कुसंग से बचो, सत्संग करो
दो नाविक थे। वे नाव द्वारा नदी की सैर करके सायंकाल तट पर पहुँचे और एक-दूसरे से कुशलता का समाचार एवं अनुभव पूछने लगे। पहले नाविक ने कहाः "भाई ! मैं तो ऐसा चतुर हूँ कि जब नाव भँवर के पास जाती है, तब चतुराई से उसे तत्काल बाहर निकाल लेता हूँ।" तब दूसरा नाविक बोलाः "मैं ऐसा कुशल नाविक हूँ कि नाव को भँवर के पास जाने ही नहीं देता।"
अब दोनों में से श्रेष्ठ नाविक कौन है ? स्पष्टतः दूसरा नाविक ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह भँवर के पास जाता ही नहीं। पहला नाविक तो किसी न किसी दिन भँवर का शिकार हो ही जायगा।
इसी प्रकार सत्य के मार्ग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए विषय विकार एवं कुसंगरूपी भँवरों के पास न जाना ही श्रेयस्कर है।
अगर आग के नजदीक बैठोगे जाकर, उठोगे एक दिन कपड़े जलाकर।
माना कि दामन बचाते रहे तुम, मगर सेंक हरदम लाते रहे तुम।।
कोई जुआ नहीं खेलता, किंतु देखता है तो देखते-देखते वह जुआ खेलना भी सीख जायगा और एक समय ऐसा आयगा कि वह जुआ खेले बिना रह नहीं पायेगा।
इसी प्रकार अन्य विषयों के संदर्भ में भी समझना चाहिए और विषय विकारों एवं कुसंग से दूर ही रहना चाहिए। जो विषय एवं कुसंग से दूर रहते हैं, वे बड़े भाग्यवान हैं।
जिस प्रकार धुआँ सफेद मकान को काला कर देता है, उसी प्रकार विषय-विकार एवं कुसंग नेक व्यक्ति का भी पतन कर देते है।
'सत्संग तारे, कुसंग डुबोवे।'
जैसे हरी लता पर बैठने वाला कीड़ा लता की भाँति हरे रंग का हो जाता है, उसी प्रकार विषय-विकार एवं कुसंग से मन मलिन हो जाता है। इसलिए विषय-विकारों और कुसंग से बचने के लिए संतों का संग अधिकाधिक करना चाहिए। कबीर जी ने कहाः
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत।।
कबीर संगत साध की, दिन-दिन दूना हेत।
साकत कारे कानेबरे, धोए होय न सेत।।
अर्थात् संत-महापुरूषों की ही संगति करनी चाहिए क्योंकि वे अंत में निहाल कर देते हैं। दुष्टों की संगति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनके संपर्क में जाते ही मनुष्य का पतन हो जाता है।
संतों की संगति से सदैव हित होता है, जबकि दुष्ट लोगों की संगति गुणवान मनुष्यों का भी पतन हो जाता है।
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