुजरा है तो साथ में मंत्री होने चाहिए। सचिव होने चाहिए, अंगरक्ष्क होने चाहिए, सिपाही होने चाहिए। पदचिह्न चक्रवर्ती के और साथ में कोई झमेला नहीं यह सम्भव नहीं हो सकता। पुष्य ज्योतिषी को अपनी ज्योतिष विद्या पर पूरा भरोसा था। उसकी नींद हराम हो गयी। चाँदनी रात थी। जहाँ तक चल सका पदचिह्न देखता हुआ चला, फिर वहाँ ठहर गया। फिर सुबह-सुबह जल्दी चलना चालू किया। खोजना था, पदचिह्न कहाँ जा रहे हैं। देखा कि बिना कोई साधन के, एक व्यक्ति शांत भाव में बैठा हुआ है। पदचिह्न वहीं पूरे होते हैं। इर्दगिर्द देखा, चेहरे पर देखा। महावीर की आँख खुली। ज्योतिषी चिन्ता में डूबता जा रहा था। महावीर से पूछाः
"ये पदचिह्न तो आपके मालूम होते हैं ?"
"हाँ।"
"मुझे अपने ज्योतिष पर भरोसा है। आज तक मेरा ज्योतिष झूठा नहीं पड़ा। पदचिह्नों से लगता है कि आप चक्रवर्ती सम्राट हो। लेकिन आपका बेहाल देखकर दया आती है कि आप भिक्षुक हो। मेरी विद्या आज झूठी कैसे पड़ी ?"
महावीर मुस्कराकर बोलेः "तुम्हारी विद्या झूठी नहीं है, सच्ची है। चक्रवर्ती को क्या होता है ?"
"उसके पास ध्वजा होती है, कोष होता है, उसके पास सैन्य होता है। आप तो ठनठनपाल हैं।"
"धर्म की ध्वजा मेरे पास है। कपड़े की ध्वजा ही सच्ची ध्वजा नहीं है। सच्ची ध्वजा तो धर्म की ध्वजा है। मेरे पास सदविचाररूपी सैन्य है जो कुविचारों को मार भगाता है। क्षमा मेरी रानी है। चक्रवर्ती के आगे चक्र होता है तो समता मेरा चक्र है, ज्ञान का प्रकाश मेरा चक्र है। ज्योतिषी ! क्या यह जरूरी है कि बाहर का चक्र ही चक्रवर्ती के पास हो ? बाहर की ही ध्वजा हो ? धर्म की भी ध्वजा हो सकती है। धर्म का भी कोष हो सकता है। ध्यान और पुण्यों का भी कोई खजाना होता है।
राजा वह जिसके पास भूमि हो, सत्ता हो। सुबह जो सोचे तो शाम को परिणाम आ जाय। ज्ञानराज्य में मेरी निष्ठा है। जो भी मेरे मार्ग में प्रवेश करता है, सुबह को ही चले तो शाम को शांति का एहसास हो जाता है, थोड़ा बहुत परिणाम आ जाता है। यह मेरी ज्ञान की भूमि है।"
जो ज्योतिषी हारा हुआ निराश होकर जा रहा था वह सन्तुष्ट होकर, समाधान पाकर प्रणाम करता हुआ बोलाः
"हाँ महाराज ! इस रहस्य का मुझे आज पता चला। मेरी विद्या भी सच्ची और आपका मार्ग भी सच्चा है।"
कभी-कभी लोग अपने हाथ दिखाते हैं कि मुझे भगवत्प्राप्ति होगी कि नहीं। भगवत्प्राप्ति हाथ पर नहीं लिखी होती।
मेरे गुरूदेव बड़े विनोदी स्वभाव के थे। एक बार बम्बई में समुद्र किनारे सुबह को घूमने निकले। कोई ज्योतिषी अपने ग्राहक को पटा रहा था। बाबाजी भी ग्राहक होकर बैठ गयेः भाई, मेरा हाथ भी देख ले।
मौज फकीरों की भी !
वह ज्योतिषी बोलता था कि तुम अपने मन में किसी भी फूल का स्मरण करो। मैं आपको यह फूल बता दूँ। वह बता देता था और सामने वाले को श्रद्धा हो जाती थी। फिर वह जो बोलता था वह सामने वाले को लगता था कि सच्चा है। दो बातें ज्योतिषी की या और किसी की अगर सच्ची लग जाती है तो तीन बातें उसमें और भी मिश्रित हो सकती हैं।
गिरनार के मेले में कई भिखमंगे ज्योतिषी बन जाते हैं। वेश बना लेते हैं, दाढ़ी-बाल बढ़ा लेते हैं, जोगी का रूप धारण कर लेते हैं। पावड़िया चड़ते हुए किसी को बोलते हैं-
"भगत ! भगवान ने दिल दिया लेकिन दौलत नहीं दिया। जिसकी तुम भलाई करते हो, वहाँ से बदला बढ़िया नहीं आता है।"
सर्व साधारण यह बात है। सब चाहते हैं कि भलाई थोड़ी करें बदला ज्यादा मिले। ऐसा तो होती नहीं। 'दिल है, दौलत नहीं....' अगर दौलत होती तो पैदल हाँफता-हाँफता क्यों जाता ? कपड़ों से ही पता चला जाता है कि, 'दिल दिया है, दौलत नहीं दिया।' लोग ऐसे फुटपाथी ज्योतिषियों के ग्राहक बन जाते हैं। ऐसे ज्योतिषी तोते-मैना-काबरों को, चिड़ियाओं को पालकर पिंजरे में रखते हैं। लिफाफों में अलग-अलग बातें जो सर्व साधारण सब मनुष्यों की होती हैं वे लिखी हुई होती हैं। तुम्हारी राशि ऐसी है..... अमुक ग्रह की कठिनाई है.... ऐसा-ऐसा करो तो ठीक हो जायेगा..... आदि आदि।
उस ज्योतिषी ने बाबाजी से कहाः "महाराज ! अपने मन में किसी फूल की धारणा कर लो।"
"हाँ, कर ली।"
"महाराज ! आपके मन में गुलाब का फूल है।"
"ज्योतिषी महाराज ! बिल्कुल सच्ची बात है।"
गुरूदेव ने सचमुच में गुलाब को याद किया था। लोग गुलाब को याद करें यह स्वाभाविक है। फूलों को याद करो तो पहले गुलाब आ जायेगा।
ऐसे ही साधक अगर किसी को याद करे तो गुलाबों का गुलाब परमात्मा याद आ जाय। कुछ भी करना है तो परमात्मा को पाने के लिए करें, उसको संतुष्ट करने के लिए करें। ....तो उसके लिए परमात्मा दुर्लभ नहीं।
तस्याहं सुलभः पार्थ।
'हे पार्थ ! ऐसों के लिए मैं सुलभ हूँ।'
ज्योतिषी ने बड़ी सूक्ष्मता से बाबाजी का हाथ देखकर बताया किः "आप भगवान के लिए साधू बने हो, खूब तप किया है फिर भी अभी तक भगवान मिले नहीं हैं। आप तपस्या चालू रखोगे तो सफल हो जाओगे।"
गुरूदेव बोलेः "भगवान मिला नहीं क्या ? भगवान तो हमारा अपना आपा है।"
भगवान की मुलाकात तो गुरूदेव को करीब पचास वर्ष पहले हो चुकी थी, आत्म-साक्षात्कार हो चुका था, भगवत्प्राप्ति हो चुकी थी। हाथ देखकर ज्योतिषी अभी बता रहा है कि, 'भगवान मिले नहीं हैं। तपस्या चालू रखोगे मिल जाएँगे।'
कहने का तात्पर्य यह है कि भगवत्प्राप्ति हो गई है कि नहीं, यह हाथ पर नहीं लिखा होता अथवा ललाट से नहीं दिखेगा। हस्तरेखाओं से यह बात नहीं जानी जाती। अगर ईश्वर-प्राप्ति की तत्परता है, तीव्र लगन है तो ईश्वर-प्राप्ति जरूर हो जायेगी। संसार की तुच्छ चीजें सँभालने की तत्परता है तो ईश्वर-प्राप्ति नहीं होगी।
वास्तव में भगवान की अप्राप्ति है ही नहीं। भगवान तो अपना आपा है। संसार की आसक्ति मिटी तो वह प्रकट हो गया। संसार की आसक्ति बनी रही तो जीव फँसा रहा। कोई ज्योतिषी आपका हाथ देखकर बता दे कि भगवत्प्राप्ति होगी या नही होगी तो यह बिल्कुल बेवकूफी की बात है। ज्योतिषी का दम नही यह बता देने का। वहाँ ज्योतिष विद्या की गति नहीं है। ईश्वर-प्राप्ति विषयक जानने के लिए ज्योतिषियों को अपनी हस्तरेखाएँ बताने की कोई जरूरत नहीं है।
भगवान हमें मिलेंगे ही यह दृढ़ विश्वास, संकल्प और श्रद्धा रखकर साधना करो, भगवान के लिए ही कार्य करो, उसको रिझाने के लिए ही जीवन जियो, उसको पाने के लिए ही आयु बिताओ। बस, तुम्हारी यह दृढ़ता ही भगवत्प्राप्ति का कारण है। भगवत्प्राप्ति को ज्योतिष से कोई मतलब नहीं, उसे तो तुम्हारी तत्परता से, दृढ़ता से और तीव्र जिज्ञासा से मतलब है।

ईश्वर के नाते आप जिओ। पत्नी से स्नेह करो लेकिन ईश्वर के नाते स्नेह करो। पति से स्नेह करो लेकिन ईश्वर के नाते स्नेह करो। दोनों की उन्नति हो इस भावना से स्नेह करो। बेटे से खूब स्नेह करो, बेटी से भी स्नेह करो लेकिन स्नेह करते-करते स्नेह जहाँ से पनपता है, प्रकट होता है उस स्नेह-स्वरूप प्रभु में भी जरा गोता मारो तो बेटी की भी उन्नति, माँ की भी उन्नति, बेटे की भी उन्नति, बाप की भी उन्नति, और बाप के बाप की भी उन्नति, सबकी उन्नति हो जायगी। उन्नति जीवन जीने का तरीका यह है।
....तो आज का भागवत का श्लोक कहता हैः
'चित्त और इन्द्रियों का संयम करके जगत को अपने में देखना और अपने व्यापक आत्मा को परमात्मा में देखना चाहिए।'

जैसे बाहर का पानी अपने बोर में डालो, बोर गहन बनाओ, फिर अपने बोर का पानी बाहर विस्तृत कर दो। ऐसे ही जगत को प्रेम से अपने में देखो और अपना प्रेम इतना व्यापक करो कि पूरे जगत में फैले जाये।

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1 टिप्पणियाँ:

यहां गुरुवार, 15 जुलाई 2010 को 12:05:00 am IST बजे, Blogger narayanhari ने कहा…

Hariom
aap ka ye lekh 10000 mile dur baithe baithe parmatmswarup gurudev ki yad dilata he. Bahut sadhuwad he aapko aise badhiya satsang dene hetu
Hariom

 

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