रविवार, मई 27, 2018

एकलव्य की गुरु-दक्षिणा


विषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य एक दिन हस्तिनापुर आया और उसने उस समय के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य, कौरव-पाण्डवों के शस्त्र-गुरु द्रोणाचार्यजी के चरणों मे दूर से साष्टाँग प्रणाम किया। अपनी वेश-भूषा से ही वह अपने वर्ण की पहचान दे रहा था। आचार्य द्रोण ने जब उससे आने का कारण पूछा, तब उसने प्रार्थनापूर्वक कहाः "मैं आपके श्रीचरणों के समीप रहकर धनुर्विद्या की शिक्षा लेने आया हूँ।"

आचार्य संकोच में पड़ गये। उस समय कौरव तथा पाण्डव बालक थे और आचार्य उन्हें शिक्षा दे रहे थे। एक भील बालक उनके साथ शिक्षा पाये, यह राजकुमारों को स्वीकार नहीं होता और यह उनकी मर्यादा के अनुरूप भी नहीं था। अतएव उन्होंने कहाः "बेटा एकलव्य ! मुझे दुःख है कि मैं किसी द्विजेतर बालक को शस्त्र-शिक्षा नहीं दे सकता।"

एकलव्य ने तो द्रोणाचार्यजी को मन-ही-मन गुरु मान लिया था। जिन्हें गुरु मान लिया, उनकी किसी भी बात को सुनकर रोष या दोषदृष्टि करने की तो बात ही मन में कैसे आती? एकलव्य के मन में भी निराशा नहीं हुई। उसने आचार्य के सम्मुख दण्डवत प्रणाम किया और बोलाः "भगवन् ! मैंने तो आपको गुरुदेव मान लिया है। मेरे किसी काम से आपको संकोच हो, यह मैं नहीं चाहता। मुझे केवल आपकी कृपा चाहिए।"

बालक एकलव्य हस्तिनापुर से लौटकर घर नहीं गया। वह वन में चला गया और वहाँ उसने गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनायी। वह गुरुदेव की मूर्ति को टकटकी लगाकर देखता, प्रार्थना करता तथा आत्मरूप गुरु से प्रेरणा पाता और धनुर्विद्या के अभ्यास में लग जाता। ज्ञान के एकमात्र दाता तो भगवान ही हैं। जहाँ अविचल श्रद्धा और दृढ़ निश्चय होता है, वहाँ सबके हृदय में रहने वाले वे श्रीहरि गुरुरूप में या बिना बाहरी गुरु के भी ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं। महीने-पर-महीने बीतते गये, एकलव्य का अभ्यास अखण्ड चलता रहा और वह महान धनुर्धर हो गया।

एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव आचार्य द्रोण की अनुमति से रथों पर बैठकर हिंसक पशुओं का शिकार खेलने निकले। संयोगवश इनके साथ का एक कुत्ता भटकता हुआ एकलव्य के पास पहुँच गया और काले रंग के तथा विचित्र वेशधारी एकलव्य को देखकर भौंकने लगा। एकलव्य के केश बढ़ गये थे और उसके पास वस्त्र के स्थान पर व्याघ्र-चर्म ही था। वह उस समय अभ्यास कर रहा था। कुत्ते के भौंकने से अभ्यास में बाधा पड़ती देख उसने सात बाण चलाकर कुत्ते का मुख बंद कर दिया। कुत्ता भागता हुआ राजकुमारों के पास पहुँचा। सबने बड़े आश्चर्य से देखा कि बाणों से कुत्ते को कहीं भी चोट नहीं लगी है, किंतु वे बाण आड़े-तिरछे उसके मुख में इस प्रकार फँसे हैं कि कुत्ता भौंक नहीं सकता। बिना चोट पहुँचाये इस प्रकार कुत्ते के मुख में बाण भर देना, बाण चलाने का बहुत बड़ा कौशल है।

अर्जुन इस कौशल को देखकर बहुत चकित हुए। उन्होंने लौटने पर सारी घटना गुरु द्रोणाचार्यजी को सुनायी और कहाः "गुरुदेव ! आपने वरदान दिया था कि आप मुझे पृथ्वी का सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे, किंतु इतना कौशल तो मुझमें भी नहीं है।"

द्रोणाचार्य जी ने अर्जुन को साथ लेकर उस बाण चलानेवाले को वन में ढूँढना प्रारम्भ किया और ढूँढते-ढूँढते वे एकलव्य के आश्रम पर पहुँच गये। आचार्य को देखकर एकलव्य उनके चरणों में गिर पड़ा।

द्रोणाचार्य ने पूछाः "सौम्य ! तुमने धनुर्विद्या का इतना उत्तम ज्ञान किससे प्राप्त किया है?"

एकलव्य ने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक कहाः "भगवन् ! मैं तो आपके श्रीचरणों का ही दास हूँ।"

उसने आचार्य की मिट्टी की उस मूर्ति की ओर संकेत किया। द्रोणाचार्य ने कुछ सोचकर कहाः "भद्र ! मुझे गुरुदक्षिणा नहीं दोगे?"

"आज्ञा करें भगवन् !" एकलव्य ने अत्यधिक आनन्द का अनुभव करते हुए कहा।

द्रोणाचार्य ने कहाः "मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अँगूठा चाहिए !"

दाहिने हाथ का अँगूठा न रहे तो बाण चलाया ही कैसे जा सकता है? इतने दिनों की अभिलाषा, इतना अधिक परिश्रम, इतना अभ्यास-सब व्यर्थ हुआ जा रहा था, किंतु एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आयी। उस वीर गुरुभक्त बालक ने बायें हाथ में छुरा लिया और तुरंत अपने दाहिने हाथ का अँगूठा काटकर अपने हाथ में उठाकर गुरुदेव के सामने धर दिया।

भरे कण्ठ से द्रोणाचार्य ने कहाः "पुत्र ! सृष्टि में धनुर्विद्या के अनेकों महान ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे इस भव्य त्याग और गुरुभक्ति का सुयश सदा अमर रहेगा। ऊँची आत्माएँ, संत और भक्त भी तुम्हारी गुरुभक्ति का यशोगान करेंगे।"

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