रविवार, सितंबर 26, 2010

साधक के हृदय में भी आत्मज्ञान के फूल खिलें



जिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना।
श्रवण रंध्र अहि भवन समाना।।
जे न करहिं रामगुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।
 
जिनके कानों ने हरिकथा नहीं सुनी है वे कान नहीं हैं, साँप के बिल हैं।
 
जिनके जीवन में आत्मज्ञान की कथा नहीं है उनका जीवन सचमुच दयाजनक है। जिनकी जिह्वा पर भगवान का नामोच्चारण नहीं है उनकी जिह्वा मेंढक की जिह्वा जैसी है।
 
भगवन्नाम का गुणगान करने से जिह्वा पवित्र होती है। भगवत्तत्त्व की कथा सुनने से कान पवित्र होते हैं।
 
वेदान्त का सत्संग एक ऐसा अनूठा बल देता है कि निर्धन को धनवानों का भी धनवान, सत्तावानों का भी सत्तावान, महान् सम्राट बना देता है। वह चाहे झोपड़ी में गुजारा करता हो, खाने को दोर टाइम भोजन भी न मिलता हो लेकिन जीवन में सदाचार के साथ वेदान्त आ जाय तो आदमी निहाल हो जाता है। वेदान्त अज्ञान को मिटाकर जीव को अपने आत्मपद में प्रतिष्ठित कर देता है। सत्संग जीवात्मा के पाप-ताप मिटाकर उसे शुद्ध बना देता है। कथा सुनने से पाप नाश होते हैं। कथा सुनने से अज्ञान क्षीण होता है। हरिकथा सुनने से, उसके प्रसाद से मन पावन होता है। जिनक जीवन में भीतर का प्रसाद नहीं, उनका जीवन दयाजनक है।
 
गाधि नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था। अपना गाँव छोड़कर एकान्त स्थान में जाकर धारणा-ध्यान करने लगा। भगवान विष्णु की उपासना करता रहा। उसकी धारणा सिद्ध हुई और भगवान नारायण ने उसको दर्शन दिया। गाधि ने कहाः

"हे भगवन् ! मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ।"
 
भगवान ने कहाः "माया तो धोखा देती है। 'माया' का मतलब है 'या मा सा माया।' जो है नहीं फिर भी दिखती है। ऐसी माया के झंझट में पड़ना ठीक नहीं है। यह क्या माँग लिया तुमने ?"
 
"महाराज ! आपकी माया को एक बार देखने की इच्छा है।"
 
आखिर भगवान ने कहाः "हे गाधि ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम मेरी माया को देखोगे और छोड़ भी दोगे। उसमें उलझोगे नहीं।"
 
वरदान देकर भगवान नारायण अन्तर्धान हो गये।
 
गाधि ब्राह्मण प्रतिदिन दो बार तालाब में स्नान करने जाता था। एक बार उसने तालाब के जल में गोता मारा तो क्या देखता है ? 'मेरी मृत्यु हो गई है। कुटुम्बी लोग अर्थी में बाँधकर स्मशान में ले गये। शरीर जलाकर भस्म कर दिया।'
 
फिर वह देखता है कि एक चाण्डाली के गर्भ में प्रवेश हुआ। समय पाकर चाण्डाल बालक होकर उत्पन्न हुआ। कटजल उसका नाम रखा गया। छोटे-छोटे चाण्डाल मित्रों के साथ खेलता-कूदता कटजल बड़ा हुआ। गिलोल से पक्षी मारने लगा। कुल के अनुसार सब नीच कर्म करने लगा। युवा होने पर चाण्डाली लड़की के साथ विवाह हुआ। फिर बेटे-बेटियाँ हुई। चाण्डाल परिवार बढ़ा। कई निर्दोष पशु-पक्षियों को मारकर अपना गुजारा करता था। चालीस वर्ष बीत गये चाण्डाल बहुएँ घर में आयी, चाण्डाल दामाद मिले। बेटे-बेटियों का परिवार भी बड़ा होता चला।
 
तालाब के जल में एक ही गोता लगाया हुआ है और गाधि ब्राह्मण यह सब चाण्डाल जीवन की लीला महसूस कर रहा है।
 
वह चाण्डाल कटजल एक दिन घूमता-घामता क्रान्त देश में जा पहुँचा जहाँ का राजा स्वर्गवासी हो गया था। नया राजा चुनने के लिए हाथी को सिंगारा गया था। उसकी सूँड में जल का कलश रख दिया गया था। हाथी जिस पर जल का कलश उड़ेल दे, उसको नगर का राजा घोषित किया जायगा। हाथी ने कटजल पर कलश उड़ेला और सूँड से उठाकर अपने ऊपर बिठा दिया। बाजे, शहनाइयाँ, ढोल, नगाड़े बजने लगे। कटजल का राज्याभिषेक हुआ। वह चाण्डाल क्रान्त देश का राजा बन गया। उसने अपने चाण्डाल के सब निशान मिटा दिये। अपना नाम भी बदल दिया। आठ वर्ष तक उसने राज्य किया। दास-दासियों सहित रानियों से सेवित और मंत्री आदि से सम्मानित होता रहा।
 
वह पूर्वकाल में चालीस वर्ष तक जिस गाँव में रहा था उस गाँव के चाण्डाल संयोगवश इस नगर में आये और उसे देख लिया। उन्होंने उसे पुराने नाम से पुकारा। राजा बना हुआ यह चाण्डाल कटजल घबराया। उन लोगों का तिरस्कार करके सबको भगा दिया।
 
महल में दास-दासियाँ जान गईं कि यह मूँआ चाण्डाल है। धीरे-धीरे सारे नगर में बात फैल गई। सबका मन उद्विग्न हो गया।
 
नगर के पवित्र ब्राह्मण चिता जलाकर अपने शरीर को भस्म करके प्रायश्चित करने लगे। कई लोग तीर्थाटन करने चले गये। रानियाँ, दासियाँ, टहलुए, मंत्री सब उदास रहने लगे। अब राजा की आज्ञा कोई माने नहीं।
 
कटजल ने सोचा कि मेरे कारण इतने लोगों ने आत्महत्या कर ली। राज्य में विरोध फैल गया है। कोई आज्ञा मानता नहीं है। लोग राजगद्दी छीन लें उसके पहले मैं ही क्यों न अपने आप अपना अन्त कर दूँ !
 
उसने आग जलाई और अपने आपको उसमें फेंका। शरीर को आग की ज्वाला लगी, तपन से पीड़ित हुआ तो वह तालाब के पानी से बाहर निकल आया। देखा कि 'अरे ! यह तो कुछ नहीं है ! अभी तो एक गोता ही लगाया था तालाब के पानी में और इतनी देर में मेरी मृत्यु हुई, जीव चाण्डाली के गर्भ में गया, जन्म लिया, बड़ा हुआ, चाण्डाली के साथ शादी की, बच्चे हुए, आठ साल क्रान्त देश में राजा बनकर राज किया। मैंने यह सब क्या देखा ? चलो, जो होगा सो होगा। सब मेरी कल्पना है, सपना है, मरने दो।
 
ऐसा सोचकर वह अपने आश्रम में गया। दैवयोग से एक बूढ़ा तपस्वी साधू गाधि के आश्रम में आया। गाधि ने उसकी आवभगत की। रात्रि को भोजनोपरान्त वार्त्तालाप करते हुए बैठे थे तो गाधि ने पूछाः
 
"हे तपस्वी ! तुम इतने कृश क्यों हो ?"

अतिथि ने कहाः 'क्या बताऊँ......? क्रान्त देश में एक चाण्डाल राजा राज्य करता था। हाथी ने उसका वरण किया था। आठ साल तक उसने राज्य किया। मैं भी उसी नगर में रहा था। बाद में पता चला कि राजा चाण्डाल है। मैंने सोचा, पापी राजा के राज्य में कई चातुर्मास किये, पापी का अन्न खाया। मेरा जप-तप क्षीण हो गया। इसलिए मैं काशी गया। वहाँ चान्द्रायण व्रत रखे।"
 
चान्द्रायण व्रत में मौन रखा जाता है, जप तप किये जाते हैं। एकम के दिन एक ग्रास भोजन, दूज के दिन दो ग्रास भोजन, तीज के दिन तीन ग्रास भोजन.... इस प्रकार पूनम के दिन पन्द्रह ग्रास। फिर कृष्ण पक्ष की एकम के दिन से पन्द्रह ग्रास भोजन में से एक एक ग्रास घटाया जाता है और अमावस्या के दिन बिल्कुल निराहार। चन्द्र की कला के साथ भोजन घटता बढ़ता है अतः यह चान्द्रायण व्रत कहा जाता है। इससे आदमी के पाप-ताप दूर होते हैं।
 
वह अतिथि कहता हैः "मैंने कई चान्द्रायण व्रत किये हैं इसलिए मेरा शरीर कृश हो गया है।"
 
गाधि दंग रह गया कि यह तपस्वी जिस राजा के बारे में कहता है वह तो मैंने तालाब के जल में गोता लगाते समय अपने विषय में देखा है। वह एक स्वप्न था और यह तपस्वी सचमुच काशी में चान्द्रायण व्रत करने गया ? इस बात को ठीक से देखना चाहिए।
गाधि ब्राह्मण पूछता-पूछता उस गाँव में पहुँचा। वहाँ के बूढ़े चाण्डालों से पूछाः "यहाँ कोई कटजल नाम का चाण्डाल रहता था ?" ....तो चाण्डालों ने बतायाः "हाँ, एक चाण्डाली का बेटा वह कटजल यहाँ रहता था। फिर पासवाले क्रान्त देश में वह राजा हो गया था। बाद में वह आत्महत्या करके, आग में जलकर मर गया। यहाँ उसके बेटे-बेटियों का लम्बा चौड़ा परिवार भी मौजूद है।"
 
गाधि ने अलग-अलग कई लोगों से पूछा। सभी ने उसी बात का समर्थन किया। अनेक लोगों से वही की वही बात सुनी। उस क्रान्त देश के लोगों से भी उसी चाण्डाल राजा की घटना सुनने को मिली।
 
गाधि आश्चर्य विमूढ़ हो गयाः "मैंने तो यह सब गोता लगाया उतनी देर में ही देखा। यहाँ सचमुच में कैसे घटना घटी ? यह सब कैसे हुआ ? यह सच्चा कि वह सच्चा ?"
 
गाधि ने सोचा कि अब विश्रान्ति पाना चाहिए। वह एकान्त गुफा में चला गया। डेढ़ साल तक भगवान नारायण की आराधना-उपासना की। भगवान प्रकट हुए। गाधि ब्राह्मण से वे बोलेः
 
"देख गाधि ! तूने कहा था कि मेरी माया देखना है। अब देख ली न ? यह सब मेरी माया का प्रभाव है। थोड़े समय में ज्यादा काल दिखा देती है वह होता कुछ नहीं लेकिन सच्चा भासता है। जल में गोता मारा तो चाण्डाल का जीवन सच्चा लग रहा था। बाहर आया तो कुछ नहीं। उधर लोगों को चाण्डाल का राज्य प्रतीत हुआ, वह भी माया है। यह भी बीत गया, वह भी बीत गया। हर जीव का अपना-अपना देश और काल है।"
 
एक मनुष्य जीवन में मेंढकों की साठ पीढ़ियाँ बीत जाती हैं। बैक्टीरिया की तो करोड़ों पीढ़ियाँ बीत जाती होंगी।
 
नेपोलियन की लड़ाई को करीब पौने दो सौ वर्ष हो गये। उस समय जो घटनाएँ घटी वे देखनी हों तो योगशक्ति से देखी जा सकती हैं। प्रकाश की किरण एक सेकेन्ड में 186000 मील की गति से चलती है। सूर्य से प्रकाश की किरण चलती है तो 8 मिनट में पृथ्वी पर पहुँचती है। आकाश में कुछ तारे यहाँ से इतने दूर हैं कि हजारों लाखों वर्षों के बाद भी, अभी तक उनकी किरणें पृथ्वी तक नहीं पहुँच पायी हैं। कोई योगी अपने मन की गति प्रकाश की गति से भी अधिक तेजवाली कर लेता है तो वह नेपोलियन के युद्ध को देख सकता है। इसी योगयुक्ति से योगिजन त्रिकालदर्शी बनते हैं। अपने चित्त की वृत्ति को काल की अपेक्षा आगे या पीछे फेंकते हैं तो ऐसा हो सकता है।
 
जैसे आप बैठकर सोचो कि आज सुबह क्या खाया था, कल क्या खाया था, परसों क्या खाया था, तो मन से वह देख सकते हो, जान सकते हो। ऐसे ही योगी ठोस रूप से भूत-भविष्य देख सकते हैं।
 
यह जो कुछ भी जानने में आता है वह सब स्वप्न में सरक जाता है। जिससे जाना जाता है वह आत्मा परमात्मा सत्य है। उस सत्य का जो अनुसन्धान करता है वह देर सबेर आत्म-साक्षात्कार करके सदा के लिए माया से तर जाता है। जो देह को 'मैं' मानता है और संसार की वस्तुओं को सच्ची समझता है वह स्वप्न से स्वपनांतर तक, युग से युगांतर तक बेचारा भटकता रहता है।
 
भगवान विष्णु गाधि ब्राह्मण से कहते हैं-
 
"हे गाधि ! तूने मुझसे माया दिखाने का वरदान माँगा था। मैंने यह माया दिखाई। चाण्डाल के शरीर में और राजा के शरीर में जो तुमने सुख दुःख देखा, उस समय सच्चा लग रहा था, अब वह स्वप्न हो गया। पानी में गोता लगाते समय जो सच्चा दिख रहा था, अब स्वप्न हो गया।"
 
आज से दस जन्म पहले भी जो पत्नी, पुत्र, परिवार मिला था, वह उस समय सच्चा लग रहा था, अब स्वप्न हो गया। पाँच जन्म पहले वाला भी अब स्वप्न है और एक जन्म पहले वाला भी अब स्वप्न है। इस जन्म का बचपन भी अब स्वप्न है। यौवनकाल भी अब स्वप्न हो रहा है।
 
आपकी दृष्टि जिस समय जगत में सत्यबुद्धि करती है उस समय जगत का आकर्षण, समस्याओं का प्रभाव और सुख-दुःख की थप्पड़ें लगती हैं। अगर आप अपने सत्यस्वरूप आत्मा का अनुसन्धान करते हो तो जगत के आकर्षण और विकर्षण दूर रह जाते है, देर सबेर अपने जगदीश्वर स्वभाव में जगकर मुक्त हो सकते हो।
 
उमा कहौं मैं अनुभव अपना।
सत्य हरिभजन जगत सब सपना।।
 
स्वप्न जैसा जगत है। दिखता है सच्चा, दिखता है ठोस लेकिन उसमें गहराई नहीं।
 
आत्मज्ञान का सत्संग बहुत ऊँची चीज है। कथा वार्ताएँ होना एक बात है लेकिन तात्त्विक सत्संग, ब्रह्मज्ञान का सत्संग आखिरी चीज होती है। ऐसा सत्संग सत्पात्र शिष्य को ही पचता है। ब्रह्मवेत्ता सदगुरू में ऐसा सामर्थ्य होता है जो शिष्य को तत्त्वज्ञान करा सके। रामचन्द्रजी ऐसे सदगुरू थे और हनुमानजी ऐसे सत्पात्र थे। अष्टावक्र जी ऐसे सदगुरू थे और अर्जुन ऐसा सत्पात्र था। नानक ऐसे सदगुरू थे और बाला मरदाना ऐसे सत्पात्र थे।
 
बहुत बहुत सदभाग्य होता है तब आदमी आत्मज्ञान की बातें सुन पाता है। आत्मज्ञान के सत्संग का मनन करने से बहुत लाभ होता है।
 
स्नातं तेन सर्व तीर्थम् दातं तेन सर्व दानम् कृतो तेन सर्व यज्ञो.....
 
उसने सर्व तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सर्व दान दे दिये, उसने सब यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण भी अपने मन को आत्म-विचार में, ब्रह्मविचार में स्थिर किया।
 
आत्मज्ञान सुनने के बाद मनन करने की जिसमें तत्परता है उस आदमी का निवास-स्थान काशी है। आत्म-विश्रान्ति में गोता मारने वाला महापुरूष जिस पानी को छूता है वह पानी गंगाजल है, जिस वस्तु को छूता है वह प्रसाद है, जो वाक्य बोलता है वह मंत्र है। उसके लिए सारे वृक्ष चन्दन काष्ठ हैं। उसके लिए सारा विश्व नन्दन वन है। जो भीतर से खुश है, प्रसन्न है, सत्य का अनुभव करता है उसे बाहर भी सत्य का दीदार हो जाता है। जो भीतर कल्पनाओं में उलझता है वह स्वर्ग में भी सुख-दुःख की कल्पना करता है और नर्क में भी दुःख पाता है। भाग्यवशात् वह वैकुण्ठ में भी चला जाय और आत्मज्ञान में रूचि न हो तो देर सबेर उसे दुःख भी होता है।
 
भगवान विष्णु कहते हैं- "हे गाधि ! तू अपने चैतन्यस्वरूप मुझ अन्तर्यामी नारायण का अनुसन्धान करके, उसको पाकर सदा के लिए मेरे साथ एक हो जा। फिर तुझे माया का भ्रम नहीं देखना पड़ेगा। माया के विस्तार में सत्यबुद्धि मत करो। सत्यबुद्धि मुझ चैतन्य में करो ताकि मुक्ति का अनुभव हो जाय।"
 
जो आदमी माया को सत्य समझकर उलझ जाता है उसे कभी कोई महात्मा मिल जाय और आत्मज्ञान की ऊँची बात कहे तो उसे समझ में नहीं आती। महात्मा सदा वैकुण्ठ में रहते हैं अर्थात् व्यापक स्वरूप में विराजते हैं जबकि साधारण लोगों की चित्तवृत्ति कुण्ठित रहती है, देहाध्यास में जकड़ी रहती है।
 
अज्ञानियों का संग मिलता है ज्यादा और ज्ञानी का संग मिलता है जरा सा। ज्ञानी का जरा सा संग भी बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है।
 
खेतो में, बाग-बगीचों में काम के पौधों के अलावा निकम्मे घास-फूस भी उग आते हैं. उन्हें चुन-चुनकर उखाड़ना पड़ता है, तभी उपयोगी पौधे पुष्ट होकर पनप सकते हैं। उस पर फूल खिलेंगे, सुगंधित हवाएँ फैलेगी, पक्षी किल्लोल करेंगे, लोगों को सुगन्धी मिलेगी, मधुमक्खियाँ रस चूसेंगी। फूल खिलवाने के लिए निकम्मा घास-फूस हटाना पड़ता है। फूल खिलने के बाद भी निगरानी रखनी पड़ती है।
 
साधक के हृदय में भी आत्मज्ञान के फूल खिलें इसलिए कुसंग का कचरा पहले हटाना पड़ता है। वह खेत तो एक ही जगह रहता है जबकि साधकरूपी खेत तो चलता फिरता खेत है। जहाँ जायेगा वहाँ अज्ञान के कुसंस्कार पड़ेंगे। जहाँ जायेगा वहाँ देह को 'मैं' मानना, संसार को सच्चा मानना, विकारों का जागृत होना.... यह सब संस्कार हटाने पड़ते हैं।
 
साधक जब साधना में तत्पर होता है तब अपने भीतर ईश्वर का अमृत बरसता हुआ महसूस करता है। फिर साधक गलती करता है, घड़ा औंधा हो जाता है, साधक बेचारा रीता रह जाता है। साधकरूपी माली निकम्मे घास-फूल निकालते-निकालते फिर प्रमाद में पड़ जाता है। उसका बगीचा जंगल हो जाता है।
 
ऐसे साधकों को चाहिए कि अपना समय बचाकर सप्ताह में एक-दो दिन एकान्त कमरे में बैठ जायँ। बिल्कुल मौन और जप। कुछ भी न ले, बिल्कुल निराहार। इससे आदमी मर नहीं जाता। उसकी आयु कम नहीं होगी। महावीर ने बारह साल में सिर्फ एक साल भोजन किया था। कभी पच्चीस दिन में एक बार, कभी पन्द्रह दिन में, कभी पैंतीस दिन में तो कभी पाँच दिन में। जब ध्यान तपस्या से उठे, भूख लगी तो खा लिया। बारह साल में 365 बार खाया, बस। फिर भी कबीरजी से, नानकजी से महावीर ज्यादा पुष्ट थे।
 
आदमी का श्वास ज्यादा चलता है तो खाने पीने की ज्यादा जरूरत पड़ती है। अगर तुम एकान्त में, निवृत्ति में बैठो और खाओ, न भी खाओ तो चल जाएगा। भूख-प्यास, ठण्डी-गरमी सहने का मनोबल बढ़ जायगा। आत्मबल बढ़ाने के लिए यह प्रयोग करने जैसा है। कभी महीने में दो दिन कभी सप्ताह में एक दिन, दो दिन, कभी चार दिन और कभी एक साथ आठ दिन मिल जाय तो और अच्छा है। इससे शरीर में से कई दिन हानिकर जन्तु दूर हो जाते हैं। आने वाली नस-नाड़ियों की बीमारियाँ भी दूर हो जाती हैं। साथ ही साथ ध्यान भजन भी बढ़ता है। उन दिनों में केवल जप करें और आसन पर बैठें। खायें-पियें कुछ नहीं, किसी से बोलें-चालें कुछ नहीं।
 
भगवान में मन न लगे तो भगवान के चित्र के सामने थोड़ी देर एकटक निहारो। भगवान से प्रार्थना करो किः हे भगवान ! तुममें चित्त नहीं लगता। तुम केवल इस चित्र में ही नहीं, मेरे हृदय में भी हो। तुम्हारी ही सत्ता लेकर मन चित्र-विचित्र संसार देख रहा है।
 
इस प्रकार भगवान से बातें करो। अपने आप से गहराई में बातें करो। कभी कीर्तन करो, कभी जप करो, कभी किताब पढ़ो, कभी श्वासोच्छवास को देखो। पहले दो तीन घण्टे उबान आ सकती है। दो तीन घण्टे धैर्य के साथ अकेले कमरे में अगर बैठ गये तो फिर चार घण्टे भी आराम से जाएँगे, चार दिन भी आराम से बीत जाएँगे और चालीस दिन भी आराम से बीत जाएँगे।
 
तुम अपने आत्मा में हजारों वर्ष रह सकते हो। शरीर में और भोगों में ज्यादा समय नहीं रह सकते। जैसे आदमी कीचड़ में ज्यादा समय नहीं रह सकता जबकि सरोवर की सतह पर घण्टों भर तैर सकता है। ऐसे ही विकारों में, कान्ता में, ममता में आदमी सतत नहीं रह सकता लेकिन आत्मा में दस हजार वर्ष तक रह सकता है।
 
यह आत्मलाभ पाने के लिए बाहर का जो कल्पित और तुच्छ व्यवहार है उसमें से समय बचाकर अन्तर्मुख होना चाहिए। इससे तुम्हारी साधना की कमाई निखरेगी, बढ़ेगी।

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गुरुवार, सितंबर 23, 2010

असली सुख !

जीव का भ्रम है किः "यह मिल जाय तब मैं सुखी होऊँगा। यह परिस्थिति चली जाय तब मैं सुखी होऊँगा। बेटा हो जाय तब सुखी होऊँगा।'' यह सारा का सारा भ्रम है, भ्रांति है। इससे अगर कोई सुखी हो जाता तो संसार में कई लोग आज तक सच्चे सुखी हो जाते। इन चीजों से वास्तव में सुख का कोई सम्बन्ध नहीं है। सच्चे सुख का सम्बन्ध है रागरहित होने से। रात्रि को जितने अंश में तुम्हारा राग दब जाता है उतने तुम निश्चिन्त होते हो, निश्चिन्त सोते हो। सुबह होते ही तुम्हारा राग जगता हैः "यह करना है..... यह पाना है.... यह लेना है.... .वहाँ जाना है....'' तो मस्तिष्क में चिन्ताएँ सवार हो जाती हैं। जब सत्संग, ध्यान, भजन के स्थान में आते हैं, राग की बातों को छोड़ देते हैं तो लगता हैः "आहाहा... बापू ने बड़ा आनन्द दिया..... बड़ी शान्ति दी।' बापू ने आनन्द नहीं दिया, बापू ने शांति नहीं दी। बापू का भी बापू तुम्हारे हृदय में था। रागरहित होकर तुमने उसकी झाँकी कर ली तो आनन्द आ गया, शान्ति मिल गई। वह भीतर वाला बापू तो सदा से तुम्हारे साथ ही बैठा है। राग रहित हो जाओ, सब काम बन जाएँगे।राग छोड़ना एक दिन का काम नहीं है। रोग पुराना है। एक दिन की औषधि से काम नहीं चलेगा। प्रतिदिन औषधि खाओ और प्रति व्यवहार के समय औषधि खाओ तो काम बनेगा। अन्य औषधियाँ तो रिएक्शन करती हैं लेकिन सत्संग विचार की औषधि सारे रिएक्शनों को स्वाहा कर देती है। इसलिए बार-बार सत्संग विचार करो, आत्म-विचार करो।

यह विचार केवल मंदिर में बैठकर ही नहीं किया जाता। यह मंदिर में भी होता है, सत्संग भवन में भी होता है, दुकान पर बैठकर भी होता है, रास्ते चलते-चलते भी होता है। यह विवेक विचाररूपी मित्र ऐसा है जो सदा साथ रहता है, सुरक्षा करता है।

विवेक को जागृत करते जाओ। अविद्या का अन्धकार धीरे-धीरे बिखरता जाएगा। सुबह में सूर्य के उदय होने से पहले ही अन्धकार पलायन होने लगता है ऐसे ही विवेक जागेगा तो दुःख मिटने लगेंगे। सब दुःख मिटाने की यह कुंजी है। अन्यथा तो, राग लेकर बैठे और योग किया, प्राण ऊपर चढ़ा दिये, शरीर को वर्षों तक जीवित रखा, फिर नट की समाधि खुली तो वह राजा से बोलता है कि लाओ, मुझे इनाम में तेज भागने वाली घोड़ी दे दो। रागरहित नहीं हुआ तो क्या लाभ ? योग किया, प्राण चढ़ाकर सहस्रार चक्र में पहुँच गया, हजारों वर्ष की समाधि लगा दी फिर भी ठंठनपाल रह गया। राजा जनक ने राग मिटा दिया तो जीवन्मुक्त होकर राज्य करते है।

राग मिटाने का एक मधुर तरीका यह भी है कि भगवान में राग करते रहो।

तुम बच्चे को कह दो कि सुबह-सुबह अण्डे का चिन्तन मत करना। दूसरे दिन सुबह में उसको अण्डे का चिन्तन आ जायगा। उसे अगर अण्डे के चिन्तन से बचाना है तो उसे अण्डे का चिन्तन मत करो, ऐसा न कहो। उसे कहोः 'सुबह उठकर हाथों को देखना, भगवान नारायण का चिन्तन करना।

कराग्रे वसति लक्ष्मीः करमूले सरस्वती।
करमध्ये तु गोविंदः प्रभाते करदर्शनम्।।

इस प्रकार सुबह-सुबह में अपने हाथ को देखकर भगवान नारायण का स्मरण करने से अपना भाग्य खुलता है।'

इस प्रकार बच्चा भगवान का स्मरण करने लग जाएगा और उसका हल्का चिन्तन अपने आप चला जायेगा।

विकारों को पोसने वाली हमारी संवित् को विकारों से हटाने के लिए निर्विकारी नारायण का चिन्तन करने से विकारों को हटाने का परिश्रम नहीं पड़ेगा। विकारों को हटाने के लिए अगर परिश्रम करने लगे और कदाचित सफल हो गये, विकार हट गये तो गर्व हो जाएगा किः "मैंने काम को जीता, मैंने लोभ को जीता, मैंने मोह को छोड़ा, मैं आठ दिन तक मौन मंदिर में रह गया.....।' ऐसा गर्व आने से भी खतरा है। अगर प्रभु में राग कर लेते हैं तो गर्व आने का खतरा नहीं रहेगा।

कबीर जी ने कहा हैः

सब घट मेरा साँईया खाली घट न कोय।
बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।

कबीरा कुँआ एक है पनिहारी अनेक।
न्यारे न्यारे बर्तनों में पानी एक का एक।।

कबीरा यह जग निर्धना धनवंता नहीं कोई।
धनवंता तेहू जानिये जा को रामनाम धन होई।।

जो चैतन्य सबके रोम-रोम में बस रहा है वह राम...... जो चैतन्य सबको आकर्षित कर रहा है वह कृष्ण.... उस चैतन्य में अगर मन लग जाये तो बेड़ा पार है। जहाँ से हमारी संवित उठती है वही सारे विश्व का आधार है। वही तुम्हारा अन्तर्यामी आत्मा तुम्हारे अति निकट है और सदा रहता है। पत्नी का साथ छोड़ना पड़ेगा, पति का साथ छोड़ना पड़ेगा, साहब का साथ छोड़ना पड़ेगा, अरे लाला ! इस शरीर का भी साथ छोड़ना पड़ेगा लेकिन उस अन्तर्यामी साथी का साथ कभी नहीं छोड़ना पड़ेगा। बस, अभी से उसी में आ जाना है, और क्या करना है ? यह कोई बड़ा काम है ? जिसका कभी साथ नहीं छूटता है उसमें राग करना है। जिसका साथ टिकता नहीं है उससे राग हटा देना है।

साथ टिकेगा नहीं उस चीज से अपना राग हटा लेंगे तो तुम स्वतन्त्र हो जाओगे। अगर साथ न टिकने वाली चीजों में राग रहा तो कितना दुःख होगा ! दुःख ही होगा, और क्या होगा ?

हम उसी से सम्बन्ध जोड़ रहे हैं जिससे आखिर तोड़ना है। जिससे सम्बन्ध तोड़ना है उसके साथ तो प्रारब्धवेग से सम्बन्ध होता रहेगा, आता रहेगा, जाता रहेगा..... लेकिन जिससे सम्बन्ध कभी नहीं टूटता उसकी केवल स्मृति रखनी है, सम्बन्ध जोड़ने का परिश्रम भी नहीं करना है। दुनिया के अन्य तमाम सम्बन्धों को जोड़ने के लिए मेहनत करनी पड़ती है।

कलेक्टर की कुर्सी के लिए सम्बन्ध जोड़ना है तो बचपन से पढ़ाई करते-करते.... मजदूरी करते-करते.... परीक्षाओं में पास होते-होते आखिर आई.ए.एस. हो गये। फिर कलेक्टर पद पर नियुक्ति हुई तब कुर्सी से सम्बन्ध जुड़ा। कभी एक जिले में तो कभी दूसरे जिले में बदली होती रही..... आखिर बुढ़ापे में साहब बेचारा देखता ही रह जाता है। जवानी में तो हुकूमत चलाई लेकिन अब छोरे कहना नहीं मानते। इससे तो हे भगवान ! मर जाएँ तो अच्छा।

अरे ! तू मरने के लिए जन्मा था कि मुक्त होने के लिए जन्मा था ?

तुम पैदा हुए थे मुक्त होने के लिए। तुम पैदा हुए थे अमर आत्मेदव को पाने के लिए।

"पढ़ते क्यों हो ?"

"पास होने के लिए।"

"पास क्यों होना है ?!"

"प्रमाणपत्र पाने के लिए।"

"प्रमाणपत्र क्यों चाहिए ?"

"नौकरी के लिए।"

"नौकरी क्यों चाहिए ?"

"पैसे कमाने के लिए।"

"पैसे क्यों चाहते हो ?"

"खाने के लिए।"

"खाने क्यों चाहते हो ?"

"जीने के लिए।"

"जीना क्यों चाहते हो ?"

"................"

कोई जवाब नही। कोई ज्यादा चतुर होगा तो बोलेगाः "मरने के लिए।" अगर मरना ही है तो केवल एक छोटी सी सुई भी काफी है। मरने के लिए इतनी सारी मजदूरी करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में हर जीव की मेहनत है स्वतन्त्रता के लिए, शाश्वतता के लिए, मुक्ति के लिए। मुक्ति तब मिलती है जब जीव रागरहित होता है।

राग ही आदमी को बेईमान बना देता है, राग ही धोखेबाज बना देता है, राग ही चिन्तित बना देता है, राग ही कर्मों के बन्धन में ले आता है। रागरहित होते ही तुम्हारी हाजिरी मात्र से जो होना चाहिए वह होने लगेगा, जो नहीं होना चाहिए वह रूक जाएगा। रागरहित पुरूष के निकट हम बैठते हैं तो हमारे लोभ, मोह, काम, अहंकार शान्त होने लगते हैं, प्रेम, आनन्द, उत्साह, ईश्वर-प्राप्ति के भाव जगने लग जाते हैं। उनकी हाजरी मात्र से हमारे हृदय में जो होना चाहिए वह होने लगता है, जो नहीं होना चाहिए वह नहीं होता।

राग रहित होना माने परम खजाना पाना। रागरहित होना माने ईश्वर होना। रागरहित होना माने ब्रह्म होना।

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रविवार, सितंबर 19, 2010

अगर भगवान से मिलना हो तो

यदि मनुष्य विद्या, संपत्ति, त्याग, वैराग्य आदि किसी बात को लेकर अपनी विशेषता मानता है तो यह उन विद्या आदि की पराधीनता, दासता ही है। जैसे, कोई धन को लेकर अपने को विशेष मानता है तो यह विशेषता वास्तव में धन की ही हुई, खुद की नहीं। वह अपने को धन का मालिक मानता है, पर वास्तव में वह धन का गुलाम है।
 
प्रभु का यह कायदा है कि जिस भक्त को अपने में कुछ भी विशेषता नहीं दिखती, अपने में किसी बात का अभिमान नहीं होता, उस भक्त में भगवान की विलक्षणता उतर आती है। किसी-किसी में यहाँ तक विलक्षणता आती है कि उसके शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थ भी चिन्मय बन जाते हैं। उनमें जड़ता का अत्यन्त अभाव हो जाता है। ऐसे भगवान के प्रेमी भक्त भगवान में ही समा गये हैं, अन्त में उनके शरीर नहीं मिले। जैसे मीराबाई शरीर सहित भगवान के श्रीविग्रह में लीन हो गईं। केवल पहचान के लिए उनकी साड़ी का छोटा-सा छोर श्रीविग्रह के मुख में रह गया और कुछ नहीं बचा। ऐसे ही संत श्री तुकाराम जी शरीर सहित वैकुण्ठ चले गये।
 
ज्ञानमार्ग में शरीर चिन्मय नहीं होता, क्योंकि ज्ञानी असत् से सम्बन्ध-विच्छेद करके, असत् से अलग होकर स्वयं चिन्मय तत्त्व में स्थित हो जाता है। परंतु जब भक्त भगवान के सम्मुख होता है तो उसके शरीर, इन्द्रियाँ, मन, प्राण आदि सभी भगवान के सम्मुख हो जाते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जिनकी दृष्टि केवल चिन्मय तत्त्व पर ही है, जिनकी दृष्टि में चिन्मय तत्त्व से भिन्न जड़ता की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं होती तो वह चिन्मयता उनके शरीर आदि में भी उतर आती है और वे शरीर आदि चिन्मय हो जाते हैं। हाँ, लोगों की दृष्टि में तो उनके शरीर में जड़ता दिखती है, पर वास्तव में उनके शरीर चिन्मय होते हैं।
 
भगवान की सर्वथा शरण हो जाने पर शरणागत के लिए भगवान की कृपा विशेषता से प्रकट होती है, पर मात्र संसार का स्नेहपूर्वक पालन करने वाली और भगवान से अभिन्न रहने वाली वात्सल्यमयी माता लक्ष्मी का प्रभु-शरणागत पर कितना अधिक स्नेह होता है, वे कितना अधिक प्यार करती है, इसका कोई भी वर्णन नहीं कर सकता। लौकिक व्यवहार में भी देखने में आता है कि पतिव्रता स्त्री को पितृभक्त पुत्र बहुत प्यारा लगता है।
 
प्रेमभाव से परिपूर्ण प्रभु जब अपने भक्त को देखने के लिए पधारते हैं तो माता लक्ष्मी भी प्रभु के साथ आती हैं। परन्तु कोई भगवान को न चाहकर केवल माता लक्ष्मी को ही चाहता है तो उसके स्नेह के कारण माता लक्ष्मी भी आ जाती हैं, पर उनका वाहन दिवान्ध उल्लू होता है। ऐसे वाहनवाली लक्ष्मी को प्राप्त करके मनुष्य भी मदान्ध हो जाता है। अगर उस माँ को कोई भोग्या समझ लेता है तो उसका बड़ा भारी पतन हो जाता है क्योंकि वह तो अपनी माँ को ही कुदृष्टि से देखता है, इसलिए वह महान अधम् है।
 
जहाँ केवल भगवान का प्रेम होता है वहाँ तो भगवान से अभिन्न रहने वाली लक्ष्मी भगवान के साथ आ ही जाती है। पह जहाँ केवल लक्ष्मी की चाहना है वहाँ लक्ष्मी के साथ भगवान भी आ जायें यह नियम नहीं है।
 
शरणागति के विषय में एक कथा आती है। सीताजी, राम जी और लक्ष्मणजी जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस वृक्ष की शाखाओं और टहनियों पर एक लता छाई हुई थी। लता के कोमल-कोमल तन्तु फैल रहे थे। उन तन्तुओं में कही पर नयी-नयी कोंपलें निकल रही थीं और कहीं पर ताम्रवर्ण के पत्ते निकल रहे थे। पुष्प और पत्तों से लता छाई हुई थी। उससे वृक्ष की सुन्दर शोभा हो रही थी। वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था। उस वृक्ष की शोभा को देखकर भगवान श्रीराम लक्ष्मण जी से बोलेः "देखो लक्ष्मण ! यह लता अपने सुन्दर-सुन्दर फल, सुगन्धित फूल और हरी-हरी पत्तियों से इस वृक्ष की कैसी शोभा बढ़ रही है ! जंगल के अन्य सब वृक्षों से यह वृक्ष कितना सुन्दर दिख रहा है ! इतना ही नहीं, इस वृक्ष के कारण ही सारे जंगल की शोभा हो रही है। इस लता के कारण ही पशु-पक्षी इस वृक्ष का आश्रय लेते हैं। धन्य है यह लता !"
 
भगवान श्रीराम के मुख से लता की प्रशंसा सुनकर सीताजी लक्ष्मण से बोलीः
 
"देखो लक्ष्मण भैया ! तुमने ख्याल किया कि नहीं ? देखो, इस लता का ऊपर चढ़ जाना, फूल पत्तों से छा जाना, तन्तुओं का फैल जाना, ये सब वृक्ष के आश्रित हैं, वृक्ष के कारण ही हैं। इस लता की शोभा भी वृक्ष के ही कारण है। अतः मूल में महिमा तो वृक्ष की ही है। आधार तो वृक्ष ही है। वृक्ष के सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है ? कैसे छा सकती है ? अब बोलो लक्ष्मण जी ! तुम्हीं बताओ, महिमा वृक्ष की ही हुई न ? वृक्ष का सहारा पाकर ही लता धन्य हुई न ?"
 
राम जी ने कहाः "क्यों लक्ष्मण ! यह महिमा तो लता की ही हुई न ? लता को पाकर वृक्ष ही धन्य हुआ न ?"
 
लक्ष्मण जी बोलेः "हमें तो एक तीसरी ही बात सूझती है।"
 
सीता जी ने पूछाः "वह क्या है देवर जी ?"
 
लक्ष्मणजी बोलेः "न वृक्ष धन्य है न लता धन्य है। धन्य तो यह लक्ष्मण है जो दोनों की छाया रहता है।"
 
भगवान और उनकी दिव्य आह्लादिनी शक्ति, दोनों ही एक दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं। कोई उन दोनों को श्रेष्ठ बताता है, कोई केवल भगवान को श्रेष्ठ बताता है और कोई केवल उनकी आह्लादिनी शक्ति को श्रेष्ठ बताता है। शरणागत भक्त के लिए तो प्रभु और उनकी आह्लादिनी शक्ति दोनों का ही आश्रय श्रेष्ठ है।
 
जब मनुष्य भगवान की शरण हो जाता है, उनके चरणों का सहारा ले लेता है तो वह सम्पूर्ण प्राणियों से, विघ्न-बाधाओं से निर्भय हो जाता है। उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता, कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
 
भगवान के साथ काम, भय, द्वेष, क्रोध, स्नेह आदि से भी सम्बन्ध क्यों न जोड़ा जाय, वह भी जीव का कल्याण करने वाला ही होता है।
 
केवल एक भगवान की शरण होने का तात्पर्य है – केवल भगवान मेरे हैं, अव वे ऐश्वर्य-सम्पन्न हैं तो बड़ी अच्छी बात है और कुछ भी ऐश्वर्य नहीं है तो बड़ी अच्छी बात। वे बड़े दयालु हैं तो बड़ी अच्छी बात और इतने निष्ठुर, कठोर हैं कि उनके समान दुनियाँ में कोई कठोर ही नहीं, तो भी बड़ी अच्छी बात। उनका बड़ा भारी प्रभाव है तो बड़ी अच्छी बात और उनमें कोई प्रभाव नहीं हो तो भी बड़ी अच्छी बात। शरणागत में इन बातों की कोई परवाह नहीं होती। उसका तो एक ही भाव रहता है कि भगवान जैसे भी हैं, हमारे हैं। भगवान की इन बातों की परवाह न होने से भगवान का ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, गुण, प्रभाव आदि चले जायेंगे ऐसी बात नहीं है। पर हम उनकी परवाह नहीं करेंगे तो हमारी असली शरणागति होगी।
 
भगवान के प्रति भक्तों के अलग-अलग भाव होते है। कोई कहता है कि दशरथ जी की गोद में खेलनेवाले जो रामलाला है, वे ही हमारे इष्ट हैं, राजाधिराज रामचन्द्रजी नहीं, छोटा सा रामलाला। कोई भक्त कहता है कि हमारे इष्ट तो लड्डूगोपाल है, नन्द के लाला हैं। वे भक्त अपने रामलाला को, नन्दलाला को संतों से आशीर्वाद दिलाते हैं। तो भगवान को यह बहुत प्यारा लगता है। तात्पर्य है कि भक्तों की दृष्टि भगवान के ऐश्वर्य की तरफ जाती ही नहीं।
 
संत कहते हैं कि अगर भगवान से मिलना हो तो साथ में साथी नहीं होना चाहिए और सामान भी नहीं होना चाहिए। साथी और सामान के बिना भगवान से मिलो। जब साथी, सहारा साथ में है तो तुम क्या मिले भगवान से ? और मन, बुद्धि, विद्या, धन आदि सामान साथ में बँधा रहेगा, तो उसका परदा रहेगा। परदे में मिलन थोड़े ही होता है ! साथ में कोई साथी और सामान न हो तो भगवान से जो मिलन होगा, वह बड़ा विलक्षण और दिव्य होगा।
 
कुछ भी चाहने का भाव न होने से भगवान स्वाभाविक ही प्यारे लगते हैं, मीठे लगते हैं। जिसमें चाह नहीं है, कोई आकांक्षा इच्छा नहीं है वह भगवान का खास घर है। भगवान के साथ सहज स्नेह हो। स्नेह में कुछ मिलावट न हो, कुछ भी चाहना न हो। जहाँ कुछ भी चाहना हो जाय वहाँ प्रेम कैसा ? वहाँ तो आसक्ति, वासना, मोह, ममता ही होते हैं।
 
भगवान एक बार भक्त को खींच लें तो फिर छोड़ें नहीं। भगवान से पहचान न हो तब तक तो ठीक है। अगर उससे पहचान हो गई तो फिर मामला खत्म। फिर किसी काम के नहीं रहोगे। तीनों लोकों में निकम्मे हो जाओगे।
 
हाँ, जो किसी काम का नहीं होता, वह सब के लिए सब काम का होता है। परंतु उसको किसी से कोई मतलब नहीं होता।
 
शरणागत भक्त को भजन नहीं करना पड़ता, उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक भजन होता है। भगवान का नाम उसे स्वाभाविक ही बड़ा मीठा, प्यारा लगता है। जैसे श्वास अपने आप चलता रहता है, श्वास के बिना हम जी नहीं सकते ऐसे ही शरणागत भक्त भजन के बिना नहीं रह सकता।
 
जिसको सब कुछ अर्पित कर दिया उसके विस्मरण में परम व्याकुलता, महान् छटपटाहट होने लगती है। 'नारदभक्ति सूत्र' में आया हैः तद्विस्मरणे परम व्याकुलतेति। ऐसे भक्त से अगर कोई कहे कि आधे क्षण के लिए भगवान को भूल जाओ तो तीनों लोकों का राज्य मिलेगा, तो वह इसे ठुकरा देगा। भागवत में आया हैः
 
'तीनों लोकों के समस्त ऐश्वर्य के लिए भी उन देवदुर्लभ भगवच्चरणकमलों को जो आधे निमेष के लिए भी नहीं त्याग सकते, वे ही श्रेष्ठ भगवदभक्त हैं।'
 
भगवान कहते हैं- 'स्वयं को मुझे अर्पित करने वाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मा का पद, इन्द्र का पद, सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य, पातालादि लोकों का राज्य, योग की समस्त सिद्धियाँ और मोक्ष को भी नहीं चाहता।'

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गुरुवार, सितंबर 16, 2010

शरीर, मन, इन्द्रियों का कितना भी लालन-पालन करो, आखिर तो छूटना ही है !

                    वर्षा की ऋतु में बादलों के कारण सूरज नहीं दिखता है। सूरज को बुलाना भी नहीं है, प्रकट भी नहीं करना है। केवल हवाएँ चलें, बादल बिखरें, सूरज दिख जाएगा। सूरज तो पहले से ही है और शाम तक दिखेगा।

यह आकाश का सूरज तो शाम तक दिखेगा लेकिन आत्म-सूर्य के लिए तो कोई शाम ही नहीं है। परमात्मारूपी सूर्य से हम कभी अलग नहीं होते। उस सत्यस्वरूप परमात्मा में बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाय, बस। सागर में तरंग विलय हो जाती है तो तरंग सागर बन जाती है। तरंग पानी तो पहले से ही था, सागर पहले से ही था। ऐसे ही जीव ब्रह्म तो पहले से ही था, सागर पहले से ही था। ऐसे ही जीव ब्रह्म तो पहले से ही था लेकिन इस बेचारे जीव को इन्द्रियों के आकर्षणों ने, जगत की सत्यता ने, बेवकूफी ने कई जन्मों तक भटकाया।

जीव को माता का गर्भ सीधा ही मिल जाता है ऐसी बात नहीं है। कई जीव माता के गर्भ में वीर्यबिन्दु के रूप में गिरते है लेकिन बाथरूम के द्वारा नालियों में बह जाते हैं। क्या दुर्दशा होती है जीवों की ? इस पृथ्वी पर जितने हम लोग घूमते हैं इससे अधिक मनुष्य जीव नालियों में बहते होंगे। इस बात को कोई भी तार्किक या नास्तिक भी अस्वीकार नहीं कर सकता है।

'मेरे दो बेटे हैं।'

'कैसे तुम्हारे बेटे ?'

'क्योंकि मेरे शरीर से पैदा हुए हैं।'

'तुम्हारे शरीर से पैदा क्या हुए, केवल गुजरे।'

हम लोग अन्न-जल-फल आदि खाते हैं। उसमें स्थित जीव वीर्य के द्वारा पत्नी के गर्भ में जाते हैं। कई जीवों में से एक जीव बेटा होकर जन्म लेता है, बाकी के जीव नाली में बह जाते हैं। वीर्य के एक बिन्दु में करीब तीन हजार जीव होते हैं। माता के उदर में जो जीव नहीं टिक पाते वे कहाँ जाएँगे ? रज-वीर्य के रूप में बहकर बाथरूम के द्वारा नाली में जाएँगे।

ऐसी कितनी ही दुःखद अवस्थाएँ हम लोग कितनी ही बार भोग चुके हैं। यह बात अगर मति को समझ में आ जाय तो मति में संसार का आकर्षण कम हो जाएगा। फिर राग नहीं रहेगा। राग नहीं रहेगा तो द्वेष भी नहीं रहेगा। राग में कोई विघ्न डालता है तो उससे द्वेष होता है। बड़ा आदमी विघ्न डालता है तो उससे भय होता है, छोटा आदमी विघ्न डालता है तो क्रोध होता है, बराबर का आदमी विघ्न डालता है तो उससे द्वेष होता है। जब वासना ही नहीं है तो भय कहाँ ? वासना ही नहीं तो उद्वेग कहाँ ? वासना ही नहीं तो द्वेष कहाँ ? निर्वासनिक मनुष्य के राग, द्वेष, क्रोध, भय, उद्वेग आदि सब शिथिल हो जाते हैं। जब राग, द्वेष, भय, उद्वेग, चिन्ता आदि सब शिथिल हो जाते हैं। तो जीव निश्चिन्त हो जाता है। वस्तु मिलेगी कि नहीं मिलेगी.... काम होगा कि नहीं होगा.... मेरा आखिर क्या होगा ? पहले यह चिन्ता थी। जीव जब निर्वासनिक हो जाता है तो हिम्मत आ जाती है कि हो होकर मेरा क्या होगा ? जो होगा सो शरीर, मन, इन्द्रियों को होगा, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। शरीर, मन, इन्द्रियों का कितना भी लालन-पालन करो, आखिर तो छूटना ही है। रोटी तो भगवान देता ही है और साथ में कुछ ले जाना नहीं है। फिर चिन्ता किस बात की ? जो बना है और जो बनाएँगे वह सब मृत्यु के एक झटके में छोड़ना है। मति अगर यह दृढ़ निश्चय कर ले तो आदमी की चिन्ता टिक नहीं सकती। आदमी निश्चिन्त होकर मति में टिकेगा तो जिस बात का वह चिन्तन करता है वह काम अपने आप हो जाएगा।

आदमी जितना निश्चिन्त होता है उतनी उसकी मति परमात्मा में टिकती है। मति जितनी परमात्मा में टिकती है उतनी प्रकृति और लोग अनुकूल होने लगते हैं। यही कारण है कि जो दुरात्मा होता है उसकी इच्छाएँ जल्दी पूरी नहीं होती। थोड़ी-बहुत इच्छाएँ पूरी होती हैं फिर भी वह दुःखी का दुःखी ही रहता है। जो धर्मात्मा है, पवित्रात्मा है उसकी ज्यादा इच्छाएँ होती नहीं जो होती हैं वे तो पूरी हो ही जाती हैं, जो उसके नाम की मनौती मानते हैं उन लोगों की इच्छाएँ भी कुदरत पूरी कर देती है।

तप से ही जगत को धारण किया जाता है, तप से ही जगत चलता है और तप से ही जगत के आकर्षण से छूटकर जगदीश्वर को प्राप्त किया जाता है। अतः हमारे जीवन में तप का स्थान होना चाहिए, तप के लिए नियत समय रखना चाहिए। बाईस घण्टे भले व्यवहार एवं अन्य प्रवृत्ति के लिए रखो लेकिन ज्यादा नहीं तो कम से कम दो घण्टे तप करो, ध्यान करो। छः घण्टे नींद करो, आठ घण्टे नौकरी – धन्धा करो, फिर भी दस घण्टे बचते हैं। उन दस घण्टों में सत्कर्म और तप आदि करो, सेवा करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो लेकिन कम से कम दो घण्टों तप करो, ध्यान करो।

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बुधवार, सितंबर 15, 2010

आत्मज्ञानी आपके अहंकार को पोषण नहीं देंगे !

परमात्मा हृदय में ही विराजमान है। लेकिन अहंकार बर्फ की सतह की तरह आवरण बनकर खड़ा है। इस आवरण का भंग होते ही पता चलता है कि मैं और परमात्मा कभी दो न थे, कभी अलग न थे।
वेदान्त सुनकर यदि जप, तप, पाठ, पूजा, कीर्तन, ध्यान को व्यर्थ मानते हो और लोभ, क्रोध, राग, द्वेष, मोहादि विकारों को व्यर्थ मानकर निर्विकार नहीं बनते हो तो सावधान हो जाओ। तुम एक भयंकर आत्मवंचना में फँसे हो। तुम्हारे उस तथाकथित ब्रह्मज्ञान से तुम्हारा क्षुद्र अहं ही पुष्ट होकर मजबूत बनेगा।
आप किसी जीवित आत्मज्ञानी संत के पास जायें तो यह आशा मत रखना कि वे आपके अहंकार को पोषण देंगे। वे तो आपके अहंकार पर ही कुठाराघात करेंगे। क्योंकि आपके और परमात्मा के बीच यह अहंकार ही तो बाधा है।
अपने सदगुरु की कृपा से ध्यान में उतरकर अपने झूठे अहंकार को मिटा दो तो उसकी जगह पर ईश्वर आ बैठेगा। आ बैठेगा क्या, वहाँ ईश्वर था ही। तुम्हारा अहंकार मिटा तो वह प्रगट हो गया। फिर तुम्हें न मन्दिर जाने की आवश्यकता, न मस्जिद जाने की, न गुरुद्वारा जाने की और न ही चर्च जाने की आवश्यकता, क्योंकि जिसके लिए तुम वहाँ जाते थे वह तुम्हारे भीतर ही प्रकट हो गया।
 और सरल व्यक्ति सत्य का पैगाम जल्दी सुन लेता है लेकिन अपने को चतुर मानने वाला व्यक्ति उस पैगाम को जल्दी नहीं सुनता।
मनुष्य के सब प्रयास केवल रोटी, पानी, वस्त्र, निवास के लिए ही नहीं होते, अहं के पोषण के लिए भी होते हैं। विश्व में जो नरसंहार और बड़े बड़े युद्ध हुए हैं वे दाल-रोटी के लिए नहीं हुए, केवल अहं के रक्षण के लिए हुए हैं।
जब तक दुःख होता है तब तक समझ लो कि किसी-न-किसी प्रकार की अहं की पकड़ है। प्रकृति में घटने वाली घटनाओं में यदि तुम्हारी पूर्ण सम्मति नहीं होगी तो वे घटनाएँ तुम्हें परेशान कर देंगी। ईश्वर की हाँ में हाँ नहीं मिलाओ तब तक अवश्य परेशान होगे। अहं की धारणा को चोट लगेगी। दुःख और संघर्ष आयेंगे ही।
अहं कोई मौलिक चीज नहीं है। भ्रान्ति से अहं खड़ा हो गया है। जन्मों और सदियों का अभ्यास हो गया है इसलिए अहं सच्चा लग रहा है।
अहं का पोषण भाता है। खुशामद प्यारी लगती है। जिस प्रकार ऊँट कंटीले वृक्ष के पास पहुँच जाता है, शराबी मयखाने में पहुँच जाता है, वैसे ही अहं वाहवाही के बाजार में पहुँच जाता है।
सत्ताधीश दुनियाँ को झुकाने के लिए जीवन खो देते हैं फिर भी दुनियाँ दिल से नहीं झुकती। सब से बड़ा कार्य, सब से बड़ी साधना है अपने अहं का समर्पण, अपने अहं का विसर्जन। यह सब से नहीं हो सकता। सन्त अपने सर्वस्व को लुटा देते हैं। इसीलिए दुनियाँ उनके आगे हृदयपूर्वक झुकती है।
नश्वर का अभिमान डुबोता है, शाश्वत का अभिमान पार लगाता है। एक अभिमान बन्धनों में जकड़ता है और दूसरा मुक्ति के द्वार खोलता है। शरीर से लेकर चिदावली पर्यंत जो अहंबुद्धि है वह हटकर आत्मा में अहंबुद्धि हो जाय तो काम बन गया। 'शिवोऽहम्.... शिवोऽहम्....' की धुन लग जाय तो बस.....!
मन-बुद्धि की अपनी मान्यताएँ होती हैं और अधिक चतुर लोग ऐसी मान्यताओं के अधिक गुलाम होते हैं वे कहेंगेः "जो मेरी समझ में आयेगा वही सत्य। मेरी बुद्धि का निर्णय ही मानने योग्य है और सब झूठ....।"
नाम, जाति, पद आदि के अभिमान में चूर होकर हम इस शरीर को ही "मैं" मानकर चलते हैं और इसीलिए अपने कल्पित इस अहं पर चोट लगती है तो हम चिल्लाते हैं और क्रोधाग्नि में जलते हैं।
नश्वर शरीर में रहते हुए अपने शाश्वत स्वरूप को जान लो। इसके लिए अपने अहं का त्याग जरूरी है। यह जिसको आ गया, साक्षात्कार उसके कदमों में है।
परिच्छिन्न अहंकार माने दुःख का कारखाना। अहंकार चाहे शरीर का हो, मित्र का हो, नाते-रिश्तेदारों का हो, धन-वैभव का हो, शुभकर्म का हो, दानवीरता का हो, सुधारक का हो या सज्जनता का हो, परिच्छिन्न अहंकार तुमको संसार की भट्ठी में ही ले जायगा। तुम यदि इस भट्ठी से ऊबे हो, दिल की आग बुझाना चाहते हो तो इस परिच्छिन्न अहंकार को व्यापक चैतन्य में विवेक रूपी आग से पिघला दो। उस परिच्छिन्न अहंकार के स्थान पर "मैं साक्षात् परमात्मा हूँ", इस अहंकार को जमा दो। यह कार्य एक ही रात्रि में हो जायेगा ऐसा नहीं मानना। इसके लिए निरन्तर पुरुषार्थ करोगे तो जीत तुम्हारे हाथ में है। यह पुरुषार्थ माने जप, तप, योग, भक्ति, सेवा और आत्म-विचार।
बाहर की सामग्री होम देने को बहुत लोग तैयार मिल जायेंगे लेकिन सत्य के साक्षात्कार के लिए अपनी स्थूल और सूक्ष्म सब प्रकार की मान्यताओं की होली जलाने लिए कोई कोई ही तैयार होता है।

किसी भी प्रकार का दुराग्रह सत्य को समझने में बाधा बन जाता है।
जब क्षुद्र देह में अहंता और देह के सम्बन्धों में ममता होती है तब अशांति होती है।
जब तक 'तू' और 'तेरा' जिन्दे रहेंगे तब तक परमात्मा तेरे लिये मरा हुआ है। 'तू' और 'तेरा' जब मरेंगे तब परमात्मा तेरे जीवन में सम्पूर्ण कलाओं के साथ जन्म लेंगे। यही आखिरी मंजिल है। विश्व भर में भटकने के बाद विश्रांति के लिए अपने घर ही लौटना पड़ता है। उसी प्रकार जीवन की सब भटकान के बाद इसी सत्य में जागना पड़ेगा, तभी निर्मल, शाश्वत सुख उपलब्ध होगा।
अपनी कमाई का खाने से ही परमात्मा नहीं मिलेगा। अहंकार को अलविदा देने से ही परमात्मा मिलता है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच अहंकार ही तो दीवार के रूप में खड़ा है।
जब कर्म का भोक्ता अहंकार नहीं रहता तब कर्मयोग सिद्ध होता है। जब प्रेम का भोक्ता अहंकार नहीं रहता तब भक्तियोग में अखण्ड आनन्दानुभूति होती है। जब ज्ञान का भोक्ता अहंकार नहीं रहता तब ज्ञानयोग पूर्ण होता है।
कुछ लोग सोचते हैं- प्राणायाम-धारणा-ध्यान से या और किसी युक्ति से परमात्मा को ढूँढ निकालेंगे। ये सब अहंकार के खेल हैं, तुम्हारे मन के खेल हैं। जब तक मन से पार होने की तैयारी नहीं होगी, अपनी कल्पित मान्यताओं को छोड़ने की तैयारी नहीं होगी, अपने कल्पित पोपले व्यक्तित्व को विसर्जित करने की तैयारी नहीं होगी तब तक भटकना चालू रहेगा। यह कैसी विडम्बना है कि परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, तुमसे पृथक नहीं है फिर भी उससे अनभिज्ञ हो और संसार में अपने को चतुर समझते हो।

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सोमवार, सितंबर 13, 2010

श्री गुरु स्तोत्रम्


श्री महादेव्युवाच

गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे

श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है - इस बारे में वर्णन करें

श्री महादेव उवाच

जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम्

उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं .. १..

श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..१..

प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम्

भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..२..

प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..२..

वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम्

साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..३..

वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..३..


विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम्

विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..४..

भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..४..

प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम्

इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..५..

प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है..५..

काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा

श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं..६..

काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..६..

मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम्

नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..७..

भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..७..

श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम्

अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..८..

भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..८..

गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा

यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..९..

गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..९..

गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्

एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..१०..

हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन - ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..१०..

तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः

किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..११..

तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..११..

एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम्

ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ..१२..

इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है
निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ..१२..

वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम्
यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है

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रविवार, सितंबर 12, 2010

प्रिय लागहु मोहि बापू आसाराम

ब्रह्म गिआनी का कथिआ न जाइ अधयाख्यरु।
ब्रह्म गिआनी सरब का ठाकुरु॥

संत में एक भी सदगुण दिखे तो लाभ ले लें। उनमें दोष देखना और सुनना अपने को मुक्तिफल से वंचित करके अशांति की आग में झोंकने के बराबर है।

'श्री योगवाशिष्ठ महारामायण' के निर्वाण प्रकरण के 208वें सर्ग में आता हैः "हे रामजी ! जिसकी संतों की संगति प्राप्त होती है, वह भी संत हो जाता है। संतों का संग वृथा नहीं जाता। जैसे, अग्नि से मिला पदार्थ अग्निरूप हो जाता है, वैसे ही संतों के संग से असंत भी संत हो जाता है और मूर्खों की संगति से साधु भी मूर्ख हो जाता है। जैसे, उज्जवल वस्त्र मल के संग से मलिन हो जाता है, वैसे ही मूढ़ का

संग करने से साधु भी मूढ़ हो जाता है। क्योंकि पाप के वश उपद्रव भी होते हैं, इसी से दुर्जनों की संगति से साधु को भी दुर्जनता घेर लेती है। इससे हे राम! दुर्जन की संगति सर्वथा त्यागनी चाहिए और संतों की संगति कर्त्तव्य है। जो परमहंस संत मिले और जो साधु हो और जिसमें एक गुण भी शुभ हो, उसका भी अंगीकार कीजिए, परंतु साधु के दोष न विचारिये, उसके शुभ गुण ही ग्रहण कीजिये।"

द्वेष बुद्धि से तो श्रीकृष्ण, श्रीराम, संत कबीर आदि दुनिया के सभी संतों में दोष देखने को मिलेंगे। उनके यश को देखकर निंदा करने वाले भी बहुत मिलेंगे, परंतु गुणग्राहियों ने संत-महापुरुषों से लाभ उठाया है और अपना जीवन सफल किया है।

शास्त्रों में आता है कि संत की निन्दा, विरोध या अन्य किसी त्रुटि के बदले में संत क्रोध कर दें, शाप दे दें तो इतना अनिष्ट नहीं होता जितना अनिष्ट संतों की खामोशी व सहनशीलता के कारण होता है। सच्चे संतों की बुराई का फल तो भोगना ही पड़ता है। संत तो दयालु और उदार होते हैं। वे तो क्षमा कर देते हैं, परंतु प्रकृति कभी नहीं छोड़ती। इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि सच्चे संतों व

महापुरुषों के निन्दकों को कैसे-कैसे भीषण कष्टों को सहते हुए बेमौत मरना पड़ा है और पता नहीं किन-किन नरकों को सड़ना पड़ा है। अतएव समझदारी इसी में है कि हम संतों की प्रशंसा करके या उनके आदर्शों को अपनाकर लाभ न ले सकें तो उनकी निन्दा करके पुण्य व शांति भी नष्ट नहीं करें।

यह सत्य है कच्चे कान के लोग दुष्ट निन्दकों के वाग्जाल में फँस जाते हैं। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में आत्मशांति देने वाला, परमात्मा से जोड़ने वाला कोई काम नहीं किया है, उसकी बात सच्ची मानने का कोई कारण ही नहीं है। तदुपरान्त मनुष्य को यह भी विचार करना चाहिए कि जिसकी वाणी और व्यवहार से हमें जीवन-विकास की प्रेरणा मिलती है, उसका यदि कोई अनादर करना चाहे तो हम उस महापुरुष की निन्दा कैसे सुन लेंगे? व कैसे मान लेंगे?

सत्पुरुष हमें जीवन के शिखर पर ले जाना चाहते हैं, किंतु कीचड़ उछालने वाला आदमी हमें खाई की ओर खींचकर ले जाना चाहता है। उसके चक्कर में हम क्यों फँसे? ऐसे अधम व्यक्ति के निन्दाचारों में पड़कर हमें पाप की गठरी बाँधने की क्या आवश्यकता है? इस जीवन में तमाम अशांतियाँ भरी हुई हैं। उन अशांतियों में वृद्धि करने से क्या लाभ?

निजानंद में मग्न इन आत्मज्ञानी संत पुरुषों को भला निंदा-स्तुति कैसे प्रभावित कर सकती है? वे तो सदैव ही उस अनंत परमात्मा के अनंत आनंद में निमग्न रहते हैं। वे महापुरुष उस पद में प्रतिष्ठित होते हैं जहाँ इन्द्र का पद भी छोटा हो जाता है।

पीत्वा ब्रह्मरसं योगिनो भूत्वा उन्मतः।

इन्द्रोऽपि रंकवत् भासयेत् अन्यस्य का वार्ता॥

तीन टूक कौपीन की भाजी बिना लूण।

तुलसी हृदय रघुवीर बसे तो इंद्र बापड़ो कूण॥


इन्द्र का वैभव भी तुच्छ समझने वाले ऐसे संत, जगत में कभी-कभी, कहीं-कहीं, विरले ही हुआ करते हैं। समझदार तो उनसे लाभ उठाकर अपनी आध्यात्मिक यात्रा तय कर लेते हैं, परंतु उनकी निंदा करने-सुनने वाले तथा उनको सताने वाले दुष्ट, अभागे, असामाजिक तत्त्व कौन सी योनियों में, कौन सी नरक में पच रहे होंगे यह हम नहीं जानते। ॐ

'श्री योगवाशिष्ठ महारामायण' में वशिष्ठजी महाराज ने कहा हैः "हे रामजी ! अज्ञानी जो कुछ मुझे कहते और हँसते हैं, सो मैं सब जानता हूँ, परंतु मेरा दया का स्वभाव है। इससे मैं चाहता हूँ कि किसी प्रकार वे नरकरूप संसार से निकलें। इसी कारण मैं उपदेश करता हूँ। संतों के गुणदोष न विचारना, परंतु उनकी युक्ति लेकर संसार सागर से तर जाना।"

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि बापू आसाराम॥

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शनिवार, सितंबर 04, 2010

गुरुदेव परमात्म-स्वरूप हैं


इस संसार में यदि कुछ दुर्लभ हो तो वह है जीव को मानवदेह की प्राप्ति होना। मानवदेह मिल जाये तो मोक्ष की इच्छा होना दुर्लभ है। मोक्ष की इच्छा भी हो जाय तो मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाले सदगुरू की प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ है। परमात्मा की कृपा हो तभी ये तीनों एक साथ प्राप्त हो सकते हैं। जिसको श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ सदगुरू संप्राप्त हो गये हैं वह मानव परम सदभागी है।
 
परमात्मा के नित्यावतारूप ज्ञानी महात्मा के दर्शन तो कई लोगों को हो जाते है लेकिन उनकी वास्तविक पहचान सब को नहीं होती, इससे वे लाभ से वंचित रह जाते हैं। महात्मा के साक्षात्कार के लिए हृदय में अतुलनीय श्रद्धा और प्रेम के पुष्पों की सुगन्ध चाहिए।
 
जिस मनुष्य ने जीवन में सदगुरु की प्राप्ति नहीं की वह मनुष्य अभागा है, पापी है। ऐसा मानव या तो अपने से अधिक बुद्धिमान किसी को मानता नहीं, अभिमानी है, अथवा उसको कोई अपना हितैषी नहीं दिखता। उसको किसी में विश्वास नहीं। उसके हृदय में संदेह का शूल सतत् पीड़ा देता रहता है। ऐसा मानव दुःखी ही रहता है।
 
महापुरुष का आश्रय प्राप्त करने वाला मनुष्य सचमुच परम सदभागी है। सदगुरु की गोद में पूर्ण श्रद्धा से अपना अहं रूपी मस्तक रखकर निश्चिंत होकर विश्राम पाने वाले सत्शिष्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक मार्ग तेजोमय हो जाता है। सदगुरु में परमात्मा का अनन्त सामर्थ्य होता है। उनके परम पावन देह को छूकर आने वाली वायु भी जीव के अनन्त जन्मों के पापों का निवारण करके क्षण मात्र में उसको आह्लादित कर सकती है तो उनके श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति से समर्पित होने वाले सत्शिष्य के कल्याण में क्या कमी रहेगी ?
 
गुरुत्व में विराजमान ज्ञानी महापुरुषों की महिमा गा रहे हैं शास्त्र, पुराण, वेद। उनके सामर्थ्य की क्या बात करें ? उपनिषद तो कहती हैः
 
तद् दृष्टिगोचराः सर्वे मुच्यन्ते।
 
उसके दृष्टिपथ में जो कोई आ जाता है उसकी मुक्ति कालांतर में भी हो जाती है। शेर की दाढ़ में आया हुआ शिकार संभव है छटक जाय लेकिन फकीर की दाढ़ में आया हुआ शिकार सदगुरु के दिल में स्थान पाया हुआ सत्शिष्य छटक नहीं सकता, श्रेयमार्ग छोड़कर संसार में गिर नहीं सकता, फँस नहीं सकता। उसका पारमार्थिक कल्याण अवश्य हो जाता है।
 
सदगुरु साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं। वे निमिष मात्र में समग्र सृष्टि के बन्धन काटकर मुक्त कर सकते है ।
 
यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
 
स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।। (उपनिषद)
 
ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से अपने हाथ से जिसको स्पर्श करते हैं, अपने चक्षुओं से जिसको देखते हैं वह जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर आखिर ब्रह्मत्व को उपलब्ध होकर मुक्ति पाता है, तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए मानव के मोक्ष के बारे में संदेह ही कहाँ है ?
 
मोक्षमार्ग के साधनों में अनन्य भक्ति एक उत्तम साधन है। भक्ति का अर्थ है स्वरूप का अनुसन्धान।
 
मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी।
 
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधियते।।
 
आध्यात्मिक मार्ग में गुरुभक्ति की महिमा अपार है। शिष्य स्वयं में शिवत्व नहीं देख सकता। अतः प्रारंभ में उसे अपने सदगुरु में शिवत्व देखना चाहिए, सदगुरु को परमात्मास्वरूप से भजना चाहिए। इससे गुरु के द्वारा परमात्मा शिष्य में अमृत की वर्षा कर देते हैं, उसको अमृतस्वरूप बना देते हैं।
 
गुरुदेव में मात्र परमात्मा की भावना ही नहीं, गुरुदेव परमात्म-स्वरूप हैं ही। यह एक ठोस सत्य है। यह वास्तविकता अनुभव करने की है। श्वेतश्वतर उपनिषद कहती हैः
 
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
 
सदगुरू के चित्र, फोटो या मूर्ति के समक्ष उपासना करने से भी श्रेय और प्रेय के मार्ग की परोक्षता नष्ट हो जाती है तो सदगुरु के साक्षात श्रीचरणों का सेवन करने वाला, अनन्य भक्त, प्रेमी, सत्शिष्य का कल्याण होने में विलंब कैसा ?
 
जिसके जीवन में दिव्य विचार नहीं है, दिव्य चिन्तन नहीं है वह चिन्ता की खाई गिरता है। चिन्ता से बुद्धि संकीर्ण होती है। चिन्ता से बुद्धि का विनाश होता है। चिन्ता से बुद्धि कुण्ठित होती है। चिन्ता से विकार पैदा होते हैं।
 
विचारवान पुरुष अपनी विचारशक्ति से विवेक वैराग्य उत्पन्न करके वास्तव में जिसकी आवश्यकता है उसे पा लेगा। मूर्ख मनुष्य जिसकी आवश्यकता है उसे समझ नहीं पायेगा और जिसकी आवश्यकता नहीं है उसको आवश्यकता मानकर अपना अमूल्य जीवन खो देगा।

मैं दृष्टा हूँ, यह अनुभूति भी एक साधक अवस्था है। एक ऐसी सिद्धावस्था आती है जहाँ दृष्टा होने का भी सोचना नहीं पड़ता।

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