शनिवार, जुलाई 31, 2010

परिस्थितियों के पार !

दुःख न हो, प्रतिकूल परिस्थितियाँ न आयें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थितियाँ बनी रहें यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अनुकूल परिस्थिति में आकर्षित न होना, अनुकूल परिस्थिति में सुख का भ्रम करके उसके दलदल में न गिरना यह तुम्हारे हाथ की बात है। प्रतिकूल परिस्थितियों से भयभीत न होना यह तुम्हारे हाथ की बात है। अनुकूल परिस्थितियों के सुख में लालसा नहीं और प्रतिकूल परिस्थितियों के दुःख का भय नहीं तो चित्त साम्य अवस्था में पहुँच जाएगा, शांत अवस्था में पहुँच जाएगा, निःसंकल्प अवस्था में पहुँच जाएगा। इससे नित्य नूतन रस, नवीन ज्ञान, नवीन प्रेम, नवीन आनन्द और वास्तिवक जीवन का प्राकट्य ह जाएगा।

हम क्या करते हैं ? प्राप्त वस्तु और परिस्थितियों का दुरूपयोग करते हैं। सुख आता है तो इन्द्रियाँ और विकारों के सहारे सुख का भोग करके अपनी शक्ति क्षीण करते हैं। दुःख आता है तो भयभीत होकर चित्त को डोलायमान करते हैं। दुःख के भय से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और सुख के आकर्षण से भी हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं।

सुख में हम जितने अधिक आकर्षित होते हैं उतने भीतर से खोखले जो जाते हैं।

तुमने देखा होगा कि जो अधिक धनाढ्य है, जिसको सत्संग नहीं है, सदगुरू नहीं है वह आदमी भीतर से कमजोर होता है। भोगी आदमी, भयभीत आदमी भीतर से खोखला होता है।

जो महापुरूष सुख-दुःख में सम रहते हैं उनकी उत्तम साधना हो जाती है। यह साधना सुबह-शाम तो प्राणायाम, ध्यान आदि के साथ तो की जा सकती है, इतना ही नहीं दिनभर भी की जा सकती है।

सुख-दुःख में सम रहने का अभ्यास तो चलते फिरते हो सकता है। विपरीत परिस्थितियाँ आये बिना नहीं रहेगी। अनुकूलता भी आये बिना नहीं रहेगी। तुम प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग करने की कला सीख लो। मुक्ति का अनुभव सहज में होने लगेगा।

तुम्हारे पास कितने ही रूपये आये और चले गये। तुम रूपयों से बँधे नहीं हो। कई जन्मों में कितने ही बेटे आये और चले गये। तुम बेटों से बँधे नहीं हो। हम किसी वस्तु से, व्यक्ति से, परिस्थिति से बँधे हैं यह मानना भ्रम है। सुखद परिस्थितियों में लट्टू हो जाने की मन की आदत है। मन के साथ हम जुड़ जाते हैं। मन में होता है कि यह मिले.... वह मिले....। मन के इस आकर्षण से हमारा अन्तःकरण मलिन हो जाता है। भय की बात का हम चिन्तन करते हैं। इससे हमारी योग्यता क्षीण हो जाती है।

रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जब तक जियें तब तक साधना करनी है, क्योंकि जब तक जियेंगे तब तक परिस्थितियाँ आयेंगी। मरते दम तक परिस्थितियाँ आती हैं। जीवनभर जिस तिजोरी को सँभाला था उसकी कुंजियाँ दें जानी पड़ती है। कितना दुःख होगा ! जीवनभर जो चीजें सँभाल-सँभालकर मरे जा रहे थे वे सब की सब चीजें एक दिन, एक साथ किसी को दे जानी पड़ेगी। देने के योग्य कोई नहीं मिलता है फिर भी झख मार के दे जाना पड़ता है। चाहे घर हो, चाहे मकान हो, चाहे आश्रम हो, चाहे धन हो, चाहे कुछ भी हो। जीवनभर जिस शरीर को खिलाया पिलाया, नहलाया, घुमाया, फिराया उसको भी छोड़ जाना पड़ता है।

घटनाएँ तो घटती ही रहेंगी। तुम चाहे आत्म-साक्षात्कार कर लो, अरे ब्रह्माजी की तरह योग-सामर्थ्य से सृष्टि का सर्जन करने की ऊँचाई तक पहुँच जाओ फिर भी विपरीत परिस्थितियाँ तो आयेंगी ही।

एक बार ब्रह्माजी की भी भूल हो गई। शिवजी कुपित हो गये और शाप दे दिया कि तुम्हारी पूजा नहीं होगी। शिवजी ने ब्रह्मा जी का एक मस्तक काट दिया। ब्रह्मा जी चाहते तो वह मस्तक पुनः लगा सकते थे लेकिन वे साम्यावस्था में रहे ऐसा 'योगवाशिष्ठ' में आता है। अर्थात् परिस्थितियाँ चाहे आयें, जायें, बदलें परंतु तुम्हारी ज्ञानकला इतनी दृढ़ हो जाए कि चित्त समता के साम्राज्य पर आसीन रहे, तुम साम्यावस्था में डटे रहो।

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