मंगलवार, मई 04, 2010

महाकामी बिल्वमंगल संत सूरदास कैसे बना ?


महाकामी, वेश्यागामी बिल्वमंगल अपनी पत्नी होते हुए भी वेश्या के फंदे में बुरी तरह फैल गया था।

सावन का महीना था। रात्रि का समय था। जोरों की वर्षा हो रही थी। यमुना नदी पागल-सी होकर बह रही थी। आँधी-तूफान चल रहा था। वृक्ष गिर रहे थे। घनघोर रात्रि में बिजली चमक रही थी। बिल्वमंगल के दिमाग में काम विकार का कीड़ा कुरेद रहा था।

वह उठा। घर का दरवाजा खोला। अपनी पत्नी का त्याग करके घनघोर अन्धकार में, बरसात में चल पड़ा। बिजली के चमकारे में अपने पगडंडी खोजता हुआ जा रहा था अपनी प्रेयसी चिनतामणि वेश्या के भवन की ओर.... उफनती हुई यमुना नदी के उस पार।

बिल्वमंगल नदी के किनारे पर आया। नाविकों से कहाः

"मुझे उस पार जाना है। नाव ले चलो......|"

नाविकों ने कहाः "पागल हुए हो ? अपनी जान प्यारी नहीं है क्या ? घर पर बीबी-बच्चे हैं कि नहीं ? तुम्हारी चवन्नी के लिए हमें नाव के साथ सागर में नहीं पहुँचना है। रात्रि के बारह बजे हैं। बिल्वमंगल ! तुम्हारी बुद्धि क्यों नष्ट हो गई है ? मूसलधार वर्षा हो रही है। घनघोर अन्धकार है। नदी दोनों किनारों को डुबाती हुई बह रही है । ऐसी परिस्थितियों में तुम्हे नदी के उस पार जाना है ? कुछ होश है कि नहीं ? "

बिल्वमंगल कहता हैः "चिन्तामणि के यहाँ पहुँचूँगा तब मैं होश में आऊँगा। अभी तो मानो बेहोश ही हूँ। तुम मुझे नदी के उस पार ले चलो।"

कोई नाविक जाने के लिए तैयार नहीं था। बिल्वमंगल ने अधिक किराये का प्रलोभन दिया लेकिन व्यर्थ। अपने प्राणों की बाजी लगाने को कोई तैयार नहीं था।

लेकिन बिल्वमंगल....! अपनी प्रेयसी से मिलने के लिए बेचैन था वह। कामातुर बिल्वमंगल बाढ़ में उफनती हुई यमुना में कूद पड़ा। हाथ-पैर चलाते हुए आगे बढ़ा। नदी के प्रवाह से बिल्वमंगल का कामावेग का प्रवाह अधिक बलवान सिद्ध हुआ। प्रेयसी चिन्तामणि के मिलन के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

बिल्वमंगल हाथ-पैर मारता हुआ, तीव्र गति से बहती हुई यमुना के प्रवाह में डूबता-उतरता आखिर कैसे भी करके सामने किनारे पहुँच गया। शरीर भीगा हुआ था। साँस फूल गई थी। ठंडी के मारे ठिठुर रहा था। तन-बदन परिश्रम से थक चुका था। थोड़ी देर में स्वस्थ होकर बिल्वमंगल चल पड़ा अपनी माशुका के द्वार की ओर। पहुँचते ही द्वार पर दस्तक दी, पुकार लगायी।

चिन्तामणि उसकी दस्तक पहचान गई। दंग रह गई वह वेश्या। 'ऐसी मूसलाधार वर्षा हो रही है..... यमुना नदी बाढ़ से उफन रही है। मध्यरात्रि का घनघोर अन्धकार है फिर भी यह पुरूष आ पहुँचा ! नदी को पार करके ! ऐसी हिम्मत ! ऐसा प्राणबल ! ऐसी शक्ति ! मेरे हाड़-मांस के लिए इतना प्रेम ! यह प्रेम अगर विश्वनियन्ता परमात्मा के लिए होता तो यह पुरूष विश्व की महान् विभूति बन जाता।'

चिन्तामणि के चित्त में प्रभु की पावन प्रेरणा का संचार हुआ। हृदय में बैठे हुए हरि ने चिन्तामणि को सत्प्रेरणा दी।

बिल्वमंगल बार-बार द्वार खटखटाने लगा। चिन्तामणि ने द्वार नहीं खोला। वह किवाड़ के पीछे खड़ी होकर अपने ग्राहक को कहने लगीः

"बिल्वमंगल ! ऐसी जोरों की बारिश में तू बाढ़ के पानी से भरपूर यमुना को पार करके आ गया ?"

"हाँ प्रिये ! कोई नाविक नाव चलाने के लिए तैयार नहीं था तो मैं नदी तैरकर तेरे पास आया हूँ। तू दरवाजा खोल।"

तब चिन्तामणि कहने लगीः "यह दरवाजा अब तेरे लिए नहीं खुलेगा। सदा के लिए बन्द रहेगा। अब तू अपने हृदय के द्वार खोल। अब तू प्रभु के द्वार खटखटा। मेरा द्वार तू कब तक खटखटाता रहेगा ?"

बिल्वमंगल के दिल में धक्का सा लगाः

"अरे चिन्तामणि ! यह तू क्या कह रही है ? तुझे देने के लिए मैं कितना धन लाया हूँ, द्वार खोलकर जरा देख तो सही !"

चिन्तामणि ने दृढ़ स्वर से कह दियाः

"ये द्वार अब तेरे लिए कभी नहीं खुलेंगे। तू प्रभु का द्वार खटखटा। मेरे जैसी वेश्या का द्वार खटखटाने के लिए तू मध्यरात्रि में इतना साहस कर सकता है तो हे बिल्वमंगल ! मेरे हरि का द्वार तू खटखटायेगा तो महान संत हो जाएगा।"

बिल्वमंगल कहता हैः "इन सब बेकार बातों को छोड़ चिन्तामणि ! भगतड़ों की ये बाते तेरे मुँह में नहीं सोहती प्रिये ! मैं तुझसे मिलने के लिए लालायति हो रहा हूँ और तू बातें बनाये जा रही है ! अब मुझे ज्यादा मत तड़पा। जल्दी द्वार खोल। मुझे तेरे दर्शन करने दे। तेरे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता।"

आँखों में आँसू लाकर बिल्वमंगल गिड़गिड़ा रहा है। उधर चिन्तामणि अपने हृदय पर भारी शिला रखकर अपने हृदय को जबरन कठोर बना रही है। बाहर खड़े अपने पर फिदा होने वाले से कहने लगीः

"बिल्वमंगल ! मेरे दर्शन करके क्या करेगा ? इन हाड़-मांस पर मोह करके कितने ही लोग बरबाद हो गये हैं। हे बिल्वमंगल ! तुझे अगर दर्शन ही करने हों तो हरि बैठा है तेरे हृदय में। उसी प्यारे प्रभु के दर्शन कर। तेरा कल्याण हो जाएगा। वह परमात्मा जन्म-जन्म से तेरे साथ है। मेरे दर्शन से तेरा कोई काम नहीं बनेगा। मैं तुझे क्या दर्शन दूँगी ? मैं तो पापिन हूँ.... मैंने अपना जीवन पापकर्म में नष्ट किया और कइयों के घर बरबाद किये। मेरे दर्शन से तेरा उद्धार नहीं होगा। सच्चा दर्शन तो हरि का दर्शन है। तेरा उद्धार तो हरि के दर्शन से होगा।"

मानो, आज चिन्तामणि के मुँह से स्वयं हरि बोल रहे हैं। चिन्तामणि के हृदय का कब्जा मानो प्रभु ने ले लिया है। चिन्तामणि रूपी चिराग के द्वारा हरि स्वयं बिल्वमंगल का पथप्रदर्शन कर रहे हैं।

बिल्वमंगल तीव्र कामावेग में आकर फिर से गिड़गिड़ाने लगाः

"चिन्तामणि ! प्रिय तू दरवाजा खोल। एक बार.... सिर्फ एक बार तेरा दीदार कर लेने दे। मैं अपनी पत्नी को छोड़कर तेरे पास आया हूँ। नाविकों ने मुझे समझाया बुझाया तो उनकी बातों का भी त्याग करके तेरे पास आया हूँ। नदी की बाढ़ में कूदकर अपने प्राणों की बाजी लगाकर तेरे पास आया हूँ, प्रिये ! मेरा आगमन व्यर्थ मत कर चिन्तामणि ! द्वार खोल।"

चिन्तामणि कहती हैः "तेरे कई आगमन व्यर्थ हुए बिल्वमंगल ! अनेक जन्मों का आवागमन तू व्यर्थ करता चला आ रहा है। मेरे दर्शन से भी तेरा आगमन व्यर्थ ही रहेगा। तेरा आगमन तभी सफल होगा जब तू हरि के दर्शन करेगा, आत्मा के दर्शन करेगा, किसी संत महात्मा के दर्शन करेगा, किसी आत्मज्ञानी महापुरूष के चरणों में अपना सिर झुकायेगा। तभी तेरा आगमन सफल होगा बिल्वमंगल ! अब ये द्वार तुम्हारे लिए नहीं खुलेंगे..... नहीं खुलेंगे..... नहीं खुलेंगे....।"

बिल्वमंगल की आँखों में आँसू हैं..... दिल में बेचैनी है.... बुद्धि में आश्चर्य है... चित्त में स्पन्दन है। वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा है। एक बार फिर से वह प्रयास करता हैः "हे कामिनी चिन्तामणि ! आज तुझे क्या हो गया है ? किसने तुझे यह पागलपन सिखाया है ? तू पागल मत बन.... हे प्रिये ! इतनी कठोर मत बन। मेरा दिल तेरे प्यार में तड़प रहा है। अब अधिक तड़पाना छोड़ दे। अब दिल्लगी करना छोड़ दे। मेरे धैर्य की क्यों कसौटी कर रही है ? मेरे जैसा पिपासु प्रेमी तुझे दूसरा कोई नहीं मिलेगा प्रिये ! हे सुंदरी ! अब तो द्वार खोल दे।"

तब चिन्तामणि बोली उठीः "बिल्वमंगल ! मेरे जैसी वेश्या भी तुझे नहीं मिलेगी मेरे भाई !"

"अरे पगली ! तू मुझे क्या कहती है ? मुझे भाई कहकर पुकारती है ?"

"हाँ भैया ! आज से तू मेरा भाई है। मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ। हे भाई ! तेरा कल्याण हो... तेरा उद्धार हो.... भाई ! तुझे भक्ति मिले..... भाई ! तुझे ज्ञान मिले..... भाई ! तुझे प्रभु का प्रेम मिले। मेरे जैसी दुष्ट स्त्री की छाया भी तुझ पर न पड़े। हे मेरे भाई ! मैं तुझे आशीर्वाद देती हूँ।"

उस वेश्या के हृदय से हरि नहीं बोल रहे थे तो और कौन बोल रहा था ? और किसका सामर्थ्य है कि वेश्या के मुख से ऐसे पवित्र वचन बोल सके ?

बिल्वमंगल का हृदय परिवर्तित हो गया। उसके उदगार निकलेः

"हे देवी ! मेरे लिए तेरा यह द्वार नहीं खुलेगा तो और किसी का भी द्वार मैं नहीं खटखटाऊँगा। आज के बाद मैं कभी अपने घर नहीं जाऊँगा..... आज के बाद किसी सम्बन्धी के घर नहीं जाऊँगा.... आज के बाद किसी सेठ के घर नहीं जाऊँगा। जो सबका घर है, जो उसका सम्बन्धी है, जो उसका सेठ है, जो सबका स्वामी है, जो सबका मित्र है, जो सबका बाप है, जो सबकी माँ है, जो सबका बन्धु है, जो सबका सुहृद है, उस हरि का द्वार मैं अब खटखटाऊँगा। अब मैं किसी के द्वार पर खड़ा नहीं रहूँगा।"

बिल्वमंगल चिन्तामणि के द्वार से लौट पड़ा।

घूमता-घामता बिल्वमंगल किसी देवमंदिर में पहुँचा। सूखे बाँस की भाँति बिल्वमंगल ने देवमूर्ति के सामने गिरकर दंडवत् प्रणाम किये। लम्बे समय तक इसी अवस्था में रहकर वह प्रभु से प्रार्थना करने लगा। हृदय में आज तक किये हुए दुश्चरित्र का पश्चाताप है। आँखों से आँसू की धाराएँ बह रही हैं।

पुजारी ने बिल्वमंगल को उठाया। बिल्वमंगल कहने लगाः

"मुझे उठाओ नहीं। काफी जन्मों तक मैं भटका हूँ। अब प्रभु के चरणों में मुझे विश्रान्ति लेने दो। पतितपावन के चरणों में मुझे पाप धोने दो।

मुझे वेद पुरान कुरान से क्या

मुझे प्रभु का अमृत पिला दे कोई।।

मुझे कोई प्रभु का अमृत पिला दे.... मुझे कोई प्रभु की भक्ति दिला दे.... मुझे कोई प्रभु का प्रेम प्राप्त करा दे.... चिन्तामणि का प्रेम तो मुझे बरबाद कर चुका है। अब प्रभु का प्रेम मुझे आबाद करेगा।"

बिल्वमंगल मंदिर में दंडवत प्रणाम करके पड़ा रहा है। लोग उसे समझाकर उठाते हैं। बिल्वमंगल की आँखों में आँसू हैं। वे मानो कह रहे हैं-

एवो दी देखाड़ वहाला एवो दी देखाड़।

देखूं तारूँ रूप बधे एवो दी देखाड।।

"हे प्रभु ! अब मैं तेरा द्वार छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।"

बिल्वमंगल ने प्रभु के द्वार पर पड़े रहते हुए सारा जीवन बिताने का संकल्प किया और वहीं रहने लगा। लोगों ने उसका जीवन देखा, उसकी प्रेमाभक्ति देखी, उसका दृढ़ संकल्प सुना। कुछ समय बीतने पर बिल्वमंगल को मंदिर का पुजारी बनाया गया। पुजारी को खाने पीने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती। ठाकुर जी का चढ़ाया हुआ प्रसाद मिल जाता है।

वैराग्य आने पर घर छोड़ना सरल है। पुजारी बनकर पूजा करना सरल है लेकिन दुष्ट मन को सदा के लिए प्रभु के चरणों में ही रखना कठिन है। जब तक परमात्मा का रस पूरा नहीं मिल जाता तब तक मन कब धोखा दे दे कुछ पता नहीं।

बिल्वमंगल मंदिर में रहता है, देवमूर्तियों की पूजा करता है, मंदिर को संभालने का कर्त्तव्य ठीक से उठा रहा है। साथ ही साथ अपना भक्तिभाव भी बढ़ा रहा है। लोगों में उसका अच्छा नाम हो रहा है।

एक दिन एक नववधू हार-सिंगार करके मंदिर में दर्शन करने आयी। नयी नयी शादी हुई थी। उसने भगवान के दर्शन किये, फूल चढ़ाये, दीपक जलाया, प्रसाद रखा। बिल्वमंगल की नजर उस सुंदर अंगना पर पड़ी। संयोगवश उसकी मुखाकृति चिन्तामणि जैसी थी। उसे देखते ही बिल्वमंगल की सुषुप्त कामवासना जाग उठी। वह भिन्न भिन्न निमित्त बनाकर उस युवती के नजदीक रहने की चेष्टा करने लगाः

"लो, ये फूल अच्छे हैं, प्रभु को चढ़ाओ..... यह प्रभु का चरणामृत है, ग्रहण करो....यह लो भगवान का प्रसाद...." बिल्वमंगल की दृष्टि मानो उस युवती का सौन्दर्य पी रही थी। उसकी आँखों से आँखें मिलाकर मोहित हो रो रहा था। वह युवती समझ गई कि यह पुजारी मुँआ बदमाश है। वह जल्दी से घूँघट खींचकर भागती हुई घर जाने लगी।

काम-विकार ने बिल्वमंगल को अन्धा बना दिया। उसकी पुरानी आदत ने उसे अपने शिकंजे में झपेट लिया। प्रभुमय पवित्र जीवन बिताने का संकल्प हवा हो गया। सारासार का विवेक उसका धुँधला हो गया। वह अपने को वश में नहीं रख पाया। मंदिर छोड़कर वह भी उस युवती के पीछे-पीछे जाने लगा। वह युवती अपने घर पहुँच गई, दरवाजा बन्द कर दिया और पति से कहा कि वह पुजारी मुँआ बदमाश है।

बिल्वमंगल उसके घर पहुँचा। द्वार खटखटाया, नवविवाहित युवक ने द्वार खोले। वह समझदार इन्सान था। पुजारी से बोलाः

"आइये पुजारी जी ! कैसे आना हुआ ?"

बिल्वमंगल ने विनती कीः "आपकी नववधू मंदिर में प्रभु के दर्शन करने आयी थी। मैंने उसके दीदार किये। मेरा चित्त मेरे वश में नहीं हो रहा है। आप कृपा करो। एक बार फिर मुझे उसके दर्शन करा दो। मंदिर मैं जैसा हार-सिंगार करके आयी थी वैसे की वैसी ही फिर से एक बार मेरे सामने खड़ी कर दो, सिर्फ एक ही बार.... केवल एक ही बार मुझे उसके दर्शन कर लेने दो। मुझसे रहा नही जाता। कृपा करो। मेरी इतनी सी प्रार्थना स्वीकार करो। आपका उपकार कभी नहीं भूलूँगा।"

वह युवक समझदार आदमी था। इस कामातुर जीव की दुर्दशा शायद वह समझ रहा है। वह भीतर गया। अपनी पत्नी को समझायाः

"तू वैसा ही सिंगार करके उसके सामने एक बार जा। उसे देख लेने दे तेरा मुखचन्द्र। मैं दूसरे कमरे में बैठता हूँ। वह कुछ अनुचित चेष्टा करने की कोशिश करे तो मुझे आवाज देना। मैं उस पुजारी के बच्चे की धुलाई कर दूँगा।"

पत्नी पति की बात से सहमत हुई। सजधजकर पुजारी के सामने आयी। अपने घूँघट हटाया और बिल्वमंगल के सामने देखने लगी। बिल्वमंगल उस सुहागिनी नववधू को देखते हुए अपने आपसे, अपनी आँखों से कहने लगाः

"हे अन्धी आँखें ! अब देख लो, इस हाड़-मांस के शरीर को जीभर के देख लो। बार-बार वहाँ जाती थी। क्या रखा उस पिंजर में देख लो....।"

फिर बिल्वमंगल ने उस नववधू से कहाः

"बहन ! दो सूए लाओ न....।"

नववधू को कुछ कल्पना नहीं थी। वह तो दो बड़े बड़े सुए लायी। बिल्वमंगल ने दोनों सुओं को दोनों हाथों में पकड़ा। फिर अपनी आँखों से कहने लगाः

"हे मेरी धोखेबाज आँखें ! जहाँ हरि को देखना है, जहाँ प्रभु के दर्शन करने हैं वहाँ संसार को देखती हो ? संसारी हाड़-मांस में सौन्दर्य को निहारती हो ? हे मेरी अन्धी आँखें ! इससे तो तुम न हो तो अच्छा है।"

ऐसा कहते हुए बिल्वमंगल ने दोनों हाथों से अपनी दोनों आँखों में सुए घुसेड़ दिये। दोनों आँखें फूट गईं। रक्त की दो धाराएँ बह चलीं। यह देखकर नववधू एकदम घबड़ा गई। चीख निकल गई उसके मुँह से। पासवाले कमरे में ही बैठा हुआ पति वहाँ आ गया। कल्पनातीत दृश्य देखकर वह हक्का-बक्का सा हो गया। पत्नी से पूछाः

"यह क्या हो गया ?"

पत्नी ने बतायाः "मुझे क्या पता ये ऐसा करेंगे ? उन्होंने मुझसे दो सूए माँगे और मैंने ला दिय। मुझे जरा सा भी ख्याल आता तो मैं क्यों देती ?"

पति ने पत्नी को उलाहना दिया। बिल्वमंगल की आँखों का खून साफ किया, औषधि लगाई और आँखों पर पट्टी बाँध दी। हाथ में लाठी पकड़ा दी।

लाठी टेकते-टेकते बिल्वमंगल जाने लगा। रास्ते में ठोकरें खाते-खाते आगे बढ़ने लगा।

ईश्वर के मार्ग पर चलते-चलते कितनी भी ठोकरें खानी पड़े लेकिन वे सार्थक हैं।

बिल्वमंगल गाँव से बाहर निकल गया। जंगल के रास्ते से जाते वक्त कुएँ जैसे खड्डे में गिर पड़ा। आसपास में कोई मनुष्य नहीं था। बिल्वमंगल प्रभु से प्रार्थना करने लगाः

"हे नाथ ! मुझ अनाथ का अब तेरे सिवा कोई नहीं है। मुझ अन्धे की आँख भी तू है और लाठी भी तू है। जगत में एक ही अन्धा नहीं है, हजारों-हजारों अन्धे हैं, आँखें होते हुए भी अन्धे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि हम अन्धे हैं। हे प्रभु ! तूने मुझे जगाया है, मुझे पता चल गया है कि मैं अन्धा हूँ। हे प्रभु ! मैं पहले भी अन्धा था और अब भी अन्धा हूँ। पहले मुझे बाहर की आँखों पर भरोसा था लेकिन अब केवल तेरा भरोसा है। तू मुझे इस कूप से एवं संसाररूपी कूप से नहीं निकालेगा तो और कौन निकालेगा ? तू मेरा हाथ नहीं पकड़ेगा तो हे स्वामी ! और कौन मेरा हाथ पकड़ेगा ? हे मेरे हरि ! तू कृपा कर।"

बिल्वमंगल प्रभु से करूण प्रार्थना कर रहा है। प्रभु को लगा होगा कि यह जीव मेरी शरण में आया है। चाहे करोड़ों पाप किये हों, अरबों पाप किये हों, अरबों पाप किये हों लेकिन जीव जब कहे कि मैं तेरी शरण हूँ तो मुझे उसका हाथ पकड़ना ही पड़ेगा।

भगवान कुएँ के पास प्रकट हुए। बिल्वमंगल को बाहर निकाला। लाठी का आगे का छोर पकड़कर भगवान आगे-आगे चल रहे हैं। दूसरा छोर पकड़कर पीछे-पीछे बिल्वमंगल चल रहा है। चलते-चलते भगवान ने कहाः

"हे सूरदास !"

बिल्वमंगल के हृदय में एहसास हुआ कि यह कोई ग्वाला नहीं है, यह कोई बालक नहीं है लेकिन सबके रूप में जो खेल खेल रहा है वह कन्हैया है।

सूरदास ने अपनी पकड़ी हुई लाठी पर धीरे-धीरे हाथ आगे बढ़ाया। प्रभु समझ गये कि सूरदास की नीयत बिगड़ी है.... वह मुझे पकड़ना चाहता । भक्त मुझे समर्पण से पकड़ना चाहे तो मैं पकड़ा जाने के लिए तैयार हूँ लेकिन चालाकी से पकड़ना चाहे तो मैं कभी पकड़ में नहीं आता।

सूरदास धीरे-धीरे अपना हाथ लाठी के दूसरे छोर तक ले जाते हैं लेकिन भगवान युक्ति से लाठी का दूसरा हिस्सा पकड़कर पहलेवाला छोड़ देते हैं। कैसे भी करके सूरदास को अपना स्पर्श नहीं होने देते। उनको रास्ता बताते हुए आगे-आगे चलते हैं।

सूरदास ने सोचा कि श्यामसुन्दर बड़े होशियार हैं। उन्हें बातों में लगाते हुए सूरदास ने कहाः

"आपका नाम क्या है ?"

"सब नाम मेरे ही हैं।"

"आप कहाँ रहते हैं ?"

"मैं सब जगह रहता हूँ और जो मुझे बुलाता है वहाँ जाता हूँ।"

"आपके बाप कौन हैं ?"

"जो चाहे मेरा बाप बन जाए, कोई हर्ज नहीं है।"

"आपकी माँ कौन हैं ?"

"जिसको मेरी माँ बनना हो, बन जाय, मैं उसका बेटा बनने को तैयार हूँ।"

सूरदास समझ गये कि परमात्मा के सिवाय ऐसा कोई कह नहीं सकता, ऐसा कोई बन नहीं सकता। उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि साक्षात परात्पर परब्रह्म, अच्युत, अविनाशी, निर्गुण निराकार परमात्मा सगुण होकर मेरे जैसे सूरदास को मार्ग दिखाने आये है। अब मैं उनका स्पर्श कर लूँ..... उनका हाथ पकड़ लूँ..... उनके चरणों में अपना सिर रगड़ लूँ... अपना भाग्य बदल लूँ।

अभी सूरदास भूल रहे थे। भगवान को पकड़ लेने की नीयत थी। भगवान में मिट जाने की नीयत नहीं बनी, भगवान के द्वारा पकड़ जाने की नीयत नहीं बनी।

सूरदास आगे पूछने लगेः

"आपका गाँव कौन सा है ?"

"सब गाँव मेरे ही हैं और एक भी गाँव मेरा नहीं है। सब नाम मेरे हैं और एक भी नाम मेरा नहीं है। सच्चे हृदय स कोई किसी भी नाम से पुकारता है तो मैं वहाँ जाता हूँ।"

"आपको मक्खन-मिश्री भाते है या रबड़ी-शिखण्ड भाते हैं ?"

"कोई पदार्थ मुझे नहीं भाते क्योंकि कोई गरीब आदमी मुझे पदार्थ न भी दे सके। मक्खन-मिश्री, दूधपाक-पूरी, रबड़ी-शिखण्ड तो केवल अमीर लोग ही दे सकते हैं। गरीब में भी जो गरीब हो, अत्यंत गरीब हो वह भी मुझे खिला सके ऐसी चीज मुझे भाती है। मैं तो प्रेम का भूखा हूँ। कोई मुझे भाजी खिला दे तो भी खा लेता हूँ, केले के छिलके खिला दे तो भी खा लेता हूँ। बाजरे की बाटी खिला दे तो भी खा लेता हूँ और कोई पत्रं पुष्पं चढ़ा दे, तुलसीदल चढ़ा दे तो भी सन्तुष्ट हो जाता हूँ।"

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतं अश्नामि प्रयतात्मनः।।


"जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि, निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ।"

(भगवद् गीताः 9.26)


राहबर ने सूरदास को कहाः

"सूरदास ! मैं तुझे क्या बताऊँ ? कोई सच्चे हृदय से मुझे कह दे कि "मैं तेरा हूँ" तो वह मुझे सबसे अधिक भाता है। रूपयों-पैसों के द्वारा मिलने वाले पदार्थ मुझे उतने नहीं भाते। जितना किसी का प्रेमपूर्वक दिया हुआ अपना अहं भाता है। जो मेरा हो जाता है उसका सब कुछ मुझे भाता है।"

सूरदास को यकीन हो गया कि मानो न मानो, ये भगवान के सिवाय और कोई नहीं हैं। 'हे मेरे स्वामी ! हे मेरे प्रभु !..... पुकारते हुए ठाकुरजी का हाथ पकड़ने गये तो भगवान सूरदास की लकड़ी छोड़कर दूर चले गये। तब सूरदास कहते हैं-

"मुझे दुर्बल जानकर अपना हाथ छुड़ाकर भागते है लेकिन मेरे हृदय में से निकल जाओ तो मैं जानूँ कि आप भाग सकते हैं। हे प्रभु ! अपने हृदय से मैं आपको नहीं जाने दूँगा.... नहीं जाने दूँगा।"

भगवान कहते हैं- "अपने हृदय से मत जाने दो लेकिन मुझे अभी बहुत काम है। संसार की भीड़ में से तेरे जैसे कई अन्धों को मुझे बाहर निकालना है इसलिए अब मैं जाता हूँ। तू इतना अन्धा नहीं है लेकिन लोग तो आँखें होते हुए भी अन्धे हैं। जिन पदार्थों को छोड़कर जाना है पदार्थों से चिपक रहे हैं। जिस शरीर को जला देना है उस शरीर को सुखी करने के लिए मजदूरी करते हैं। ऐसे एक-दो लोग अन्धे नहीं है, लाखों-लाखों करोड़ों-करोड़ों लोग अन्धे हैं। अब मुझे संतों के हृदय में जाने दो, संतों के हृदय द्वारा लोगों को उपदेश देने दो कि यह अन्धापन छोड़कर हरि की शरण जाओ, ध्यान की शरण जाओ, विकारों का अन्धापन छोड़कर प्रेमाभक्ति की शरण जाओ, अहंकार का अन्धापन छोड़कर ज्ञान की शरण जाओ। कइयों को यह सन्देश देना है। संतों के हृदय में बैठकर बहुत काम करना है। अतः हे सूरदास ! मैं जाता हूँ। आज के बाद लोग तुम्हें बिल्वमंगल के बदले 'सूरदास' के नाम से पुकारेंगे, तुम्हारे पद जो लोग गायेंगे उनका हृदय पवित्र होगा। तुम्हारी कथा जो सुनेगा उसका हृदय भी पिघलेगा, निष्पाप होगा। उसे भक्ति-मुक्ति की प्राप्ति होगी। जाओ, मेरे आशीर्वाद हैं।"

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