सोमवार, जून 28, 2010

वेदान्त का सत्संग-प्रसाद


जिन्हीं हरि कथा सुनी नहीं काना।

श्रवण रंध्र अहि भवन समाना।।

जे न करहिं रामगुन गाना।

जीह सो दादुर जीह समाना।।

जिनके कानों ने हरिकथा नहीं सुनी है वे कान नहीं हैं, साँप के बिल हैं। जिनके जीवन में आत्मज्ञान की कथा नहीं है उनका जीवन सचमुच दयाजनक है। जिनकी जिह्वा पर भगवान का नामोच्चारण नहीं है उनकी जिह्वा मेंढक की जिह्वा जैसी है। भगवन्नाम का गुणगान करने से जिह्वा पवित्र होती है। भगवत्तत्त्व की कथा सुनने से कान पवित्र होते हैं।

वेदान्त का सत्संग एक ऐसा अनूठा बल देता है कि निर्धन को धनवानों का भी धनवान, सत्तावानों का भी सत्तावान, महान् सम्राट बना देता है। वह चाहे झोपड़ी में गुजारा करता हो, खाने को दोर टाइम भोजन भी न मिलता हो लेकिन जीवन में सदाचार के साथ वेदान्त आ जाय तो आदमी निहाल हो जाता है। वेदान्त अज्ञान को मिटाकर जीव को अपने आत्मपद में प्रतिष्ठित कर देता है। सत्संग जीवात्मा के पाप-ताप मिटाकर उसे शुद्ध बना देता है। कथा सुनने से पाप नाश होते हैं। कथा सुनने से अज्ञान क्षीण होता है। हरिकथा सुनने से, उसके प्रसाद से मन पावन होता है। जिनक जीवन में भीतर का प्रसाद नहीं, उनका जीवन दयाजनक है।

गाधि नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था। अपना गाँव छोड़कर एकान्त स्थान में जाकर धारणा-ध्यान करने लगा। भगवान विष्णु की उपासना करता रहा। उसकी धारणा सिद्ध हुई और भगवान नारायण ने उसको दर्शन दिया। गाधि ने कहाः

"हे भगवन् ! मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ।"

भगवान ने कहाः "माया तो धोखा देती है। 'माया' का मतलब है 'या मा सा माया।' जो है नहीं फिर भी दिखती है। ऐसी माया के झंझट में पड़ना ठीक नहीं है। यह क्या माँग लिया तुमने ?"

"महाराज ! आपकी माया को एक बार देखने की इच्छा है।"

आखिर भगवान ने कहाः "हे गाधि ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम मेरी माया को देखोगे और छोड़ भी दोगे। उसमें उलझोगे नहीं।"

वरदान देकर भगवान नारायण अन्तर्धान हो गये।

गाधि ब्राह्मण प्रतिदिन दो बार तालाब में स्नान करने जाता था। एक बार उसने तालाब के जल में गोता मारा तो क्या देखता है ? 'मेरी मृत्यु हो गई है। कुटुम्बी लोग अर्थी में बाँधकर स्मशान में ले गये। शरीर जलाकर भस्म कर दिया।'

फिर वह देखता है कि एक चाण्डाली के गर्भ में प्रवेश हुआ। समय पाकर चाण्डाल बालक होकर उत्पन्न हुआ। कटजल उसका नाम रखा गया। छोटे-छोटे चाण्डाल मित्रों के साथ खेलता-कूदता कटजल बड़ा हुआ। गिलोल से पक्षी मारने लगा। कुल के अनुसार सब नीच कर्म करने लगा। युवा होने पर चाण्डाली लड़की के साथ विवाह हुआ। फिर बेटे-बेटियाँ हुई। चाण्डाल परिवार बढ़ा। कई निर्दोष पशु-पक्षियों को मारकर अपना गुजारा करता था। चालीस वर्ष बीत गये चाण्डाल बहुएँ घर में आयी, चाण्डाल दामाद मिले। बेटे-बेटियों का परिवार भी बड़ा होता चला।

तालाब के जल में एक ही गोता लगाया हुआ है और गाधि ब्राह्मण यह सब चाण्डाल जीवन की लीला महसूस कर रहा है।

वह चाण्डाल कटजल एक दिन घूमता-घामता क्रान्त देश में जा पहुँचा जहाँ का राजा स्वर्गवासी हो गया था। नया राजा चुनने के लिए हाथी को सिंगारा गया था। उसकी सूँड में जल का कलश रख दिया गया था। हाथी जिस पर जल का कलश उड़ेल दे, उसको नगर का राजा घोषित किया जायगा। हाथी ने कटजल पर कलश उड़ेला और सूँड से उठाकर अपने ऊपर बिठा दिया। बाजे, शहनाइयाँ, ढोल, नगाड़े बजने लगे। कटजल का राज्याभिषेक हुआ। वह चाण्डाल क्रान्त देश का राजा बन गया। उसने अपने चाण्डाल के सब निशान मिटा दिये। अपना नाम भी बदल दिया। आठ वर्ष तक उसने राज्य किया। दास-दासियों सहित रानियों से सेवित और मंत्री आदि से सम्मानित होता रहा।

वह पूर्वकाल में चालीस वर्ष तक जिस गाँव में रहा था उस गाँव के चाण्डाल संयोगवश इस नगर में आये और उसे देख लिया। उन्होंने उसे पुराने नाम से पुकारा। राजा बना हुआ यह चाण्डाल कटजल घबराया। उन लोगों का तिरस्कार करके सबको भगा दिया।

महल में दास-दासियाँ जान गईं कि यह मूँआ चाण्डाल है। धीरे-धीरे सारे नगर में बात फैल गई। सबका मन उद्विग्न हो गया।

नगर के पवित्र ब्राह्मण चिता जलाकर अपने शरीर को भस्म करके प्रायश्चित करने लगे। कई लोग तीर्थाटन करने चले गये। रानियाँ, दासियाँ, टहलुए, मंत्री सब उदास रहने लगे। अब राजा की आज्ञा कोई माने नहीं।

कटजल ने सोचा कि मेरे कारण इतने लोगों ने आत्महत्या कर ली। राज्य में विरोध फैल गया है। कोई आज्ञा मानता नहीं है। लोग राजगद्दी छीन लें उसके पहले मैं ही क्यों न अपने आप अपना अन्त कर दूँ !

उसने आग जलाई और अपने आपको उसमें फेंका। शरीर को आग की ज्वाला लगी, तपन से पीड़ित हुआ तो वह तालाब के पानी से बाहर निकल आया। देखा कि 'अरे ! यह तो कुछ नहीं है ! अभी तो एक गोता ही लगाया था तालाब के पानी में और इतनी देर में मेरी मृत्यु हुई, जीव चाण्डाली के गर्भ में गया, जन्म लिया, बड़ा हुआ, चाण्डाली के साथ शादी की, बच्चे हुए, आठ साल क्रान्त देश में राजा बनकर राज किया। मैंने यह सब क्या देखा ? चलो, जो होगा सो होगा। सब मेरी कल्पना है, सपना है, मरने दो।

ऐसा सोचकर वह अपने आश्रम में गया। दैवयोग से एक बूढ़ा तपस्वी साधू गाधि के आश्रम में आया। गाधि ने उसकी आवभगत की। रात्रि को भोजनोपरान्त वार्त्तालाप करते हुए बैठे थे तो गाधि ने पूछाः

"हे तपस्वी ! तुम इतने कृश क्यों हो ?"

अतिथि ने कहाः 'क्या बताऊँ......? क्रान्त देश में एक चाण्डाल राजा राज्य करता था। हाथी ने उसका वरण किया था। आठ साल तक उसने राज्य किया। मैं भी उसी नगर में रहा था। बाद में पता चला कि राजा चाण्डाल है। मैंने सोचा, पापी राजा के राज्य में कई चातुर्मास किये, पापी का अन्न खाया। मेरा जप-तप क्षीण हो गया। इसलिए मैं काशी गया। वहाँ चान्द्रायण व्रत रखे।"

चान्द्रायण व्रत में मौन रखा जाता है, जप तप किये जाते हैं। एकम के दिन एक ग्रास भोजन, दूज के दिन दो ग्रास भोजन, तीज के दिन तीन ग्रास भोजन.... इस प्रकार पूनम के दिन पन्द्रह ग्रास। फिर कृष्ण पक्ष की एकम के दिन से पन्द्रह ग्रास भोजन में से एक एक ग्रास घटाया जाता है और अमावस्या के दिन बिल्कुल निराहार। चन्द्र की कला के साथ भोजन घटता बढ़ता है अतः यह चान्द्रायण व्रत कहा जाता है। इससे आदमी के पाप-ताप दूर होते हैं।

वह अतिथि कहता हैः "मैंने कई चान्द्रायण व्रत किये हैं इसलिए मेरा शरीर कृश हो गया है।"

गाधि दंग रह गया कि यह तपस्वी जिस राजा के बारे में कहता है वह तो मैंने तालाब के जल में गोता लगाते समय अपने विषय में देखा है। वह एक स्वप्न था और यह तपस्वी सचमुच काशी में चान्द्रायण व्रत करने गया ? इस बात को ठीक से देखना चाहिए।

गाधि ब्राह्मण पूछता-पूछता उस गाँव में पहुँचा। वहाँ के बूढ़े चाण्डालों से पूछाः "यहाँ कोई कटजल नाम का चाण्डाल रहता था ?" ....तो चाण्डालों ने बतायाः "हाँ, एक चाण्डाली का बेटा वह कटजल यहाँ रहता था। फिर पासवाले क्रान्त देश में वह राजा हो गया था। बाद में वह आत्महत्या करके, आग में जलकर मर गया। यहाँ उसके बेटे-बेटियों का लम्बा चौड़ा परिवार भी मौजूद है।"

गाधि ने अलग-अलग कई लोगों से पूछा। सभी ने उसी बात का समर्थन किया। अनेक लोगों से वही की वही बात सुनी। उस क्रान्त देश के लोगों से भी उसी चाण्डाल राजा की घटना सुनने को मिली।

गाधि आश्चर्य विमूढ़ हो गयाः "मैंने तो यह सब गोता लगाया उतनी देर में ही देखा। यहाँ सचमुच में कैसे घटना घटी ? यह सब कैसे हुआ ? यह सच्चा कि वह सच्चा ?"

गाधि ने सोचा कि अब विश्रान्ति पाना चाहिए। वह एकान्त गुफा में चला गया। डेढ़ साल तक भगवान नारायण की आराधना-उपासना की। भगवान प्रकट हुए। गाधि ब्राह्मण से वे बोलेः

"देख गाधि ! तूने कहा था कि मेरी माया देखना है। अब देख ली न ? यह सब मेरी माया का प्रभाव है। थोड़े समय में ज्यादा काल दिखा देती है वह होता कुछ नहीं लेकिन सच्चा भासता है। जल में गोता मारा तो चाण्डाल का जीवन सच्चा लग रहा था। बाहर आया तो कुछ नहीं। उधर लोगों को चाण्डाल का राज्य प्रतीत हुआ, वह भी माया है। यह भी बीत गया, वह भी बीत गया। हर जीव का अपना-अपना देश और काल है।"

एक मनुष्य जीवन में मेंढकों की साठ पीढ़ियाँ बीत जाती हैं। बैक्टीरिया की तो करोड़ों पीढ़ियाँ बीत जाती होंगी।

नेपोलियन की लड़ाई को करीब पौने दो सौ वर्ष हो गये। उस समय जो घटनाएँ घटी वे देखनी हों तो योगशक्ति से देखी जा सकती हैं। प्रकाश की किरण एक सेकेन्ड में 186000 मील की गति से चलती है। सूर्य से प्रकाश की किरण चलती है तो 8 मिनट में पृथ्वी पर पहुँचती है। आकाश में कुछ तारे यहाँ से इतने दूर हैं कि हजारों लाखों वर्षों के बाद भी, अभी तक उनकी किरणें पृथ्वी तक नहीं पहुँच पायी हैं। कोई योगी अपने मन की गति प्रकाश की गति से भी अधिक तेजवाली कर लेता है तो वह नेपोलियन के युद्ध को देख सकता है। इसी योगयुक्ति से योगिजन त्रिकालदर्शी बनते हैं। अपने चित्त की वृत्ति को काल की अपेक्षा आगे या पीछे फेंकते हैं तो ऐसा हो सकता है।

जैसे आप बैठकर सोचो कि आज सुबह क्या खाया था, कल क्या खाया था, परसों क्या खाया था, तो मन से वह देख सकते हो, जान सकते हो। ऐसे ही योगी ठोस रूप से भूत-भविष्य देख सकते हैं।

यह जो कुछ भी जानने में आता है वह सब स्वप्न में सरक जाता है। जिससे जाना जाता है वह आत्मा परमात्मा सत्य है। उस सत्य का जो अनुसन्धान करता है वह देर सबेर आत्म-साक्षात्कार करके सदा के लिए माया से तर जाता है। जो देह को 'मैं' मानता है और संसार की वस्तुओं को सच्ची समझता है वह स्वप्न से स्वपनांतर तक, युग से युगांतर तक बेचारा भटकता रहता है।

भगवान विष्णु गाधि ब्राह्मण से कहते हैं-

"हे गाधि ! तूने मुझसे माया दिखाने का वरदान माँगा था। मैंने यह माया दिखाई। चाण्डाल के शरीर में और राजा के शरीर में जो तुमने सुख दुःख देखा, उस समय सच्चा लग रहा था, अब वह स्वप्न हो गया। पानी में गोता लगाते समय जो सच्चा दिख रहा था, अब स्वप्न हो गया।"

आज से दस जन्म पहले भी जो पत्नी, पुत्र, परिवार मिला था, वह उस समय सच्चा लग रहा था, अब स्वप्न हो गया। पाँच जन्म पहले वाला भी अब स्वप्न है और एक जन्म पहले वाला भी अब स्वप्न है। इस जन्म का बचपन भी अब स्वप्न है। यौवनकाल भी अब स्वप्न हो रहा है।

आपकी दृष्टि जिस समय जगत में सत्यबुद्धि करती है उस समय जगत का आकर्षण, समस्याओं का प्रभाव और सुख-दुःख की थप्पड़ें लगती हैं। अगर आप अपने सत्यस्वरूप आत्मा का अनुसन्धान करते हो तो जगत के आकर्षण और विकर्षण दूर रह जाते है, देर सबेर अपने जगदीश्वर स्वभाव में जगकर मुक्त हो सकते हो।

उमा कहौं मैं अनुभव अपना।

सत्य हरिभजन जगत सब सपना।।

स्वप्न जैसा जगत है। दिखता है सच्चा, दिखता है ठोस लेकिन उसमें गहराई नहीं।

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मंगलवार, जून 22, 2010

उत्तम भूषण और उत्तम तीर्थ क्या है ?

किं भूषणाद् भूषणमस्ति शीलम्
तीर्थं परं किं स्वमनो विशुद्धम्।
किमत्र हेयं कनकं च कान्ता
श्राव्यं सदा किं गुरूवेदवाक्यम्।।
'उत्तम-से-उत्तम भूषण क्या है ? शील। उत्तम तीर्थ क्या है ? अपना निर्मल मन ही परम तीर्थ है। इस जगत में त्यागने योग्य क्या है ? कनक और कान्ता (सुवर्ण और स्त्री)। हमेशा सुनने योग्य क्या है ? सदगुरू और वेद के वचन।'

श्री शंकराचार्यविरचित 'मणिरत्नमाला' का यह आठवाँ श्लोक है।
बाहर की सब संपत्ति पाकर भी आदमी वह सुख, वह चैन, वह शांति, वह कल्याण नहीं पा सकता, जो शील से पा सकता है। इन्द्र को स्वर्ग के राज-वैभव, नन्दनवन आदि होते हुए भी वह आनन्द, वह प्रसन्नता न थी, जो प्रहलाद के पास थी। इन्द्र ने अपने गुरू बृहस्पति से यह बात पूछी थी।
प्रह्लाद के जीवन में शील था इसलिए वह साधनों के नहीं होने के बावजूद भी सुखी रह सका। जिसके पास शील है उसके पास साधन न हों तो भी वह सुखी रह सकता है। जिसके जीवन में शील नहीं है वह साधन होते हुए भी परेशान है।
....तो भूषणों का भूषण क्या है ? शील। कई लोग सोने-चाँदी के गहने पहनते हैं, गले में सुवर्ण की जंजीर, पग में झाँझन, कण्ठ में चन्दनहार, हाथ-पैरों में कड़े, कानों में कर्णफूल, उँगली में अँगूठी, नाक में नथ इत्यादि पहनते हैं और समझते हैं कि गहने-आभूषण पहनने से हम सुशोभित होते हैं। लेकिन शास्त्रकारों का कहना है, बुद्धिमानों का अनुभव है कि गहने पहनने से हम सुशोभित नहीं होते। गहने आभूषण से हमारा हाड़-मांस-चामवाला देह थोड़ा सा सुशोभित हो सकता है, लेकिन हमारी शोभा इनमें नहीं है। इन अलंकारों से तो हमारी शोभा दब जाती है। हमारी असली शोभा जो निखरनी चाहिए, वह देह का लालन-पालन और बाहरी टिप-टॉप करने की वृत्ति से दब जाती है। बाहरी भूषणों से हाड़-चामवाले देह की कृत्रिम चमक-दमक दिखती है। हमारी शोभा भूषणों से नहीं है, हमारी शोभा है शील से। शीलवान् पुरूष हो या स्त्री, उसका प्रकाश कुटुम्ब, मोहल्ले, जाति आदि में जैसा पड़ता है, वैसा प्रकाश सोने-चांदी के आभूषणों का नहीं पड़ता। किसी ने चाहे उपरोक्त सब आभूषणों को धारण किया हो, यदि शील न हो तो वे सब व्यर्थ हैं।
मन, वचन और कर्म से अयोग्य क्रिया न करना, देश-काल के अनुसार योग्यता से, सरलता से विचारपूर्वक बर्तना-इस आचरण को शास्त्र में 'शीलव्रत' कहा गया है। उन्नति का मार्ग शील ही है। गीता में बताये हुए दैवी संपत्ति के लक्षण शीलवाले व्यक्ति में होते हैं। यदि आत्मज्ञान न भी हो और शील हो तो मनुष्य नीच गति को प्राप्त नहीं होता। शीलवान ही आत्मबोध प्राप्त करके मुक्त हो सकता है। शीलरहित पुरूष को कड़ा, कुण्डल आदि गहने ऊपर की शोभा भले ही देते हों, परन्तु सज्जन पुरूषों का तो शील ही भूषण है।
शीलरहित मूर्ख को कड़ा, कुण्डल आदि बोझरूप हैं। ये भूषण जीव को जोखिम में डालने वाले और भय के कारण है, जबकि शीलरूपी भूषण लोक और परलोक में उत्तम प्रकार का सुख देने वाला है, इस लोक में शोभा और कीर्ति बढ़ानेवाला है, परलोक में अक्षय सुख को प्राप्त कराता है। मूर्ख पहने हुए गहनों को भी लजा देता है जबकि शीलवान् पहने हुए भूषणों को शोभा देता है।
एक राजपुत्र ने अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध एक स्त्री के साथ विवाह कर लिया था और गुप्त स्थान में उसके साथ रहा करता था। राजा को जब यह समाचार मिला कि मेरा पुत्र मेरे शत्रु की पुत्री के साथ विवाह करके गुम हो गया है तो वह बहुत दुःखी हुआ। पुत्र की यह कार्यवाही उसे योग्य न लगी इसलिए दुःखी होते हुए मरण के समीप आ गया। उसको एक ही पुत्र था। मरने के समय उसने कुँवर को बुलाने के लिए आदमी भेजे और अपनी परिस्थिति के समाचार कहलवाये।
कुँवर ने अपनी पत्नी से कहाः "पिता जी मरने की तैयारी में हैं। मुझे उन्होंने अपने पास बुलाया है। इस समय मुझे जाना ही चाहिए। मेरे जाने से वे स्वस्थ हो जायेंगे तो मुझ पर प्रसन्न होंगे। अगर वे चल बसेंगे तो मैं राजा बन जाऊँगा।"
पत्नी बोलीः "तुम राजा बन जाओगे तो मेरा क्या होगा ?"
"मैं तुझे वहाँ बुला लूँगा और पटरानी बनाऊँगा।" यह कहकर राजकुमार ने अपनी नामवाली अँगूठी अपनी उँगली से उतारक पत्नी को पहनाई और स्वयं राजधानी को चल दिया।
आकर देखा तो राजा मृत्युशैय्या पर पड़ा था। कुँवर को देखकर राजा प्रसन्न हुआ और बोलाः "मैं तुझसे एक बात कहना चाहता हूँ। यदि तू मेरी बात मान लेगा तो मेरे प्राण सुख से निकलेंगे। पिता के वचन पुत्र को मानने चाहिए। श्रीराम, देवव्रत भीष्म आदि पुत्रों ने माने हैं। यदि तू मानना स्वीकार करे तो कहूँ।"
"पिताजी ! मैं आपकी अन्त समय की आज्ञा का पालन करूँगा।" कुँवर ने स्वीकृति दी।
राजा ने कहाः "हे सुपुत्र ! तू मेरे मित्र गंधर्वराज की कन्या से विवाह करना स्वीकार कर।"
कुँवर ने बात मान ली। राजा का प्राणांत हो गया। कुँवर ने गंधर्वराज की कन्या से विवाह कर लिया। वह राजा होकर राज्य करने लगा और अपनी पूर्व पत्नी से जो बात कहकर आया था, उसको अत्यन्त सुख में भूल गया।
प्रथमवाली राजकन्या ने सुना कि मेरे श्वसुर का देहान्त हो गया है, मेरा पति राजा हो गया है और उसने एक दूसरी राजकन्या से विवाह कर लिया है। इस राजकन्या के पास एक बहुत चतुर दासी थी। राजकुँवर की मुलाकात के लिए वह तीन और कन्याओं को ले आई और उसने राजकन्या सहित चारों को पुरूष की पोशाक पहनाकर राजकुँवर के पास नौकरी करने को भेजा। कुँवर चारों युवान पुरूषों को देखकर प्रसन्न हुआ और चारों को अपने रक्षकों की नौकरी पर रख लिया।
कुँवर को देखकर राजकन्या के बार-बार आँसू गिरा करते थे। कुँवर ने कई बार पूछा, परन्तु उसने कुछ उत्तर न दिया।
एक दिन कुँवर अकेला उद्यान में बैठा था तो वह अंगरक्षक उदासी से हाथ जोड़कर उसके सामने जा बैठा। कुमार ने उसकी उँगली पर अपने नामवाली अँगूठी देखी तो विस्मय से पूछाः
"हे मित्र ! यह अँगूठी तुझे कहाँ से प्राप्त हुई ?"
"आपके पास से।"
"मैंने यह अँगूठी तुझे कब दी थी ?" राजकुमार का आश्चर्य बढ़ गया।
"जब तुम मुझे छोड़कर आये और राजा बने तब।"
रहस्य खुल गया। वह समझ गया कि यह मेरी प्राणेश्वरी राजकन्या है। प्रिया से क्षमा माँगते हुए उसने अपने पिता की अन्तिम समय की आज्ञा की सारी बात कही। तब राजकन्या बोलीः
"आपने पिता की आज्ञानुसार जो विवाह किया है, उससे मैं प्रसन्न हूँ। परन्तु आप मेरा त्याग न कीजिए। अपने निवास में दासी के समान रहने दीजिए जिससे मैं नित्य आपके दर्शन कर सकूँ।" कुँवर ने स्वीकार कर लिया और अन्य तीनों को पुरस्कार देकर विदा किया।
गंधर्वराज की कन्या यह विवाह विषयक बात सुनकर कुँवर से बोलीः "आपने जिसके साथ पूर्व में विवाह किया है, उसका हक मारा जाये यह मैं नहीं चाहती। वही आपकी पटरानी होने की अधिकारिणी है। मैं उसकी छोटी बहन के समान रहूँगी।"
इस प्रकार दोनों पत्नियाँ प्रेमपूर्वक बहनों के समान रहने लगीं। इन दोनों ने ही शील का अनुसरण किया इसलिए दोनों ही सुखी हुईं। एक दूसरे का आदर करके सामने वाले के अधिकार की रक्षा करने लगीं।
जैसे भरतजी कहते थे कि राज्य बड़े भाई श्रीराम का है और रामजी कहते थे कि पिता की आज्ञानुसार राज्य का अधिकार भरत का है। यह है शील।

सास सोचे की बहू को सुख कैसे मिले, उसका कल्याण कैसे हो और बहू चाहे कि माता जी का हृदय प्रसन्न रहे.... तो यह शील है।
अगर सास चाहे कि घर में मेरा कहना ही हो और बहू चाहे कि मेरा कहना ही हो, देवरानी चाहे मेरा कहना ही हो और जेठानी चाहे मेरा कहना ही हो – ऐसा वातावरण होगा तो देह पर चाहे कितने ही गहने लदे हों, फिर भी जीवन में सच्चा रस नहीं मिलेगा। सच्चा गहना तो शील है।
सत्य बोलना, प्रिय बोलना, मधुर बोलना, हितावह बोलना और कम बोलना, जीवन में व्रत रखना, परहित के कार्य करना इससे शुद्ध अन्तःकरण का निर्माण होता है। जिसके शुद्ध अन्तःकरण का निर्माण नहीं हुआ वह चाहे अपनी स्थूल काया को कितने ही पफ-पाऊडर-लाली और वस्त्रालंकारों से सुसज्जित कर दे, लेकिन भीतर की तृप्ति नहीं मिलेगी, हृदय का आनन्द नहीं मिलेगा।
स्वामी रामतीर्थ अमेरिका गये थे। उनके प्रवचन सुनने के लिए लोग इकट्ठे हो जाते। एक बार एक महिला आई। उसके अंग पर लाखों रूपये के हीरे जड़ित अलंकार लदे थे। फिर भी वह महिला बड़ी दुःखी थी। प्रवचन पूरा होते ही वह स्वामी रामतीर्थ के पास पहुँची और चरणों में गिर पड़ी। बोलीः
"मुझे शान्ति दो..... मैं बहुत दुःखी हूँ। कृपा करो।"
स्वामी रामतीर्थ ने पूछाः "इतने मूल्यवान, सुन्दर तेरे गहने, वस्त्र-आभूषण ! तू इतनी धनवान ! फिर तू दुःखी कैसे ?"
"स्वामी जी ! ये गहने तो जैसे गधी पर बोझ लदा हो ऐसे मुझ पर लदे हैं। मुझे भीतर से शांति नहीं है।"
अगर शीलरूपी भूषण हमारे पास नहीं है तो बाहर के वस्त्रालंकार, कोट-पैन्ट-टाई आदि सब फाँसी जैसे काम करते हैं। चित्त में आत्म-प्रसाद है, भीतर प्रसन्नता है तो वह शील से, सदगुणों से। परहित के लिए किया हुआ थोड़ा सा संकल्प, परोपकारार्थ किया हुआ थोड़ा-सा काम हृदय में शान्ति, आनन्द और साहस ले आता है।
अगर अति उत्तम साधक है तो उसे तीन दिन में आत्म-साक्षात्कार हो सकता है। तीन दिन के भीतर ही परमात्म तत्त्व की अनुभूति हो सकती है। जन्म-मृत्यु के चक्कर को तोड़कर फेंक सकता है। पृथ्वी जैसी सहनशीलता उसमें होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि इधर-उधर की थोड़ी सी बात सुनकर भागता फिरे।
पृथ्वी जैसी सहनशक्ति और सुमन जैसा सौरभ, सूर्य जैसा प्रकाश और सिंह जैसी निर्भीकता, गुरूओं जैसी उदारता और आकाश जैसी व्यापकता। पानी में किसी का गला घोंटकर दबाये रखे और उसे बाहर आने की जैसी तड़प होती है ऐसी जिसकी संसार से बाहर निकलने की तीव्र तड़प हो, उसको जब सदगुरू मिल जाय तो तीन दिन में काम बन जाय। ऐसी तैयारी न हो तो फिर उपासना, साधना करते-करते शुद्ध अन्तःकरण का निर्माण करना होगा।

शील में क्या आता है ? सत्य, तप, व्रत, सहिष्णुता, उदारता आदि सदगुण।
आप जैसा अपने लिए चाहते हैं, वैसा दूसरों के साथ व्यवहार करें। अपना अपमान नहीं चाहते तो दूसरों का अपमान करने का सोचें तक नहीं। आपको कोई ठग ले, ऐसा नहीं चाहते तो दूसरों को ठगने का विचार नहीं करें। आप किसी से दुःखी होना नहीं चाहते तो अपने मन, वचन, कर्म से दूसरा दुःखी न हो इसका ख्याल रखें।
प्राणिमात्र में परमात्मा को निहारने का अभ्यास करके शुद्ध अन्तःकरण का निर्माण करना यह शील है। यह महा धन है। स्वर्ग की संपत्ति मिल जाय, स्वर्ग में रहने को मिल जाय लेकिन वहाँ ईर्ष्या है, पुण्यक्षीणता है, भय है। जिसको जीवन में शील होता है उसको ईर्ष्या, पुण्यक्षीणता या भय नहीं होता। शील आभूषणों का भी आभूषण है।
मीरा के पास कौन-से बाह्य आभूषण थे ? शबरी ने कितने गहने पहने होंगे ? वनवास क समय द्रोपदी ने कौन-से गहने सजाये होंगे ? शील के कारण ही आज वे इतिहास को जगमगा रही हैं।
उदारता देखनी हो तो रंतिदेव की देखो। दान करते-करते अकिंचन हो गये। जंगल में पड़े हैं भूखे-प्यासे। काफी समय के बाद कुछ भोजन मिला और ज्यों ही ग्रास मुख तक पहुँचा कि भूखा अतिथि आ गया। स्वयं भूखे रहकर उसे तृप्त किया। दूसरों की क्षुधानिवृत्ति के लिए अपने शरीर का मांस भी काट-काटकर देने लगे। कैसी अदभुत दानवीरता और उदारता !
साधक में रंतिदेव जैसी दानवीरता और उदारता होनी चाहिए।
उदारता पदार्थों की भी होती है और विचारों की भी होती है। किसी ने कुछ कह दिया, अपमान कर दिया तो बात को पकड़ मत रखिये। जो बीत गई सो बीत गई। उससे छुटकारा नहीं पाएँगे तो अपने को ही दुःखी होना पड़ेगा। जगत को सुधारने का ठेका हमने-आपने नहीं लिया है। अपने को ही सुधारने के लिए हमारा आपका जन्म हुआ है। माँ के पेट से जन्म लिया, गुरू के चरणों में गया और पूरा सुधर गया ऐसा नहीं होता। जीवन के अनुभवों से गुजरते-गुजरते आदमी सुधरता है, पारंगत होता है और संसार-सागर से पार हो जाता है। व्यक्ति में अगर कोई दोष न रहे तो उसे अभी निर्विकल्प समाधि लग जाय और वह ब्रह्मलीन हो जाय।
रामकृष्ण परमहंस बार-बार सत्संग से उठकर रसोईघर में चले जाते और बने हुए व्यंजन पकवानों के बारे में पूछताछ करते। शारदा माँ कहतीं-
"आप तत्त्वचिन्तन की ऊँची बात करते हैं और फिर तुरन्त दाल, सब्जी, चटनी की खबर लेने आ जाते हैं ! लोग क्या कहेंगे ?"
रामकृष्ण बोलेः "यह माँ की कोई लीला है। मेरी जीवन-नाव तो ब्रह्मानंद-सागर की ऐसी मझधार में है कि कोई उसमें बैठ न सके। इसीलिए माँ ने मेरे चित्त को जिह्वा के रस में शायद लगा दिया है। जिह्वारस के जरिये मैं बाहर के जगत में आ जाता हूँ। जिस दिन यह जिह्वारस छूटा तो समझ लेना... उसी दिन हमारी जीवन-नाव किनारा छोड़कर सागर की मझधार में पहुँच जाएगी। फिर यह देह टिकेगी नहीं।"
....और हुआ भी ऐसा ही। एक दिन शारदामणि देवी भोजन की थाली सजाकर रामकृष्ण देव के समक्ष लायी। थाली को देखकर परमहंस जी ने मुँह फेर लिया। शारदा माँ को उनकी बात याद आ गयी.... हाथ से थाली गिर पड़ी। ढाई-तीन दिन में ही उस महान् विभूति ने अपनी जीवनलीला समेट ली।

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शनिवार, जून 19, 2010

जब रावण ने कर चुकाया (शील का प्रभाव)

रावण के जमाने में एक बड़े सदाचारी, शील को धारण करने वाले राजा चक्ववेण हुए। बड़ा सादा जीवन था उनका। राजपाट होते हुए भी योगी का जीवन जीते थे। प्रजा से जो कर आता था, उसको प्रजा का खून-सा समझते थे। उसका उपयोग व्यक्तिगत सुख, ऐश्वर्य, स्वार्थ या विलास में बिल्कुल नहीं होने देते थे। राजमहल के पीछे खुली जमीन थी, उसमें खेती करके अपना गुजारा कर लेते थे। हल जोतने के लिए बैल कहाँ से लायें ? खजाना तो राज्य का था, अपना नहीं था। उसमें से तो खर्च नहीं करना चाहिए। .....तो राजा स्वयं बैल की जगह जुत जाते थे और उनकी पत्नी किसान की जगह। इस प्रकार पति पत्नी खेती करते और जो फसल होती उससे गुजारा करते। कपास बो देते। फिर घर में ताना-बुनी करके कपड़े बना लेते, खद्दर से भी मोटे।

चक्ववेण राजा के राज्य में किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती थी, अकाल नहीं पड़ता था, प्रजा में ईमानदारी थी, सुख-शान्ति थी। प्रजा अपने राजा-रानी को साक्षात् शिव-पार्वती का अवतार मानती थी। पर्व त्यौहार के दिनों में नगर के लोग इनके दर्शन करने आते थे।

पर्व के दिन थे। कुछ धनाढ्य महिलायें सज धजकर राजमहल में गईं। रानी से मिलीं। रानी के वस्त्र तो सादे, घर की ताना-बुनी करके बनाये हुए मोटे-मोटे। अंग पर कोई हीरे-जवाहरात, सुवर्ण-अलंकार आदि कुछ नहीं। कीमती वस्त्र-आभूषणों से, सुवर्ण-अलंकारों से सजीधजी बड़े घराने की महिलाएँ कहने लगीं- "अरे रानी साहिबा ! आप तो हमारी लक्ष्मी जी हैं। हमारे राज्य की महारानी पर्व के दिनों में ऐसे कपड़े पहनें ? हमें बड़ा दुःख होता है। आप इतनी महान विभूति की धर्मपत्नी ! .....और इतने सादे, चिथड़े जैसे कपड़े ! ऐसे कपड़े तो हम नौकरानी को भी पहनने को नहीं देते। आप ऐसा जीवन बिताती हो ? हमें तो आपकी जिन्दगी पर बहुत दुःख होता है।"

आदमी जैसा सुनता है, देर सवेर उसका प्रभाव चित्त पर पड़ता ही है। अगर सावधान न रहे तो कुसंग का रंग लग ही जाता है। हल्के संग का रंग जल्दी लगता है। अतः सावधान रहें। कुसंग सत्पथ से विचलित कर देता है।

दूसरी महिला ने कहाः "देखो जी ! हमारे ये हीरे कैसे चमक रहे हैं ! .... और हम तो आपकी प्रजा हैं। आप हमारी रानी साहिबा हैं। आपके पास तो हमसे भी ज्यादा कीमती वस्त्रालंकार होने चाहिए ?"

तीसरी ने अपनी अंगूठी दिखायी। चौथी ने अपने जेवर दिखाये। चक्ववेण की पत्नी तो एक और उसको बहकाने वाली अनेक। उनके श्वासोच्छावास, उनके विलासी वायब्रेशन से रानी हिल गई। वे स्त्रियाँ तो चली गईं लेकिन चक्ववेण के घर में आग लग गई।

रानी ने बाल खोल दिये और स्त्रीचरित्र में उतर आई। राजा राज-दरबार से लौटे। देखा तो देवी जी का रूद्र स्वरूप ! पूछाः

"क्या बात है देवी ?"

"आप मुझे मूर्ख बना रहे हैं। मैं आपकी रानी कैसी ? आप ऐसे महान् सम्राट और मैं आप जैसे सम्राट की पत्नी ऐसी दरिद्र ? मेरे ये हाल ?"

"तुझे क्या चाहिए ?"

"पहले वचन दो।"

"हाँ, वचन देता हूँ। माँग।"

"सुवर्ण-अलंकार, हीरे जवाहरात, कीमती वस्त्र-आभूषण..... जैसे महारानियों के पास होते हैं, वैसी ही मेरी व्यवस्था होनी चाहिए।"

राजा वस्तुस्थिति से ज्ञात हुए। वे समझ गये किः "वस्त्रालंकार और फैशन की गुलाम महिलाओं ने इसमें अपनी विलासिता का कचरा भर दिया है। अपना अन्तःकरण सजाने के बजाय हाड़-मांस को सजाने वाली अल्पमति माइयों ने इसे प्रभावित कर दिया है। मेरा उपदेश मानेगी नहीं।

इसके लिये हीरे-जवाहरात, गहने-कपड़े कहाँ से लाऊँ ? राज्य का खजाना तो प्रजा का खून है। प्रजा के खून का शोषण करके, स्त्री का गुलाम होकर, उससे उसको गहने पहनाऊँ ? इतना नालायक मुझे होना नहीं है। प्रजा का शोषण करके औरत को आभूषण दूँ ? धन कहाँ से लाऊँ ? नीति क्या कहती है ?

नीति कहती है कि अपने से जो बलवान् हो, धनवान हो और दुष्ट हो तो उसका धन ले लेने से कोई पाप नहीं लगता। धन तो मुझे चाहिए। नीतियुक्त धन होना चाहिए।'

राजा सोचने लगेः "धनवान और दुष्ट लोग तो मेरे राज्य में भी होंगे लेकिन वे मुझसे बलवान नहीं हैं। वे मेरे राज्य के आश्रित हैं। दुर्बल का धन छीनना ठीक नहीं।"
विचार करते-करते अड़ोस-पड़ोस के राजाओं पर नजर गई। वे धनवान तो होंगे, बेईमान भी होंगे लेकिन बलवान भी नहीं थे। आखिर याद आया कि रावण ऐसा है। धनवान भी है, बलवान भी है और दुष्ट भी हो गया है। उसका धन लेना नीतियुक्त है।

अपने से बलवान् और उसका धन ? याचना करके नहीं, माँगकर नहीं, उधार नहीं, दान नहीं, चोरी करके नहीं, युक्ति से और हुक्म से लेना है।

राजा ने एक चतुर वजीर को बुलाया और कहाः "जाकर राजा रावण को कह दो कि दो मन सोना दे दे। दान-धर्म के रूप में नहीं, ऋण के रूप में नहीं। राजा चक्ववेण का हुक्म है कि 'कर' के रूप में दो मन सोना दे दे।"

वजीर गया रावण की सभा में और बोलाः "लंकेश ! राजा चक्ववेण का आदेश है, ध्यान से सुनो।"

रावणः "देव, दानव, मानव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि सब पर लंकापति रावण का आदेश चलता है और उस रावण पर राजा चक्ववेण का आदेश ! हूँऽऽऽ...." रावण गरज उठा।

विभीषण आदि ने कहाः "राजन ! कुछ भी हो, वह सन्देशवाहक है, दूत है। उसकी बात सुननी चाहिए।"
रावणः "हाँ, क्या बोलते हो ?" रावण ने स्वीकृति दी।

वजीरः "दान के रूप में नहीं, ऋण के रूप में नहीं, लेकिन राजा चक्ववेण का आदेश है कि 'कर' के रूप में दो मन सोना दो, नहीं तो ठीक नहीं रहेगा। लंका का राज्य खतरे में पड़ जायेगा।" चक्ववेण के वजीर ने अपने स्वामी का आदेश सुना दिया।

रावणः "अरे मच्छर ! इस रावण से बड़े-बड़े चक्रवर्ती डरते हैं और वह जरा सा चक्ववेण राजा ! मुझ पर 'कर' ? हूँऽऽऽ..... अरे ! इसको बाँध दो, कैद में डाल दो।" रावण आगबबूला हो गया।

सबने सलाह दीः "महाराज ! यह तो बेचारा अनुचर है, चिट्ठी का चाकर। इसको कैद करना नीति के विरूद्ध है। आप सोना न दें, कोई हर्ज नहीं किन्तु इसको छोड़ दें। हमने राजा चक्ववेण का नाम सुना है। वह बड़ा शीलसम्पन्न राजा है। बड़ा सज्जन, सदाचारी है। उसके पास योग-सामर्थ्य, सूक्ष्म जगत का सामर्थ्य बहुत है।"

"तो रावण क्या कम है ?"

"लंकेश ! आप भी कम नही है। लेकिन वह राजा शील का पालन करता है।"

"सबकी क्या राय है ?" पूरे मंत्रिमण्डल पर रावण ने नजर डालते हुए पूछा।

"या तो दो मन सोना दे दें......"

"मैं सोना दे दूँ ?" सलाहकारों की बात बीच से ही काटते हुए रावण गरज उठा। "याचक भीख माँगने आये तो दे दूँ लेकिन मेरे ऊपर 'कर' ? मेरे ऊपर आदेश ? यह नहीं होगा।" सिर धुनकर रावण बोला।

"अच्छा, तो दूत को बाहर निकाल दो।"

चक्ववेण के वजीर को बाहर निकाल दिया गया। रावण महल में गया तो वार्त्तालाप करता हुआ मन्दोदरी से बोलाः

"प्रिये ! दुनियाँ में ऐसे मूर्ख भी राज्य करते हैं। देव, दानव, मानव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि सबके सब जिससे भय खाते हैं, उस लंकापति रावण को किसी मूर्ख चक्ववेण ने आदेश भेज दिया कि 'कर' के रूप में दो मन सोना दे दो। 'अरे मन्दोदरी ! कैसे कैसे पागल राजा हैं दुनियाँ में !"

"नाथ ! चक्ववेण राजा बड़े सदाचारी आदमी हैं। शीलवान् नरेश हैं। आपने क्या किया ? दो मन सोना नहीं भेजा उनको ?" मन्दोदरी विनीत भाव से बोली।

"क्या 'कर' के रूप में सोना दे दूँ ? लंकेश से ऊँचा वह होगा ?" रावण का क्रोध भभक उठा।

"स्वामी ! दे देते तो अच्छा होता। उनका राज्य भले छोटा है, आपके पास विशाल साम्राज्य है, बाह्य शक्तियाँ हैं, लेकिन उनके पास ईश्वरीय शक्तियाँ हैं, आत्म-विश्रान्ति से प्राप्त अदभुत सामर्थ्य है।"

"अरे मूर्ख स्त्री ! रावण के साथ रहकर भी रावण का सामर्थ्य समझने की अक्ल नहीं आई ? पागल कहीं की !" रावण ने मन्दोदरी की बात उड़ा दी।

कहानी कहती है कि दूसरे दिन सुबह मन्दोदरी ने रावण को छोटा सा चमत्कार दिखाया। रोज सुबह कबूतरों को ज्वार के दाने डालने के लिए राजमहल की छत पर जाती थी। उस दिन रावण को भी साथ ले गई और बोलीः

"महाराज ! देव, दानव, मानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि सब आपकी आज्ञा मानते हैं तो अपने प्रभाव का आज जरा अनुभव कर लो। देखो, इन पक्षियों पर आपका कितना प्रभाव है ?"

पक्षियों को दाने डालकर मन्दोदरी उन्हें कहने लगीः

"हे विहंग ! राजा लंकेश की दुहाई है कि जो दाने खायेगा, उसकी गरदन झुक जायेगी और वह मर जायेगा।" सब पक्षी दाने खाते रहे। उन्हें कुछ नहीं हुआ। मन्दोदरी बोलीः

"प्राणेश ! आपकी दुहाई का प्रभाव पक्षियों पर कुछ नहीं पड़ा।"

"मूर्ख औरत ! पक्षियों को क्या पता कि मैं लंकेश हूँ ?"

"स्वामी ! ऐसा नहीं है। अब देखिए।" फिर से दाने डालकर रानी पक्षियों से बोलीः "राजा चक्ववेण की दुहाई है। दाने चुगने बन्द कर दो। जो दाने चुगेगा, राजा चक्ववेण की दुहाई से उसकी गरदन टेढ़ी हो जाएगी और वह मर जाएगा।"

पक्षियों ने दाना चुगना बन्द कर दिया। पाषाण की मूर्तिवत् वे स्थिर हो गये। एक बहरे कबूतर ने सुना नहीं था। वह दाने चुगता रहा तो उसकी गरदन टेढ़ी हो गई, वह मर गया। रावण देखता ही रह गया ! अपनी स्त्री के द्वारा अपने ही सामर्थ्य की अवहेलना सह न सका। उसको डाँटते हुए वह कहने लगा।

"इसमें तेरा कोई स्त्रीचरित्र होगा। हम ऐसे अन्धविश्वास को नहीं मानते। जिसके घर में स्वयं वरूणदेव पानी भर रहे हैं, पवनदेव पंखा झल रहे हैं, अग्निदेव रसोई पका रहे हैं, ग्रह नक्षत्र चौकी कर रहे हैं उस महाबली त्रिभुवन के विजेता रावण को तू क्या सिखा रही है ?" क्रुद्ध होकर रावण वहाँ से चल दिया।

इधर, राजा चक्ववेण के मंत्री ने समुद्र के किनारे एक नकली लंका की रचना की। काजल के समान अत्यन्त महीन मिट्टी को समुद्र के जल में घोलकर रबड़ी की तरह बना लिया तथा तट की जगह को चौरस बनाकर उस पर उस मिट्टी से एक छोटे आकार में लंका नगरी की रचना की। घुली हुई मिट्टी की बूँदों को टपका-टपकाकर उसी से लंका के परकोटे, बुर्ज और दरवाजों आदि की रचना की। परकोटों के चारों ओर कंगूरे भी काटे एवं उस परकोटे के भीतर लंका की राजधानी और नगर के प्रसिद्ध बड़े-बड़े मकानों को भी छोटे आकार में रचना करके दिखाया। यह सब करने के बाद वह पुनः रावण की सभा में गया। उसे देखकर रावण चौंक उठा और बोलाः

"क्यों जी ! तुम फिर यहाँ किसलिये आये हो ?"
"मैं आपको एक कौतूहल दिखलाना चाहता हूँ।"

"क्या कौतूहल दिखायेगा रे ? अभी-अभी एक कौतूहल मन्दोदरी ने मुझे दिखाया है। सब मूर्खों की कहानियाँ हैं। उपहास करते हुए रावण बोला।

"मैंने समुद्रतट पर आपकी पूरी लंका नगरी सजायी है। आप चलकर तो देखिये !"

रावण उसके साथ समुद्रतट पर गया। वजीर ने अपनी कारीगरी दिखायीः

"देखिये, यह ठीक-ठीक आपकी लंका की नकल है न ?"
रावण ने उसकी अदभुत कारीगरी देखी और कहाः "हाँ ठीक है। यही दिखाने के लिए मुझे यहाँ लाया है क्या ?"
"राजन ! धैर्य रखो। इस छोटी सी लंका से मैं आपको एक कौतूहल दिखाता हूँ। देखिये, लंका के पूर्व का परकोटा, दरवाजा, बुर्ज और कंगूरे साफ-साफ ज्यों-के-त्यों दिख रहे हैं न ?"

"हाँ दिख रहे हैं।"

"मेरी रची हुई लंका के पूर्व द्वार के कंगूरों को मैं राजा चक्ववेण की दुहाई देकर जरा सा हिलाता हूँ, इसके साथ ही आप अपनी लंका के पूर्व द्वार के कंगूरे हिलते हुए पायेंगे।"
इतना कहकर मंत्री ने राजा चक्ववेण की दुहाई देकर अपनी रची हुई लंका के पूर्व द्वार के कंगूरे हिलाये तो उसके साथ-ही-साथ असली लंका के कंगूरे भी डोलायमान होते दिखाई दिये। यह देखकर रावण को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसे मन्दोदरी की बात याद आ गई। चक्ववेण के वजीर ने बारी-बारी से और भी कंगूरे, परकोटे के द्वार, बुर्ज आदि हिलाकर दिखाया। इसे देखकर रावण दंग रह गया। आखिर वजीर ने कहाः

"राजन ! अभी दो मन सोना देकर जान छुड़ा लो तो ठीक है। मैं तो अपने स्वामी राजा चक्ववेण का छोटा सा वजीर हूँ। उनकी दुहाई से इन छोटे रूप में बनी हुई लंका को उजाडूँगा तो तुम्हारी लंका में भी उजाड़ होने लगेगा। विश्वास न आता हो तो अभी दिखा दूँ।"
आखिर रावण भी बड़ा विद्वान था। अगम अगोचर जगत विषयक शास्त्रों परिचित था। समझ गया बात। वजीर से बोलाः "चल, दो मन सोना ले जा। किसी से कहना मत।"

दो मन सोना लेकर वजीर राजा के पास पहुँचा। चक्ववेण ने कहाः "लंकेश जैसे हठी और महा अहंकारी ने 'कर' के रूप में दो मन सोना दे दिया ? तूने याचना तो नहीं की ?"

"नहीं, नहीं प्रभु ! मेरे सम्राट की ओर से याचना ? कदापि नहीं हो सकती।" वजीर गौरव से मस्तक ऊँचा करके बोला।

"फिर कैसे सोना लाया ?" राजा ने पूछा। रानी भी ध्यानपूर्वक सुन रही थी।
"महाराज ! आपकी दुहाई का प्रभाव दिखाया। पहले तो मुझे कैद में भेज रहा था, फिर मंत्रियों ने समझाया तो मुझे दूत समझकर छोड़ दिया। मैंने रातभर में छोटे-छोटे घरौंदे सागर के तट पर बनाये.... किला, झरोखे, प्रवेशद्वार आदि सब। उसकी लंका की प्रतिमूर्ति खड़ी कर दी। फिर उसको ले जाकर सब दिखाया। आपकी दुहाई देकर खिलौने की लंका का मुख्य प्रवेशद्वार जरा-सा हिलाया तो उसकी असली लंका का द्वार डोलायमान हो गया। थोड़े में ही रावण आपकी दुहाई का और आपके सामर्थ्य का प्रभाव समझ गया एवं चुपचाप दो मन सोना दे दिया। दया-धर्म करके नहीं दिया वरन् जब देखा कि यहाँ का डण्डा मजबूत है, तभी दिया।"

रानी सब बात एकाग्र होकर सुन रही थी। उसको आश्चर्य हुआ किः "लंकेश जैसा महाबली ! महा उद्दण्ड ! देवराज इन्द्र सहित सब देवता, यम, कुबेर, वरूण, अग्नि, वायु, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, दानव, मानव, नाग आदि सब जिससे काँपते हैं, ऐसे रावण पर भी मेरे पतिदेव के शील-सदाचार का इतना प्रभाव और मैं ऐसे पति की बात न मानकर विलासी स्त्रियों की बातों में आ गई ? फैशनेबल बनने के चक्कर में पड़ गई ? धिक्कार है मुझे और मेरी क्षुद्र याचना को ! ऐसे दिव्य पति को मैंने तंग किया !"

रानी का हृदय पश्चाताप से भर गया। स्वामी के चरणों में गिर पड़ीः "प्राणनाथ ! मुझे क्षमा कीजिए। मैं राह चूक गई थी। आपके शील-सदाचार के मार्ग की महिमा भूल गई थी इसीलिए नादानी कर बैठी। मुझे माफ कर दीजिए। अपना योग मुझे सिखाइये, अपना ध्यान मुझे सिखाइये, अपना आत्महीरा मुझे भी प्राप्त कराइये। मुझे बाहर के हीरे जवाहरात कुछ नहीं चाहिए। जल जाने वाले इस शरीर को सजाने का मेरा मोह दूर हो गया।"

"तो इतनी सारी खटपट करवायी ?"

"नहीं.... नहीं... मुझे रावण के सोने का गहना पहनकर सुखी नहीं होना है। आपने जो शील का गहना पहना है, आत्म-शांति का, योग की विश्रांति का जो गहना पहना है, वही मुझे दीजिए।"

"अच्छा..... तो वजीर ! जाओ। यह सोना रावण को वापस दे आओ। उसको बता देना कि रानी को गहना पहनने की वासना हो आई थी, इसलिए आदमी भेजा था। अब वासना निवृत्त हो गई है। अतः सोना वापस ले लो।"

वासनावाले को ही परेशानी होती है। जो शील का पालन करता है, उसकी वासनाएँ नियंत्रित होकर निवृत्त होती हैं। जिसकी वासनाएँ निवृत्त हो जाती हैं वह साक्षात् नारायण का अंग हो जाता है। शील का पालन करते हुए राजा चक्ववेण नारायणस्वरूप में स्थिर हुए। उनकी अर्धांगिनी भी उनके पवित्र पदचिह्नों पर चलकर सदगति को प्राप्त हुई।

शीलवान् भोग में भी योग बना लेता है। यही नहीं, नश्वर संसार में शाश्वत् स्वरूप का साक्षात्कार भी कर सकता है।

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शुक्रवार, जून 18, 2010

प्रतिष्ठा के लिए ईश्वर मत छोड़ देना !

जिनको मनुष्य जन्म की महत्ता का पता नहीं, वे लोग देह के मान में, देह के सुख में, देह की सुविधा में अपनी अक्ल, अपना धन, अपना सर्वस्व लुटा देते हैं। जिनको अपने जीवन की महत्ता का पता है, जिन्हें वृद्धावस्था दिखती है, मौत दिखती है, बाल्यावस्था का, गर्भावास का दुःख जिन्हें दिखता है, विवेक से जिन्हें संसार की नश्वरता दिखती है एवं संसार के सब संबंध स्वप्नवत दिखते हैं, ऐसे साधक मोह के आडंबर और विलास के जाल में न फँसकर परमात्मा की गहराई में जाने की कोशिश करते हैं।
जिस तरह भूखा मनुष्य भोजन के सिवाय अन्य किसी बात पर ध्यान नहीं देता है, प्यासा मनुष्य जिस तरह पानी की उत्कंठा रखता है, ऐसे ही विवेकवान साधक परमात्मशांतिरूपी पानी की उत्कंठा रखता है। जहाँ हरि की चर्चा नहीं, जहाँ आत्मा की बात नहीं वहाँ साधक व्यर्थ का समय नहीं गँवाता। जिन कार्यों को करने से चित्त परमात्मा की तरफ जावे ही नहीं, जो कर्म चित्त को परमात्मा से विमुख करता हो, सच्चा जिज्ञासु व सच्चा भक्त वह कर्म नहीं करता। जिस मित्रता से भगवद् प्राप्ति न हो, उस मित्रता को वह शूल की शैया समझता है।
सौ संगति जल जाय,
जिसमें कथा नहीं राम की।
बिन खेती, बिन बाड़ी के,
बाढ़ भला किस काम की।।
वे नूर बेनूर भले,
जिस नूर में पिया की प्यास नहीं।
यह जीवन नरक है,
जिस जीवन में प्रभुमिलन की आस नहीं।।
वह मति दुर्गति है, जिसमें परमात्मा की तड़प नहीं। वह जीवन व्यर्थ है जिस जीवन में ईश्वर के गीत गूँज न पाए। वह धन बोझा है जो आत्मधन कमाने के काम न आए। वह मन तुम्हारा शत्रु है जिस मन से तुम अपने आपसे मिल न पाओ। वह तन तुम्हारा शत्रु है जिस तन से तुम परमात्मा की ओर न चल पाओ। ऐसा जिनका अनुभव होता है वे साधक ज्ञान के अधिकारी होते हैं।
जो व्यक्ति देह के सुख, देह की प्रतिष्ठा, देह की पूजा, देह के ऐश तथा देह का आराम पाने के लिए धार्मिक होता है, वह अपने आपको ठगता है। देह को एकाग्र रखने का अभ्यास करो।
कई लोग घुटना व शरीर हिलाते रहते हैं, वे ध्यान के अधिकारी नहीं होते, योग के अधिकारी नहीं होते। मन को एकाग्र करने के लिए तन भी संयत होने चाहिए।
एक बार भगवान बुद्ध परम गहरी शांति का अनुभव लेकर भिक्षुकों को कुछ सुना रहे थे। सुनाते सुनाते बुद्ध एकाएक चुप हो गये, मौन हो गये। सभा विसर्जित हो गई। किसी की हिम्मत न हुई तथागत से कारण पूछने की। समय बीतने पर कोई ऐसा अवसर आया तब भिक्षुओं ने आदरसहित प्रार्थना कीः
"भन्ते ! उस दिन आप गंभीर विषय बोलते-बोलते अचानक चुप हो गये थे, क्या कारण था?"
बुद्ध ने कहा, "सुनने वाला कोई न था, इसलिए मैं चुप हो गया था।"
भिक्षुकों ने कहाः "हम तो थे।"
बुद्धः "नहीं। किसी का सिर हिल रहा था तो किसी का घुटना। तुम वहाँ न थे। आध्यात्मिक ज्ञान के लिए, चित्त तब तक एकाग्र नहीं होगा, जब तक शरीर की एकाग्रता सिद्ध न हो।"
आप अपने तन को, मन को स्वस्थ रखिये। संसार का सर्वस्व लुटाने पर भी यदि परमात्मा मिल जाय तो सौदा सस्ता है और सारे विश्व को पाने से यदि परमात्मा का वियोग होता है तो वह सौदा खतरनाक है। ईश्वर के लिए जगत को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेकिन जगत के लिए कभी ईश्वर को मत छोड़ देना मेरे भैया ! ॐ.....ॐ.....ॐ....
ईश्वर के लिए प्रतिष्ठा छोड़नी पड़े तो छोड़ देना लेकिन प्रतिष्ठा के लिए ईश्वर को मत छोड़ना। स्वास्थ्य और सौन्दर्य परमात्मा के लिए छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेकिन स्वास्थ्य और सौन्दर्य के लिए परमात्मा को मत छोड़ना क्योंकि एक न एक दिन वह स्वास्थ्य और सौन्दर्य, मित्र और सत्ता, पद और प्रतिष्ठा सब प्रकृति के तनिक से झटके से छूट जायेंगे। इसलिए तुम्हारा ध्यान हमेशा शाश्वत ईश्वर पर होना चाहिए। तुम्हारी मति में परमात्मा के सिवाय किसी अन्य वस्तु का मूल्य अधिक नहीं होना चाहिए।
जैसे समझदार आदमी वृद्धावस्था होने से पहले ही यात्रा कर लेता है, बुद्धि क्षीण होने के पूर्व ही बुद्धि में बाह्यी स्थिति पा लेता है, घर में आग लगने से पहले ही जैसे कुआँ खुदाया जाता है, भूख लगने से पहले जैसे भोजन की व्यवस्था की जाती है, ऐसे ही संसार से अलविदा होने के पहले ही जो उस प्यारे से संबंध बाँध लेता है, वही बुद्धिमान है और उसी का जन्म सार्थक है।
जिसने मौन का अवलंबन लिया है, जिसने अपने चंचल तन और मन को अखंड वस्तु में स्थिर करने के लिए अभ्यस्त किया है, वह शीघ्र ही आत्मरस का अमृतपान कर लेता है।
रविदास रात न सोइये, दिवस न लीजिये स्वाद।
निशदिन प्रभु को सुमरिये, छोड़ि सकल प्रतिवाद।।
कई रात्रियाँ तुमने सो-सोकर गुजार दीं और दिन में स्वाद ले लेकर तुम समाप्त होने को जा रहे हो। शरीर को स्वाद दिलाते-दिलाते तुम्हारी यह उम्र, यह शरीर बुढ़ापे की खाई में गिरने को जा रहा है। शरीर को सुलाते-सुलाते तुम्हारी वृद्धावस्था आ रही है। अंत में तो.... तुम लम्बे पैर करके सो जाओगे। जगाने वाले चिल्लायेंगे फिर भी तुम नहीं सुन पाओगे। डॉक्टर और हकीम तुम्हें छुड़ाना चाहेंगे रोग और मौत से, लेकिन नहीं छुड़ा पायेंगे। ऐसा दिन न चाहने पर भी आयेगा। जब तुम्हें स्मशान में लकड़ियों पर सोना पड़ेगा और अग्नि शरीर को स्वाहा कर देगी। एक दिन तो कब्र में सड़ने गलने को यह शरीर गाड़ना ही है। शरीर कब्र में जाए उसके पहले ही इसके अहंकार को कब्र में भेज दो..... शरीर चिता में जल जाये इसके पहले ही इसे ज्ञान की अग्नि में पकने दो।

मुझे वेद पुरान कुरान से क्या ?
मुझे प्रेम का पाठ पढ़ा दे कोई।।
मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं।
मुझे प्रभु के गीत सुना दे कोई।।
साधक की दृष्टि यही होती है। साधक का लक्ष्य परमात्मा होता है, दिखावा नहीं। साधक का जीवन स्वाभाविक होता है, आडंबरवाला नहीं। साधक की चेष्टाएँ ईश्वर के लिए होती हैं, दिखावे के लिए नहीं। साधक का खान-पान प्रभु को पाने में सहयोगी होता है, स्वाद के लिए नहीं। साधक की अक्ल संसार से पार होने के लिए होती है, संसार में डूबने के लिए नहीं। साधक की हर चेष्टा आत्मज्ञान के नजदीक जाने की होती है, आत्मज्ञान से दूर जाने की नहीं।
साँझ पड़ी दिन आथम्या, दीना चकवी रोय।
चलो चकवा वहाँ जाइये, जहाँ दिवस-रैन न होय।।

चकवा चकवी को समझाता हैः
रैन की बिछड़ी चाकवी, आन मिले प्रभात।
सत्य का बिछड़ा मानखा, दिवस मिले न ही रात।।
हे चिड़िया ! सन्ध्या हुई। तू मुझसे बिछड़ जायेगी, दूसरे घोंसले में चली जाएगी किन्तु प्रभात को तू फिर मुझे मिल जायेगी लेकिन मनुष्य जन्म पाकर भी उस सत्य स्वरूप परमात्मा के सत्य से बिछड़नेवाला मनुष्य पुनः सत्य से न सुबह मिलेगा, न शाम को, न रात में मिलेगा न दिन में।
सत्य का, परमात्मा का बलिदान देकर तुमने जो कुछ पाया है, वह सब तुमने अपने साथ जुल्म किया है। ईश्वर को छोड़कर यदि अन्यत्र कहीं तुम अपना दिल लगा रहे हो तो अपने साथ शत्रुता कर रहे हो, अन्याय कर रहे हो। ॐ....ॐ....ॐ....
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमसांदयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
'अपने द्वारा संसार-समुद्र से अपना उद्धार करें और अपने को अधोगति में न डालें क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।' (श्रीमद् भगवदगीताः 6.5)
हे अर्जुन ! तूने यदि अपने मालिक से मन लगाया और अपने मन को चंचलता से, हलन-चलन से तथा प्रकृति के बहाव से रोका तो तू अपने-आपका मित्र है और यदि प्रकृति के बहाव में बहा तो अपने-आपका शत्रु है।
यह मन यदि संसार में उलझता है तो अपना ही सत्यानाश करता है और परमात्मा में लगता है तो अपना और अपने संपर्क में आने वालों का बेड़ा पार करता है। इसलिए कदम-कदम पर सावधान होकर जीवन व्यतीत करो क्योंकि समय बड़ा मूल्यवान है। बीता हुआ क्षण, छूटा हुआ तीर और निकले शब्द कभी वापस नहीं आते। निकली हुई घड़ियाँ वापस नहीं आतीं।

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गुरुवार, जून 17, 2010

तीन प्रकार के सिद्ध !

हमारे सनातन धर्म के ग्रन्थों में तीन प्रकार के सिद्धों की महिमा आती है। एक जो भक्ति से सिद्ध हुए हैं उन पुरूषों एवं महिलाओं की महिमा आती है। दूसरे जो योग से सिद्ध हुए हैं उनकी महिमा आती है। तीसरे जो ज्ञान से सिद्ध हुए हैं अर्थात् भक्ति करते करते भेदभावरहित अभिन्न तत्त्व को पाये हैं, ऐसे सिद्धों की महिमा आती है।
भक्त और भगवान में ही दूरी मिट जाए..... भक्ति का अर्थ यही है। 'भक्त' अर्थात् जो ईश्वर से विभक्त न हो, उसको भक्त कहते हैं। योग का अर्थ है जीव ब्रह्म की एकता। तत्त्वज्ञान से भी कोई आत्मज्ञान पा लेता है। ऐसे तीन प्रकार के सिद्धों की महिमा का वर्णन हमारे धर्मग्रन्थों में आता है।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करूण एव च।

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।

'जो पुरूष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है....'   (गीताः 12.13)

यह भक्ति मार्ग के सिद्धों की महिमा है। संतुष्टः सततं योगी.... यह योग मार्ग की महिमा है। न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते.... आदि श्लोक ज्ञानमार्ग की महिमा का बयान करते हैं।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

'जो पुरूष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और मेरे लिए वह अदृश्य नहीं होता।' (गीताः 6.30)

जो मुझमें सबमें और सब मुझमें देखता है उससे मैं अलग नहीं और अर्जुन ! वह मुझसे अलग नहीं। ऐसा ब्रह्मज्ञानी तो मेरा ही स्वरूप है। मैं अपनी बात काट लूँगा लेकिन उसकी बात पूरी होने दूँगा, ऐसा वह मुझे प्यारा है।

ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावहि।
ब्रह्मज्ञानी को बल-बल जावहि।।
ब्रह्मज्ञानी मुगत-भुगत का दाता।
ब्रह्मज्ञानी पूरण पुरूष विधाता।।
ब्रह्मज्ञानी को खोजे महेश्वर।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर।।
ब्रह्मज्ञानी का कथ्या न जाई आधा अक्खर।
नानक ब्रह्मज्ञानी सबका ठाकुर।।

इन तीन प्रकार के सिद्धों की महिमा गीता में तथा अन्य धर्मग्रन्थों में आती है। वैसे तो और भी कई प्रकार के सिद्ध होते हैं। जैसे चुटकी बजाकर अंगूठी या अन्य कोई वस्तु निकालने वाले। आम का मौसम नहीं है फिर भी आम निकालकर दे देंगे। यहाँ मौसम नहीं है तो क्या हुआ, मद्रास में तो है। एक क्षण में वहाँ से लाकर दिखा देंगे।

वृन्दावन वाले अखंडानंद सरस्वती जी महाराज अपने साथ नौ अन्य साधुओं को लेकर किसी ऐसे ही सिद्ध की सिद्धाई देखने के लिए गये थे जो चुटकी बजाते ही मनचाही वस्तुएँ दे देता था। उस समय रात के दस बजे थे। उन्होंने सोचा कि इससे ऐसी कोई चीज माँगे जिसे देने में इसको जरा विचार करना पड़े।

सिद्ध ने स्वागत कियाः "अच्छा ! संत लोग आये हो। कैसे हो ?"
संतों ने कहाः "ठीक है, महाराज ! आपका नाम सुनकर आये हैं। भूखे हैं, भोजन करा दो।"
सिद्ध ने पूछाः "क्या खाओगे ?"
संतजनः "मालपूए खाने की इच्छा है, महाराज !"
सिद्धः "अच्छा ! रात को दस बजे साधुओं को मालपूए खाना है ? चलो, ठीक है।" उसने संतों को थोड़ा बातों में लगा दिया और अपनी ओर से भीतर जो भी संकल्प करना था, वह कर दिया। उन्होंने आकाश में हाथ घुमाया और दस लोग जितने मालपूए खा सकें, इतने मालपूए आ गये। दसों साधुओं ने मालपूए खाए, स्वाद भी आया, भूख भी मिटी और नींद भी आई। यह कोई स्वप्न या हिप्नोटिज्म नहीं था, उन्होंने सचमुच में मालपूए खाये थे।

अखंडानंदजी के ही शब्दों में- "प्रातः जब हम लोग मालपूए खाली करने, लोटा लेकर गाँव के बाहर की ओर गये तो देखा कि उधर दो मेहतरानी (हरिजन बाई) आपस में झगड़ा कर रही थीं। एक बाई दूसरी से कह रही थीः "तेरी नजर पड़ती है और मेरी चीजें चोरी हो जाती हैं।"
दूसरीः "मैं जानती ही नहीं की तेरे मालपूए कहाँ गये। मैंने तो देखे भी नहीं।"
पहलीः "तू झूठ बोलती है, रांड ! कल शादी थी और बारातियों के जूठन में से तथा इधर उधर से माँगकर बड़ी मेहनत से मैं दस आदमी भरपेट खा सके, इतनी बड़ी थाली भर के मालपूए लाई थी और सारे के सारे मालपूए तसले सहित गायब हो गये। एक भी नहीं बचा। तो क्या भूत ले गये या डाकिन ले गई ? रांड ! तू ही ले गई होगी।"
साधू बाबा सोचते हैं- 'न यह रांड ले गई न कोई डाकिन ले गई। मालपूए तो भूत उठाकर लाया और हमने खाये। मालपूए तो खाली हो गये लेकिन ग्लानि खाली करने में बड़ा परिश्रम लगा। धत्त तेरी की ! यह तो भूत सिद्धि है भाई !'
चुटकी बजाकर यूँ चीज आदि दे देना तो अलग सिद्धियाँ हैं, आत्मसिद्धि नहीं। इससे सामने वाला प्रभावित तो होगा, थोड़ी देर वाह-वाही करेगा लेकिन जिसकी वाह-वाही हुई वह शरीर तो जल जायेगा और जो वाह-वाही करेगा उसका भी कल्याण नहीं होगा। उसे आत्मज्ञान और आत्मशांति भी नहीं मिलेगी। आप देव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, भूत आदि को पूजकर वश में करके भभूत, रिंग या मालपूए मँगाकर दो यह तो ठीक है लेकिन इससे ईश्वर का साक्षात्कार नहीं होगा।
अफ्रीका में नैरोबी से करीब 350 कि.मी. दूर मोंबासा में पुनीत महाराज के भक्तों का पुनीत भक्त मंडल चलता है। वे गुजराती लोग थे और सत्संगी थे। उन्होंने मुझे बतायाः
"स्वामी जी ! दो-चार दिन पहले भारत का एक डुप्लीकेट साईंबाबा, भभूत निकालनेवाला आया था। हमारे सम्मुख भभूत निकालकर वह अपने चमत्कार का प्रभाव दिखा रहा था।"
मैंने पूछाः "फिर क्या हुआ ?"
वे बोलेः "बाबाजी ! हम तो सत्संगी हैं। हमें इन चमत्कारों से, भभूत आदि से कोई प्रभावित नहीं कर सकता।"
मैंने पूछाः "फिर तुमने क्या कहा उसे ?"
वे बोलेः "हमने कहाः बाबा ! आप भभूत निकालते हैं, ठीक है.... लेकिन इससे तो अच्छा यह है कि हिन्दुस्तान के कच्छ में अकाल पड़ा है, वहाँ अपने चमत्कार से जरा गेहूँ निकालकर लोगों की भूख मिटाओ। इस भभूत से क्या होगा ?"
कहने का तात्पर्य यह है कि भक्ति, योग और ज्ञान की सिद्धि के आगे अन्य सभी सिद्धियाँ छोटी हो जाती हैं। भक्ति भगवान से मिलाती है, योग भगवान में बिठाता है और ज्ञान भगवान के स्वरूप का साक्षात्कार करा देता है।

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बुधवार, जून 16, 2010

आसाराम की आशा

भगवन्नाम के कीर्तन में मांगल्य होता है। सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति भी एक दिन इससे ही जगती है।
चैतन्य महाप्रभु बंगाल मे हरि बोल... हरि बोल...... करते हुए कीर्तन करते तो कई बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों ने उन्हें टोका किः "तुम दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्र के इतने बड़े धुरन्धर विद्वान होने के बाद भी बालकों की तरह हरि बोल.... हरि बोल... .कर रहे हो ? हमें देखो ! कैसे महामंडलेश्वर 1008 विश्वगुरू, जगदगुरू होकर बैठे हैं और तुम हो कि बच्चों जैसी तालियाँ बजा रहे हो। जरा अपनी इज्जत का तो ख्याल रखो ! इतने बड़े विद्वान हो फिर भी ऐसा करते हो ?"
 
गौरांग ने कहाः "मैंने ऐसा विद्वान होकर देख लिया। न्यायशास्त्र का बड़े से बड़ा ग्रन्थ भी पढ़कर देख लिया लेकिन सारी विद्वता तब तक अन्याय ही है जब तक कि मनुष्य ने अपने आत्मरस को नहीं जगाया। पृथ्वी का आधार जल है, जल का आधार तेज है, तेज का आधार वायु है, वायु का आधार आकाश है, आकाश का आधार महत्तत्व है, महत्तत्व का आधार प्रकृति है, प्रकृति का आधार परमात्मा है और परमात्मा को जानना ही न्याय है, बाकी सब अन्याय है।"
 
गौरांग को जिन दिनों वैराग्य हुआ था उन दिनों विद्यार्थियों को वे ऐसा ही बताते थे। क्लास के विद्यार्थी कहते किः "यदि आप हमें ऐसा ही पढ़ाएँगे तो परीक्षा में हमें नंबर ही नहीं मिलेंगे।" तब गौरांग कहतेः "परीक्षा में भले नंबर न मिलें लेकिन यह बात समझ ली तो परमात्मा पूरे नंबर देगा।"
अपने परमात्मा को जानना न्याय है, बाकी सब अन्याय है। कितना भी खा लिया, घूम लिया, कितनी भी चतुराई कर ली.... अंत में क्या ? तुलसीदास जी कहते हैं-

चतुराई चूल्हे पड़ी, पूर पयों आचार।
तुलसी हरि के भजन बिन, चारों वरन चमार।।

शिवजी ने पार्वती से कहाः
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजनु जगत सब सपना।।
'अजी ! हमारी तो फलानी-फलानी दुकान थी...... फिर हमारी फैक्ट्री हो गई..... फिर हमारी ये हो गई वह... वह हो गई....' लेकिन अंत में देखो तो आँख बन्द हो जाएगी भैया ! सब सपना हो जाएगा।
 
सुबह का बचपन हँसते देखा, दोपहर की मस्त जवानी।
शाम का बुढ़ापा ढलते देखा, रात को खतम कहानी।।
 
इस शरीर की कहानी खत्म हो जाए उसके पहले तुम्हारे और परमात्मा के बीच का पर्दा खत्म हो जाये, ऐसी आसाराम की आशा है।
यह पर्दा ही हमें परेशान कर रहा है। यह कोई एक दिन में हटता भी नहीं है। जैसे अनपढ़ बालक है तो उस पर से अशिक्षा का पर्दा एक दिन में हटता नहीं है। पढ़ते-पढ़ते-पढ़ते वह इतना विद्वान हो जाता है कि फिर आप उसे अनपढ़ नहीं कह सकते हो। ऐसे ही आत्मज्ञानी महापुरूषों का सत्संग सुनते-सुनते, सेवा-सत्कर्म करते-करते, पाप-ताप काटते-काटते, अविद्या का हिस्सा कटते-कटते जब साधक ब्रह्मविद्या में पूर्ण हो जाता है तो ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है। ज्ञान होता है तो फिर जीव अज्ञानी नहीं रहता है, ब्रह्मज्ञानी हो जाता है।
ब्रह्मज्ञानी की महिमा वशिष्ठजी तो करते ही हैं, कृष्ण जी युद्ध के मैदान में ब्रह्मज्ञानी की महिमा किये बिना नहीं रहते।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
 
'जो योगी निरंतर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए हैं और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'  (गीताः 12.14)
 
अर्जुन के आगे श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञान की महिमा गाते हैं। अर्जुन पूछता हैः "ऐसा स्थितप्रज्ञ कौन है जिसकी आप प्रशंसा कर रहे हैं।"
 
श्रीकृष्ण कहते हैं-
प्रजाहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
'हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरूष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।' (गीताः 2.55)

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मंगलवार, जून 15, 2010

लक्ष्मी शील के पीछे ......

जिस मनुष्य में शील है वह सब चीजों का अधिकारी है। उसके पास शील के साथ धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी बराबर निवास करते हैं। वह हमेशा अपने शील के प्रभाव से सारे संसार में श्रेय पाता है। उसे हर व्यक्ति वन्दन करता है। उसके पास की इतनी बड़ी शक्ति हमेशा उसका साथ देती है जिससे कि उसके विचारों में कोई दुविधा उत्पन्न नहीं होती। वह किसी से भी ईर्ष्या, द्वेष और राग नहीं करता, न तो किसी पर क्रोध करता है, न किसी से उद्विग्न होता है। अपने ज्ञान के बल पर वह दूसरों से सदव्यवहार ही करता है। जिस देश या समाज में ऐसे महापुरूष होते हैं, वह देश या समाज धन्य हो जाता है।

महाभारत का प्रसंग हैः

इन्द्रप्रस्थ में राजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय सभामण्डप को नाना प्रकार के उपकरणों से सजाया गया। उन्हें देखकर दुर्योधन को बड़ा सन्ताप हुआ। वहाँ से लौटने पर अपने पिता धृतराष्ट्र से उसने ये सब बातें कहीं। तब धृतराष्ट्र ने कहाः

"बेटा ! यदि तुम युधिष्ठिर की भाँति या उनसे भी आगे बढ़कर राजलक्ष्मी पाना चाहते हो तो शीलवान् बनो। शील से तीनों लोक जीते जा सकते हैं। शीलवानों के लिए इस संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। महाभाग ने सात रातों में, जन्मेजय ने तीन रातों में और मान्धाता ने एक ही रात में इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया था। वे सभी राजा शीलवान् तथा दयालु थे। अतः उनके द्वारा गुणों के मोल खरीदी हुई यह पृथ्वी स्वयं ही उनके पास आ गई थी।''

दुर्योधन ने पूछाः "महाराज ! जिसके द्वारा उन राजाओं ने शीघ्र ही भूमण्डल का राज्य पा लिया, वह शील कैसे प्राप्त होता है ?"
धृतराष्ट्र बोलेः "वत्स ! इसके विषय में एक इतिहास है, जिसे नारदजी ने सुनाया था।
प्राचीन समय की बात है। दैत्यराज प्रह्लाद ने अपने शील के प्रभाव से इन्द्र का राज्य ले लिया और तीनों लोगों को अपने वश में कर शासन करने लगा। उस समय इन्द्र ने बृहस्पति जी के पास जाकर उनसे ऐश्वर्य-प्राप्ति का उपाय पूछा और बृहस्पति ने उन्हें इस विषय का विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिए शुक्राचार्य के पास जाने की आज्ञा दी। इन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक शुक्राचार्य के पास जाकर फिर वही प्रश्न दोहराया। शुक्राचार्य जी बोलेः "इसका विशेष ज्ञान महात्मा प्रह्लाद को ही है।"
यह सुनकर इन्द्र बहुत खुश हुए और ब्राह्मण का रूप धारण कर प्रह्लाद के पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहाः
"राजन ! मैं श्रेय प्राप्ति का उपाय जानना चाहता हूँ। आप बताने की कृपा करें।"
प्रह्लाद ने कहाः "विप्रवर ! मैं तीनों लोकों के राज्यों का प्रबन्ध करने में व्यस्त रहता हूँ इसलिए मेरे पास आपका उपदेश देने का समय नहीं है।"
ब्राह्मण ने कहाः "महाराज ! जब समय मिले तभी मैं आपसे उत्तम आचरण का उपदेश लेना चाहता हूँ।"
ब्राह्मण की सच्ची निष्ठा देखकर प्रह्लाद बड़े प्रसन्न हुए और शुभ समय आने पर उन्होंने उसे ज्ञान का तत्त्व समझाया। ब्राह्मण ने भी अपनी उत्तम गुरूभक्ति का परिचय दिया। उसने प्रहलाद की इच्छानुसार न्यायोचित रीति से भलीभाँति उनकी सेवा की। फिर समय पाकर उनसे अनेकों बार यह प्रश्न कियाः
"त्रिभुवन का उत्तम राज्य आपको कैसे मिला ? इसका रहस्य बताइये।"
प्रह्लाद ने कहाः "विप्रवर ! मैं राजा हूँ, इस अभिमान में आकर किसी ब्राह्मण की निन्दा नहीं करता। शुक्राचार्य जब मुझे नीति का उपदेश करते हैं उस समय मैं संयमपूर्वक उनकी बातें सुनता हूँ, उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करता हूँ। शुक्राचार्य जी के बताये हुए नीतिमार्ग पर यथा शक्ति चलता हूँ। ब्राह्मणों की सेवा करता हूँ। क्रोध को जीतकर मन को काबू में रखकर इन्द्रियों को भी सदा वश में किये रहता हूँ। मेरे इस बर्ताव को जानकर ही विद्वान मुझे अच्छे-अच्छे उपदेश दिया करते हैं और मैं उनके वचनामृत का पान करता रहता हूँ। इसलिए जैसे चन्द्रमा नक्षत्रों पर शासन करते हैं उसी प्रकार मैं भी अपने जातिवालों पर राज्य करता हूँ। शुक्राचार्य जी का नीतिशास्त्र ही इस भूमण्डल का अमृत है, यह उत्तम नेत्र है और यही श्रेय-प्राप्ति का उत्तम उपाय है।"
प्रह्लाद से इस प्रकार उपदेश पाकर भी वह ब्राह्मण उनकी सेवा में लगा ही रहा। तब प्रह्लाद ने कहाः
"विप्रवर ! तुमने गुरू के रूप में मेरी सेवा की है। तुम्हारे इस बर्ताव से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वह माँग लो, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।"
ब्राह्मण वेश में छुपे हुए इन्द्र ने कहाः "महाराज ! यदि आप प्रसन्न हैं और मेरा प्रिय करना चाहते हें तो मुझे आपका ही शील ग्रहण करने की इच्छा है। वही वर दीजिए।"
यह सुनकर प्रह्लाद को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचाः "यह कोई साधारण मनुष्य नहीं होगा।" फिर भी तथास्तु कहकर उसे वर दे दिया। वर पाकर विप्र-वेशधारी इन्द्र तो चले गये, परन्तु प्रह्लाद के मन में बड़ी चिन्ता हुई। सोचने सगे कि क्या करना चाहिए मगर किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। इतने में उनके शरीर से एक परम कांतिमान्, तेजस्वी और मूर्तिमान छाया प्रकट हुई। उसे देखकर प्रह्लाद ने पूछाः

"आप कौन हैं ?"
"मैं शील हूँ। तुमने मुझे त्याग दिया इसलिए जा रहा हूँ। अब उसी ब्राह्मण के शरीर में निवास करूँगा जो तुम्हारा शिष्य बनकर एकाग्र चित्त से सेवापरायण हो यहाँ रहा करता था।" यह कहकर वह तेज वहाँ से अदृश्य हो गया और इन्द्र के शरीर में प्रवेश कर गया।
उसके अदृश्य होते ही उसी तरह का दूसरा तेज प्रह्लाद के शरीर से प्रकट हुआ। प्रह्लाद ने पूछाः "आप कौन हैं ?"

"प्रह्लाद ! मुझे धर्म समझो। मैं भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मण के पास जा रहा हूँ, क्योंकि जहाँ शील होता है, वहीं मैं भी रहता हूँ।"

वह विदा हुआ तो तीसरा तेजोमय विग्रह प्रकट हुआ। उससे भी प्रश्न पूछा गयाः

"आप कौन हैं ?"

"असुरेन्द्र ! मैं सत्य हूँ और धर्म के पीछे जा रहा हूँ।

सत्य के जाने पर एक और महाबली पुरूष प्रकट हुआ और पूछने पर उसने कहा-
"प्रह्लाद ! मुझे सदाचार कहते हैं। जहाँ सत्य हो वहीं मैं भी रहता हूँ।"

उसके चले जाने पर प्रह्लाद के शरीर से बड़ी गर्जना करता हुआ एक तेजस्वी पुरूष प्रकट हुआ। पूछने पर उसने बतायाः
"मैं बल हूँ और जहाँ सदाचार गया है वहीं स्वयं मैं भी जा रहा हूँ।" वह चला गया।

तत्पश्चात प्रह्लाद के शरीर से एक प्रभामयी देवी प्रकट हुई। पूछने पर उन्होंने बतायाः
"मैं लक्ष्मी हूँ। तुमने मुझे त्याग दिया है इसलिए यहाँ से जा रही हूँ क्योंकि जहाँ बल रहता है, वहीं मैं भी रहती हूँ।
प्रह्लाद ने पुनः पूछाः "देवी आप कहाँ जाती हैं ? वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था ? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूँ।
लक्ष्मी बोलीः "तुमने जिसे उपदेश दिया है उस ब्राह्मण के रूप में साक्षात इन्द्र थे। तीनों लोकों में जो तुम्हारा ऐश्वर्य फैला हुआ था, वह उन्होंने हर लिया। हे धर्मज्ञ ! तुमने शील के द्वारा तीनों लोकों पर विजय पायी थी, यह जानकर इन्द्र ने तुम्हारे शील का अपहरण किया है। धर्म, सत्य, सदाचार, बल और मैं (लक्ष्मी) यह सब शील के ही आधार पर रहते हैं। शील ही सबका मूल है।"
यह कहकर लक्ष्मी आदि सब शील के पीछे चले गये।

इस कथा को सुनकर दुर्योधन ने पुनः अपने पिता से पूछाः

"हे तात ! मैं शील का तत्त्व जानना चाहता हूँ। मुझे समझाइये और जिस तरह उसकी प्राप्ति हो सके वह उपाय भी बताइये।"

धृतराष्ट्र ने कहाः "शील का स्वरूप और उसे पाने का उपाय ये दोनों बातें महात्मा प्रह्लाद की कथा से पहले ही प्रकट हुई हैं। मैं संक्षेप में शील की प्राप्ति का उपायमात्र बता रहा हूँ। ध्यान देकर सुनो।

मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करो। सब पर दया करो। अपनी शक्ति के अनुसार दान दो। परस्त्री को माता के समान समझो। ऐसा कार्य करो कि चार सत्पुरूषें की सभा में प्रशंसा हो। ऐसा कार्य कभी न करो कि चार सत्पुरूषों की सभा में सिर नीचा करना पड़े। गुरूजनों का आदर करो। यही वह उत्तम शील है जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं। अपने जिस किसी कार्य या पुरूषार्थ से दूसरों का हित न होता हो तथा जिसे करनें में संकोच का सामना करना पड़े वह सब किसी तरह भी नहीं करना चाहिए। जिस काम को जिस तरह करने से मानव-समाज में प्रशंसा हो, मानव-समाज का कल्याण हो, उसी तरह करना चाहिए। इस तत्त्व को ठीक से समझ लो। यदि युधिष्ठिर से भी अच्छी सम्पत्ति पाना चाहते हो तो शीलवान् बनो।"

इस कथा से शील का महत्त्व प्रकट होता है। मनुष्य अपने शील को कभी न छोड़ते हुए सब प्राणियों का हित चाहे, दूसरों के संकट में सहायक बने और अपने मन से उदारता का बर्ताव करे, बड़ों का सम्मान करे, गुणीजनों की पूजा करे और शील का महत्त्व समझकर अपने को प्राणीमात्र का सेवक समझे।

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