रविवार, अक्तूबर 03, 2010

तू पाँच भूतों का पुतला नहीं है....


जो लोग सिंध में रहते थे और विदेशों में जाकर कमाते थे उनको सिंधवर्की कहा जाता था।
सिंधवर्की खूबचन्द अपनी पत्नी, माँ बाप को छोड़कर विदेश में कमाने गया। धन्धे-रोजगार में खूब बरकत रही। साल-दो-साल के अंतर पर घर आता-जाता रहा। इसी बीच उसको एक बेटा हो गया। फिर वह कमाने के लिए विदेश चला गया और इधर बेटे को न्यमोनिया हुआ और वह चल बसा। पत्नी ने सोचा किः "पति को खबर देने से बेटा लौटेगा तो नहीं और पति वहाँ बेचैन हो जाएगा।" पत्नी ने खूबचन्द को बेटे के अवसान की खबर नहीं दी।
कुछ समय बाद खूबचन्द जब घर लौटने को हुआ तब उसकी पत्नी ने एक युक्ति रची। अपनी पड़ोसन के गहने ले आयी और पहन लिये। खूब सज-धजकर पति का स्वागत करने के लिए तैयार हो गयी। पति घर आया। पत्नी ने स्वागत किया। पति ने पूछाः "बेटा किशोर कहाँ है ?"
"होगा कहीं अड़ोस-पड़ोस में। खेलता होगा। आप स्नानादि कीजिए, आराम कीजिए।"
खूबचन्द ने स्नान भोजन किया। फिर आराम करने लगा तो पत्नी चरणसेवा करने आ गई। बात-बात में कहने लगीः
"देखिये, ये गहने कितने सुन्दर हैं ! पड़ोसन के हैं और वह वापस माँग रही है मगर मैं उसे वापस देना नहीं चाहती।"
पति बोलाः "पगली ! किसी की अमानत है, उसे वापस देने में विलंब कैसा ? ऐसा क्यों करती है ? तेरा स्वभाव क्यों बदल गया ?"
"जा दे आ। पहले वह काम कर, जा गहने दे आ।"
"नहीं नहीं, ये तो मेरे हैं।" पत्नी नट गई।
"तू बोलती है कि पड़ोसन के हैं ? मैंने तुझे बनवाकर नहीं दिये तो ये गहने तेरे कैसे हो गये ? तुम्हारे नहीं है फिर उनमें अपनापन क्यों करती है ? ऐसी क्या मूर्खता ? जा, गहने दे आ।"
लम्बी-चौड़ी बातचीत के बाद वह सचमुच में गहने पड़ोसन को दे आई, फिर आकर पति से बोलीः
"जैसे, वे गहने पराये थे और मैं अपना मान रही थी तो बेवकूफ थी, ऐसे ही वह पाँच भूतों का पुतला था न, हमारा किशोर..... वह पाँच भूतों का था और पाँच भूतों में वापस चला गया। अब मुझे दुःख होता है तो मैं बेवकूफ हूँ न ?"
पति बोलाः "अच्छा ! तूने चिट्ठी क्यों नहीं लिखी ?"
"चिट्ठी इसलिए नहीं लिखी कि आप शायद वहाँ दुःखी हों। ऐसी बेवकूफी की चिट्ठी क्या लिखना ?"
पति ने कहाः "ठीक है, बात तो सही है। पाँच भूतों के पुतले बनते हैं और बिगड़ते है। किशोर की आत्मा और हमारी आत्मा एक है। आत्मा की कभी मौत नहीं होती और शरीर कभी शाश्वत टिकते नहीं। कोई बात नहीं.....।"
वह महिला निर्दय नहीं थी, समझदार थी।
अनुचित प्रसंग में, मोह के प्रसंग में, अशांति के प्रसंग में अगर तुम कृत उपासक हो, अगर तुम्हारी कोई समझ है तो ऐसे दुःख या अशांति के प्रसंग भी तुम्हें अशांति नहीं दे सकेंगे।
अष्टावक्र जी कहते हैं-
न त्वं विप्रदिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।
'तू ब्राह्मण आदि जाति नहीं है और न तू चारों आश्रम वाला है, न तू आँख आदि इन्द्रियों का विषय है वरन् तू असंग, निराकार, विश्व का साक्षी है ऐसा जानकर सुखी हो।'
जैसे तुम शरीर के साक्षी हो वैसे ही तुम मन के साक्षी हो, बुद्धि के साक्षी हो, सुख और दुःख के साक्षी हो, सारे संसार के साक्षी हो।

धर्माऽधर्मो सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्त्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।
'हे व्यापक ! मन सम्बन्धी धर्म और अधर्म, सुख और दुःख तेरे लिए नहीं है और न तू कर्त्ता है और न तू भोक्ता है। तू तो सदा मुक्त ही है।'
सुख और दुःख, धर्म अधर्म, पुण्य और पाप ये सब मन के भाव हैं, उस विभु आत्मा के नहीं। ये भाव सब मन में आते हैं। तुम मन नहीं हो। ये भाव तुम्हारे नहीं हैं। तुम विश्वसाक्षी हो।
रानी मदालसा अपने बच्चों को उपदेश देती थीः न कर्त्ता असि न भोक्ता असि। शुद्धोऽसि.... बुद्धोऽसि... निरंजनो नारायणोऽसि....
जो मूढ़ अपने को बँधन में मानता है वह बँध जाता है और जो अपने मुक्त स्वभाव, आत्मस्वरूप, आत्मा का मनन करता है वह मुक्त हो जाता है।
अष्टावक्र बहुत ऊँची बात कह रहे हैं। बुद्ध तो सात कदम चले, बाद में कहते हैं- "संसार दुःखरूप है, दुःख का उपाय है, दुःख से छूटा जा सकता है, मुक्ति हो सकती है।" जबकि अष्टावक्र तो प्रारंभ से ही आखिरी सत्य कह देते हैं- "तू पाँच भूतों का पुतला नहीं है....।" यह एकदम स्वच्छ सीधी सी बात है लेकिन हम लोगों की उपासना नहीं है, गैर-संस्कार चित्त में पड़ गये हैं अतः कुछ करो। इतना-इतना कमाओ, इतना खाओ, इतना धरो आदि.... बाद में कहीं सुखी होंगे।

सुख का दरिया लहरा रहा है, सुख का सिन्धु आपके पास है। वह सुखस्वरूप परमात्मा आपको दुःखी करना भी नहीं चाहता। जैसे बच्चों पर दुःख पड़े तो माँ बेचैन हो जाती है ऐसे ही आप पर अगर दुःख का प्रभाव पड़ता है तो सब माँ की भी जो माँ है वह परमात्मा, वह अस्तित्व कोई खुश नहीं होता। ईश्वर आपको दुःखी करके खुश नहीं होता, बल्कि आपको सुखी देखकर खुश होता है। ईश्वर कहो, गुरू कहो.... एक ही तत्त्व के दो नाम हैं।

ईश्वरो गुरूरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनो।
व्योमवत् व्याप्तदेहाय तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

हम जब शांत होते हैं, मौन होते हैं, अपनी ओर लौटते हैं, अपने घर की ओर जाते हैं तो भगवान और गुरू प्रसन्न होते हैं। जितना-जितना आदमी मौन होता है, निर्वासनिक होता है, निःसंकल्प होता है उतना-उतना वह महान् हो जाता है। जितना-जितना वह बहिर्मुख होता है उतना-उतना तुच्छ होता है, दुःखी होता है। फिर कुछ करके, कुछ खाकर, कुछ देखकर आदमी सुखी होने का प्रयास करता है। वह सुख भी टिकता नहीं है।

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