मंगलवार, जून 15, 2010

लक्ष्मी शील के पीछे ......

जिस मनुष्य में शील है वह सब चीजों का अधिकारी है। उसके पास शील के साथ धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी बराबर निवास करते हैं। वह हमेशा अपने शील के प्रभाव से सारे संसार में श्रेय पाता है। उसे हर व्यक्ति वन्दन करता है। उसके पास की इतनी बड़ी शक्ति हमेशा उसका साथ देती है जिससे कि उसके विचारों में कोई दुविधा उत्पन्न नहीं होती। वह किसी से भी ईर्ष्या, द्वेष और राग नहीं करता, न तो किसी पर क्रोध करता है, न किसी से उद्विग्न होता है। अपने ज्ञान के बल पर वह दूसरों से सदव्यवहार ही करता है। जिस देश या समाज में ऐसे महापुरूष होते हैं, वह देश या समाज धन्य हो जाता है।

महाभारत का प्रसंग हैः

इन्द्रप्रस्थ में राजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय सभामण्डप को नाना प्रकार के उपकरणों से सजाया गया। उन्हें देखकर दुर्योधन को बड़ा सन्ताप हुआ। वहाँ से लौटने पर अपने पिता धृतराष्ट्र से उसने ये सब बातें कहीं। तब धृतराष्ट्र ने कहाः

"बेटा ! यदि तुम युधिष्ठिर की भाँति या उनसे भी आगे बढ़कर राजलक्ष्मी पाना चाहते हो तो शीलवान् बनो। शील से तीनों लोक जीते जा सकते हैं। शीलवानों के लिए इस संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। महाभाग ने सात रातों में, जन्मेजय ने तीन रातों में और मान्धाता ने एक ही रात में इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया था। वे सभी राजा शीलवान् तथा दयालु थे। अतः उनके द्वारा गुणों के मोल खरीदी हुई यह पृथ्वी स्वयं ही उनके पास आ गई थी।''

दुर्योधन ने पूछाः "महाराज ! जिसके द्वारा उन राजाओं ने शीघ्र ही भूमण्डल का राज्य पा लिया, वह शील कैसे प्राप्त होता है ?"
धृतराष्ट्र बोलेः "वत्स ! इसके विषय में एक इतिहास है, जिसे नारदजी ने सुनाया था।
प्राचीन समय की बात है। दैत्यराज प्रह्लाद ने अपने शील के प्रभाव से इन्द्र का राज्य ले लिया और तीनों लोगों को अपने वश में कर शासन करने लगा। उस समय इन्द्र ने बृहस्पति जी के पास जाकर उनसे ऐश्वर्य-प्राप्ति का उपाय पूछा और बृहस्पति ने उन्हें इस विषय का विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिए शुक्राचार्य के पास जाने की आज्ञा दी। इन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक शुक्राचार्य के पास जाकर फिर वही प्रश्न दोहराया। शुक्राचार्य जी बोलेः "इसका विशेष ज्ञान महात्मा प्रह्लाद को ही है।"
यह सुनकर इन्द्र बहुत खुश हुए और ब्राह्मण का रूप धारण कर प्रह्लाद के पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहाः
"राजन ! मैं श्रेय प्राप्ति का उपाय जानना चाहता हूँ। आप बताने की कृपा करें।"
प्रह्लाद ने कहाः "विप्रवर ! मैं तीनों लोकों के राज्यों का प्रबन्ध करने में व्यस्त रहता हूँ इसलिए मेरे पास आपका उपदेश देने का समय नहीं है।"
ब्राह्मण ने कहाः "महाराज ! जब समय मिले तभी मैं आपसे उत्तम आचरण का उपदेश लेना चाहता हूँ।"
ब्राह्मण की सच्ची निष्ठा देखकर प्रह्लाद बड़े प्रसन्न हुए और शुभ समय आने पर उन्होंने उसे ज्ञान का तत्त्व समझाया। ब्राह्मण ने भी अपनी उत्तम गुरूभक्ति का परिचय दिया। उसने प्रहलाद की इच्छानुसार न्यायोचित रीति से भलीभाँति उनकी सेवा की। फिर समय पाकर उनसे अनेकों बार यह प्रश्न कियाः
"त्रिभुवन का उत्तम राज्य आपको कैसे मिला ? इसका रहस्य बताइये।"
प्रह्लाद ने कहाः "विप्रवर ! मैं राजा हूँ, इस अभिमान में आकर किसी ब्राह्मण की निन्दा नहीं करता। शुक्राचार्य जब मुझे नीति का उपदेश करते हैं उस समय मैं संयमपूर्वक उनकी बातें सुनता हूँ, उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करता हूँ। शुक्राचार्य जी के बताये हुए नीतिमार्ग पर यथा शक्ति चलता हूँ। ब्राह्मणों की सेवा करता हूँ। क्रोध को जीतकर मन को काबू में रखकर इन्द्रियों को भी सदा वश में किये रहता हूँ। मेरे इस बर्ताव को जानकर ही विद्वान मुझे अच्छे-अच्छे उपदेश दिया करते हैं और मैं उनके वचनामृत का पान करता रहता हूँ। इसलिए जैसे चन्द्रमा नक्षत्रों पर शासन करते हैं उसी प्रकार मैं भी अपने जातिवालों पर राज्य करता हूँ। शुक्राचार्य जी का नीतिशास्त्र ही इस भूमण्डल का अमृत है, यह उत्तम नेत्र है और यही श्रेय-प्राप्ति का उत्तम उपाय है।"
प्रह्लाद से इस प्रकार उपदेश पाकर भी वह ब्राह्मण उनकी सेवा में लगा ही रहा। तब प्रह्लाद ने कहाः
"विप्रवर ! तुमने गुरू के रूप में मेरी सेवा की है। तुम्हारे इस बर्ताव से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वह माँग लो, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।"
ब्राह्मण वेश में छुपे हुए इन्द्र ने कहाः "महाराज ! यदि आप प्रसन्न हैं और मेरा प्रिय करना चाहते हें तो मुझे आपका ही शील ग्रहण करने की इच्छा है। वही वर दीजिए।"
यह सुनकर प्रह्लाद को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचाः "यह कोई साधारण मनुष्य नहीं होगा।" फिर भी तथास्तु कहकर उसे वर दे दिया। वर पाकर विप्र-वेशधारी इन्द्र तो चले गये, परन्तु प्रह्लाद के मन में बड़ी चिन्ता हुई। सोचने सगे कि क्या करना चाहिए मगर किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। इतने में उनके शरीर से एक परम कांतिमान्, तेजस्वी और मूर्तिमान छाया प्रकट हुई। उसे देखकर प्रह्लाद ने पूछाः

"आप कौन हैं ?"
"मैं शील हूँ। तुमने मुझे त्याग दिया इसलिए जा रहा हूँ। अब उसी ब्राह्मण के शरीर में निवास करूँगा जो तुम्हारा शिष्य बनकर एकाग्र चित्त से सेवापरायण हो यहाँ रहा करता था।" यह कहकर वह तेज वहाँ से अदृश्य हो गया और इन्द्र के शरीर में प्रवेश कर गया।
उसके अदृश्य होते ही उसी तरह का दूसरा तेज प्रह्लाद के शरीर से प्रकट हुआ। प्रह्लाद ने पूछाः "आप कौन हैं ?"

"प्रह्लाद ! मुझे धर्म समझो। मैं भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मण के पास जा रहा हूँ, क्योंकि जहाँ शील होता है, वहीं मैं भी रहता हूँ।"

वह विदा हुआ तो तीसरा तेजोमय विग्रह प्रकट हुआ। उससे भी प्रश्न पूछा गयाः

"आप कौन हैं ?"

"असुरेन्द्र ! मैं सत्य हूँ और धर्म के पीछे जा रहा हूँ।

सत्य के जाने पर एक और महाबली पुरूष प्रकट हुआ और पूछने पर उसने कहा-
"प्रह्लाद ! मुझे सदाचार कहते हैं। जहाँ सत्य हो वहीं मैं भी रहता हूँ।"

उसके चले जाने पर प्रह्लाद के शरीर से बड़ी गर्जना करता हुआ एक तेजस्वी पुरूष प्रकट हुआ। पूछने पर उसने बतायाः
"मैं बल हूँ और जहाँ सदाचार गया है वहीं स्वयं मैं भी जा रहा हूँ।" वह चला गया।

तत्पश्चात प्रह्लाद के शरीर से एक प्रभामयी देवी प्रकट हुई। पूछने पर उन्होंने बतायाः
"मैं लक्ष्मी हूँ। तुमने मुझे त्याग दिया है इसलिए यहाँ से जा रही हूँ क्योंकि जहाँ बल रहता है, वहीं मैं भी रहती हूँ।
प्रह्लाद ने पुनः पूछाः "देवी आप कहाँ जाती हैं ? वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था ? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूँ।
लक्ष्मी बोलीः "तुमने जिसे उपदेश दिया है उस ब्राह्मण के रूप में साक्षात इन्द्र थे। तीनों लोकों में जो तुम्हारा ऐश्वर्य फैला हुआ था, वह उन्होंने हर लिया। हे धर्मज्ञ ! तुमने शील के द्वारा तीनों लोकों पर विजय पायी थी, यह जानकर इन्द्र ने तुम्हारे शील का अपहरण किया है। धर्म, सत्य, सदाचार, बल और मैं (लक्ष्मी) यह सब शील के ही आधार पर रहते हैं। शील ही सबका मूल है।"
यह कहकर लक्ष्मी आदि सब शील के पीछे चले गये।

इस कथा को सुनकर दुर्योधन ने पुनः अपने पिता से पूछाः

"हे तात ! मैं शील का तत्त्व जानना चाहता हूँ। मुझे समझाइये और जिस तरह उसकी प्राप्ति हो सके वह उपाय भी बताइये।"

धृतराष्ट्र ने कहाः "शील का स्वरूप और उसे पाने का उपाय ये दोनों बातें महात्मा प्रह्लाद की कथा से पहले ही प्रकट हुई हैं। मैं संक्षेप में शील की प्राप्ति का उपायमात्र बता रहा हूँ। ध्यान देकर सुनो।

मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करो। सब पर दया करो। अपनी शक्ति के अनुसार दान दो। परस्त्री को माता के समान समझो। ऐसा कार्य करो कि चार सत्पुरूषें की सभा में प्रशंसा हो। ऐसा कार्य कभी न करो कि चार सत्पुरूषों की सभा में सिर नीचा करना पड़े। गुरूजनों का आदर करो। यही वह उत्तम शील है जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं। अपने जिस किसी कार्य या पुरूषार्थ से दूसरों का हित न होता हो तथा जिसे करनें में संकोच का सामना करना पड़े वह सब किसी तरह भी नहीं करना चाहिए। जिस काम को जिस तरह करने से मानव-समाज में प्रशंसा हो, मानव-समाज का कल्याण हो, उसी तरह करना चाहिए। इस तत्त्व को ठीक से समझ लो। यदि युधिष्ठिर से भी अच्छी सम्पत्ति पाना चाहते हो तो शीलवान् बनो।"

इस कथा से शील का महत्त्व प्रकट होता है। मनुष्य अपने शील को कभी न छोड़ते हुए सब प्राणियों का हित चाहे, दूसरों के संकट में सहायक बने और अपने मन से उदारता का बर्ताव करे, बड़ों का सम्मान करे, गुणीजनों की पूजा करे और शील का महत्त्व समझकर अपने को प्राणीमात्र का सेवक समझे।

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