गुरुवार, मई 06, 2010

मन मित्र- मन शत्रु

मन को अगर अच्छी तरह शिक्षित किया जाय तो वह हमारा बड़ा, भारी में भारी, ऊँचे में ऊँचा मित्र है। सारे विश्व में ऐसा कोई मित्र नहीं हो सकता। इसके विपरीत, मन हमारा भारी में भारी शत्रु भी है। मन जैसा शत्रु सारे विश्व में नहीं हो सकता। मन शत्रु क्यों है ?
मन अगर इन्द्रियों के विकारी सुखों में भटकता रहा तो चौरासी लाख योनियों में युगयुगान्तर तक हमें भटकना पड़ेगा। ऐसा वह खतरनाक शत्रु है।
मन मित्र कैसे है ?
मन अगर तप और परमात्मा के ध्यान की तरफ मुड़ गया तो वह ऐसा मित्र बन जाता है कि करोड़ों-करोड़ों जन्मों के अरबों-अरबों संस्कारों को मिटाकर, इसी जन्म में ज्ञानाग्नि जलाकर, आत्मा-परमात्मा की मुलाकात कराकर मुक्ति का अनुभव करा देता है।
इसलिए शास्त्र कहते हैं किः
मनः एव मनुष्याणां कारणं बन्धनमोक्षयोः।
हमारा मन ही हमारे बन्धन और मोक्ष का कारण बनता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
बन्धुरात्मानस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।

'अपने द्वारा संसार-समुद्र से अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है आप ही अपना शत्रु है।'
'जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियाँ नहीं जीती गई हैं, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।'
(भगवद् गीताः 6.5.6)

जब इन्द्रियाँ और मन अनात्म वस्तुओं में सत्यबुद्धि करके सुख पाने की मजदूरी करते हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका शत्रु है। जब मन और इन्द्रियाँ आत्मा-परमात्मा के सुख में अन्तर्मुख होती हैं तब वह जीवात्मा अपने आपका मित्र है। हम जब विकारों का सुख लेते हैं तब हम अपने आपसे शत्रुता करते हैं और जब निर्विकारी सुख की ओर आते हैं तब हम अपने आपके मित्र हैं।
भगवान कहते हैं कि अपने आपको अधोगति की ओर नहीं ले जाना चाहिए। अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को परमात्मा की ओर ले जाना चाहिए। हम जब परमात्मा के विषय में सुनेंगे, उनकी महिमा और गुण सुनेंगे, उनके नाम का जप, ध्यान आदि करेंगे तब भीतर का सुख मिलेगा। भीतर का सुख मिलेगा तो हम आपके मित्र बन गये।
भीतर का सुख मिल जाता है लेकिन विकारी सुख में गिरने की पुरानी आदत है इसलिए बार-बार उधर चले जाते हैं। इसलिए हमें विवेक जगाना चाहिए, थोड़े नियम, थोड़े व्रत ले लेने चाहिए। व्रत ले लेते हैं तो मन धोखेबाजी कम करता है। सच्चा सुख पाने का आपका संकल्प नहीं होता, उसके लिए व्रत नहीं करते इसलिए मन और इन्द्रियाँ अपने पुराने अभ्यास के मुताबिक बुद्धि को वहीं घसीट ले जाते हैं। ऋतंभरा प्रज्ञावाले महापुरूषों का संग करने से अपनी मति में, बुद्धि में शक्ति बढ़ती है।
भगवान शिवजी पार्वती से कहते हैं-
उमा संत समागम सम और न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा उपजै नहीं गावहिं वेद पुरान।।

यह भी हरि की अहैतुकी कृपा है कि हमें ऊँचे में ऊँची चीज, ब्रह्मज्ञान का सत्संग सहज में मिल रहा है। जो हल्की चीज होती है उसके लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता है। जो ऊँची चीज होती है उसके लिए परिश्रम करो, सौ रूपये कमाओ फिर दारू खरीद सकते हो। शरीर के लिए दारू बिल्कुल आवश्यक नहीं है। पानी शरीर के लिए बहुत जरूरी है और वह मुफ्त में मिल जाता है।
प्रवास पर जाते हैं तो भोजन का टिफिन घर से ले जाते हैं लेकिन भोजन से भी अधिक आवश्यक पानी घर से नहीं ले जाते। वह स्टेशन पर भी मिल जाता है। पानी के लिए भी बर्तन तो लेना पड़ता है जबकि पानी से भी अधिक आवश्यक हवा के लिए कुछ नहीं लेना पड़ता, कुछ नहीं करना पड़ता। पानी के बिना तो कुछ घण्टे चल सकता है लेकिन हवा के बिना शरीर जी नहीं सकता। ऐसी मूल्यवान हवा सर्वत्र निःशुल्क और प्रचुर मात्रा में सबको प्राप्त है।
ऐसे ही जो अत्यंत जरूरी हैं, महान हैं वे परमात्मा स्वर्ग-नरक में सर्वत्र विद्यमान हैं, केवल मति को उन्हें देखने की कला आ जाय, बस। परमात्मा को देखने की कला आ जाय तो सदा सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है।
हररोज खुशी हरदम खुशी हर हाल खुशी
जब आशिक मस्त फकीर हुआ
तो फिर क्या दिलगिरी बाबा ?

जैसे हवा सर्वत्र है ऐसे ही ज्ञानी जहाँ कभी जाएगा वहाँ उसके लिए सत् चित् आनन्दस्वरूप परमात्मा हाजिर हैं। उसके लिए इन्द्रियों और शरीर में रहते हुए मन, इन्द्रियों और शरीर के आकर्षण से जो पार है, अपने परमात्मानन्द में है, ब्रह्मानन्द में है ऐसे महापुरूष की तुलना तुम किससे करोगे ?
तस्य तुलना केन जायते।
ऐसा महापुरूष संसार की किसी भी परिस्थिति से द्वेष नहीं करता क्योंकि उसको किसी के लिए राग नहीं है तो द्वेष भी कहाँ से लायगा ? रागी को द्वेष होता है।
ज्ञानी का राग तो संसार में है नहीं। उसका राग तो परमात्मा में है और परमात्मा सब जगह मिलते हैं, परमात्मा सर्वत्र मौजूद हैं, परमात्मा ज्ञानी का अपना आपा होकर बैठे हैं। इसलिए ज्ञानी को कोई भी सासांरिक परिस्थिति का राग नहीं है। राग नहीं है तो द्वेष भी नहीं है। राग द्वेष नहीं है तो उसका चित्त सदा समाहित है।
सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।
अकलमता कोई उपज्या गिने इन्द्र को रंक।।

जिसकी वासनाओं का, अज्ञान का अन्त हो गया है उनको संत बोलते हैं। ऐसे संत इन्द्र के वैभव को भी तुच्छ गिनते हैं। ऐसा वैभव उनको प्राप्त हो गया है।

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