रविवार, मई 27, 2018

भाई लहणा गुरुसेवा से बने अंगददेवजी


खडूरगाँव (जि. अमृतसर, पंजाब) के लहणा चौधरी गुरु नानकदेव के शरणागत हुए। गुरु नानक उन्हें भाई लहणा कहते थे।

करतार में गुरु नानक देव ने पशुओं की देखभाल करने की सेवा भाई लहणा को सौंप दी। वहाँ और भी कई शिष्य थे जो खेती-बाड़ी व पशुओं की देखरेख करते थे। एक बार लगातार कई दिनों तक वर्षा होती रही। जब वर्षा बन्द हुई तो चारों ओर कीचड़ ह गया। पशुओं का चारा समाप्त हो गया था लेकिन कोई भी शिष्य चारा लाने के लिए जाने को तैयार नहीं था, क्योंकि उस कीचड़ में, कीचड़ से भरी घास लाना कोई आसान कार्य न था। भाई लहणा चारा लेने चले गये। जब वे चारा लेकर लौटे तो उनके कपड़े ही नहीं, सारा शरीर भी कीचड़ से लथपथ था, परंतु उन्हें इस बात का कोई दुःख नहीं था क्योंकि गुरुसेवा को ही उन्होंने अपना सर्वस्व बना लिया था।

एक बार गुरु नानक ने जानबूझकर अपना काँसे का कटोरा कीचड़ के भरे एक गड्ढे में फेंक दिया और अपने पुत्रों तथा शिष्यों को आदेश दिया कि वे कटोरा निकाल लायें। गड्ढे में घुटने से भी ऊपर तक कीचड़ भरा हुआ था। सब लोग कोई-न-कोई बहाना बनाकर खिसक गये। भाई लहणा तत्काल गड्ढे में उतर गये कटोरा निकाल लाये। उन्हें इस बात की रत्तीभर भी चिंता नहीं हुई कि कीचड़ उनके शरीर पर लग जायेगा और उनके कपड़े कीचड़ से भर जायेंगे। उनके लिए तो गुरुदेव का आदेश ही सर्वोपरि था।

एक दिन कुछ भक्त लंगर (सामूहिक भोजन) खत्म हो जाने के बाद डेरे पर पहुँचे। वे बहुत दूर से चलकर आये थे। उन्हें भूख लगी थी। गुरुनानक देव ने अपने दोनों पुत्रों को सामने खड़े बबूल के एक पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहाः "तुम दोनों उस पेड़ पर चढ़ जाओ और डालियों को जोर-से हिलाओ। इससे तरह-तरह की मिठाइयाँ टपकेंगी। वे इन लोगों को खिला देना।"

गुरु नानक की बात सुनकर उनके दोनों पुत्र आश्चर्य से उनका मुँह देखने लगे। 'पेड़ से.... और वह भी बबूल के पेड़ से... मिठाइयाँ, भला कैसे टपक सकती हैं? पिताजी अकारण ही हमारा मजाक उड़वाना चाहते हैं।' ऐसा सोचकर वे दोनों चुपके-से वहाँ से खिसक गये। गुरु नानक ने अपने अन्य शिष्यों से भी यही कहा परंतु कोई तैयार नहीं हुआ। सब शिष्य यही सोच रहे थे कि गुरुदेव उन्हें बेवकूफ बनाना चाहते हैं।

भाई लहणा को गुरु नानकदेव में अगाध श्रद्धा थी, अडिग विश्वास था। वे उठे, बबूल के पेड़ पर जा चढ़े और उसकी डालियाँ जोर-से हिलानी शुरु कर दी। दूसरे ही पल काँटों से भरे बबूल के पेड़ से तरह-तरह की स्वादिष्ट मिठाइयाँ टपकने लगीं। वहाँ उपस्थित लोगों की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं। भाई लहणा ने पेड़ से उतरकर मिठाइयाँ इकट्ठी कीं और आये हुए भक्तों को खिला दीं।

पुत्रों ने नानक जी की अवज्ञा की लेकिन भाई लहणा के मन में ईश्वररूप गुरुनानक के किसी भी शब्द के प्रति अविश्वास का नामोनिशान तक नहीं था। भगवान श्रीकृष्ण के पुत्रों ने भी श्रीकृष्ण की अवज्ञा की, उनका फायदा नहीं उठाया, चमचों के चक्कर में रहे जबकि आज भी लाखों लोग श्रीकृष्ण से फायदा उठा रहे हैं। "अतिसान्निध्यात् भवेत अवज्ञा।" जिन्हें अति सान्निध्य मिलता है वे लाभ नहीं उठाते। कैसा आश्चर्य है !

गुरु नानक समाधि लगाये अपनी गद्दी पर बैठे थे। उनके सामने बैठे अनेक शिष्य उनके उपदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे। अचानक उन्होंने आँखें खोलीं, एक नजर सामने बैठे शिष्यों पर डाली और फिर पास ही पड़ा डंडा उठाकर शिष्यों पर टूट पड़े। जो भी सामने आया, उस पर डंडे बरसाने लगे। उनकी रौद्र मूर्ति और पागलों जैसी अवस्था देखकर उनके दोनों पुत्र तथा अन्य शिष्य शीघ्रता से भागे, परंतु भाई लहणा वहीं खड़े रहे एवं गुरु नानक के डंडों की मार बड़े शांत भाव से सहन करते रहे।

गुरु नानक देव ने भाई लहणा की अनेक परीक्षाएँ लीं परंतु वे सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए। तब उन्होंने सबसे अधिक भीषण परीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। वे कुछ देर तक इसी तरह पागलों जैसी हरकतें करते रहे और फिर जंगल की चल दिये। उनकी पागलों जैसी हरकत देखकर बहुत-से कुत्ते उनके पीछे लग गये, परंतु गुरुनानक अपने डंडे से उन्हें धमकाते हुए जंगल की ओर बढ़ते रहे। यह देखकर उनके कुछ शिष्य और दोनों पुत्र भी उनके पीछे-पीछे चल दिये। उन शिष्यों में भाई लहणा भी शामिल थे। चलते-चलते गुरु नानक श्मशान में पहुँचे और कफन से ढके एक मुर्दे के पास जाकर रुक गये। वे बड़े ध्यान से उस मुर्दे को देख ही रहे थे कि उनके दोनों पुत्र और शिष्य भी वहाँ पहुँच गये।

"तुम लोग बहुत दूर से मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो। दोपहर का वक्त है, भोजन का समय हो चुका है। तुम लोगों को भूख भी लगी होगी। तुम्हें आज बहुत ही स्वादिष्ट चीज खिलाता हूँ।" यह कहकर गुरु नानक देव ने मुर्दे की ओर इशारा किया और अपने पुत्रों तथा शिष्यों की ओर देखते हुए बोलेः "इसे खाओ।"

यह बात सुनकर सब लोग स्तब्ध रह गये। कितना विचित्र और भयानक था गुरु का आदेश ! उनके दोनों पुत्रों और शिष्यों ने घृणा से अपने मुँह फेर लिए और वहाँ से खिसकने लगे, परंतु भाई लहणा आगे बढ़े और पूछाः "गुरुदेव ! इस मुर्दे को किस ओर से खाना शुरु करूँ, सिर की ओर से या पैरों की ओर से?" गुरु नानक ने कहाः "पैरों की ओर से खाना शुरु करो।"

"जो आज्ञा !" कहकर भाई लहणा मुर्दे के पैरों के पास जा बैठे। उनके मन में न घृणा थी, न कोई परेशानी ही। उन्होंने हाथ बढ़ाकर मुर्दे के ऊपर पड़ा कफन हटा दिया। कफन के नीचे कोई मुर्दा नहीं था। वह सफेद चादर धरती पर इस तरह पड़ी थी, जैसे उससे किसी लाश को ढक दिया गया हो। गुरु नानक देव के चेहरे पर करुणाभरी मुस्कराहट खिल उठी। उनकी आँखें स्नेह से चमक उठीं। उन पर छाया हुआ पागलपन जाता रहा और वे सामान्य स्थिति में आ गये। उन्होंने आगे बढ़कर भाई लहणा को अपनी बाँहों में भर हृदय से लगा लिया। उनका हृदय छलक पड़ा और वे कृपापूर्ण स्वर में बोलेः "आज से तुम्हारा नाम भाई लहणा नहीं, अंगददेव है। मैंने तुम्हें अपने अंग से लगा लिया है। अब तुम मेरे ही प्रतिरूप हो।"

कैसे थे शिष्य ! जिन्होंने गुरुओं का माहात्म्य जानकर समझा कि गुरुओं की कृपा कैसे पचायी जाती है और आज के.......

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