गुरुवार, अक्टूबर 14, 2010

प्रतीति को प्राप्ति मत समझो

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।
"अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली भाँति स्थिर हो जाती है।" (भगवदगीताः 2.65)
चित्त की मधुरता से, बुद्धि की स्थिरता से सारे दुःख दूर हो जाते हैं। चित्त की प्रसन्नता से दुःख तो दूर होते ही हैं लेकिन भगवद-भक्ति और भगवान में भी मन लगता है। इसीलिए कपड़ा बिगड़ जाये तो ज्यादा चिन्ता नहीं, दाल बिगड़ जाये तो बहुत फिकर नहीं, रूपया बिगड़ जाये तो ज्यादा फिकर नहीं लेकिन अपना दिल मत बिगड़ने देना। क्योंकि इस दिल में दिलबर परमात्मा स्वयं विराजते हैं। चाहे फिर तुम अपने आपको महावीर के भक्त मानो चाहे श्रीकृष्ण के भक्त मानो चाहे मोहम्मद के मानो चाहे किसी के भी मानो, लेकिन जो मान्यता उठेगी वह मन से उठेगी और मन को सत्ता देने वाली जो चेतना है वह सबके अन्दर एक जैसी है।
ईश्वर को पाने के लिए, तत्त्वज्ञान पाने के लिए हमें प्रतीति से प्राप्ति में जाना पड़ेगा।
एक होती है प्रतीति और दूसरी होती है प्राप्ति। प्रतीति माने : देखने भर को जो प्राप्त हो वह है प्रतीति। जैसे गुलाब जामुन खाया। जिह्वा को स्वाद अच्छा लगा लेकिन कब तक ? जब तक गुलाब जामुन जीभ पर रहा तब तक गले से नीचे उतरने पर वह पेट में खिचड़ी बन गया। सिनेमा में कोई दृश्य बड़ा अच्छा लगा आँखों को। ट्रेन या बस में बैठे पहाड़ियों के बीच से गुजर रहे हैं। संध्या का समय है। घना जंगल है। सूर्यास्त के इस मनोरम दृश्य को बादलों की घटा और अधिक मनोरम बना रही है। लेकिन कब तक ? जब तक आपको वह दृश्य दिखता रहा तब तक। आँखों से ओझल होने पर कुछ भी नहीं। सब प्रतीति मात्र था।
डिग्रियां मिल गई यह प्रतीति है। धन मिल गया, पद मिल गया, वैभव मिल गया यह भी प्रतीत है। मृत्यु का झटका आया कि सब मिला अमिला हो गया। रोज रात को नींद में सब मिला अमिला हो जाता है। तो यह सब मिला कुछ नहीं, मात्र धोखा है, धोखा। मुझे यह मिला.... मुझे वह मिला..... इस प्रकार सारी जिन्दगी जम्पींग करते-करते अंत में देखो तो कुछ नहीं मिला। जिसको मिला कहा वह शरीर भी जलाने को ले गये।
यह सब प्रतीति मात्र है, धोखा है। वास्तव में मिला कुछ नहीं।
दूसरी होती है प्राप्ति। प्राप्ति होती है परमात्मा की। वास्तव में मिलता तो है परमात्मा, बाकी जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है।
परमात्मा तब मिलता है जब परमात्मा की प्रीति और परमात्म-प्राप्त, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग, सान्निध्य मिलता है। उससे शाश्वत परमात्मा की प्राप्ति होती है और बाकी सब प्रतीति है। चाहे कितनी भी प्रतीति हो जाये आखिर कुछ नहीं। ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुँच गये, विश्व का राज्य मिल गया लेकिन आँख बन्द हुई तो सब समाप्त।
प्रतीति में आसक्त न हो और प्राप्ति में टिक जाओ तो जीते जी मुक्त हो।
प्रतीति मात्र में लोग उलझ जाते हैं परमात्मा के सिवाय जो कुछ भी मिलता है वह धोखा है। वास्तविक प्राप्ति होती है सत्संग से, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के संग से।
महावीर के जीवन में भी जो प्रतीति का प्रकाश हुआ वह तो कुछ धोखा था। वे इस हकीकत को जान गये। घरवालों के आग्रह से घर में रह रहे थे लेकिन घर में होते हुए भी वे अपनी आत्मा में चले जाते थे। आखिर घरवालों ने कहा कि तुम घर में रहो या बाहर, कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर एकान्त में चले गये। प्रतीति से मुख मोड़कर प्राप्ति में चले गये।
जब रामजी का राज्याभिषेक हुआ तो कुछ ही दिनों के बाद कौशल्याजी रामजी से कहती हैं-
"हे राम ! हमारे वनवास जाने की व्यवस्था करो।" तब राम जी कहते हैं-
"माँ ! इतने दिन तो आपका सान्निध्य न पाया। चौदह वर्ष का वनवास काटा। अभी तो जब राजकाज से थकूँगा तब तुम्हारी गोद में सिर रखूँगा। माँ, अगर कोई मार्गदर्शन चाहिएगा तो तुम्हारे पास आऊँगा। मुझे साँत्वना मिलेगी, विश्रान्ति मिलेगी तुम्हारी गोद में। अभी तो तुम्हारी बहुत आवश्यकता है।"
कौशल्याजी सहज भाव से कहती हैं-
"हे राम ! इस जीव को मोह है। वह जब बालक होता है तो समझता है माँ-बाप को मेरी आवश्यकता है। बड़ा होता है तो समझता है कुटुम्बियों को मेरी आवश्यकता है और मुझे कुटुम्बियों की आवश्यकता है। जब बूढ़ा होता है तो बाल-बच्चे, पोते-पोती, नाते-रिश्तों को अभी मेरी आवश्यकता है। लेकिन हे राम ! जीव की अपनी यह आवश्यकता  कि वह अपना उद्धार करे। तुम मेरे पुत्र राम भी हो, राजा राम भी हो और भगवान राम भी हो। तुम तो स्वयं त्रिकालदर्शी हो। तुम तो मोह हटाने की बात करो। तुम स्वयं मोह की बात कर रहे हो ?"
रामजी मुस्कराते हैं किः माँ ! तुम धन्य हो। पिता जी कहते थे कि भक्ति में, धर्म में तो तुम अग्रणी हो लेकिन आज देख रहा हूँ कि आत्मा-अनात्मा विवेक में और वैराग्य में भी तुम्हारी गति बहुत उन्नत है।"
श्रीरामचन्द्रजी ने कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी को एकान्तवास में भेजने की व्यवस्था की। श्रृंगी-आश्रम में कौशल्या माता ने साधना की। प्राप्ति में टिकी।
राम तो बेटा है जिनका, अयोध्या का राज्य, राजमाता का ऊँचा पद और साधन-भजन के लिए जितने चाहिए उतने स्वतंत्र कमरे। फिर भी कौशल्याजी प्रतीति में उलझी नहीं। प्राप्ति में ठहरने के लिए एकान्त में गई। एक में ही सब वृत्तियों का अंत हो जाय उस चैतन्य राम में विश्रान्ति पाने को गई।
तुलसीदास जी कहते हैं-
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अर्थात् ब्रह्म ने ही परमार्थ के लिए राम रूप धारण किया था। अवधपति राम प्रकट हुए और हमें आचरण करके सिखाया कि उन्नत जीवन कैसे जीया जा सकता है। हर परिस्थिति में रामजी का ज्ञान तो ज्यों का त्यों है। कभी दुःख आता है कभी सुख आता है, कभी यश आता है कभी अपयश आता है, फिर भी रामजी ज्यों के त्यों हैं। कभी साधु-संतो से रामजी का सम्मान होता है तो कभी दुर्जनों से अपमान होता है। कभी कंदमूल खाते हैं तो कभी मोहनभोग पाते हैं। कभी महल में शयन करते हैं तो कभी झोंपड़ी में। कभी वस्त्र-अलंकार, मुकुट-आभूषण धारण करते हैं तो कभी वल्कल पहनते हैं लेकिन रामजी का ज्ञान ज्यों का त्यों है। प्राप्ति में जो ठहरे हैं!
रामचन्द्रजी प्रतीति में बहे नहीं। श्रीकृष्ण प्रतीति में बहे नहीं। राजा जनक प्रतीति में बहे नहीं। हम लोग प्रतीति में बह जाते हैं। प्रतीति माने दिखने वाली चीजों में सत्यबुद्धि करके बह जाना। प्रतीति बहने वाली चीज है। बहने वाली चीज के बहाव का सदुपयोग करके बहने का मजा लो और सदा रहने वाले जो आत्मदेव हैं उनसे मुलाकात करके परमात्म-साक्षात्कार कर लो, बेड़ा पार हो जायेगा। दोनों हाथों में लड्डू हैं। प्रतीति में प्रतीति का उपयोग करो और प्राप्ति में स्थिति करके जीते जी मुक्ति का अनुभव करो।
हम लोग क्या करते हैं कि प्राप्ति के लक्ष्य की ओर नहीं जाते और प्रतीति को प्राप्ति समझ लेते हैं। यह मूल गलती कर बैठते हैं। दो ही बाते हैं, बस। फिर भी हम गलती से बचते नहीं।
अपने बचपन की एक बेवकूफी हम बताते हैं। एक बार हमने भी गुड्डा-गुडिया का खेल खेला था। उस समय होंगे करीब नौ दस साल के। हमारे पक्ष में गुड्डा था और हम बारात लेकर गये। गुड़ियावालों के यहाँ से उसकी शादी कराके लाये। पार्टीवार्टी का रिवाज था तो थोड़ा हलवा बनाया था, चने बनाये थे। छोटी छोटी कटोरियों में सबको खिलाया था। फंक्शन भी किया गुड्डे-गुड़िया की शादी में। बच्चों का खेल था सब।
फिर हमने कौतूहलवश उन गुड्डे-गुड़िया को खोला। ऊपर से तो रेशम की चुन्दड़ी थी, रेशम का जामा था और अन्दर देखो तो कपड़े के सड़े-गले गन्दे-गन्दे चिथड़े थे। और कुछ नहीं था। गुड़िया को भी देख लिया, गुड़्डे को भी देख लिया। ये दुल्हा और दुल्हन ! है तो कुछ नहीं। भीतर चिथड़े भरे हैं।
ऐसे ही संसार में भी वही है। लड़का शादी करके सोचता है। मुझे गुड़िया मिल गई... लड़की शादी करके सोचती है मुझे गुड्डा मिल गया। मुझे राजा मिल गया... मुझे पटरानी मिल गई।
जरा ऊपर की चमड़ी का कवर खोलकर देखो तो राम.... राम ! भीतर क्या मसाला भरा है....! लेकिन राजी होते हैं कि मैंने शादी की। दुल्हा सोचता है मैं दुल्हा हूँ। दुल्हन सोचती है कि मैं दुल्हन हूँ। अरे भाई ! तू दुल्हा भी नहीं, तू दुल्हन भी नहीं। तू तो है आत्मा। वह है प्राप्ति। तूने प्रतीति की कि मैं दुल्हा हूँ।
जीव वास्तव में है तो आत्मा लेकिन प्रतीति करता है कि मैं जैन हूँ.... मैं अग्रवाल हूँ.... मैं हिन्दू हूँ..... मैं मुसलमान हूँ..... मैं सेठ हूँ... मैं साहब हूँ... मैं जवान हूँ... मैं बूढ़ा हूँ।
है तो आत्मा और मान बैठा है कि मैं विद्यार्थी हूँ। यह प्रतीति है। प्रतीति का उपयोग करो लेकिन प्रतीति को प्राप्ति मत समझो। वास्तविक प्राप्ति की ओर लापरवाही मत करो।
आज विश्व में जो अशांति और झगड़े हुए हैं वे केवल इसलिए कि हम प्रतीति में आसक्त हुए और प्राप्ति से विमुख रहे। कौमी झगड़े.... मजहबी झगड़े..... मेरे-तेरे के झगड़े। ऐसा नहीं कि हिन्दू और मुसलमान ही लड़ते हैं। मुसलमानों में शिया और सुन्नी भी लड़ते हैं। जैन-जैन भी लड़ते हैं। एक माँ-बाप के बेटे-बेटियाँ भी लड़ते हैं। आदमी नीचे के केन्द्रों में जी रहा है, प्रतीति की वस्तुओं में आसक्त हुआ है। सास और बहू लड़ती है। एक ही माँ-बाप के बेटे, दो भाई भी लड़ते हैं। हम लोग प्रतीति में उलझ गये हैं इसलिए लड़-लड़कर मर रहे हैं। हम लोग अगर प्राप्ति की ओर लग जायँ तो पृथ्वी स्वर्ग बन जाय।
विवेकानन्द बोलते थेः
"लाख आदमी में अगर एक आदमी आत्मारामी हो जाय, लाख आदमी में अगर एक आदमी प्राप्ति में टिक जाय तो पृथ्वी चन्द दिनों में स्वर्ग बन जाय।"
भगवान ऋषभदेव ने प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग दोनों का आचरण करके दिखाया और बाद में साबित कर दिखाया कि दोनों प्रतीति मात्र हैं। प्रवृत्ति भी प्रतीति है और निवृत्ति भी प्रतीति है। प्रकृति और निवृत्ति इन दोनों की सिद्धि जिससे होती है वह आत्मा ही सार है। उस आत्मा की ओर जितनी जितनी हमारी नजर जाती है उतना उतना समय सार्थक होता है। उतना उतना जीवन उदार होता है, व्यापक होता है, निर्भीक होता है, निर्द्वन्द्व होता है और निजानन्द के रस से परिपूर्ण होता है।
युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण बंसी रहे हैं, क्योंकि वे प्राप्ति में ठहरे हैं। रामचन्द्रजी कभी मोहनभोग पाते हैं कभी कन्दमूल खाते हैं फिर भी उद्विग्न नहीं होते, क्योंकि प्राप्ति में ठहरे हैं। विषम परिस्थितियों में भी रामचन्द्रजी मधुर भाषण तो करते ही थे, सारगर्भित भी बोलते थे। रामचन्द्रजी के आगे कभी कोई आकर बात करता था तो वे बड़े ध्यान से सुनते और तब तक सुनते थे जब तक कि सामने वाले का अहित न होता हो, चित्त कलुषित न होता हो, कान अपवित्र न होते हों। अगर वह किसी की निन्दा या अहित की बात बोलता तो रामजी युक्ति से उसकी बात को मोड़ देते थे। अतः यह गुण आप सबको अपनाना चाहिए।
रामचन्द्रजी की सभा में कभी-कभी दो पक्ष हो जाते किसी निर्णय देने में। रामचन्द्रजी इतिहास के, शास्त्रों के तथा पूर्वकाल में जिये हुए उदार पुरुषों के निर्णय का उद्धरण देकर सत्य के पक्ष को पुष्ट कर देते थे और जिस पक्ष मे दुराग्रह होता था उस पक्ष को रामचन्द्रजी नीचा भी नहीं दिखाते थे लेकिन सत्य के पक्ष को एक लकीर ऊँचा कर देते तो उसको पता चल जाता कि हमारी बात सही नहीं है।
हम घर में, कुटुम्ब में क्या करते हैं ? बहू चाहती है घर में मेरा कहना चले, बेटी चाहती है मेरा कहना चले, भाभी चाहती है मेरा कहना चले, ननद चाहती है मेरा कहना चले। सुबह उठकर कुटुम्बी लोग सब एक दूसरे से सुख चाहते हैं और सब एक दूसरे से अपना कहना मनवाना चाहते हैं। घर में सब लोग भिखारी हैं। सब चाहते हैं कि दूसरा मुझे सुख दे।
सुख लेने की चीज नहीं है, देने की चीज है। मान लेने की चीज नहीं है, मान देने की चीज है। हम लोग मान लेना चाहते हैं, मान देना नहीं चाहते। इसलिए झंझट पैदा होती है, झगड़े पैदा होते हैं।

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