शनिवार, अक्टूबर 23, 2010

आपमें और ईश्वर में क्या दूरी है ?



यह ईश्वरीय विधान है कि मार खाकर भी आदमी को सुधरना पड़ता है। डण्डे खाकर भी सुधरना पड़ता है और अगर मर गये तो नर्कों में जाकर या इतर योनियों में जाकर भी सुधार की प्रक्रिया तो चालू ही रहती है। आगे बढ़ो... आगे बढ़ो... आगे बढ़ो नहीं तो जन्मों और मरो... मरो और जन्मो.....।
पुण्य क्या है ? पाप क्या है ?
समझो कोई बालक पाँच साल का है। वह पहली क्लास में है तो पुण्य है। बड़ा होने पर भी फिर-फिर से पहली क्लास में ही रहता है तो वह पाप हो जाता है। जिस अवस्था में तुम आये हो उस अवस्था के अनुरूप उचित व्यवहार करके उन्नत होते हो तो वह पुण्य है। इससे विपरीत करते हो तो तुम दैवी विधान का उल्लंघन करते हो।
जिस समय जो शास्त्र-मर्यादा के अनुरूप कर्त्तव्य मिल जाय उस समय वह कर्त्तव्य अनासक्त भाव से ईश्वर की प्रसन्नता के निमित्त किया जाय तो वह पुण्य है। घर में महिला को भोजन बनाना है तो 'मैं साक्षात् मेरे नारायण को खिलाऊँगी' ऐसी भावना से बनायगी तो भोजन बनाना पूजा हो जायगा। झाड़ू लगाना है तो ऐसे चाव से लगाते रहो और चूहे की नाँई घर में भोजन बनाते रहो, कूपमण्डूक बने रहो। सत्संग भी सुनो, साधन भी करो, जप भी करो, ध्यान भी करो, सेवा भी करो और अपना मकान या घर भी सँभालो। जब छोड़ना पड़े तब पूरे तैयार भी रहो छोड़ने के लिए। अपने आत्मदेव को ऐसा सँभालो। किसी वस्तु में, व्यक्ति में, पद में आसक्ति नहीं। सारा का सारा छोड़ना पड़े तो भी तैयार। इसी को बोलते हैं अनासक्तियोग।
जीवन में त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए। सब कुछ त्यागने की शक्ति होनी चाहिए। जिनके पास त्यागने की शक्ति होती है वे ही वास्तव में भोग सकते हैं। जिसके पास त्यागने की शक्ति नहीं है वह भोग भी नहीं सकता। त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए। यश मिल गया तो यश के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए, धन के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए, सत्ता के त्याग का सामर्थ्य होना चाहिए।
सत्ता भोगने की इच्छा है और सत्ता नहीं मिल रही है तो आदमी कितना दुःखी होता है ! सत्ता मिल भी गई दो-पाँच साल के लिए और फिर चली गई। कुर्सी तो दो-पाँच साल की और कराहना जिन्दगी भर। यही है बाहरी सुख का हाल। विकारी सुख तो पाँच मिनट का और झंझट जीवन भर की।
सत्ता मिली तो सत्ता छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। दृश्य दिखा तो बार-बार दृश्य देखने की आसक्ति को छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। धन मिला तो धन का सदुपयोग करने के लिए धन छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। यहाँ तक कि अपना शरीर छोड़ने का सामर्थ्य होना चाहिए। जब मृत्यु आवे तब शरीर को भीतर से पकड़कर बैठे न रहें। चलो, मृत्यु आयी तो आयी, हम तो वही हैं चिदघन चैतन्य चिदाकाश स्वरूप.... सोऽहं...सोऽहम्। ऐसे त्यागी को मरने का भी मजा आता है और जीने का भी मजा आता है।
पापी आदमी के प्राण नीचे के केन्द्रों से निकलते हैं, गुदाद्वार आदि से। मध्यम आदमी के प्राण नाभि आदि से निकलते हैं। कुछ लोगों के प्राण मुख, आँख, कण्ठ आदि से निकलते हैं। योगेश्वरों के प्राण निरूद्ध होकर तालू से निकलते हैं।
आप जप करते है, ध्यान करते हैं तो आपके मन और प्राणों को ऊपर के केन्द्रों में जीने की आदत पड़ जाती है। प्राण ऊपर के केन्द्रों से निकलते है तो उन्नत हो जाते है। अगर काम-विकार में रहते हैं, भोग भोगने में और खाने पीने  में रहते हैं और खाये पिये हुए पदार्थ छोड़ने के अंगों में ही आसक्ति है तो फिर वृक्ष आदि की योनि में जाओ जहाँ नीचे से ऊपर की ओर खींचने की प्रवृत्ति होती है।
वृक्ष अपना भोग पदार्थ नीचे से उठाकर ऊपर ले जाते हैं। पशु आदि सामने से लेते हैं और पीछे फेंकते हैं। मनुष्य है जो भोग-पदार्थों को ऊपर से लेता है, नीचे को फेंकता है और स्वयं ऊपर उठ जाता है।
अर्थात भोगों को नीचे गिराकर आप योग करो। आसक्ति को, पुरानी आदतों नीचे छोड़कर आप ऊपर उठो। यह है विधान का आदर।
ईश्वरीय विधान चाहता है कि तुम ईश्वरीय स्वभाव में जग जाओ। बार-बार गर्भ में जाकर माताओं को पीड़ा मत दो, अपने को पीड़ा मत दो, समाज को पीड़ा मत दो। मुक्त हो जाओ। आपको जो बुद्धि मिली है उसका विकास करो। ईश्वरीय विधान तुमसे यह भी अपेक्षा करता है कि हर परिस्थिति में तुम सम रहने की कोशिश करो। आपमें और ईश्वर में क्या दूरी है वह जरा खोज लो। आप ईश्वर से मिल लो। कब तक बिछुड़े रहोगे ?
कितना सुन्दर है ईश्वरीय विधान ! उसमें प्राणिमात्र के हित के सिवाय और कुछ नहीं होता। विधान जितना-जितना व्यापक होता है उतना-उतना बहुजन हिताय होता है।
अपने भाग्य के हम आप विधाता होते हैं। रेल की पटरियाँ बनीं फिर रेल का भाग्य बन गया कि वह दूसरी जगह नहीं जा सकती। पटरियाँ उसका भाग्य हैं, गति कम या ज्यादा होना यह उसका पुरूषार्थ है। पटरियाँ जब बन रही थीं तब चाहे जिधर की बना सकते थे।
पूर्वकाल में पटरियाँ बनाना यह भी आपका पुरूषार्थ था और अब उन पटरियों पर चलना भी आपका पुरूषार्थ है। पूर्व के जो सम्बन्ध आपने बना लिये, जो मान्यताएँ बना लीं वे पटरियाँ आपने ही तो डाली। अब नयी जगह पर दूसरी पटरियाँ भी डाल सकते हो और पुरानी पटरियों का सदुपयोग भी कर सकते हो।
"क्या करें महाराजश्री ! अपने भाग्य में लिखा हो तभी संतों के द्वार जा सकते हैं।"
बात ठीक है। संतों के द्वार तक जाने की पटरियाँ तो बन गई हैं लेकिन कितनी गति से जाना यह आपके हाथ की बात है। पटरियाँ तो फिट हो गई हैं। अपनी जीवन की गाड़ी उस पर चलाते हो कि नहीं चलाते, यह भी देखना पड़ेगा।
आपके आज का कर्म कल का प्रारब्ध बन जाता है। कल का अजीर्ण आज के उपवास से ठीक हो जाता है। कल का कर्जा आज चुका देने से मिट जाता है। कल की कमाई आज के भोग-विलास से नष्ट भी हो जाती है। मनुष्य के जीवन में उसके कर्मों के अनुसार उतार-चढ़ाव आते हैं। इसलिए दैवी विधान को दृष्टि समक्ष रखकर कर्म किये जाते हैं तो मजा आता है।

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1 टिप्पणियाँ:

यहां शनिवार, 23 अक्टूबर 2010 को 8:34:00 am IST बजे, Blogger ASHOK BAJAJ ने कहा…

सत्य वचन .
शत शत नमन !!!

 

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