सोमवार, जुलाई 19, 2010

परमात्मसाक्षात्कार कैसे हो ! (भाग 3)

मनुष्य और पशु में अगर अन्तर देखना हो तो बल में मनुष्य से कई पशु आगे हैं जैसे सिंह, बाघ आदि। मानुषी बल से इनका बल अधिक होता है। हाथी का तो कहना ही क्या ? फिर भी मनुष्य महावत, छः सौ रूपये की नौकरी वाला, चपरासी की योग्यतावाला मनुष्य हाथी, सिंह और भालू को नचाता है, क्योंकि पशुओं के शारीरिक बल की अपेक्षा मनुष्य में मानसिक सूक्ष्मता अधिक है।

मनुष्य के बच्चों में और पशुओं के बच्चों में भी यह अन्तर है कि पशु के बच्चे की अपेक्षा मनुष्य का बच्चा अधिक एकाग्र है। पशुओं के बच्चों को जो बात सिखाने में छः मास लगते हैं, फिर भी सैंकड़ों बेंत लगाने पड़ते हैं वह बात मनुष्य के बेटे को कुछ ही मिनटों में सिखाई जा सकती है। क्योंकि पशुओं की अपेक्षा मनुष्य के मन, बुद्धि कुछ अंशों में ज्यादा एकाग्र एवं विकसित है। इसलिए मनुष्य उन पर राज्य करता है।

साधारण मनुष्य और प्रभावशाली मनुष्य में भी यही अंतर है। साधारण मनुष्य किसी अधीनस्थ होते हैं जैसे चपरासी, सिपाही आदि। कलेक्टर, मेजर, कर्नल आदि प्रभावशाली पुरूष हुकुम करते हैं। उनकी हुकूमत के पीछे उनकी एकाग्रता का हाथ होता है जिसका अभ्यास उन्होंने पढ़ाई के वक्त अनजाने में किया है। पढ़ाई के समय, ट्रेनिंग के समय अथवा किसी और समय में उन्हें पता नहीं कि हम एकाग्र हो रहे हैं लेकिन एकाग्रता के द्वारा उनका अभ्यास सम्पन्न हुआ है इसलिए वे मेजर, कलेक्टर, कर्नल आदि होकर हुकुम करते हैं, बाकी के लोग दौड़-धूप करने को बाध्य हो जाते हैं।

ऐसे ही अगले जन्म में या इस जन्म में किसी ने ध्यान या तप किया अर्थात् एकाग्रता के रास्ते गया तो बचपन से ही उसका व्यक्तित्व इतना निखरता है कि वह राजसिंहासन तक पहुँच जाता है। सत्ता संभालते हुए यदि वह भय में अथवा राग-द्वेष की धारा में बहने लगता है तो उसी पूर्व की निर्णयशक्ति, एकाग्रताशक्ति, पुण्याई क्षीण हो जाती है और वह कुर्सी से गिराया जाता है तथा दूसरा आदमी कुर्सी पर आ जाता है।

प्रकृति के इन रहस्यों को हम लोग नहीं समझते इसलिए किसी पार्टी को अथवा किसी व्यक्ति को दोषी ठहराते हैं। मंत्री जब राग-द्वेष या भय से आक्रान्त होता है तब ही उसकी एकाग्रताशक्ति, प्राणशक्ति अन्दर से असन्तुलित हो जाती है। उसके द्वारा ऐसे निर्णय होते हैं कि वह खुद ही उनमें उलझ जाता है और कुर्सी खो बैठता है। कभी सब लोग मिलकर इन्दिरा गांधी को उलझाना चाहते लेकिन इन्दिरा गाँधी आनन्दमयी माँ जैसे व्यक्तित्व के पास चली जाती तो प्राणशक्ति, मनःशक्ति पुनः रीधम में आ जाती और खोई हुई कुर्सी पुनः हासिल कर लेती।


मैंने सुना था कि योगी, जिसकी मनःशक्ति और प्राणशक्ति नियंत्रित है, वह अगर चाहे तो एक ही मिनट में हजारों लोगों को अपने योगसामर्थ्य के प्रभाव से उनके हृदय में आनन्द का प्रसाद दे सकता है।


यह बात मैंने 1960 के आसपास एक सत्संग में सुनी थी। मेरे मन में था कि संत जब बोलते हैं तो उन्हें स्वार्थ नहीं होता, फिर भला क्यों झूठ बोलेंगे ? व्यासपीठ पर झूठ वह आदमी बोलता है जो डरपोक हो अथवा स्वार्थी हो। ये दो ही कारण झूठ बुलवाते हैं। लेकिन संत क्यों डरेंगे श्रोताओं से ? अथवा उन्हें स्वार्थ क्या है ? वे उच्च कोटि के संत थे। मेरी उनके प्रति श्रद्धा थी। आम सत्संग में उन्होंने कहा थाः "योगी अगर चाहे तो अपने योग का अनुभव, अपनी परमात्मा-प्राप्ति के रस की झलक हजारों आदमियों को एक साथ दे सकता है। फिर वे सँभाले, टिकायें अथवा नहीं, यह उनकी बात है लेकिन योगी चाहे तो दे सकता है।"


इस बात को खोजने के लिए मुझे 20 वर्षों तक मेहनत करनी पड़ी। मैं अनेक गिरगुफाओं में, साधु-संतों के सम्पर्क में आया। बाद में इस विधि को सीखने के लिए मैं मौन होकर चालीस दिनों के लिए एक कमरे में बँद हो गया। आहार में सिर्फ थोड़ा-सा दूध लेता था, प्राणायाम करता था। जब वह चित्तशक्ति, कुण्डलिनी शक्ति जागृत हुई तो उसका सहारा मन और प्राण को सूक्ष्म बनाने में लेकर मैंने उस किस्म की यात्रा की। तत्पश्चात् डीसा में मैंने इसका प्रयोग प्रथम बार चान्दी राम और दूसरे चार-पाँच लोगों पर किया तो उसमें आशातीत सफलता मिली।


मैंने जब यह सुना था तो विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि यह बात गणित के नियमों के विरूद्ध थी। योगी अगर अपना अनुभव करवाने के लिए एकएक के भीतर घुसे और उसके चित्त में अपना तादात्म्य स्थापित करने के लिए सूक्ष्म दृष्टि, सूक्ष्म शरीर से आए-जाए तो भी एक-एक के पास कम से कम एक-एक सेकण्ड का समय तो चाहिए। ऐसी मेरी धारणा थी। जैसे स्कूलों में हम पढ़ते हैं कि पृथ्वी गोल है, यह स्कूल और साधक की बात है, लेकिन बच्चे को समझ में नहीं आती फिर भी पृथ्वी है तो गोल। बच्चा अध्ययन करके जब समझने लगता है तब उसे ठीक से ज्ञान हो जाता है।


ऐसा ही मैंने उस विषय को समझने के लिए अध्ययन किया और चालीस दिन के अनुष्ठान का संकल्प किया तो मात्र सैंतीस दिन में ही मुझे परिणाम महसूस हुआ और उसका प्रयोग भी बिल्कुल सफल हुआ और अभी तो आप देखते ही हैं कि हजारों हजारों पर यह प्रयोग एक साथ होता ही रहता है।


हरिद्वार वाले घाटवाले बाबा कहते थेः "आत्म-साक्षात्कारी पुरूष ब्रह्मलोक तक के जीवों को सहायता करते हैं और उन्हें यह अहसास भी नहीं होने देते हैं कि कोई सहायता कर रहा है। यह भी गिनती नहीं कि उन्होंने किन-किन को सहायता की है। जैसे हजारों लाखों मील दूरी पर स्थित सूर्य की कभी इसकी गणना नहीं होती कि मैं कितने पेड़-पौधों, पुष्पों, जीव-जन्तुओं को ऐसा सहयोग दे रहा हूँ। हालाँकि सूर्य का हमारे जीवन में ऐसा सहयोग है कि अगर सूर्य ठण्डा हो गया। हम उसी क्षण यहीं मर जायेंगे। इतने आश्रित हैं हम सूर्य की कृपा पर। सूर्य को कृपा बरसाने की मेहनत नहीं करनी पड़ती। चन्द्रमा को औषधि पुष्ट करने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता अपितु उसका स्वभाव ही है।


चन्द्रमा और सूर्य का सहज स्वभाव है लेकिन पेड़-पौधों का, जीव जंतुओं का, मनुष्यों का तो कल्याण हो जाता है। ऐसे ही आप मन और प्राणों को इतना सूक्ष्म कर दें.... इतना सूक्ष्म कर दें कि आपका जीवन बस..... जैसे बिन्दु में सिन्धु आ पड़े अथवा घड़े में आकाश आ पड़े तो घड़े का क्या हाल होगा ? ऐसे की आपके 'मैं' में व्यापक ब्रह्म आ जाये तो आपकी उपस्थिति मात्र से ही अथवा आप बोलेंगे वहाँ और जहाँ तक आपकी दृष्टि पड़ेगी वहाँ तक के लोगों का तो भला होगा ही लेकिन आप जब एकान्त में, मौन होकर अपनी मस्ती में बैठेंगे तो ब्रह्मलोक तक की आपकी वृत्ति व्याप्त हो जाएगी। वहाँ तक के अधिकारी जीवों को फायदा होगा।


जैसे बर्फ तो हिमालय पर गिरती है लेकिन तापमान पूरे देश का कम हो जाता है और त्वचा के माध्यम से आपके शरीर पर असर पड़ता है। ऐसे ही किसी ब्रह्मवेत्ता को साक्षात्कार होता है अथवा कोई ब्रह्मवेत्ता एकान्त में कहीं मस्ती में बैठे हैं तो अधिकारियों के हृदय में कुछ अप्राकृतिक खुशी का अन्दर से एक बहाव प्रस्फुरित होने लगता है। ऐसे थोड़े बहुत भी जो अधिकारी लोग हैं, आध्यात्मिक खुशी का अन्दर से एक बहाव प्रस्फुरित होने लगता है। ऐसे थोड़े बहुत भी जो अधिकारी लोग हैं आध्यात्मिक जगत के, उन्हें अवश्य ही अनुभव होता होगा कि कभी कभी एकाएक उनके भीतर खुशी की लहर दौड़ जाती है।


मन और प्राण को आप जितना चाहें सूक्ष्म कर सकते हैं, उन्नत कर सकते हैं। सूक्ष्म यानी छोटा नहीं अपितु व्यापक। अर्थात् अपनी वृत्ति को सूक्ष्म करके व्यापक बना सकते हैं। जैसे बर्फ वाष्पीभूत होकर कितनी दूरी तक फैल जाती है ? उससे भी अधिक आपके मन और प्राण को सूक्ष्म कर साधना के माध्यम से अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्डों में अपनी व्यापक चेतना का अनुभव आप कर सकते हैं। उस अनुभव के समय आपके संकल्प में अद्‍भुत सामर्थ्य आ जाएगा और आप इस प्रक्रिया से नई सृष्टि बनाने का सामर्थ्य तक जुटा सकेंगे।(स्रोत : शीघ्र ईश्वरप्राप्ति )

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