बुधवार, जून 16, 2010

आसाराम की आशा

भगवन्नाम के कीर्तन में मांगल्य होता है। सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति भी एक दिन इससे ही जगती है।
चैतन्य महाप्रभु बंगाल मे हरि बोल... हरि बोल...... करते हुए कीर्तन करते तो कई बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों ने उन्हें टोका किः "तुम दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्र के इतने बड़े धुरन्धर विद्वान होने के बाद भी बालकों की तरह हरि बोल.... हरि बोल... .कर रहे हो ? हमें देखो ! कैसे महामंडलेश्वर 1008 विश्वगुरू, जगदगुरू होकर बैठे हैं और तुम हो कि बच्चों जैसी तालियाँ बजा रहे हो। जरा अपनी इज्जत का तो ख्याल रखो ! इतने बड़े विद्वान हो फिर भी ऐसा करते हो ?"
 
गौरांग ने कहाः "मैंने ऐसा विद्वान होकर देख लिया। न्यायशास्त्र का बड़े से बड़ा ग्रन्थ भी पढ़कर देख लिया लेकिन सारी विद्वता तब तक अन्याय ही है जब तक कि मनुष्य ने अपने आत्मरस को नहीं जगाया। पृथ्वी का आधार जल है, जल का आधार तेज है, तेज का आधार वायु है, वायु का आधार आकाश है, आकाश का आधार महत्तत्व है, महत्तत्व का आधार प्रकृति है, प्रकृति का आधार परमात्मा है और परमात्मा को जानना ही न्याय है, बाकी सब अन्याय है।"
 
गौरांग को जिन दिनों वैराग्य हुआ था उन दिनों विद्यार्थियों को वे ऐसा ही बताते थे। क्लास के विद्यार्थी कहते किः "यदि आप हमें ऐसा ही पढ़ाएँगे तो परीक्षा में हमें नंबर ही नहीं मिलेंगे।" तब गौरांग कहतेः "परीक्षा में भले नंबर न मिलें लेकिन यह बात समझ ली तो परमात्मा पूरे नंबर देगा।"
अपने परमात्मा को जानना न्याय है, बाकी सब अन्याय है। कितना भी खा लिया, घूम लिया, कितनी भी चतुराई कर ली.... अंत में क्या ? तुलसीदास जी कहते हैं-

चतुराई चूल्हे पड़ी, पूर पयों आचार।
तुलसी हरि के भजन बिन, चारों वरन चमार।।

शिवजी ने पार्वती से कहाः
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजनु जगत सब सपना।।
'अजी ! हमारी तो फलानी-फलानी दुकान थी...... फिर हमारी फैक्ट्री हो गई..... फिर हमारी ये हो गई वह... वह हो गई....' लेकिन अंत में देखो तो आँख बन्द हो जाएगी भैया ! सब सपना हो जाएगा।
 
सुबह का बचपन हँसते देखा, दोपहर की मस्त जवानी।
शाम का बुढ़ापा ढलते देखा, रात को खतम कहानी।।
 
इस शरीर की कहानी खत्म हो जाए उसके पहले तुम्हारे और परमात्मा के बीच का पर्दा खत्म हो जाये, ऐसी आसाराम की आशा है।
यह पर्दा ही हमें परेशान कर रहा है। यह कोई एक दिन में हटता भी नहीं है। जैसे अनपढ़ बालक है तो उस पर से अशिक्षा का पर्दा एक दिन में हटता नहीं है। पढ़ते-पढ़ते-पढ़ते वह इतना विद्वान हो जाता है कि फिर आप उसे अनपढ़ नहीं कह सकते हो। ऐसे ही आत्मज्ञानी महापुरूषों का सत्संग सुनते-सुनते, सेवा-सत्कर्म करते-करते, पाप-ताप काटते-काटते, अविद्या का हिस्सा कटते-कटते जब साधक ब्रह्मविद्या में पूर्ण हो जाता है तो ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है। ज्ञान होता है तो फिर जीव अज्ञानी नहीं रहता है, ब्रह्मज्ञानी हो जाता है।
ब्रह्मज्ञानी की महिमा वशिष्ठजी तो करते ही हैं, कृष्ण जी युद्ध के मैदान में ब्रह्मज्ञानी की महिमा किये बिना नहीं रहते।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
 
'जो योगी निरंतर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए हैं और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'  (गीताः 12.14)
 
अर्जुन के आगे श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञान की महिमा गाते हैं। अर्जुन पूछता हैः "ऐसा स्थितप्रज्ञ कौन है जिसकी आप प्रशंसा कर रहे हैं।"
 
श्रीकृष्ण कहते हैं-
प्रजाहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
'हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरूष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।' (गीताः 2.55)

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