शुक्रवार, जून 18, 2010

प्रतिष्ठा के लिए ईश्वर मत छोड़ देना !

जिनको मनुष्य जन्म की महत्ता का पता नहीं, वे लोग देह के मान में, देह के सुख में, देह की सुविधा में अपनी अक्ल, अपना धन, अपना सर्वस्व लुटा देते हैं। जिनको अपने जीवन की महत्ता का पता है, जिन्हें वृद्धावस्था दिखती है, मौत दिखती है, बाल्यावस्था का, गर्भावास का दुःख जिन्हें दिखता है, विवेक से जिन्हें संसार की नश्वरता दिखती है एवं संसार के सब संबंध स्वप्नवत दिखते हैं, ऐसे साधक मोह के आडंबर और विलास के जाल में न फँसकर परमात्मा की गहराई में जाने की कोशिश करते हैं।
जिस तरह भूखा मनुष्य भोजन के सिवाय अन्य किसी बात पर ध्यान नहीं देता है, प्यासा मनुष्य जिस तरह पानी की उत्कंठा रखता है, ऐसे ही विवेकवान साधक परमात्मशांतिरूपी पानी की उत्कंठा रखता है। जहाँ हरि की चर्चा नहीं, जहाँ आत्मा की बात नहीं वहाँ साधक व्यर्थ का समय नहीं गँवाता। जिन कार्यों को करने से चित्त परमात्मा की तरफ जावे ही नहीं, जो कर्म चित्त को परमात्मा से विमुख करता हो, सच्चा जिज्ञासु व सच्चा भक्त वह कर्म नहीं करता। जिस मित्रता से भगवद् प्राप्ति न हो, उस मित्रता को वह शूल की शैया समझता है।
सौ संगति जल जाय,
जिसमें कथा नहीं राम की।
बिन खेती, बिन बाड़ी के,
बाढ़ भला किस काम की।।
वे नूर बेनूर भले,
जिस नूर में पिया की प्यास नहीं।
यह जीवन नरक है,
जिस जीवन में प्रभुमिलन की आस नहीं।।
वह मति दुर्गति है, जिसमें परमात्मा की तड़प नहीं। वह जीवन व्यर्थ है जिस जीवन में ईश्वर के गीत गूँज न पाए। वह धन बोझा है जो आत्मधन कमाने के काम न आए। वह मन तुम्हारा शत्रु है जिस मन से तुम अपने आपसे मिल न पाओ। वह तन तुम्हारा शत्रु है जिस तन से तुम परमात्मा की ओर न चल पाओ। ऐसा जिनका अनुभव होता है वे साधक ज्ञान के अधिकारी होते हैं।
जो व्यक्ति देह के सुख, देह की प्रतिष्ठा, देह की पूजा, देह के ऐश तथा देह का आराम पाने के लिए धार्मिक होता है, वह अपने आपको ठगता है। देह को एकाग्र रखने का अभ्यास करो।
कई लोग घुटना व शरीर हिलाते रहते हैं, वे ध्यान के अधिकारी नहीं होते, योग के अधिकारी नहीं होते। मन को एकाग्र करने के लिए तन भी संयत होने चाहिए।
एक बार भगवान बुद्ध परम गहरी शांति का अनुभव लेकर भिक्षुकों को कुछ सुना रहे थे। सुनाते सुनाते बुद्ध एकाएक चुप हो गये, मौन हो गये। सभा विसर्जित हो गई। किसी की हिम्मत न हुई तथागत से कारण पूछने की। समय बीतने पर कोई ऐसा अवसर आया तब भिक्षुओं ने आदरसहित प्रार्थना कीः
"भन्ते ! उस दिन आप गंभीर विषय बोलते-बोलते अचानक चुप हो गये थे, क्या कारण था?"
बुद्ध ने कहा, "सुनने वाला कोई न था, इसलिए मैं चुप हो गया था।"
भिक्षुकों ने कहाः "हम तो थे।"
बुद्धः "नहीं। किसी का सिर हिल रहा था तो किसी का घुटना। तुम वहाँ न थे। आध्यात्मिक ज्ञान के लिए, चित्त तब तक एकाग्र नहीं होगा, जब तक शरीर की एकाग्रता सिद्ध न हो।"
आप अपने तन को, मन को स्वस्थ रखिये। संसार का सर्वस्व लुटाने पर भी यदि परमात्मा मिल जाय तो सौदा सस्ता है और सारे विश्व को पाने से यदि परमात्मा का वियोग होता है तो वह सौदा खतरनाक है। ईश्वर के लिए जगत को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेकिन जगत के लिए कभी ईश्वर को मत छोड़ देना मेरे भैया ! ॐ.....ॐ.....ॐ....
ईश्वर के लिए प्रतिष्ठा छोड़नी पड़े तो छोड़ देना लेकिन प्रतिष्ठा के लिए ईश्वर को मत छोड़ना। स्वास्थ्य और सौन्दर्य परमात्मा के लिए छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेकिन स्वास्थ्य और सौन्दर्य के लिए परमात्मा को मत छोड़ना क्योंकि एक न एक दिन वह स्वास्थ्य और सौन्दर्य, मित्र और सत्ता, पद और प्रतिष्ठा सब प्रकृति के तनिक से झटके से छूट जायेंगे। इसलिए तुम्हारा ध्यान हमेशा शाश्वत ईश्वर पर होना चाहिए। तुम्हारी मति में परमात्मा के सिवाय किसी अन्य वस्तु का मूल्य अधिक नहीं होना चाहिए।
जैसे समझदार आदमी वृद्धावस्था होने से पहले ही यात्रा कर लेता है, बुद्धि क्षीण होने के पूर्व ही बुद्धि में बाह्यी स्थिति पा लेता है, घर में आग लगने से पहले ही जैसे कुआँ खुदाया जाता है, भूख लगने से पहले जैसे भोजन की व्यवस्था की जाती है, ऐसे ही संसार से अलविदा होने के पहले ही जो उस प्यारे से संबंध बाँध लेता है, वही बुद्धिमान है और उसी का जन्म सार्थक है।
जिसने मौन का अवलंबन लिया है, जिसने अपने चंचल तन और मन को अखंड वस्तु में स्थिर करने के लिए अभ्यस्त किया है, वह शीघ्र ही आत्मरस का अमृतपान कर लेता है।
रविदास रात न सोइये, दिवस न लीजिये स्वाद।
निशदिन प्रभु को सुमरिये, छोड़ि सकल प्रतिवाद।।
कई रात्रियाँ तुमने सो-सोकर गुजार दीं और दिन में स्वाद ले लेकर तुम समाप्त होने को जा रहे हो। शरीर को स्वाद दिलाते-दिलाते तुम्हारी यह उम्र, यह शरीर बुढ़ापे की खाई में गिरने को जा रहा है। शरीर को सुलाते-सुलाते तुम्हारी वृद्धावस्था आ रही है। अंत में तो.... तुम लम्बे पैर करके सो जाओगे। जगाने वाले चिल्लायेंगे फिर भी तुम नहीं सुन पाओगे। डॉक्टर और हकीम तुम्हें छुड़ाना चाहेंगे रोग और मौत से, लेकिन नहीं छुड़ा पायेंगे। ऐसा दिन न चाहने पर भी आयेगा। जब तुम्हें स्मशान में लकड़ियों पर सोना पड़ेगा और अग्नि शरीर को स्वाहा कर देगी। एक दिन तो कब्र में सड़ने गलने को यह शरीर गाड़ना ही है। शरीर कब्र में जाए उसके पहले ही इसके अहंकार को कब्र में भेज दो..... शरीर चिता में जल जाये इसके पहले ही इसे ज्ञान की अग्नि में पकने दो।

मुझे वेद पुरान कुरान से क्या ?
मुझे प्रेम का पाठ पढ़ा दे कोई।।
मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं।
मुझे प्रभु के गीत सुना दे कोई।।
साधक की दृष्टि यही होती है। साधक का लक्ष्य परमात्मा होता है, दिखावा नहीं। साधक का जीवन स्वाभाविक होता है, आडंबरवाला नहीं। साधक की चेष्टाएँ ईश्वर के लिए होती हैं, दिखावे के लिए नहीं। साधक का खान-पान प्रभु को पाने में सहयोगी होता है, स्वाद के लिए नहीं। साधक की अक्ल संसार से पार होने के लिए होती है, संसार में डूबने के लिए नहीं। साधक की हर चेष्टा आत्मज्ञान के नजदीक जाने की होती है, आत्मज्ञान से दूर जाने की नहीं।
साँझ पड़ी दिन आथम्या, दीना चकवी रोय।
चलो चकवा वहाँ जाइये, जहाँ दिवस-रैन न होय।।

चकवा चकवी को समझाता हैः
रैन की बिछड़ी चाकवी, आन मिले प्रभात।
सत्य का बिछड़ा मानखा, दिवस मिले न ही रात।।
हे चिड़िया ! सन्ध्या हुई। तू मुझसे बिछड़ जायेगी, दूसरे घोंसले में चली जाएगी किन्तु प्रभात को तू फिर मुझे मिल जायेगी लेकिन मनुष्य जन्म पाकर भी उस सत्य स्वरूप परमात्मा के सत्य से बिछड़नेवाला मनुष्य पुनः सत्य से न सुबह मिलेगा, न शाम को, न रात में मिलेगा न दिन में।
सत्य का, परमात्मा का बलिदान देकर तुमने जो कुछ पाया है, वह सब तुमने अपने साथ जुल्म किया है। ईश्वर को छोड़कर यदि अन्यत्र कहीं तुम अपना दिल लगा रहे हो तो अपने साथ शत्रुता कर रहे हो, अन्याय कर रहे हो। ॐ....ॐ....ॐ....
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमसांदयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
'अपने द्वारा संसार-समुद्र से अपना उद्धार करें और अपने को अधोगति में न डालें क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।' (श्रीमद् भगवदगीताः 6.5)
हे अर्जुन ! तूने यदि अपने मालिक से मन लगाया और अपने मन को चंचलता से, हलन-चलन से तथा प्रकृति के बहाव से रोका तो तू अपने-आपका मित्र है और यदि प्रकृति के बहाव में बहा तो अपने-आपका शत्रु है।
यह मन यदि संसार में उलझता है तो अपना ही सत्यानाश करता है और परमात्मा में लगता है तो अपना और अपने संपर्क में आने वालों का बेड़ा पार करता है। इसलिए कदम-कदम पर सावधान होकर जीवन व्यतीत करो क्योंकि समय बड़ा मूल्यवान है। बीता हुआ क्षण, छूटा हुआ तीर और निकले शब्द कभी वापस नहीं आते। निकली हुई घड़ियाँ वापस नहीं आतीं।

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