एकनाथजी : गुरुआज्ञा में तत्परता
संत एकनाथ देवगढ़ राज्य के दीवान श्री जनार्दन स्वामी के शिष्य थे। 12 वर्ष की छोटी उम्र में ही उन्होंने श्रीगुरुचरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया था। वे गुरुदेव के कपड़े धोते, पूजा के लिए फूल लाते, गुरुदेव भोजन करते तब पंखा झलते, गुरुदेव के नाम आये हुए पत्र पढ़ते और उनके संकेत-अनुसार उनका जवाब देते और गुरुपुत्रों की देखभाल करते। ऐसे एवं अन्य भी कई प्रकार के छोटे-मोटे काम वे गुरुचरणों में करते। एक बार जनार्दन स्वामी ने एकनाथ जी को राजदरबार का हिसाब करने को कहा। एकनाथ जी बहियाँ लेकर हिसाब करने बैठ गये। दूसरे ही दिन प्रातः हिसाब-किताब राजदरबार में बताना था। सारा दिन हिसाब-किताब लिखने व देखने बीत गया। हिसाब में एक पाई (एक पुराना सिक्का, जो पैसे का एक तिहाई होता था) की भूल आ रही थी। रात हुई, नौकर दीपक जलाकर चला गया। एकनाथ को पता भी नहीं चला कि रात शुरु हो गयी है। आधी रात बीत गयी फिर भी भूल पकड़ में नहीं आयी लेकिन वे अपने काम में लगे रहे।
प्रातः जल्दी उठकर गुरुदेव ने देखा कि एकनाथ तो अभी भी हिसाब देख रहे हैं। वे आकर दीपक के आगे चुपचाप खड़े हो गये। बहियों पर थोड़ा अँधेरा छा गया, फिर भी एकनाथ एकाग्रचित्त से बहियाँ देखते रहे। वे अपने काम में इतने मशगूल थे कि अँधेरे में भी उन्हें अक्षर साफ दिख रहे थे। इतने में भूल पकड़ में आ गयी वे हर्ष से चिल्ला उठेः "मिल गयी... मिल गयी....!"
गुरुदेव ने पूछाः "क्या मिल गयी, बेटी?"
एकनाथ जी चौंक गये ! ऊपर देखो तो गुरुदेव सामने खड़े हैं ! उठकर प्रणाम किया और बोलेः "गुरुदेव ! एक पाई की भूल पकड़ में नहीं आ रही थी। अब वह मिल गयी।"
हजारों हिसाब में एक पाई की भूल !.... और उसको पकड़ने के लिए रात भर जागरण ! गुरु की सेवा में इतनी लगन, इतनी तितिक्षा और भक्ति देखकर दीवान जनार्दन स्वामी के हृदय में गुरुकृपा उछाले मारने लगी। उन्हें ज्ञानामृत की वर्षा करने के योग्य अधिकारी का उर-आँगन (हृदय) मिल गया। सदगूरु की आध्यात्मिक वसीयत सँभालनेवाला सतशिष्य मिल गया। उसके बाद एकनाथ जी के जीवन में ज्ञान का सूर्य उदय हुआ और उनके सान्निध्य में अनेक साधकों ने अपनी आत्मज्योति जगाकर धन्यता का अनुभव किया। साक्षात गोदावरी माता भी अपने में लोगों द्वारा छोड़े गये पापों को धोने के लिए इन ब्रह्मनिष्ठ संत के सत्संग में आती थीं। संत एक नाथ जी के 'एकनाथी भागवत' को सुनकर आज भी लोग तृप्त होते हैं।
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लेबल: Gurubhakti
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