रविवार, जनवरी 08, 2023

धर्म अर्थ काम और मोक्ष की सहज प्राप्ति का पर्व : मकर संक्रांति

पूज्य बापूजी के सत्संग से 

https://youtu.be/HbLZ78BuGAQ


महामना भीष्म पितामह बाणों की पीड़ा सहते हुए भी, प्राण न त्यागा । संकल्प करके और पीड़ा के भी साक्षी बने रहे । यह  उत्तरायण का पर्व सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए इसको मकर संक्रांति कहते हैं । 
सम्यक क्रांति ।  *सं गच्छध्वं सं वदस्ध्वं ।*
बाह्य क्रांति होती है - एक दूसरे की कुर्सी छीनना, एक दूसरे को नीचा दिखाना। महाभारत में लिखा है कि मूर्ख मनुष्य कौन है? 
बोले : जो दूसरों की निंदा करे और अपनी प्रशंसा करे और जगत को सत्य माने, वह वज्रमूर्ख कहा जाता है । 
महभारत का वचन है। 
भीष्म पितामह से युधिष्ठिर प्रश्न करते हैं और भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे-लेटे उत्तर देते हैं, कैसी समता है इस भारत के वीर की ! कैसी बहादुरी है तन की, मन की और परिस्थितियों के सिर पर पैर रखने की! कैसी हमारी संस्कृति है ! क्या विश्व में ऐसा कोई दृष्टांत सुना?
 58 दिन तक संकल्प के बल से शरीर को धारण कर रखे हैं और कृष्णजी के कहने से युधिष्ठिर को उपदेश दे रहे हैं और उससे भीष्म पर्व बना है । आज उस महापुरुष के स्मरण का दिवस भी है और अपने जीवन में परिस्थितियों रूपी बाणों की शैया पर सोते हुए भी अपनी समता, ज्ञान और आत्मवैभव को पाने की प्रेरणा देने वाला दिवस उत्तरायण पर्व है ।  
 *मकर संक्रांति - सम्यक क्रांति* । ऐसी समाज में क्रांति तो एक-दूसरे को नीचे गिराओ और ऊपर उठो, मार-काट ! मकर संक्रांति बोलती है मार-काट नहीं, सम्यक क्रांति । सबकी उन्नति में अपनी उन्नति, सबके ज्ञान वृद्धि में अपना ज्ञान वृद्धि, सबके स्वास्थ्य में अपना स्वास्थ्य, सबकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता, दूसरों को नीचोकर आप प्रसन्न होने जाओ तो हिटलर और सिकंदर का रास्ता है, कंस और रावण का रास्ता है । श्री कृष्ण के नाईं... ओए... गाय चराने वालों को भी अपने साथ उन्नत करते हुए *सं गच्छध्वं सं वदस्ध्वं।* 

 उत्तरायण तुम्हें यह संदेशा देता है कि अब तुम्हारा रथ, जीवन का रथ नीचे विकारों के केंद्रों के तरफ ज्यादा ना जाए, ऊपर निर्विकार नारायण की धारणा ध्यान के तरफ जाए ।  सूर्यनारायण को अर्घ्य देकर धरती पर पड़ी हुई गीली मिट्टी उठा ले और उसका तिलक करें और अर्घ्य में बचा हुआ तांबे के लोटे में पानी जो बचाया, थोड़ा बचा ले उसको ॐ त्र्यंबकम यजामहे... जप करके पी लें अथवा तो आयु-आरोग्यप्रदायक सूर्यनारायण ! मैं इस जल को जठराग्नि में प्रवेश कराता हूँ, मेरे रोगों का, पापों का शमन करने की कृपा करें तो स्वास्थ्य लाभ होता है, बुद्धिमता में बढ़ोतरी होती है । शिवगीता का थोड़ा-सा पाठ कर ले और 20 ग्राम तुलसी का रस, 10-20 ग्राम च्यवनप्राश पानी डालकर घोंल बनाकर उसका रस मिलाकर 40 दिन अगर कोई बच्चे को भी पिलाओ तो बच्चा बड़ा तेजस्वी होगा, प्रभावशाली मति का धनी बनेगा। 
भीष्म पितामह का ध्यान कर रहे हैं श्रीकृष्ण । युधिष्ठिर आए थे कृष्ण से मिलने को । देखा श्री कृष्ण ध्यान में है। उन्हें आश्चर्य हुआ । जो कुछ पूछना था श्रीकृष्ण से वह बाद में पूछूंगा । पहले तो माधव मुझे यह पूछना है कि आप किस का ध्यान करे रहे हैं। सुबह तो आप अपने ब्रह्म स्वभाव का, सत-चित-आनंद सोहम स्वभाव का विश्रांति प्रसाद लेते हैं लेकिन इस समय आप किसका ध्यान कर रहे थे माधव?  
युधिष्ठिर ! इस समय धरती पर भीष्म की बराबरीवाला पुरुष मिलना कठिन है। हमें चाहिए कि उनके दर्शन को जाएं और उनसे कुछ ज्ञान प्राप्त करें। जैसे वह अष्ट वसुओं के बीच देव शोभा देता है ऐसे वह पांच पांडवों के बीच युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण शौभायमान हो रहे थे और रथ धड़ाधड़ पहुंचे जहां ये महारथी शरशैया पर सोए थे। उत्तरायण निकट आ रहा है, शरीर छोड़ने की बेला है तो कई जति-जोगी, तपस्वी, कोई ब्रह्मचारी, कोई ऋषि, कोई मुनि, कोई उपनिषदों की व्याख्या वाले तो कोई ज्ञाता, कोई पयोव्रतधारी तो कोई फलाहारी, तो कई वायुभक्षी तो कोई भगवतप्रीति वाले, अनेक तपस्वी, जति-जोगी, सारे लोग जा रहे थे । शरशैया पर लेटे-लेटे सभी का वाणी से यथायोग्य सत्कार कर रहे थे । भगवान वेदव्यास भी पधारे थे । कृष्ण जैसी हस्ती और युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा लोग... 
तब भीष्म कहते हैं कि हे युधिष्ठिर तुम तो यहां मेरे नजदीक बैठ जाओ ।  माधव तुमको मैं कहां बैठाऊं ! तुम तो मेरे पलकों में ही बैठे रहो और शरीर से मेरे सामने खड़े रहो। पीतांबर फहराता रहे और तुम्हारी मधुर चितवन वाली मुस्कान बनी रहे । मैंने अपनी कन्या को सुसंस्कार देकर पाला-पोषा है, मैं तुम्हें अपनी कन्या दान करना चाहता हूँ । 

 लंगोटीधारी ने कन्या को पाला-पोषा और कन्या दान करना चाहते हैं, कैसी रहस्यमयी वाणी ।  
कृष्ण ने कहा : युधिष्ठिर जी आपसे कुछ उपदेश सुनना चाहते हैं। 
कथा तो विस्तार वाली है सार बात यह है ।  युधिष्ठिर ने कई प्रश्न किए, उसमें एक प्रश्न यह भी था कि हम जैसे संसार को सच्चा मानकर जीनेवाले लोगों की बुद्धि में भगवत की सत्यता, चेतनता, अनंतता  कैसे प्रकट हो ? मोक्ष का मार्ग ग्रहस्थी जीवन में कैसे पाएं ? 
तब धर्म के मर्म को जानने वाले भीष्मजी कहते हैं : ग्रहस्थ को तीर्थयात्रा में जाना चाहिए और वहां विरक्त, भगवतभक्त, ज्ञानी, जति-जोगी संतों का संग करना चाहिए । 

भीष्म पितामह युधिष्ठिर को कहते हैं:  महाराजा ऐसे महापुरुषों का संपर्क ग्रहस्थ को करना चाहिए और वासनाओं को नियंत्रित करके धर्म अनुकूल धर्म, धर्म अनुकूल वास्तव पूर्ति और मोक्ष का उद्देश्य होना चाहिए । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । लेकिन कोई विवेक जगाने वाला सत्संग और सदगुरु मिल जाए तो कामनापूर्ति में समय बर्बाद ना करें, कामनानिवृत्ति करके मोक्ष लाभ कर ले । मोक्षलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं । 
युधिष्ठिर महाराज के प्रश्नों के उत्तर देते-देते भीष्म जी कहते हैं : सात्विक गुणों से निद्रा का त्याग करे और परमार्थ से भय का नाश करे । आत्मचिंतन से निर्भयता को अपने आत्मस्वभाव को जगाए। श्वांस-प्रश्वांस की साधना से अपने पिया में विश्रांति पाए । धैर्य से छोटी-मोटी इच्छाओं को मिटाता जाए । अभी इच्छा हुई और भोग लें या कर लें.. नहीं, थोड़ा धैर्य रखो । समय की धारा में इच्छाए भी बह जाती है ।

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