रविवार, फ़रवरी 19, 2012

शिवरात्रि का तात्विक सत्संग

              जिस परम शांति में भगवान साम्ब सदाशिव, चंद्रशेखर, त्रयम्बकेश्वर समाधिस्थ रहते है, उस आत्मशांति में आज महापर्व के दिन, शिवरात्रि के पावन पर्व के दिन, हम उसी शिवशांति में, शिव माधुर्य में, शिव प्रसाद में, पावन होते जायेंगे |शम्भुप्रसाद .... शंभुप्रसाद से सबकुछ संभव |
               वह भर्ता, भोक्ता, महेश्वर, ईश्वरों के ईश्वर, सब कुछ लुटाने वाले, और फिर अलख निरंजन करके भिक्षा मांगने में संकोच नहीं...... पल भर में सबकुछ दे डालना, फिर भी कभी कुछ न खुटे...... |
इस देव का बाह्य स्वरुप भी बड़ा प्रेरणादायी है |


शिवजी को मुंडो की माला, भस्मलेप, भभूत रमाते हुए , त्रिशूल धारण करते हुए चित्रों में देखा है शिवजी के सर्पों को आपने देखा होगा चित्रों में | इस देव का बाह्य स्वरुप भी बड़ा प्रेरणादायी है |
                                            देव देव महादेव |
                 अपने महान स्वरुप में सदा विराजमान ये महादेव | भगवान महादेव, साम्ब सदाशिव के विषय में शास्त्रों ने कहा है
                                                               "भुवन भंग व्यसनम् "
                  भुवनों को भंग करने का व्यसन है इस देव को | जैसे माली बाग बगीचे की कटाई-छंटाई न करे तो बगीचा जंगल में बदल जायेगा | ऐसे ही सृष्टि में साफ़-सफाई करने और फिर सृष्टि को सुहावना बनानेवाले ये देव ! साम्ब सदाशिव !
                  शिवजी कैलाश पर कहे गए अर्थात ज्ञान, प्रकाश, माधुर्य, अंतःकरण की शीतलता, ऊँचे केन्द्रों में होती है | कैलाश सबसे ऊँचा कहा गया है | मूलाधार में काम रहता है, लेकिन सहस्त्रसार में ब्रह्मसुख होता है | स्वाधिष्ठान में कल्पनायें रहती है | सहस्त्रसार में ....... कल्पनातीत समाधि का सुख | शिवजी धवल शिखर पर रहते है, ज्ञान- प्रकाशमय है, देह को मै माननेवाला अज्ञान कतई नहीं |
                  शिव कैलाश पर रहते है, उनके पास त्रिशूल है | तीनों पापों से, तीनों शूलों से पार करने वाला त्रिशूल | त्रिगुणातीत सुख में पहुंचानेवाले और त्रिगुणातीत सुख में रहने वाले शिवजी की याद त्रिशूल दे देता है | सारा संसार इन तीन गुणों में उलझा है और शिवजी का त्रिशूल बताता है कि तीन गुण माया में है |
कभी तमस आता है आप आलसी, अशांत, प्रमादी, दीर्घसूत्री हो जाते है | कभी रजोगुण आता है, आप प्रवृत्ति में, कामी में, लोभी में, मोहीपने में अपने को पाते है | कभी सत्वगुण आता है, आप सत्संग में, सेवा में, दान में, पुण्य में अपने को पाते है लेकिन ये त्रिशूल आपके हाथ में होना चाहिए |
ये तीन गुण आपके हाथ में होने चाहिए | इन तीन गुणों का आप उपयोग कर सकते है, शत्रु-संहार में भी और भक्तों को आनंद देने में भी | त्रिशूलधारी जैसे त्रिशूल का उपयोग करते है, ऐसे ही तीनों गुणों का उपयोग करता है, वह शिव-तत्व को पाता है |
                  शिवजी की जटाओं पर दूज का चाँद दिखाई देता है अर्थात जो ज्ञान संपन्न है वो किसी का थोडा सा प्रकाश भी, थोडा सा ज्ञान भी अपने सिर पर चढ़ाता है | हठी और जिद्दी आदमी, "मै सब जानता हूँ", करके अपना ज्ञान का द्वार बंद रखता है लेकिन शिवजी ज्ञानप्रकाश का आदर करते है | दूज के चाँद को अपने सिर पर धारण करके प्रेरणा देते है कि जहाँ भी प्रकाश मिले, शिरोधार्य करो |
                 शिवजी के गले में मुंडों की माला है, विद्वानों ने इस पर विचार विमर्श किया | ये मुंड, ये खोपडियां कोई साधारण व्यक्ति की नहीं, जिनके जीवन में आत्मज्ञान है, जिनके जीवन में सत्वप्रकाश है, जिनके जीवन में दिव्यता है, ऐसे दिव्य जीवन जीनेवालों की | शरीर तो चला जाता है लेकिन उनका मस्तक, जो खोपड़ी है वो भी मेरे ह्रदय का हार है दूसरा अर्थ लगाया कि धनियों को, सत्ताधीशों को और अहंकारियों को ये खबर दे कि जिस खोपड़ी में "मै धनी हूँ" "मैं सेठ हूँ" "मैं सत्ताधीश हूँ" "मैं राजा हूँ" आखिर ये खोपड़ी ऐसी हो जायेगी एक दिन |

पड़ा रहेगा माल खजाना, छोड़ त्रिया सुत जाना है
कर सत्संग अभी से प्यारे, नहीं तो फिर पछताना है
खिला- पिला के देह बढ़ाई, वो भी अग्नि में जलाना है

                  खोपड़ी चाहे अमीर की हो, चाहे गरीब की हो, लेकिन खोपड़ी, खोपड़ी हो जाती है | शिवजी ने मानो अहंकारियों को, अमीरों को प्रेरणा दी | मानों शिवजी ने ज्ञानियों का आदर किया, इसलिए मुंडों की माला भी सुशोभित, ! शिवजी के अंतःकरण को उल्लसित कर रही है |
                    शिवजी के गले में भुजंग है, सांप है | विष उगलने वाले सांप, लेकिन शिवजी ने आत्मरस के प्रभाव से विष को अमृतमय कर दिया | विषैले सर्प भी उनके लिए, भुजा और कंठ के और कौपीन की जगह पर भी, जरुरत पड़े तो लगाकर, वे गहनों का काम ले लेते है |
                    मानव ! तुम्हारे जीवन में भी कई विषधर आत्माएं आएँगी, कई विष के घूंट आयेंगे लेकिन तुम उन विष के घूंटों के सामने अपना विष मत उगलो | विष के घूंटों के सामने तुम अपनी शिवमयी दृष्टि, अमृतमयी दृष्टि कर दो ताकि विषधर भी तुम्हारे लिए गहनों-गांठों का काम कर ले |
                     शिवजी का एक नाम है नीलकंठ | समुद्रमंथन के समय लक्ष्मीजी, अमृत और रत्न, बहुत कुछ संपदाएं निकली उस सम्पदा के लिए तो सभी लालायित थे, लेकिन हलाहल निकला, त्रिलोकी में हाहाकार मच गया | अमृत के लिए तो देव भी भागे, दैत्य भी भागे लेकिन विष को देखकर कौन आगे आये | शिवजी ने कहा अमृत तुम्हारे हिस्से, मणियाँ-मालाएं तुम्हारे हिस्से, ऐहिक सम्पदा तुम्हारे हिस्से ! लाओ हलाहल निकला है तो हम ही पी लेते है |
                       जिसके ह्रदय में आत्म-अमृत है वो संसार के हलाहल को पीने में सक्षम होता है | पीकर भी शिवजी ने कमाल कर दिया | पीकर पेट में न उतारा और वमन भी न किया | कंठ में धारण किया | नीलकंठ भगवान की जय ! नीलकंठ कहलाये | ऐसे ही कुटुंब के, समाज के अगवों को, शिवजी के इस नीलकंठ स्वरुप से सीख लेनी चाहिए कि आगेवान हो तो सुख सुविधा सम्पदा समाज की सेवा में लगाओ और कभी कार्य में कहीं ऐसे विष के घूंट आ जाये तो तुम पीकर मरो मत, वमन करके वातावरण बिगाड़ो मत, अपने कंठ में दबोच के रख दो तो तुम्हारी शोभा बनेगी |

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 दो  
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                 शिवरात्रि का उत्सव वस्त्र अलंकार से इस देह को सजाने का उत्सव नहीं है | शिवरात्रि का उत्सव मेवा-मिठाई खाकर इस देह को मजा दिलाने का उत्सव नहीं है | शिवरात्रि का उत्सव देह से परे देहातीत आत्मा में आराम पाने का उत्सव है | शिवरात्रि का उत्सव संयम और तप बढ़ाने का उत्सव है |
                   शिव शब्द ही कल्याण स्वरुप है | सत्यम शिवम सुन्दरम | सत्य वह है जो त्रिकाल अबाधित हो ! सत्य वह है जो सदा रहे, जिसको प्रलय भी प्रभावित न कर सके, उसको सत्य कहते है और वह सत्य तुम्हारे हृदय में है, वह सत्य तुम्हारे साथ है, उस सत्य को प्रकट करने के लिए ही मनुष्य जन्म की बुद्धि है |
                      दूसरों की जेब खाली करने के लिए बुद्धि नहीं है लेकिन दूसरों के ह्रदय में अशांति और दुःख है, वो दूर करके दूसरों के ह्रदय में भी दिलबर का गीत गुंजाने के लिए बुद्धि है | अगर बुद्धि का उपयोग किसी का शोषण करने में आदमी लगाता है तो दूसरे जन्म में उसकी हालत कुछ दयनीय हो जाती है | बुद्धि का उपयोग अपने और दूसरे के जीवन में छुपे हुए शिवत्व को जगाने में किया जाय तो वह बुद्धि ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है |
                    शिवजी हिमशिखर पर रहते है, ऊँचे शिखर पर | जीवन को उन्नत करना हो तो ऊंचाई पर जाना पड़ता है कुंडलिनी योग के ज्ञाता योगियों का कहना है कि मानव जब नीचे केन्द्रों में होता है तो उसे काम, क्रोध, भय, शोक चिंता, स्पर्धा, घृणा सताती है | जैसे सामान्यतः आदमी मूलाधार केंद्र में होता है तो काम विकार का शिकार होता रहता है वह केंद्र जब रूपांतरित हो तो काम का केंद्र बदल कर राम रस प्रकट कर देता है | स्वाधिष्ठान केंद्र में भय, घृणा, इर्ष्या और स्पर्धा रहती है | उस केंद्र को अगर आदमी संयम से साधन से बदल दे तो भय की जगह पर निर्भयता, स्पर्धा की जगह पर समता आने लगेगी, घृणा की जगह पर स्नेह का जन्म होगा | अशांति की जगह पर शांति का साम्राज्य प्राप्त होगा | तुम्हारे भीतर के गीत गूंजेंगे |
                  शिवरात्रि माने भीतर के छुपे हुए शिवत्व को जगाना और दिल के ताल के साथ जीवन को मधुर बनाना | आदमी अगर सीखना चाहे तो कभी फूलों से भी सीख सकता है तो कभी पशुओं से भी सीख सकता है | पक्षी आज खाते है कल का कोई पता नहीं और एक डाल पर बैठते है फिर कौन सी डाल पर बैठेंगे ये कोई प्लानिंग नहीं, फिर भी पक्षी गीत गाकर मुस्कराकर जीवनयापन करते है | पक्षी जब तृप्त होता है तब जो बोलता है वो गीत हो जाता है | आदमी..... आज का है.... कल का है..... साल भर का है..... फिर भी इतना लोभ का शिकार बना जा रहा है कि आदमी ने अपना अंदर का संगीत नाश कर दिया है |
                    मुझे ये बात फिर से कहनी होगी कि एक पुराना घर, बाप दादों से पुरखों से चला आया, वही पुराना मजबूत घर | उस घर में एक साज पड़ा था दिवाली आती, उस साज को इधर से उधर करना पड़ता | घर के सभी लोगों ने देखा क्या चीज है ? हमें कोई पता भी नहीं है, चलो हटाओ उस गडबड को | घर के लोगो ने सफाई करते समय उस साज को बाहर फेंक दिया | कोई फकीर निकला, संत निकला उसने देखा और साज परख गया | संत ने उस वीणा पर अपनी उंगलियां घुमाई और साज से मधुर गीत निकला | लोग इकट्ठे हो गए, पथिक तो इकट्ठे हो गए, घर के लोग भी आ गए और साज सुनकर चकित हो गए | उन्होंने कहा कि बाबाजी ये साज हमारा है | बाबाजी ने कहा, तुम्हारा होता तो घर में रहता ! तुमने तो बेकार समझकर इसको फेंक दिया है |
साज उसी का है, जो बजाना जानता है |
गीत उसी का है जो गाना जानता है
आश्रम उसी का है जो रहना जानता है
और परमात्मा उसी का है जो पाना जानता है |

                    है तो प्राणिमात्र में ! लेकिन उसको पाने की विधि, पाने की कला अगर नहीं है तो परमात्मा साथ में होते हुए भी जीव दीनहीन और दुखी- लाचार होकर संसार भवाटी में विकारों के डंक सहता हुआ जीवन यापन करता है | ऐसे जीवों को अपनी महिमा समझाने के लिए ऐसे पर्वों की व्यवस्था है |
शिवरात्रि का पर्व तुम्हे ये सन्देश देता है कि शिवजी हिमशिखर पर, ऊँचे शिखर पर विराजते है | ऐसे ही जीवन को ऊँचे शिखर पर ले जाने का संकल्प करो |
                   शिवजी के पास मंदिर में तुम जाते हो, नंदी मिलता है, बैल ! समाज में जो बुद्धू होते है, उसको बोलते है- "तू तो बैल है" | अनादर होता है, लेकिन शिवजी के मंदिर में जो बैल है, उसका आदर होता है | पहले उसको नमस्कार करते है, बाद में शिवजी के दर्शन होते है | बैल जैसा आदमी भी अगर भगवद कार्य समझे, निष्काम भाव से सेवा करे, शिवतत्व की सेवा करता है तो वो बैल जैसे आदमी को भी समाज नमस्कार करता है, पूजन करता है|
                    शिवजी के गले में सर्प है | ज्ञानी में ये योग्यता होती है, जो ऊँचे शिखरों पर पहुँचते है उनमे ये क्षमता होती है कि सर्प जैसे विषैले स्वाभाव बाले व्यक्तियों से भी काम लेकर उनको समाज का सिंगार, समाज का गहना बनाने की कला उन ज्ञानियों में होती है |
                   तुम्हारी बुद्धि के ज्ञान का फल रोटी कमाना ही नहीं है | रोटी तो भैया एक मच्छर भी कमा लेता है | मच्छर को भी इतनी अक्ल है कि कहाँ खुराक मिलेगा? कैसे मिलेगा? मच्छर मेरी दाढ़ी पर कभी नहीं बैठता जब बैठता है गाल पर बैठता है | इतनी अक्ल तो मच्छर को भी है कि कहाँ रोटी मिलती है? कैसे भोजन मिले ? बच्चा पैदा करने कि अक्ल तो मच्छर को, खटमल को भी है | भोजन और अपना आहार और अपना घर बनाने की अक्ल तो चिड़िया और कौवे को भी है | इतनी बड़ी अक्ल भगवान ने दी तो केवल पेट पालू कुत्तों की नाई जिंदगी बर्बाद करने के लिए अक्ल नहीं दी | ये जो अक्ल दी है वो अक्ल जहाँ से प्रकाशित होती है, उस कल्याण स्वरुप शिव का साक्षात्कार करने के लिए हमारी बुद्धि है | शिवरात्रि का उत्सव हमें कहता है, जितना जितना हमारे जीवन में निष्कामता आती है, जितना जितना तुम्हारे जीवन में परदुखकातरता आती है, जितना जितना तुम्हारे जीवन में परदोष-दर्शन की निगाह कम होती जाती है | जितना जितना तुम्हारे जीवन में परम पुरुष का ध्यान, धारणा होती है उतना उतना तुम्हारा वो शिवतत्व निखरता है और तुम्हारा हृदय आनंद स्नेह साहस और मधुरता से छलकता है |


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सोमवार, फ़रवरी 06, 2012

संत मिलन को जाइये


संत मिलन को जाइये

Sant Milan Ko Jaaiiye


दुर्लभ मानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्।।1।।
मनुष्य-देह मिलना दुर्लभ है। वह मिल जाय फिर भी क्षणभंगुर है। ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य-देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है।(1)
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।
मदभक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।2।।
हे नारद ! कभी मैं वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ, परंतु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ। (2)
Gurukripa hi Kevlam ! : Followers of Param Pujya Sant Shri Asaram Ji Bapu

कबीर सोई दिन भला जो दिन साधु मिलाय।
अंक भरै भरि भेंटिये पाप शरीरां जाय।।1।।
कबीर दरशन साधु के बड़े भाग दरशाय।
जो होवै सूली सजा काटै ई टरी जाय।।2।।
दरशन कीजै साधु का दिन में कई कई बार।
आसोजा का मेह ज्यों बहुत करै उपकार।।3।।
कई बार नहीं कर सकै दोय बखत करि लेय।
कबीर साधू दरस ते काल दगा नहीं देय।।4।।
दोय बखत नहीं करि सकै दिन में करु इक बार।
कबीर साधु दरस ते उतरे भौ जल पार।।5।।
दूजै दिन नहीं कर सकै तीजै दिन करू जाय।
कबीर साधू दरस ते मोक्ष मुक्ति फल जाय।।6।।
तीजै चौथे नहीं करै सातैं दिन करु जाय।
या में विलंब न कीजिये कहै कबीर समुझाय।।7।।
सातैं दिन नहीं करि सकै पाख पाख करि लेय।
कहै कबीर सो भक्तजन जनम सुफल करि लेय।।8।।
पाख पाख नहीं करि सकै मास मास करु जाय।
ता में देर न लाइये कहै कबीर समुझाय।।9।।
मात पिता सुत इस्तरी आलस बंधु कानि।
साधु  दरस को जब चलै ये अटकावै खानि।।10।।
इन अटकाया ना रहै साधू दरस को जाय।
कबीर सोई संतजन मोक्ष मुक्ति फल पाय।।11।।
साधु चलत रो दीजिये कीजै अति सनमान।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ अपने बित अनुमान।।12।।
तरुवर सरोवर संतजन चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारणे चारों धरिया देह।।13।।
संत मिलन को जाइये तजी मोह माया अभिमान।
ज्यों ज्यों पग आगे धरे कोटि यज्ञ समान।।14।।
तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग।
हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।15।।
चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।
चलाचली के वक्त में भलाभली कर लेह।।16।।
सुखी सुखी हम सब कहें सुखमय जानत नाँही।
सुख स्वरूप आतम अमर जो जाने सुख पाँहि।।17।।
सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।
मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ।।18।।
दुनिया कहे मैं दुरंगी पल में पलटी जाऊँ।
सुख में जो सोये रहे वा को दुःखी बनाऊँ।।19।।
माला श्वासोच्छ्वास की भगत जगत के बीच।
जो फेरे सो गुरुमुखी न फेरे सो नीच।।20।।
अरब खऱब लों धन मिले उदय अस्त लों राज।
तुलसी हरि के भजन बिन सबे नरक को साज।।21।।
साधु सेव जा घर नहीं सतगुरु पूजा नाँही।
सो घर मरघट जानिये भूत बसै तेहि माँहि।।22।।
निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति सों सेव।
जो चाहे आकार को साधू परतछ देव।।23।।
साधू आवत देखि के चरणौ लागौ धाय।
क्या जानौ इस भेष में हरि आपै मिल जाय।।24।।
साधू आवत देख करि हसि हमारी देह।
माथा का ग्रह उतरा नैनन बढ़ा सनेह।।25।।
ॐ गुरु ॐ गुरु
ॐॐॐॐॐॐ

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संत पीपाजी

राजस्थान के गंग्नौरगढ़ का सम्राट राजा  पीपा विकारी सुखो में डूबा था.. 12 पत्नियां थी… पट्ट -रानी सीता दुर्गा की पूजा करती…राजा  रानी को  सत्संग मंडली से सत्संग मिल गया… गंग्नौर गढ़ के राजा  पीपा संत पीपाजी बन गए! दुर्गा की पूजा करने वाले राजा  की चित्त शक्ति आत्म देवी दुर्गा की पूजा करने लगी….

सत्संग से पीपा को समझ बढ़ी कि इतना वैभव पाने के बाद भी आत्म सुख का धन नहीं पाया तो कुछ नहीं पाया ये समझ आ गयी..धन का विकार, लोभ विकार, काम विकार आने जानेवाले है..मरने के बाद नीच योनियों में जाना पडेगा और जीते जी भी दुःख बिमारी की खायी में गिर कर रोते रोते मरना पडेगा ….

सत्संग में संत मंडली ने कहा की , रामानंद स्वामी के शरण जाओ…
काशी में श्री रामानंद स्वामी जी के आश्रम में पहुंचा …. महान संत रामानंद स्वामी ने देखा की पीपा हाथी  घोड़ो पर सवार हो कर आ रहे… राजा  की संत से मुलाक़ात नहीं होती… सेवको ने बोला कि हाथी  घोड़ो  पर सवार हो कर आये ऐसों की यहाँ दीक्षा नहीं होगी… हमारे यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं… स्वामीजी ने कहा है कि हमारा राजाधिराज आत्म राज है… कोई भी परिस्थिति आये, ऐसे राजाओं के लिए यहाँ प्रवेश वर्जित है…

पीपा ने सुन रखा था कि संतो के चरणों में जीव के कल्मष दूर होते…ह्रदय आनंद और प्रभु रस से खिल जाता है… प्राणी मात्र आनंद सुख और रस चाहता है, सुबह से शाम तक इसी सुख रस के लिए तो भटकता फिर भी सरप्लस  दुःख ही रहता… सुख सदा प्रगट करना है और दुःख को सदा के लिए मिटाना है तो ब्रम्हज्ञानी संत के सत्संग से ही होता है ..ये सम्राट पीपा ने सुन रखा था..

पीपा ने कहा, मैं  तो गुरुद्वार पे ही पडा रहूंगा…मुझे दीक्षा लेनी तो इस गुरू  से ही लेनी है… 2 दिन हो गए…सम्राट संत के आश्रम के द्वार पर बैठा है…भूखा है… प्यासा है… 
आश्रम-वासी बोले , ‘क्यों यहाँ बैठे हो?’

राजा पीपा बोले, ‘मुझे भगवत दर्शन की,भगवत प्राप्ति की बहुत जल्दी है…’

स्वामीजी ने कहा, ‘उसको बोलो कि कुएं में जम्प  मार दो…डूब मरो..’

तो राजा  पीपा सचमुच चल दिया… ‘कुआं कहाँ  है?’ पूछता काशी में… रामानंद स्वामी के संकल्प से पीपा को कुआं मिले नहीं, काशी में ऐसी जगह पहुँच गया कि जहां  बस्ती नहीं तो कुआं कहाँ  से होगा…भटक भटक के थक गया तो देवी दुर्गा माँ का सुमिरन किया…बोला,  ‘हे माँ तेरी मूर्ति का सच्चे दिल से पूजन किया हो, मेरे हाथ से कुछ भी अच्छा हुआ हो तो ये  गुरू मुझे स्वीकार करे…’

मोबाइल से फ़ोन लगाओ तो कनेक्शन मिलेगा , रिंग बजेगी फिर बात होगी…मोबाइल में 2-4 सेकण्ड  लगते किसी से बात सुनने को …लेकिन सच्ची प्रार्थना को भगवान तक पहुंचने में उतनी भी देर की जरुरत नहीं..उसी क्षण आप की प्रार्थना  सुन लेते भगवान !….
पीपा ने ह्रदय पूर्वक प्रार्थना की तो उसी क्षण उस के सामने सेवक खड़ा था और बोला, “गुरू जी बुला रहे हैं”


पीपा उठा और भागा … दूर से ही गुरू के चरणों में दंडवत  प्रणाम कर के जमीन  पर पड़  गया …..


गुरूजी रामानंद स्वामी जी ने देखा की पीपा की तड़प सच्ची है… गुरू चरणों में बैठ कर सत्संग सुना.. गुरू जी ने देखा कि राजा  की समझ बढ़ी है..संसारी मजा ये मजा नहीं सजा है… नीच  योनियों में जाने की तैयारी है, ये समझ आ गयी है….. हरि  नाम का अधिकारी है…आत्मा परमात्मा को पाने का अधिकारी है…
गुरूजी ने ज़रा सी नूरानी निगाह डाली…. पीपा गुरू की तरफ ‘हे प्रभु, हे हरि….’ करके एकटक  देख रहा है…. पीपा की साधना  ऐसी हुई कि ध्यान मूलं गुरु मूर्ति पूजा मूलं गुरू पदम्… मन्त्र मूलं गुरूर्वाक्‍यं, मोक्ष मूलं गुरूकृपा …

नजरो से वे निहाल हो जाते, जो संत की नजरो में आ जाते!
गुरूजी ने देखा कि ये सुपात्र है… विलासी भोगी राजा  पात्र तो है, लेकिन ऐश-आराम और खूब सुन्दर रानी का थोडा पिठ्ठू  भी है …इसकी और परीक्षा लेनी चाहिए..

गुरूजी बोले,  ‘राजा  अब तुम अपने राज्य वापस लौट जाओ’

पीपा बोला, ‘गुरूजी मैं  आप की चरण-धूलि बनना चाहता हूँ…’
गुरूजी बोले, ‘तुम राजा  हो, भोग विलास के आदी  हो’


राजा पीपा सत्संग से ऐसा ऊँची मति का धनि बना कि  महाराजा पद  को तुरंत त्याग दिया, जो गुरू चरण  से दूर रखे ऐसा कुछ नहीं चाहिए ….आश्रम के बाहर गया…सभी मंत्री अधिकारियों को बोल दिया कि जो भी ये राज वैभव ले जाना चाहते है, ले जाएं….राज-वस्त्र, जो भी सामान है सब गरीबो में बांट दिया..रानी सीता को कहा कि आप भी वापस राज महल चली जाएं….रानी सीता ने कहा , ‘मैं  तो आप के चरणों की दासी हूं’ …राजा  रानी ने सादे कपडे पहने..आश्रम वासी जैसा वेश धारण किया…

गुरूजी ने देखा कि राजा  इस परीक्षा में तो पास हो गया… सारा राज्य छोड़ने के लिया तैयार  है…जिस को पाने के लिए मनुष्य जन्म मिला है  उस को पा लेना कितनी बड़ी बहादुरी है ! … जो छूटने वाला है, वो ही छोड़ा है…


महाराज पीपा की ईश्वर प्राप्ति की प्यास देख कर गुरूजी मन ही मन प्रसन्न हुए …. 
पीपा बोले , ‘अब तो दीक्षा दीजिये गुरूजी…’

गुरूजी बोले, दीक्षा  की क्या बात करता है…आत्म साक्षात्कार करा दूँ ….लेकिन अभी तू ये बात छोड़ और अपने राज्य में जा कर अपना राजपाट संभाल… लेकिन पहेले जैसे भोग विलास के लिए नहीं..प्रजा को सुखी करने के लिए, दूसरों के दुःख हरने के लिए राज पाट संभाल, सुख की वासना और दुःख का भय मिटा..ऐसा राज्य कर… जब तुम   ऐसा राज-पाट  चलाने में सफल हो जाओगे तो हम स्वयं तुम्हारे राजस्थान में आयेंगे…और तुम को दीक्षा देंगे..’
राजा पीपा गदगद हो गया! ‘गुरू महाराज आप मेरे राजस्थान में आयेंगे!! मेरा राज्य पवित्र होगा….’
राजा पीपा  गदगद हो गए…गुरू महाराज को दंडवत प्रणाम करके अपने राज्य में वापस आये…लेकिन अब राजा  पीपा का तन, मन, खयालात बदला है…गुरू महाराज की आज्ञानुसार राज पाट चलाया, अपने को गुरूमुखी बनाया तो गुरू महाराज ने भी पीपा को ह्रदय पूर्वक स्वीकार कर लिया..भोगी विलासी राजा  पीपा संत पीपाजी बनकर महान हो गए!


ऐसे शक्कर बेचनेवाला एक लड़का था, उसको गुरू ने ह्रदय पूर्वक स्वीकार किया तो तुम्हारे सामने खड़ा है बापूजी बन के !..
ब्रम्हज्ञानी की गत-मत ब्रम्हज्ञानी जाने..

लीलाशाह भगवान की कृपा से आसुमल को वो  पद मिल गया…सारे  कहते …बापू क्या जादू है तेरे प्यार में… 


सत्संग की कैसी महिमा है…ईश्वर प्राप्ति का रास्ता सत्संग में सहज में सुलभ हो जाता है  बाकि साधन से कर्ता  मौजूद रहेता है…पूजा, यग्य -याग से नश्वर रिध्दी सिध्दी  मिल जाएगी , लेकिन उस का अहम् नहीं छूटेगा…भगवान कहेते जो मुझ में अहंकार का विसर्जन  कर के  मद-रूप हो जाता है, वो मुझे पा लेता है.. …सत्संग मेरे मिलने का सहज सुन्दर साधन है… वे लोग बहोत भाग्यशाली है जिन को हयात  महापुरुष का सत्संग मिल जाता है …

चान्द्रायण व्रत किया तो भी  कर्ता मौजूद रहता  है । सत्संग ज्ञान से कर्ता अपने को भगवान का जान लेता  है, आत्मा-परमात्मा  की प्रीति  हो जाती तो ईश्वर प्राप्ति सहज सुलभ हो जाती है । महाराज पीपा की चिंतन धारा  बदल गयी  । हाड़ मांस  के शरीर में, कमर तोड़ में शक्ति का ह्रास नहीं किया । ऐश आराम में मन नहीं रुका, इन्द्रियों की बेवकूफी से बुद्धि ऊपर उठती गयी । 

गुरू के बिना विद्वान् भी अनाथ है… गुरू मिल गये, दीक्षा मिल गयी तो मनुष्य जीवन सफलता  की ओर चल पडा समझो । जिन को दीक्षा नहीं मिली वो ‘राम राम’ जपना..  ‘राम राम रटते रहना… नियम पालना…
''संत मिलन को जाईये'' ये पाठ  करना रोज ।  

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


सत्संग की ऐसी महानता है कि विलासी भोगी राजा  पीपा को महान गुरू  भक्त संत पीपाजी बना देता है ।  गुरूजी की प्रसन्नता पा कर राज्य में  लौटता है तो उसके पुण्य प्रताप से राज्य के बाग़ बगीचे, खेती, वृक्ष लहराने लगते है.. सुमति का दान करना भारी  पुण्य है..
हरिभक्त पीपा के स्वप्न में देवी दुर्गा आती है, बोलती कि ठीक रास्ता पकड़ा है । ऐसे ये विलासी पीपा गंगनौर गढ़ के सम्राट गुरूकृपा से भक्ति सम्राट हो गए ! अब राज्य के लोगों का जीवन बदलने की घडियां  आई ।रामानंद स्वामी ने जाहिर किया कि हम पीपा के राज्य में जायेंगे , संदेशा भेजो । गुरू महाराज ने आज्ञा की । पीपा के साथ सीता और अन्य  पत्नियां जो पहले काम की कीडि़यां थी, अब उन में भी राम के प्रेमा भक्ति के सखा बनेंगे ऐसा भाव आया । 

गुरू जी  शिष्यों के साथ पधार रहे, सन्देश मिला तो राजा  पीपा चल दिए पैदल जहां  गुरूजी पधारेंगे । भक्त मंडलियां  तैयारी में लग गयी । यथा राजा  तथा प्रजा… सारी  प्रजा भी भक्तिमय हो गयी  थी । खबर मिली तो पीपा नंगे पैर चलते चलते महाराजजी जहां  विश्राम करने वाले थे वहाँ  5 माईल  (8 कि. मी. ) दूर गुरू के चरणों में जा पहुंचे । वहाँ  गुरू महाराज का स्वागत करके उन के साथ पैदल यात्रा करते करते अपने राजमहल की तरफ आये । उत्सव हुआ…. दंडवत  प्रणाम करता, आरती करता, पूजन करता… गुरू महाराज के  सत्संग से लाभान्वित होते यथा राजा  तथा प्रजा, गंगनौर की प्रजा धनभागी हुई । 
‘वैष्णव  सम्प्रदाय की वैष्णवी प्रीति  का सदभाव  रखो.. किसी में बुराई नहीं है, दिखती है तो वो  आगंतुक  है… वास्तविक में जीवात्मा अमर है ..भगवान का शाश्वत सखा है’  । आत्मा परमात्मा का धीरे धीरे ज्ञान होने लगा । प्रजा का मधुमय ईश्वर से भक्तिभाव बढ़ा । प्रजा का हर्ष-शोक ईश्वर की भक्ति-प्रीति-पूजा में बदलता गया । 

वृक्षो में फल आये, खेती सुन्दरता से लहराने लगी । 
राज्य में संत की उपस्थिति से धन, सुख, संपत्ति, संपदा समृध्दी  बढ़ी । 
विदाई का अवसर हुआ । पीपाजी बोले, ‘अब नश्वर शरीर को मैं  मानने की गलती से ऊपर उठा हूँ, ‘राज्य मेरा’ ये भरम से पार हुआ हूँ, पहले मैं-मेरा में उलझा था, महाराज अब अपने चरणों में स्वीकार कर लो, संन्यास की दीक्षा दे दो, मैंने आपके चरणों में सुन्दर शिक्षा पायी है लेकिन ये संसार तो काजल की कोठरी है, घर में कितनी भी कोशिश करो तो भी क्रोध, मोह, आकर्षण, विकर्षण में गिरता-फिसलता रहता है । हाड-मांस के शरीर में फिसले गिरे तो मेरा भी सत्यानाश हुआ । गुरू जी आप हम को  अपना नहीं मानते, आप अपना मानते तो जैसा आपका हाथ, आपके  चरण आपके  साथ रखते, ऐसा ये सेवक भी शुद्ध रखने के लिए अपने चरणों में रखिये ।’
गुरू महाराज ने समझाया कि सन्यासी का जीवन आसान  नहीं, भिक्षा मांगकर खानी पड़ेगी, फरियाद छोड़ देनी पड़ेगी, मान-अपमान होगा उस वक्‍त सम रहना है, कठिन मार्ग है, तुम्हारी पत्नी को साथ नहीं रख सकते । 

वैष्णव  पतिव्रता वृत्ति की रानी सीता बोली, महाराज मैं  आपकी शरण हूँ । उसने भी रानी का अलंकार  उतार दिया और संन्यासी  के वस्र पहन  लिए । पीपा और सीता संन्यासी  बन कर काशी को चल पड़े सदा के लिए ।  राजलक्ष्मी को राम राम  कर दिया । एक दिन मरने पर तो छोड़ना ही था, त्याग से जीते जी राज लक्ष्मी  को राम राम कर डाला । गंगनौर का सम्राट पीपा महान संत पीपाजी बन गए । सत्संग की पुस्तकें लिखी । एक भोगी विलासी सत्संग से महान  संत बन गया..!!

ऐसे पीपाजी और सीता देवी गुरूजी का ज्ञान का प्रचार प्रसार करने निकले । सीता देवी इतनी सुन्दर थी की किसी की बुरी नजर पड़ गयी । 4 बदमाश इकठ्ठे हो गए कि बाबा को ऐसी रानी की क्या जरुरत है । बाबा के झूठ-मुठ के चेले बन गए, सेवादार बन गए, यात्रा करते करते कहीं रात हो गयी तो रुके, दूसरे दिन सुबह पीपाजी प्रभात में जल्दी स्नानादि करके चल दिए और सोचे कि  सीताजी भगतों  के साथ आएगी । पीपाजी आगे चले गए तो ये 4 बदमाश  कुकर्म करने के लिए सीतादेवी को जबरदस्ती जंगल में ले गए । सीतादेवी तो राम राम करे, इतने में कहीं से एक शेर आया । बदमाशों को चीरफाड़ के भगा दिय और शेर अंतर्धान हो गया ।  साधू के रूप में आया, सीतादेवी को बोले,  ‘पीपा जी आगे निकल गए बेटी अब तुम कैसे जाओगी?’

सीता को लगा की कोई है जो मदद करेंगे ।  शेरो के शेर! मेरे इश्वर! साधू महाराज को बोली, ‘मैं यहाँ जंगल में भूली पड़ी हूँ, बदमाशो ने ऐसा किया ।’ साधू महाराज बोले चल अब जल्दी जल्दी । साधू ने सीता देवी को पीपाजी से मिलवा दिया ! ऐसे ईश्वर कब  शेर बनकर प्रगट हो, साधू बन कर प्रगट हो और कब अंतर्धान होंगे .. भक्तो की रक्षा करते…  ईश्वर सर्व समर्थ है ..

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