सोमवार, मई 28, 2018

मनमुखी साधक सावधान

📖 *शास्त्रों का बोझा पटको, जीवंत महापुरुष की शरण लो |* 🌹

   🌷 *केसरी कुमार नाम के एक प्राध्यापक, जो स्वामी शरणानंद जी के भक्त थे, उन्होंने अपने जीवन की एक घटित घटना का जिक्र करते हुए लिखा कि मैं स्वामी श्री शरणानंद जी महाराज के पास बैठा हुआ था कि गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयाल गोयंदकाजी एकाएक आ गये। थोड़ी देर बैठने के पश्चात बोलेः “महाराज ! मैं वेद और उपनिषद चाट गया। शास्त्र-पुराण सब पढ़ लिये। अनेक ग्रंथ कंठाग्र हैं। वर्षों से कल्याण पत्रिका में असंख्य जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर देता रहा हूँ। किंतु महाराज ! मुझे कुछ हाथ नहीं लगा। मैं कोरा का कोरा हूँ।”*
*और वे अत्यन्त द्रवित हो गये। उन्हें अश्रुपात होने लगा।*

*मैंने एकांत में स्वामी जी से पूछाः* *“महाराज ! जब इन महानुभाव की यह दशा है, तब हम जैसों की आपके मार्ग में क्या गति होगी ?”*
*स्वामी जी एक क्षण चुप रहकर बोलेः “गोयंदकाजी के आँसुओं के रूप में धुआँ निकल रहा है भाई ! जो इस बात का लक्षण है कि लकड़ी में आग लग चुकी है। अध्ययन ईंधन है न, जले तो और न जले तो बंधन !”*

🌷 *मुझे चुप देखकर वे फिर ठहाका मारते हुए बोलेः “निराश न हो। तुम्हारे लिए भी एक नुस्खा है। भारी बोझ लेकर चलने वाले को देर होती ही है। गोयंदकाजी ने अपने माथे पर वेद-पुराणों का भारी गठ्ठर लाद रखा था, सो उन्हें पहुँचने में देर हो रही है। तुम्हारे माथे पर हलका बोझ है, जल्दी पहुँच जाओगे। बोझा पटक दो तो और जल्दी होगी। कार्तिकेय जी पृथ्वी परिक्रमा करते ही रहे और गणेश जी माता-पिता के चारों और घूमकर अव्वल हो गये।” (संदर्भः प्राकृत भारती अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित ‘तरुतले’ भाग-1)*

🌷 *प्राध्यापक केसरी कुमार के जीवन में घटी यह घटना एक बड़े रहस्य की ओर इंगित करती है।*
*स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं- “हम भाषण सुनते हैं और पुस्तकें पढ़ते हैं, परमात्मा और जीवात्मा, धर्म और मुक्ति के बारे में विवाद और तर्क करते हैं।* *यह आध्यात्मिकता नहीं है क्योंकि आध्यात्मिकता पुस्तकों में, सिद्धान्तों में अथवा दर्शनों में निवास नहीं करती। यह विद्वता और तर्क में नहीं वरन् वास्तविक अंतःविकास में होती है। मैंने सब धर्मग्रंथ पढ़े हैं, वे अदभुत हैं पर जीवंत शक्ति तुमको पुस्तकों में नहीं मिल सकती। वह शक्ति, जो एक क्षण में जीवन को परिवर्तित कर दे, केवल उन जीवंत प्रकाशवान महान आत्माओं से ही प्राप्त हो सकती है जो समय-समय पर हमारे बीच में प्रकट होते रहते हैं।”*

🌷 *पूज्य बापूजी जैसे आत्मानुभव से प्रकाशवान जीवंत महापुरुष के मार्गदर्शन में उनके द्वारा बताये गये शास्त्रों का अध्ययन करना ठीक है लेकिन मनमानी पुस्तकों को पढ़ने वाले लोग प्रायः उलझ जाते हैं।*
*आद्य शंकराचार्य जी ने ‘विवेक चूड़ामणि’ में कहा हैः शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।सदगुरु के बिना यह चित्त को भटकाने का हेतु बन जाता है। अतः मनमुखी साधक सावधान ! व्यर्थ के वाणी-व्यय व मनमानी पुस्तकों में उलझने से बचो, औरों को बचाओ।*

    
🌹 *स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 9, अंक 277 ॐ ॐ*  🌹

ऐसी होती है गुरुभक्ति !

ऐसी होती है गुरुभक्ति !

बैसाखी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था। औरंगजेब के अत्याचारों को इस एक दिन के लिए भूलकर लोग खुशी से झूम रहे थे, नाच रहे थे, गा रहे थे। परंतु श्री गुरुगोविन्द सिंह इस पर्व के अवसर को गुरु भक्ति की परीक्षा के सुअवसर के रूप में बदल देना चाहते थे। वे जानते थे कि मुगल सत्ता से संघर्ष किये बिना भारतीय समाज स्वाभिमान से जी नहीं सकता। वे यह भी जानते थे कि शक्ति और भक्ति दोनों ही धर्म की संस्थापना के लिए परमावश्यक हैं। अत: उन्होंने बैसाखी के मेले में एक बड़ा अखाड़ा बनाया, जहाँ पर देश भर से अनेक लोग आए। गुरुगोविन्द सिंह के चेहरे का तेज और उनका प्रभावी व्यक्तित्व आज कुछ महान व्यक्तियों की शोध के लिए बड़ी तेजस्विता से प्रगट हो रहा था। उन्होंने हजारों भक्तों से आह्वान किया कि ‘आज धर्म पर संकट आया है, लाखों लोग मुगलों के अत्याचार से त्रस्त हैं, कौन ऐसा वीर है जो धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर है।’ गुरुगोविन्द सिंह के हाथों में नंगी तलवार देखकर उनके इस प्रश्न से लोग भयभीत हो गए और बहुतों को इस प्रश्न पर आश्चर्य भी हुआ। कुछ सोच रहे थे कि आज गुरुजी क्यों अपने शिष्यों को अपना बलिदान करने का आह्वान कर रहे हैं।

सम्पूर्ण जनसमुदाय स्तब्ध हो गया था। लोग एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। गुरुजी ने पुन: प्रश्न किया कि ‘क्या इस भारतवर्ष में कोई ऐसा वीर नहीं जो धर्म के लिए अपना बलिदान दे सके।’ जब किसी ने उत्तर नहीं दिया। तब उन्होंने कहा, ‘क्या इसी दिन के लिए तुमने जन्म लिया है कि जब महान कार्य के लिए तुम्हारी आवश्यकता पड़े, तो तुम सिर झुकाये खड़े रहो। कोई है ऐसा भक्त जो धर्म-भक्ति की बलिवेदी पर अपने आप को समर्पित कर दे।’ तभी लाहौर का एक दयाराम खत्री उठा और उसने कहा, ‘‘मैं प्रस्तुत हूँ।” गुरु उसे अपने साथ कक्ष के भीतर ले गए। वहाँ पहले से कुछ बकरे बांधकर रखे गये थे। गुरु ने एक बकरे का सिर काटकर रक्तरंजित तलवार थामे पुन: सभा में प्रवेश किया। पुन: वही सवाल ! ‘एक के बलिदान से कार्य नहीं चलेगा, है कोई और जो धर्म के लिए अपने प्राण दे दे?’  इस बार दिल्ली का एक जाट ‘धर्मदास’ आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अन्दर ले गए। पुन: बाहर आकर वही प्रश्न। इस प्रकार तीन और व्यक्ति अंदर ले जाये गये और वे थे द्वारिका का एक धोबी मोहकमचंद, जगन्नाथपुरी का रसोइया हिम्मत और बीदर का नाई साहबचन्द।

गुरु ने इन पांचों को सुन्दर वस्त्र पहनाये। उन्हें ‘पंज प्यारे’ कहकर सम्बोधित किया। उन पांचों को लेकर वे बाहर आये तो सभा स्तब्ध रह गई। बैठे हुए सभी लज्जित हुए।

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रविवार, मई 27, 2018

गुरु आज्ञापालन में शिष्य दृढ़ हो तो प्रकृति अनुकूल हो जाती है

संत श्री आसारामजी बापू का मधुर संस्मरण

एक बार नैनीताल में गुरुदेव (स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज) के पास कुछ लोग आये। वे 'चाइना पीक' (हिमालय पर्वत का एक प्रसिद्ध शिखर देखना चाहते थे। गुरुदेव ने मुझसे कहाः "ये लोग चाइना पीक देखना चाहते हैं। सुबह तुम जरा इनके साथ जाकर दिखा के आना।"

मैंने कभी चाइना पीक देखा नहीं था, परंतु गुरुजी ने कहाः "दिखा के आओ।" तो बात पूरी हो गयी।

सुबह अँधेरे-अँधेरे में मैं उन लोगों को ले गया। हम जरा दो-तीन किलोमीटर पहाड़ियों पर चले और देखा कि वहाँ मौसम खराब है। जो लोग पहले देखने गये थे वे भी लौटकर आ रहे थे। जिनको मैं दिखाने ले गया था वे बोलेः "मौसम खराब है, अब आगे नहीं जाना है।"

मैंने कहाः "भक्तो ! कैसे नहीं जाना है, बापूजी ने मुझे आज्ञा दी है कि 'भक्तों को चाइना पीक दिखाके आओ' तो मैं आपको उसे देखे बिना कैसे जाने दूँ?"

वे बोलेः "हमको नहीं देखना है। मौसम खराब है, ओले पड़ने की संभावना है।"

मैंने कहाः "सब ठीक हो जायेगा।" लेकिन थोड़ा चलने के बाद वे फिर हतोत्साहित हो गये और वापस जाने की बात करने लगे। 'यदि कुहरा पड़ जाय या ओले पड़ जायें तो....' ऐसा कहकर आनाकानी करने लगे। ऐसा अनेकों बार हुआ। मैं उनको समझाते-बुझाते आखिर गन्तव्य स्थान पर ले गया। हम वहाँ पहुँचे तो मौसम साफ हो गया और उन्होंने चाइनाप देखा। वे बड़ी खुशी से लौट और आकर गुरुजी को प्रणाम किया।

गुरुजी बोलेः "चाइना पीक देख लिया?"

वे बोलेः "साँई ! हम देखने वाले नहीं थे, मौसम खराब हो गया था परंतु आसाराम हमें उत्साहित करते-करते ले गये और वहाँ पहुँचे तो मौसम साफ हो गया।"

उन्होंने सारी बातें विस्तार से कह सुनायीं। गुरुजी बोलेः "जो गुरु की आज्ञा दृढ़ता से मानता है, प्रकृति उसके अनुकूल जो जाती है।" मुझे कितना बड़ा आशीर्वाद मिल गया ! उन्होंने तो चाइना पीक देखा लेकिन मुझे जो मिला वह मैं ही जानता हूँ। आज्ञा सम नहीं साहिब सेवा। मैंने गुरुजी की बात काटी नहीं, टाली नहीं, बहाना नहीं बनाया, हालाँकि वे तो मना ही कर रहे थे। बड़ी कठिन चढ़ाईवाला व घुमावदार रास्ता है चाइना पीक का और कब बारिश आ जाये, कब आदमी को ठंडी हवाओं का, आँधी-तूफानों का मुकाबला करना पड़े, कोई पता नहीं। किंतु कई बार मौत का मुकाबला करते आये हैं तो यह क्या होता है? कई बार तो मरके भी आये, फिर इस बार गुरु की आज्ञा का पालन करते-करते मर भी जायेंगे तो अमर हो जायेंगे, घाटा क्या पड़ता है?

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भाई लहणा गुरुसेवा से बने अंगददेवजी


खडूरगाँव (जि. अमृतसर, पंजाब) के लहणा चौधरी गुरु नानकदेव के शरणागत हुए। गुरु नानक उन्हें भाई लहणा कहते थे।

करतार में गुरु नानक देव ने पशुओं की देखभाल करने की सेवा भाई लहणा को सौंप दी। वहाँ और भी कई शिष्य थे जो खेती-बाड़ी व पशुओं की देखरेख करते थे। एक बार लगातार कई दिनों तक वर्षा होती रही। जब वर्षा बन्द हुई तो चारों ओर कीचड़ ह गया। पशुओं का चारा समाप्त हो गया था लेकिन कोई भी शिष्य चारा लाने के लिए जाने को तैयार नहीं था, क्योंकि उस कीचड़ में, कीचड़ से भरी घास लाना कोई आसान कार्य न था। भाई लहणा चारा लेने चले गये। जब वे चारा लेकर लौटे तो उनके कपड़े ही नहीं, सारा शरीर भी कीचड़ से लथपथ था, परंतु उन्हें इस बात का कोई दुःख नहीं था क्योंकि गुरुसेवा को ही उन्होंने अपना सर्वस्व बना लिया था।

एक बार गुरु नानक ने जानबूझकर अपना काँसे का कटोरा कीचड़ के भरे एक गड्ढे में फेंक दिया और अपने पुत्रों तथा शिष्यों को आदेश दिया कि वे कटोरा निकाल लायें। गड्ढे में घुटने से भी ऊपर तक कीचड़ भरा हुआ था। सब लोग कोई-न-कोई बहाना बनाकर खिसक गये। भाई लहणा तत्काल गड्ढे में उतर गये कटोरा निकाल लाये। उन्हें इस बात की रत्तीभर भी चिंता नहीं हुई कि कीचड़ उनके शरीर पर लग जायेगा और उनके कपड़े कीचड़ से भर जायेंगे। उनके लिए तो गुरुदेव का आदेश ही सर्वोपरि था।

एक दिन कुछ भक्त लंगर (सामूहिक भोजन) खत्म हो जाने के बाद डेरे पर पहुँचे। वे बहुत दूर से चलकर आये थे। उन्हें भूख लगी थी। गुरुनानक देव ने अपने दोनों पुत्रों को सामने खड़े बबूल के एक पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहाः "तुम दोनों उस पेड़ पर चढ़ जाओ और डालियों को जोर-से हिलाओ। इससे तरह-तरह की मिठाइयाँ टपकेंगी। वे इन लोगों को खिला देना।"

गुरु नानक की बात सुनकर उनके दोनों पुत्र आश्चर्य से उनका मुँह देखने लगे। 'पेड़ से.... और वह भी बबूल के पेड़ से... मिठाइयाँ, भला कैसे टपक सकती हैं? पिताजी अकारण ही हमारा मजाक उड़वाना चाहते हैं।' ऐसा सोचकर वे दोनों चुपके-से वहाँ से खिसक गये। गुरु नानक ने अपने अन्य शिष्यों से भी यही कहा परंतु कोई तैयार नहीं हुआ। सब शिष्य यही सोच रहे थे कि गुरुदेव उन्हें बेवकूफ बनाना चाहते हैं।

भाई लहणा को गुरु नानकदेव में अगाध श्रद्धा थी, अडिग विश्वास था। वे उठे, बबूल के पेड़ पर जा चढ़े और उसकी डालियाँ जोर-से हिलानी शुरु कर दी। दूसरे ही पल काँटों से भरे बबूल के पेड़ से तरह-तरह की स्वादिष्ट मिठाइयाँ टपकने लगीं। वहाँ उपस्थित लोगों की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं। भाई लहणा ने पेड़ से उतरकर मिठाइयाँ इकट्ठी कीं और आये हुए भक्तों को खिला दीं।

पुत्रों ने नानक जी की अवज्ञा की लेकिन भाई लहणा के मन में ईश्वररूप गुरुनानक के किसी भी शब्द के प्रति अविश्वास का नामोनिशान तक नहीं था। भगवान श्रीकृष्ण के पुत्रों ने भी श्रीकृष्ण की अवज्ञा की, उनका फायदा नहीं उठाया, चमचों के चक्कर में रहे जबकि आज भी लाखों लोग श्रीकृष्ण से फायदा उठा रहे हैं। "अतिसान्निध्यात् भवेत अवज्ञा।" जिन्हें अति सान्निध्य मिलता है वे लाभ नहीं उठाते। कैसा आश्चर्य है !

गुरु नानक समाधि लगाये अपनी गद्दी पर बैठे थे। उनके सामने बैठे अनेक शिष्य उनके उपदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे। अचानक उन्होंने आँखें खोलीं, एक नजर सामने बैठे शिष्यों पर डाली और फिर पास ही पड़ा डंडा उठाकर शिष्यों पर टूट पड़े। जो भी सामने आया, उस पर डंडे बरसाने लगे। उनकी रौद्र मूर्ति और पागलों जैसी अवस्था देखकर उनके दोनों पुत्र तथा अन्य शिष्य शीघ्रता से भागे, परंतु भाई लहणा वहीं खड़े रहे एवं गुरु नानक के डंडों की मार बड़े शांत भाव से सहन करते रहे।

गुरु नानक देव ने भाई लहणा की अनेक परीक्षाएँ लीं परंतु वे सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए। तब उन्होंने सबसे अधिक भीषण परीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। वे कुछ देर तक इसी तरह पागलों जैसी हरकतें करते रहे और फिर जंगल की चल दिये। उनकी पागलों जैसी हरकत देखकर बहुत-से कुत्ते उनके पीछे लग गये, परंतु गुरुनानक अपने डंडे से उन्हें धमकाते हुए जंगल की ओर बढ़ते रहे। यह देखकर उनके कुछ शिष्य और दोनों पुत्र भी उनके पीछे-पीछे चल दिये। उन शिष्यों में भाई लहणा भी शामिल थे। चलते-चलते गुरु नानक श्मशान में पहुँचे और कफन से ढके एक मुर्दे के पास जाकर रुक गये। वे बड़े ध्यान से उस मुर्दे को देख ही रहे थे कि उनके दोनों पुत्र और शिष्य भी वहाँ पहुँच गये।

"तुम लोग बहुत दूर से मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो। दोपहर का वक्त है, भोजन का समय हो चुका है। तुम लोगों को भूख भी लगी होगी। तुम्हें आज बहुत ही स्वादिष्ट चीज खिलाता हूँ।" यह कहकर गुरु नानक देव ने मुर्दे की ओर इशारा किया और अपने पुत्रों तथा शिष्यों की ओर देखते हुए बोलेः "इसे खाओ।"

यह बात सुनकर सब लोग स्तब्ध रह गये। कितना विचित्र और भयानक था गुरु का आदेश ! उनके दोनों पुत्रों और शिष्यों ने घृणा से अपने मुँह फेर लिए और वहाँ से खिसकने लगे, परंतु भाई लहणा आगे बढ़े और पूछाः "गुरुदेव ! इस मुर्दे को किस ओर से खाना शुरु करूँ, सिर की ओर से या पैरों की ओर से?" गुरु नानक ने कहाः "पैरों की ओर से खाना शुरु करो।"

"जो आज्ञा !" कहकर भाई लहणा मुर्दे के पैरों के पास जा बैठे। उनके मन में न घृणा थी, न कोई परेशानी ही। उन्होंने हाथ बढ़ाकर मुर्दे के ऊपर पड़ा कफन हटा दिया। कफन के नीचे कोई मुर्दा नहीं था। वह सफेद चादर धरती पर इस तरह पड़ी थी, जैसे उससे किसी लाश को ढक दिया गया हो। गुरु नानक देव के चेहरे पर करुणाभरी मुस्कराहट खिल उठी। उनकी आँखें स्नेह से चमक उठीं। उन पर छाया हुआ पागलपन जाता रहा और वे सामान्य स्थिति में आ गये। उन्होंने आगे बढ़कर भाई लहणा को अपनी बाँहों में भर हृदय से लगा लिया। उनका हृदय छलक पड़ा और वे कृपापूर्ण स्वर में बोलेः "आज से तुम्हारा नाम भाई लहणा नहीं, अंगददेव है। मैंने तुम्हें अपने अंग से लगा लिया है। अब तुम मेरे ही प्रतिरूप हो।"

कैसे थे शिष्य ! जिन्होंने गुरुओं का माहात्म्य जानकर समझा कि गुरुओं की कृपा कैसे पचायी जाती है और आज के.......

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एकनाथजी : गुरुआज्ञा में तत्परता


संत एकनाथ देवगढ़ राज्य के दीवान श्री जनार्दन स्वामी के शिष्य थे। 12 वर्ष की छोटी उम्र में ही उन्होंने श्रीगुरुचरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया था। वे गुरुदेव के कपड़े धोते, पूजा के लिए फूल लाते, गुरुदेव भोजन करते तब पंखा झलते, गुरुदेव के नाम आये हुए पत्र पढ़ते और उनके संकेत-अनुसार उनका जवाब देते और गुरुपुत्रों की देखभाल करते। ऐसे एवं अन्य भी कई प्रकार के छोटे-मोटे काम वे गुरुचरणों में करते। एक बार जनार्दन स्वामी ने एकनाथ जी को राजदरबार का हिसाब करने को कहा। एकनाथ जी बहियाँ लेकर हिसाब करने बैठ गये। दूसरे ही दिन प्रातः हिसाब-किताब राजदरबार में बताना था। सारा दिन हिसाब-किताब लिखने व देखने  बीत गया। हिसाब में एक पाई (एक पुराना सिक्का, जो पैसे का एक तिहाई होता था) की भूल आ रही थी। रात हुई, नौकर दीपक जलाकर चला गया। एकनाथ को पता भी नहीं चला कि रात शुरु हो गयी है। आधी रात बीत गयी फिर भी भूल पकड़ में नहीं आयी लेकिन वे अपने काम में लगे रहे।

प्रातः जल्दी उठकर गुरुदेव ने देखा कि एकनाथ तो अभी भी हिसाब देख रहे हैं। वे आकर दीपक के आगे चुपचाप खड़े हो गये। बहियों पर थोड़ा अँधेरा छा गया, फिर भी एकनाथ एकाग्रचित्त से बहियाँ देखते रहे। वे अपने काम में इतने मशगूल थे कि अँधेरे में भी उन्हें अक्षर साफ दिख रहे थे। इतने में भूल पकड़ में आ गयी वे हर्ष से चिल्ला उठेः "मिल गयी... मिल गयी....!"

गुरुदेव ने पूछाः "क्या मिल गयी, बेटी?"

एकनाथ जी चौंक गये ! ऊपर देखो तो गुरुदेव सामने खड़े हैं ! उठकर प्रणाम किया और बोलेः "गुरुदेव ! एक पाई की भूल पकड़ में नहीं आ रही थी। अब वह मिल गयी।"

हजारों हिसाब में एक पाई की भूल !.... और उसको पकड़ने के लिए रात भर जागरण ! गुरु की सेवा में इतनी लगन, इतनी तितिक्षा और भक्ति देखकर दीवान जनार्दन स्वामी के हृदय में गुरुकृपा उछाले मारने लगी। उन्हें ज्ञानामृत की वर्षा करने के योग्य अधिकारी का उर-आँगन (हृदय) मिल गया। सदगूरु की आध्यात्मिक वसीयत सँभालनेवाला सतशिष्य मिल गया। उसके बाद एकनाथ जी के जीवन में ज्ञान का सूर्य उदय हुआ और उनके सान्निध्य में अनेक साधकों ने अपनी आत्मज्योति जगाकर धन्यता का अनुभव किया। साक्षात गोदावरी माता भी अपने में लोगों द्वारा छोड़े गये पापों को धोने के लिए इन ब्रह्मनिष्ठ संत के सत्संग में आती थीं। संत एक नाथ जी के 'एकनाथी भागवत' को सुनकर आज भी लोग तृप्त होते हैं।

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अमीर खुसरो की गुरु में अनन्य निष्ठा


हजरत निजामुद्दीन औलिया के हजारों शिष्य थे। उनमें से 22 ऐसे समर्पित शिष्य थे जो उन्हें खुदा मानते थे, अल्लाह का स्वरूप मानते थे। एक बार हजरत निजामुद्दीन औलिया ने उनकी परीक्षा लेनी चाहिए। वे शिष्यों के साथ दिन भर दिल्ली के बाजार में घूमे। रात्रि हुई तो औलिया एक वेश्या की कोठी पर गये। वेश्या उन्हें बड़े आदर से कोठी की ऊपरी मंजिल पर ले गयी। सभी शिष्य नीचे इंतजार करने लगे कि 'गुरुजी अब नीचे पधारेगे... अब पधारेंगे।' वेश्या तो बड़ी प्रसन्न हो गयी कि मेरे ऐसे कौने-से सौभाग्य हैं जो ये दरवेश मेरे द्वार पर पधारे? उसने औलिया से कहाः "मैं तो कृतार्थ हो गयी जो आप मेरे द्वार पर पधारे। मैं आपकी क्या खिदमत करूँ?"

औलिया ने कहाः "अपनी नौकरानी के द्वारा भोजन का थाल और शराब की बोतल में पानी इस ढंग से मँगवाना कि मेरे चेलों को लगे कि मैंने भोजन व शराब मँगवायी है।" वेश्या को तो हुक्म का पालन करना था। उसने अपने नौकरानी से कह दिया।

थोड़ी देर बाद नौकरानी तदनुरूप आचरण करती हुई भोजन का थाल और शराब की बोतल ले कर ऊपर जाने लगी। तब कुछ शिष्यों को लगा कि 'अरे ! हमने तो कुछ और सोचा था, किंतु निकला कुछ और.... औलिया ने तो शराब मँगवायी है.... 'ऐसा सोचकर कुछ शिष्य भाग गये। ज्यों-ज्यों रात्रि बढ़ती गयी, त्यों-त्यों एक-एक करके शिष्य खिसकने लगे। ऐसा करते-करते सुबह हो गयी। निजामूद्दीन औलिया नीचे उतरे। देखा तो केवल अमीर खुसरो ही खड़े थे। अनजान होकर उन्होंने पूछाः "सब कहाँ चले गये?"

अमीर खुसरोः "सब भाग गये।"

औलियाः "तू क्यों नहीं भागा? तूने देखा नहीं क्या कि मैंने शराब की बोतल मँगवायी और सारी रात वेश्या के पास रहा?"

अमीर खुसरोः "मालिक ! भागता तो मैं भी किंतु आपके कदमों के सिवाय और कहाँ भागता?"

निजामुद्दीन औलिया की कृपा बरस पड़ी और बोलेः "बस, हो गया तेरा काम पूरा।"

कैसी अनन्य निष्ठा थी अमीर खुसरो की !

आज भी निजामुद्दीन औलिया की मजार के पास ही उनके सतशिष्य अमीर खुसरो की मजार उनकी गुरुनिष्ठा, गुरुभक्ति की खबर दे रही है।

सतगुरु दाता सर्ब के, तू किर्पिन कंगाल।
गुरु-महिमा जाने नहीं, फँसयौ मोह के जाल।।

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एकलव्य की गुरु-दक्षिणा


विषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य एक दिन हस्तिनापुर आया और उसने उस समय के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य, कौरव-पाण्डवों के शस्त्र-गुरु द्रोणाचार्यजी के चरणों मे दूर से साष्टाँग प्रणाम किया। अपनी वेश-भूषा से ही वह अपने वर्ण की पहचान दे रहा था। आचार्य द्रोण ने जब उससे आने का कारण पूछा, तब उसने प्रार्थनापूर्वक कहाः "मैं आपके श्रीचरणों के समीप रहकर धनुर्विद्या की शिक्षा लेने आया हूँ।"

आचार्य संकोच में पड़ गये। उस समय कौरव तथा पाण्डव बालक थे और आचार्य उन्हें शिक्षा दे रहे थे। एक भील बालक उनके साथ शिक्षा पाये, यह राजकुमारों को स्वीकार नहीं होता और यह उनकी मर्यादा के अनुरूप भी नहीं था। अतएव उन्होंने कहाः "बेटा एकलव्य ! मुझे दुःख है कि मैं किसी द्विजेतर बालक को शस्त्र-शिक्षा नहीं दे सकता।"

एकलव्य ने तो द्रोणाचार्यजी को मन-ही-मन गुरु मान लिया था। जिन्हें गुरु मान लिया, उनकी किसी भी बात को सुनकर रोष या दोषदृष्टि करने की तो बात ही मन में कैसे आती? एकलव्य के मन में भी निराशा नहीं हुई। उसने आचार्य के सम्मुख दण्डवत प्रणाम किया और बोलाः "भगवन् ! मैंने तो आपको गुरुदेव मान लिया है। मेरे किसी काम से आपको संकोच हो, यह मैं नहीं चाहता। मुझे केवल आपकी कृपा चाहिए।"

बालक एकलव्य हस्तिनापुर से लौटकर घर नहीं गया। वह वन में चला गया और वहाँ उसने गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनायी। वह गुरुदेव की मूर्ति को टकटकी लगाकर देखता, प्रार्थना करता तथा आत्मरूप गुरु से प्रेरणा पाता और धनुर्विद्या के अभ्यास में लग जाता। ज्ञान के एकमात्र दाता तो भगवान ही हैं। जहाँ अविचल श्रद्धा और दृढ़ निश्चय होता है, वहाँ सबके हृदय में रहने वाले वे श्रीहरि गुरुरूप में या बिना बाहरी गुरु के भी ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं। महीने-पर-महीने बीतते गये, एकलव्य का अभ्यास अखण्ड चलता रहा और वह महान धनुर्धर हो गया।

एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव आचार्य द्रोण की अनुमति से रथों पर बैठकर हिंसक पशुओं का शिकार खेलने निकले। संयोगवश इनके साथ का एक कुत्ता भटकता हुआ एकलव्य के पास पहुँच गया और काले रंग के तथा विचित्र वेशधारी एकलव्य को देखकर भौंकने लगा। एकलव्य के केश बढ़ गये थे और उसके पास वस्त्र के स्थान पर व्याघ्र-चर्म ही था। वह उस समय अभ्यास कर रहा था। कुत्ते के भौंकने से अभ्यास में बाधा पड़ती देख उसने सात बाण चलाकर कुत्ते का मुख बंद कर दिया। कुत्ता भागता हुआ राजकुमारों के पास पहुँचा। सबने बड़े आश्चर्य से देखा कि बाणों से कुत्ते को कहीं भी चोट नहीं लगी है, किंतु वे बाण आड़े-तिरछे उसके मुख में इस प्रकार फँसे हैं कि कुत्ता भौंक नहीं सकता। बिना चोट पहुँचाये इस प्रकार कुत्ते के मुख में बाण भर देना, बाण चलाने का बहुत बड़ा कौशल है।

अर्जुन इस कौशल को देखकर बहुत चकित हुए। उन्होंने लौटने पर सारी घटना गुरु द्रोणाचार्यजी को सुनायी और कहाः "गुरुदेव ! आपने वरदान दिया था कि आप मुझे पृथ्वी का सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे, किंतु इतना कौशल तो मुझमें भी नहीं है।"

द्रोणाचार्य जी ने अर्जुन को साथ लेकर उस बाण चलानेवाले को वन में ढूँढना प्रारम्भ किया और ढूँढते-ढूँढते वे एकलव्य के आश्रम पर पहुँच गये। आचार्य को देखकर एकलव्य उनके चरणों में गिर पड़ा।

द्रोणाचार्य ने पूछाः "सौम्य ! तुमने धनुर्विद्या का इतना उत्तम ज्ञान किससे प्राप्त किया है?"

एकलव्य ने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक कहाः "भगवन् ! मैं तो आपके श्रीचरणों का ही दास हूँ।"

उसने आचार्य की मिट्टी की उस मूर्ति की ओर संकेत किया। द्रोणाचार्य ने कुछ सोचकर कहाः "भद्र ! मुझे गुरुदक्षिणा नहीं दोगे?"

"आज्ञा करें भगवन् !" एकलव्य ने अत्यधिक आनन्द का अनुभव करते हुए कहा।

द्रोणाचार्य ने कहाः "मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अँगूठा चाहिए !"

दाहिने हाथ का अँगूठा न रहे तो बाण चलाया ही कैसे जा सकता है? इतने दिनों की अभिलाषा, इतना अधिक परिश्रम, इतना अभ्यास-सब व्यर्थ हुआ जा रहा था, किंतु एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आयी। उस वीर गुरुभक्त बालक ने बायें हाथ में छुरा लिया और तुरंत अपने दाहिने हाथ का अँगूठा काटकर अपने हाथ में उठाकर गुरुदेव के सामने धर दिया।

भरे कण्ठ से द्रोणाचार्य ने कहाः "पुत्र ! सृष्टि में धनुर्विद्या के अनेकों महान ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे इस भव्य त्याग और गुरुभक्ति का सुयश सदा अमर रहेगा। ऊँची आत्माएँ, संत और भक्त भी तुम्हारी गुरुभक्ति का यशोगान करेंगे।"

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