सोमवार, मई 28, 2018

ऐसी होती है गुरुभक्ति !

ऐसी होती है गुरुभक्ति !

बैसाखी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था। औरंगजेब के अत्याचारों को इस एक दिन के लिए भूलकर लोग खुशी से झूम रहे थे, नाच रहे थे, गा रहे थे। परंतु श्री गुरुगोविन्द सिंह इस पर्व के अवसर को गुरु भक्ति की परीक्षा के सुअवसर के रूप में बदल देना चाहते थे। वे जानते थे कि मुगल सत्ता से संघर्ष किये बिना भारतीय समाज स्वाभिमान से जी नहीं सकता। वे यह भी जानते थे कि शक्ति और भक्ति दोनों ही धर्म की संस्थापना के लिए परमावश्यक हैं। अत: उन्होंने बैसाखी के मेले में एक बड़ा अखाड़ा बनाया, जहाँ पर देश भर से अनेक लोग आए। गुरुगोविन्द सिंह के चेहरे का तेज और उनका प्रभावी व्यक्तित्व आज कुछ महान व्यक्तियों की शोध के लिए बड़ी तेजस्विता से प्रगट हो रहा था। उन्होंने हजारों भक्तों से आह्वान किया कि ‘आज धर्म पर संकट आया है, लाखों लोग मुगलों के अत्याचार से त्रस्त हैं, कौन ऐसा वीर है जो धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर है।’ गुरुगोविन्द सिंह के हाथों में नंगी तलवार देखकर उनके इस प्रश्न से लोग भयभीत हो गए और बहुतों को इस प्रश्न पर आश्चर्य भी हुआ। कुछ सोच रहे थे कि आज गुरुजी क्यों अपने शिष्यों को अपना बलिदान करने का आह्वान कर रहे हैं।

सम्पूर्ण जनसमुदाय स्तब्ध हो गया था। लोग एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। गुरुजी ने पुन: प्रश्न किया कि ‘क्या इस भारतवर्ष में कोई ऐसा वीर नहीं जो धर्म के लिए अपना बलिदान दे सके।’ जब किसी ने उत्तर नहीं दिया। तब उन्होंने कहा, ‘क्या इसी दिन के लिए तुमने जन्म लिया है कि जब महान कार्य के लिए तुम्हारी आवश्यकता पड़े, तो तुम सिर झुकाये खड़े रहो। कोई है ऐसा भक्त जो धर्म-भक्ति की बलिवेदी पर अपने आप को समर्पित कर दे।’ तभी लाहौर का एक दयाराम खत्री उठा और उसने कहा, ‘‘मैं प्रस्तुत हूँ।” गुरु उसे अपने साथ कक्ष के भीतर ले गए। वहाँ पहले से कुछ बकरे बांधकर रखे गये थे। गुरु ने एक बकरे का सिर काटकर रक्तरंजित तलवार थामे पुन: सभा में प्रवेश किया। पुन: वही सवाल ! ‘एक के बलिदान से कार्य नहीं चलेगा, है कोई और जो धर्म के लिए अपने प्राण दे दे?’  इस बार दिल्ली का एक जाट ‘धर्मदास’ आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अन्दर ले गए। पुन: बाहर आकर वही प्रश्न। इस प्रकार तीन और व्यक्ति अंदर ले जाये गये और वे थे द्वारिका का एक धोबी मोहकमचंद, जगन्नाथपुरी का रसोइया हिम्मत और बीदर का नाई साहबचन्द।

गुरु ने इन पांचों को सुन्दर वस्त्र पहनाये। उन्हें ‘पंज प्यारे’ कहकर सम्बोधित किया। उन पांचों को लेकर वे बाहर आये तो सभा स्तब्ध रह गई। बैठे हुए सभी लज्जित हुए।

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