'तुलसी दल के सिवा मेरा कोई दल नहीं'
एक बार माघ मेले के अवसर पर मदनमोहन मालवीयजी 'सनातन धर्म महासभा' के सम्मेलन में भाषण दे रहे थे । विरोधी दल के कुछ लोग वहाँ आये और सम्मेलन भंग करने के उद्देश्य से शोरगुल मचाने लगे। तब उनके एक प्रवक्ता को मालवीयजी ने बोलने के लिए आमंत्रित किया । उस प्रवक्ता ने मालवीयजी पर दलबंदी करने का आरोप लगाया। उसके उत्तर में मालवीयजी ने कहा: "मैंने अपने समस्त जीवन में दल तो केवल एक ही जाना है । वह दल ही मेरा जीवन-प्राण है और जीवन रहते उस दल को मैं कभी छोड़ भी नहीं सकता। उस दल के अतिरिक्त किसी दूसरे दल से मुझे कोई मतलब नहीं ।"
यह कहकर उन्होंने अपनी जेब से एक छोटा-सा दल निकाला और उसे जनता को दिखलाते हुए कहा : "और वह दल है यह तुलसी दल!" हर्षध्वनि और 'मालवीयजी की जय !' के नारों से सारा पंडाल गूंज उठा तथा प्रतिपक्षी अपना सा मुँह लेकर वापस लौट गये । इतने उदार, सत्यनिष्ठ सज्जन को भी प्रतिपक्षी-द्वेषी लोगों ने बदनाम करने में कमी नहीं रखी । इस लौहपुरुष से द्वेष करनेवाले तो पचते रहे परंतु वे सत्संग और स्नेह रस से सराबोर रहे।
ऋषि प्रसाद अगस्त 2006
लेबल: ऋषिप्रसाद, तुलसी, मदन मोहन मालवीय
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