गुरुवार, मई 06, 2010

कुंभ स्नान का अधिक से अधिक पुण्य


एक जीवन्मुक्त महात्मा को स्वप्न आया। स्वप्न में सब तीर्थ मिलकर चर्चा कर रहे थे कि कुंभ के मेले में किसको अधिक से अधिक पुण्य मिला होगा। प्रयागराज ने कहा किः "अधिक से अधिक पुण्य तो उस रामू मोची को मिला है।"
गंगाजी ने कहाः "रामू मोची तो मुझमें स्नान करने नहीं आया था।"
देव प्रयाग ने कहाः "मुझमें भी नहीं आया था।"
रूद्र प्रयाग ने कहाः "मुझमें भी नहीं।"
प्रयागराज ने फिर कहाः "कुंभ के मेले में कुंभ स्नान का अधिक से अधिक पुण्य यदि किसी को मिला है तो राम मोची को मिला है।
सब तीर्थों ने एक स्वर से पूछाः
"यह रामू मोची कहाँ रहता है और क्या करता है ?"
प्रयागराज ने कहाः "रामू मोची जूता सीता है और केरल प्रदेश में दीवा गाँव में रहता है।"
महात्मा नींद से जाग उठे। सोचने लगे कि यह भ्रांति है या सत्य है ! प्रभातकालीन स्वप्न प्रायः सच्चे पड़ते हैं। इसकी खोजबीन करनी चाहिए।
संत पुरूष निश्चय के पक्के होते हैं। चल पड़े केरल प्रदेश की ओर। घूमते-घामते पूछते-पूछते स्वप्न में निर्दिष्ट दीवा गाँव में पहुँच गये। तालाश की तो सचमुच रामू मोची मिल गया। स्वप्न की बात सच निकली।
जीवन्मुक्त महापुरूष रामू मोची से मिले। रामू मोची भावविभोर हो गयाः
"महाराज ! आप मेरे द्वार पर ? मैं तो जाति से चमार हूँ। चमड़े का धन्धा करता हूँ। वर्ण से शूद्र हूँ। उम्र में लाचार हूँ। विद्या से अनपढ़ हूँ और आप मेरे यहाँ ?"
"हाँ....." महात्मा बोले। "मैं तुमसे यह पूछने आया हूँ कि तुम कुंभ में गंगा स्नान करने गये थे ? इतना सारा पुण्य तुमने कमाया है ?"
रामू बोलता हैः "नहीं बाबा जी ! कुंभ के मेले में जाने की बहुत इच्छा थी इसलिए हररोज टका-टका करके बचत करता था। (एक टका माने आज के तीन पैसे।) इस प्रकार महीने में करीब एक रूपया इकट्ठा होता था। बारह महीने के बारह रूपये हो गये। मुझे कुंभ के मेले में गंगा स्नान करने अवश्य जाना ही था, लेकिन हुआ ऐसा कि मेरी पत्नी माँ बनने वाली थी। कुछ समय पहले की बात है। एक दिन उसे पड़ोसे के घर से मेथी की सब्जी की सुगन्ध आयी। उसे वह सब्जी खाने की इच्छा हुई। शास्त्रों में सुना था कि गर्भवती स्त्री की इच्छा पूरी करनी चाहिए। अपने घर में वह गुंजाइश नहीं थी तो मैं पड़ोसी के घर सब्जी लेने गया। उनसे कहाः
"बहन जी ! थोड़ी-से सब्जी देने की कृपा करें। मेरी पत्नी को दिन रहे हैं। उसे सब्जी खाने की इच्छा हो आई है तो आप.....।"
"हाँ भैया ! हमने सब्जी तो बनाई है...." वह माई हिचकिचाने लगी। आखिर कह ही दियाः ".....यह सब्जी आपको देने जैसी नहीं है।"
"क्यों माता जी ?"
"हम लोगों ने तीन दिन से कुछ खाया नहीं था। भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई। आपके भैया काफी परेशान थे। कोई उपाय नहीं था। घूमते-घामते स्मशान की ओर वे गये थे। वहाँ किसी ने अपने पितरों के निमित्त ये पदार्थ रख दिये थे। आपके भाई वह छिप-छिपाकर यहाँ लाये। आपको ऐसा अशुद्ध भोजन कैसे दें ?"
यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ कि अरे ! मैं ही गरीब नहीं हूँ। अच्छे कपड़ों में दिखने वाले लोग अपनी मुसीबत कह भी नहीं सकते, किसी से माँग भी नहीं सकते और तीन-तीन दिन तक भूखे रह लेते हैं ! मेरे पड़ोस में ऐसे लोग हैं और मैं टका-टका बचाकर गंगा स्नान करने जाता हूँ ? मेरा गंगा-स्ना तो यहीं है। मैंने जो बारह रूपये इकट्ठे किये थे वे निकाल लाया। सीधा सामान लेकर उनके घर छोड़ आया। मेरा हृदय बड़ा सन्तुष्ट हुआ। रात्रि को मुझे स्वप्न आया और सब तीर्थ मुझसे कहने लगेः "बेटा ! तूने सब तीर्थों में स्नान कर लिया। तेरा पुण्य असीम है।"
बाबाजी ! तबसे मेरे हृदय में शान्ति और आनन्द हिलोरें ले रहे हैं।"
बाबाजी बोलेः "मैंने भी स्वप्न देखा था और उसमें सब तीर्थ मिलकर तुम्हारी प्रशंसा कर रहे थे।"

वैष्णव जन तो तेने रे कहीए जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे।।

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