गुरुवार, अक्टूबर 02, 2025

बापू तो बापू ही है। ये आँधी अभी नहीं आई ऐसी कई बार आई है।

 


गांधीजी का आश्रम और अपना आश्रम उसी लाइन में लगता है। 

तो हम ऐसे तो कई भक्तों के लिए, तो उनसे मिलने के लिए अथवा कईयों को सत्संग देने के लिए तो जेल में गए लेकिन अभी इन आरोपों के बहाने हम बोलेंगे पहले हम ही आते है भाई चलो। 

अगर थाणे पर बैठ जाएं, पहले हमको लो। उधर का भी मजा लेते आएंगे क्या फर्क पड़ता है! पाप करना बुरा है, गलती करना बुरा है लेकिन झूठ-मूठ में कोई निंदा करता है या झूठ-मूठ में जेल मिलता है तो नानकजी भी तो जाकर आए थे, नानकजी को भी जेल हुई थी। तो क्या नानकजी अपराधी थोड़े थे! और चमके। अपन और चमक के आ जाएंगे क्या फर्क पड़ता है।

जयेंद्र सरस्वती को भी जेल में डाल दिया था तो और चमके । अब वो साजिश वाले क्या-क्या साजिश कर रहे हैं, मैं तैयार बैठा हूं। बहुत बहुत तो जेल जाना है। क्या खयाल है? तैयार हो! हां.. लेकिन फिर जेल भेजनेवालों को भी प्रकृति क्या करेगी वह फिर प्रकृति का विधान लेंगे, समझ जाएंगे । निर्दोष को कोई सताता है तो उसके ऊपर भी कुदरत का नाराजी होती है। नारायण हरि... नारायण हरि... ॐ नमो भगवते वासुदेवाय... ॐ नमो भगवते वासुदेवाय... वासुदेवाय... प्रीतिदेवाय... भक्तिदेवाय... माधुर्यदेवाय... ममदेवाय... प्रभुदेवाय... ॐ नमो भगवते वासुदेवाय... ॐ नमो भगवते वासुदेवाय... 


वो साजिश करने वाले अगर मेरे को जेल में भेजते हैं तो जेलवालों का तो भला हो जाएगा। मेरा कुछ बिगड़ता वाला नहीं। मेरा बिगड़ जाएगा कुछ? 

अरेऽऽऽऽ मेरे को तो गुरुजी ने वो ज्ञान दे रखा है कि सारी दुनिया के लोग उलटे होकर भी कुछ भी कर ले और शरीर का टुकड़ा-टुकड़ा हो जाए फिर भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ता, मैं आकाश से भी सूक्ष्म, चिदाकाश ब्रह्म वपु... चिद्-घन चैतन्य का क्या बिगड़ता है! और शरीर का सुधर-सुधर कर कब तक सुधरता है, एक दिन तो इसको जलना-मरना है, गड़ना है। मैं शरीर नहीं हूं। आप जो देखते हैं मुझे मैं वो मैं उतना ही नहीं हूं, वो ही नहीं हूं। अनंत-अनंत ब्रह्मांड जिसमें फुरफुराकर लीन हो रहे हैं मैं वो चैतन्य हूं। अएऽऽऽऽऽ हएऽऽऽऽऽ । 


नारायण... यह सत्रहवीं बार आया हूं तुम लोगों के बीच 16 बार पहले आ चुका हूं । सत्रहवीं बार आया हूं तन लेकर। नहीं तो सोचो! तीसरी पढ़ा हुआ और ऐसा कर सकता है? बताओ जरा! सोचने की बात है, तीसरी पढ़ा हुआ व्यक्ति इतना कुछ कर सकता है क्या परिवर्तन! प्रत्यक्ष बात है। कैसी-कैसी कहानी बनाते हैं कैसा कैसा लेख लिखते हैं, कैसी-कैसी बात! पढ़ते है तो अपने को आश्चर्य होता है । वो अपने मन का ही नमन... फिर बोलते हैं आश्रम का एक आदमी ने हमको यह बताया है।

वो लिखने वाले और बोलने वाले कुछ भी... आश्रम के ये.. वो... ऐसा है, वैसा है ऐसी ऐसी कहानी और नमन करते हैं गंदगी कि पढ़ने वाले को लगे कि अरररररररर आश्रम में ऐसा है अरररररररर ऐसा करते हैं, ऐसे हैं... इस बहाने भी देखने को आएंगे और मेरे को देखने के बाद सबको हो जाएगा कि बापू तो बापू ही है। ये आँधी अभी नहीं आई ऐसी कई बार आई है।

गुरुवार, नवंबर 23, 2023

संग की बलिहारी है

 संग की बड़ी बलिहारी है । संग की बड़ी महिमा है। संग तार देता है और कुसंग डूबा देता है। इसीलिए संग करने के पहले जरा सोचना चाहिए कि आपके रास्ते का संग कर रहे हो कि आपसे गिरते हुए व्यक्तियों का संग कर रहे हो। गिरते हुए व्यक्ति आपके संपर्क में आए तो हरकत नहीं लेकिन आप उनके संग से रंगे नहीं जाना। गुरुदेव बार-बार कहा करते थे- "गुलाब के फूल बनना।" 
गुलाब का फूल कंदोई की दुकान पर रखो, खांड वाले के दुकान पर रखो, गुड़ वाले की दुकान पर रखो, कपड़े वाले के दुकान पर रखो, अरे निदान घी वाले की दुकान पर रखो, सब जगह से घुमाकर आओ, फिर सूंघोगे तो किसी का रंग उस पर चढ़ेगा नहीं, किसी की बू उस पर आयेगी नहीं, गुलाब अपनी खुशबू देगा। ऐसे ही साधक अपने ईश्वर की तरफ के रंग से और रंगो को चढ़ने ना दे। 
"तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने"।
 जैसे गुलाब निर्लिप्त रहता है, ऐसा तू निर्लिप्त होकर महक तो तुझे जमाना जाने!  -ऐसा महापुरुषों का कहना है।

सोमवार, मार्च 06, 2023

जन समुदाय में प्रीति है तो ज्ञान में रूचि कैसे होगी ?

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि ।।

“मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना (यह ज्ञान है)।”
(भगवद् गीताः १३-१०)

अनन्य भक्ति और अव्यभिचारिणी भक्ति अगर भगवान में हो जाय, तो भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है। भगवान प्राणी मात्र का अपना आपा है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के सिवाय अन्य पुरूष में पतिभाव नहीं रखती, ऐसे ही जिसको भगवत्प्राप्ति के सिवाय और कोई सार वस्तु नहीं दिखती, ऐसा जिसका विवेक जाग गया है, उसके लिए भगवत्प्राप्ति सुगम हो जाती है। वास्तव में, भगवत्प्राप्ति ही सार है। माँ आनन्दमयी कहा करती थी – “हरिकथा ही कथा…… बाकी सब जगव्यथा।”

मेरे अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन समुदाय में प्रीति न होना…. इस प्रकार की जिसकी भक्ति होती है, उसे ज्ञान में रूचि होती है। ऐसा साधक अध्यात्मज्ञान में नित्य रमण करता है। तत्त्वज्ञान के अर्थस्वरूप परमात्मा को सब जगह देखता है। इस प्रकार जो है, वह ज्ञान है। इससे जो विपरीत है, वह अज्ञान है।

हरिरस को, हरिज्ञान को, हरिविश्रान्ति को पाये बिना जिसको बाकी सब व्यर्थ व्यथा लगती है, ऐसे साधक की अनन्य भक्ति जगती है। जिसकी अनन्य भक्ति है भगवान में, जिसका अनन्य योग हो गया है उसको जनसंपर्क में रूचि नहीं रहती। सामान्य इच्छाओं को पूर्ण करने में, सामान्य भोग भोगने में जो जीवन नष्ट करते है, ऐसे लोगों में सच्चे भक्त को रूचि नहीं होती। पहले रूचि हुई तब हुई, किन्तु जब अनन्य भक्ति मिली तो फिर उपरामता आ जायेगी। व्यवहार चलाने के लिए लोगों के साथ ‘हूँ…हाँ…’ कर लेगा, पर भीतर महसूस करेगा कि यह सब जल्दी निपट जाय तो अच्छा।

अनन्य भक्ति जब हृदय में प्रकट होती है, तब पहले का जो कुछ किया होता है वह बेगार-सा लगता है। एकान्त देश में रहने की रूचि होती है। जन-संपर्क से वह दूर भागता है। आश्रम में सत्संग कार्यक्रम, साधना शिविरें आदि को जन-संसर्ग नहीं कहा जा सकता। जो लोग साधन-भजन के विपरीत दिशा में जा रहे हैं, देहाध्यास बढ़ा रहे हैं, उनका संसर्ग साधक के लिए बाधक है। जिससे आत्मज्ञान मिलता है वह जनसंपर्क तो साधन मार्ग का पोषक है। जन-साधारण के बीच साधक रहता है तो देह की याद आती है, देहाध्यास बढ़ता है, देहाभिमान बढ़ता है। देहाभिमान बढ़ने पर साधक परमार्थ तत्त्व से च्युत हो जाता है, परम तत्त्व में शीघ्र गति नहीं कर सकता। जितना देहाभिमान, देहाध्यास गलता है, उतना वह आत्मवैभव को पाता है। यही बात श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने कहीः

गलिते देहाध्यासे विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।

जब देहाध्यास गलित हो जाता है, परमात्मा का ज्ञान हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ समाधि का अनुभव होता है, समाधि का आनन्द आता है।

देहाध्यास गलाने के लिए ही सारी साधनाएँ हैं। परमात्मा-प्राप्ति के लिये जिसको तड़प होती है, जो अनन्य भाव से भगवान को भजता है, ‘परमात्मा से हम परमात्मा ही चाहते हैं…. और कुछ नहीं चाहते…..’ ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति जिसके हृदय में है, उसके हृदय में भगवान ज्ञान का प्रकाश भर देते हैं।

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रविवार, मार्च 05, 2023

जिस माला से परमात्मा के साथ संबंध जोड़ा जाता है उस माला का मूल्य हम लोग नहीं जानते। जानिए कैसे ला सकते हैं अपनी माला में दिव्यता - बता रहे हैं पूज्य बापूजी

https://youtu.be/V7ah2asLJHU

शास्त्रों के अनुसार जपमाला जाग्रत होती है, यानी वह जड़ नहीं, चेतन होती है । माना जाता है कि देव शक्तियों के ध्यान के साथ-साथ अंगूठे या उंगलियों के अलग-अलग भागों से गुजरते माला के दाने आत्मा ब्रम्ह को जागृत करते हैं । इन स्थानों से ‘दैवीय उर्जा’ मन और शरीर में प्रवाहित होती है । इसलिए यह भी देवस्वरूप है। जिससे मिलनेवाली शक्ति या ऊर्जा अनेक दुखों का नाश करती है ।

यही कारण है कि मंत्रजप के पहले जपमाला की भी विशेष मंत्र से स्तुति एवं पूजा करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है । 
भगवन्नाम की दीक्षा देने वाले महापुरुष जब मंत्र दीक्षा देते हैं और साधक जपने लग जाता है तो साधक के पांच शरीर शुद्ध होने लगते हैं। 84 नाड़ियां भगवन्नाम से पावन होने लगती है । 26 उपत्काओं में भगवन्नाम का प्रताप पहुंचने लगता है। लिंग पुराण में लिखा है:

 _जपेन पापं शाम्येत शेषंयत्कृतं जन्मपरंपराषु ।_
_जपेन भोगान् जपेन च मृत्यु जपेन सिद्धिं लभते च मुक्तिं॥_ 

भगवन्नाम जपने के द्वारा अनेक जन्मपरंपराओं, कई जन्म की परंपराओं के संचित पाप नष्ट हो जाते हैं।
भगवन्नाम जपते सभी प्रकार के सुखभोग खींचकर आने लगते हैं। भगवत्नाम जप प्राप्ति करते जप के द्वारा मुक्ति भी सुलभ 
हो जाती है और प्रज्ञा में प्रकाश होने लगता है। भगवन्नाम का प्रारम्भ करते समय जरा माला-वाला जपने की प्रेक्टिस नहीं है तो कठिन लगता है लेकिन प्रेक्टिस हो जाए तो माला बहुत काम देती है क्योंकि माला मध्यमा उंगली और अंगूठे के मेल से घुमाई जाती है। इससे क्या कि अंगूठे में जो तीन पाईंट है : एक सुमृति की है, एक प्रज्ञा की है, एक कार्यक्षमता की है, ये तीनों पाईंटें माला जपने से सजग रहती है और भगवान के नाम से बाकी के लाभ होते रहते हैं। तो प्रतिदिन माला जपने का अभ्यास.... आरंभ में के.जी. में जाते हैं ना बच्चे 1, 2.. लिखने अथवा ए.बी.सी.डी. लिखना कठिन लगता है लेकिन हाथ जम जाता है तो आसान हो जाता है ऐसे ही पहले माला पर जप करते-करते बाद में आठ-दस.. दस माला हो गई थोड़ी देर बैठे रहे। और जप करते-करते अपने आप को छोड़ दिया तो अंदर की शक्तियां जागृत होने लगेगी। कभी ऐसा झटका आएगा तो आप डरना नहीं और कुछ रोकना नहीं अंदर की छुपी हुई शक्तियों जागेगी कभी प्रकाश दिखेगा कभी हंसी आएगी कभी भगवान कहते भागवत में : 

वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
हसति क्वचित् रुदत्यभीक्ष्णं।
उद्गायन्ति विलज्जै नृत्यनंति च
मद्भक्तियुक्ता भुवनं पुनाति ॥

कभी वह हंसने लगता है, कभी रोने लगता है । कभी गला भर जाता है । कभी लज्जा छोड़कर नाचने लग जाता है। उद्धव ऐसा मेरा भक्त त्रिभुवन को पावन करने वाला हो जाता है।

तो हम जप कराते हैं या मंत्र देते हैं तो यह कहते हैं कि जप-ध्यान करो तो आसन बिछाकर करना चाहिए क्योंकि जैसे जनरेटर घूमता है तो विद्युत बनती है वैसे भगवान के नाम की पुनरावृति से एक आध्यात्मिक बिजली बनती है । तो आसन बिछाए बिना जो जप होता है तो अर्थिंग मिलने के कारण जप की विद्युत धरती में चली जाती है। इसीलिए आसन बिछाकर जप करना चाहिए।

जप के समय मन को एकाग्र कैसे करें?

मानो किसी का मन बहुत चंचल है, एकाग्र नहीं होता तो जप करते जाए और दाने पर त्राटक करते जाए, देखते जाएं। जब उंगली दाने पर आए मंत्र बोला और फिर दूसरे दाने को देखा। तो मन दाने को देखने में और जपने में दो काम होने से चंचलता कम कर देगा। नजर... और जपते जाएं, इससे मन की एकाग्रता में मदद मिलेगी दूसरा उपाय है कि अगर खुला आकाश है और अच्छा लगता है तो आकाश में निगाह टिकाए और जप करते जाएं। तीसरा उपाय है जिसमें प्रीति हो, ओंकार में अथवा इस प्रकार के स्वस्तिक में तो उसकी आकृति, चित्र सामने रखें । न ऊपर देखें न नीचे, बिल्कुल बराबरी में रखें, उस पर टिकीटिकी लगाकर देखें अथवा कोई हयात जागृत महापुरुष हो, उनका चित्र पर एकाकार होने का अवसर मिलता है तो इससे भी मन की एकाग्रता में मदद मिलेगी।

 *सावधानियां* 
 _मंत्र जप का पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए_ 

अमावस्या पूर्णिमा और पर्व के दिन मौन, जप-उपवास आदि से नाड़ियों का शोधन होता है। रोज दस प्राणायाम करने से विधिवत सुबह और दोपहर को करें तो एक महीने में सारी नाड़ियां शुद्ध होकर जापक को चमत्कारिक लाभ, आनंद प्राप्त हो सकता है। प्याज, लहसुन, मूली, आलू स्वास्थ्य के लिए और भक्ति के लिए विशेष हितकारी नहीं है । भैंस का दूध की अपेक्षा गाय का दूध साधन भजन वाले के लिए हितकारी है। मासिक धर्म में महिलाएं हों तो अपने हाथ से भोजन बनाकर पति को या बच्चों को ना खिलाएं, उनकी बुद्धि के विकास में, ओज में रुकावट आती है। इस प्रकार निगुरे लोगों से ज्यादा संपर्क या उनकी खुशामद में अथवा उनके हाथ का खानपान से थोड़ा बचें तो अपनी भक्ति के धर्म की रक्षा होगी। कभी-कभार महीने-दो महीने में दो दिन, चार दिन एकांत में चला जाए, जप-ध्यान और मौन तो बहुत सारी शक्तियां जल्दी जागृत होगी । चार-छह महीने में एक हफ्ता आश्रम में आ जाए, ध्यान योग, मौन में बैठ जाए तो गजब के फायदे होते हैं। तो आपके अंदर बहुत सारी संभावनाएं छुपी है, बहुत सारी योग्यताएं छुपी है, गुरुमंत्र के द्वारा, मौन के द्वारा, सत्कर्मों के द्वारा आप सारे दुखों को मिटाकर अपने हृदय में परमात्मा का आनंद, परमात्मा का ज्ञान, परमात्मा का माधुर्य पाकर सदा के लिए मुक्त आत्मा हो जाओ।

 *माला पूजन क्यों करना चाहिए?* 

अपनी माला दूसरे को नहीं देनी चाहिए और दूसरे की माला अपने नहीं जपनी चाहिए । सामान्य चैतन्य सब में है तो माला में भी सामान्य चैतन्य परमात्मा है और माला को जब पीपल के पत्ते पर रखकर उसको ग्रहण किया जाता है, पीपल के पत्ते पर रखकर "माले माले महा माले..." ऐसा जप करके, थोड़ा ध्यान करके "भगवान की दिव्यता, भगवान की चेतना इस माला में प्रवेश करो" ऐसी भावना करने के बाद, माला के दाने खंडित ना हो फिर तुलसी की हो, चंदन की हो, रुद्राक्ष की हो, मणियों की हो, स्वर्ण की हो, जैसी हो, ये ईष्टसिद्धि नाम की पुस्तक में शायद वर्णन है, माला विषयक।
तो पीपल के पत्ते पर रखकर माला को और उसमें दिव्यता अर्पित रखे, भगवान का ध्यान करके फिर अगर माला जपी जाए उस माला का जप अद्भुत होता है और माला को पवित्र जगह पर रखनी चाहिए । नाभि से नीचे के हिस्से में माला स्पर्श न करें, माला न घूमे और दूसरे की नजर भी ना पड़े तो अच्छा है माला गोमुखी में हो अथवा वस्त्र में हों ऐसे करके घूमे। जिस माला से परमात्मा का नाम लिया जाता है और जिस माला से परमात्मा के साथ संबंध जोड़ा जाता है उस माला का मूल्य हम लोग नहीं जानते। माला जपते-जपते कहीं रख दिया, कहीं रख दिया.. नहीं । माला का एक-एक मनका जो है उसमें, सामान्य चैतन्य तो सबमें है, लेकिन जब माला में आपने भावना की और प्राण प्रतिष्ठा जैसे मूर्ति में करते हैं तो वह भगवान हो जाती है ऐसे ही माला भी, माला... माला महालक्ष्मी, माला महान विद्या, माला वास्तविक में मातृ। तो जिसमें मन 'ल' हो जाए, जिसका सहारा लेकर मन परमात्मा में 'ल' हो जाए उसका नाम 'माला'।
"माले माले महा माले" ऐसा करके माला का जप करके माला को ग्रहण करने के बाद उसकी पवित्रता जो संभालता है उस साधक का मन दिव्यता की तरफ जाता है, निष्कामता की तरफ जाता और ध्यान भजन में रुचि होती है । प्रतिदिन एक हजार जप करने से आदमी का पतन नहीं होता है। 
मंत्र त्यागाद् दरिद्रता ! 
मंत्र का त्याग करने वाला दरिद्र होता है। धन का दरिद्र न हो तो विचारों का दरिद्र तो हो ही जाता है, आनंद का दरिद्र तो हो ही जाता है। तो हम लोग जब दुखी होते हैं, अशांत होते हैं, बेचैन होते है तो थोपते हैं कि फलाने ने मेरा अपमान किया, फलाने ने विघ्न लाया लेकिन हमारे पुण्यों की जब कमी होती है तभी हम दुखी होते तभी बेचैन होते अन्यथा बेचैनी या दुख दूसरा कोई नहीं दे सकता।

को काहू को नहीं सुख-दुख करि दाता।
निज कृत कर्म भोगतहिं भ्राता॥
तो जब-जब दुख हो, अशांति हो, बेचैनी हो तब-तब समझें कि हमारा जप-तप, साधन-भजन में कहीं न कहीं गड़बड़ है। कहीं ना कहीं उससे लापरवाही की।

माला पूजन विधि के लिए आवश्यक सामग्री

पूजन के लिए आवश्यक सामग्री
दो थालियां, एक माला पूजन के लिए दूसरी सामग्री रखने के लिए।
दो कटोरी, दो चम्मच अपने उपयोग के लिए एवं पूजन के लिए ।
पूजा की थाली में पीपल के 9 पत्ते, गंगाजल, पंचगव्य, चंदन, कुमकुम, फूल, तुलसी पत्ते, कलावा, धूपबत्ती, कपूर, माचिस, दीपक और अक्षत ।

पूजा कैसे करें ?

पूजा की थाली में पीपल का एक पत्ता बीच में और बाकी आठ को अगल-बगल इस ढंग से रखें कि ‘अष्टदल-कमल’ जैसा आकार बने । बीच वाले पत्ते पर अपनी जपमाला, करमाला और पहननेवाली माला रखें । पीपल एवं तुलसी के पत्ते रविवार के दिन नहीं तोड़ते हैं, अगर रविवार के दिन माला पूजन करना है तो पत्ते एक दिन पहले तोड़कर अवश्य रख लें ।
तीन बार ‘हरि ॐ’ का गुंजन करेंगे ।
हरि ॐ…
हरि ॐ....
हरि ॐ....

सर्वप्रथम प्रथम पूज्य गणेशजी, अपने सदगुरुदेव या इष्ट देव और माला देवी का पूजन करेंगे।

ॐ गं गणपतये नमः ।
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ।
ॐ श्री सरस्वत्यै नमः ।
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः ।

आचमन 

यह मंत्र पढ़ते हुए तीन बार आचमन करें :
ॐ केशवाय नमः ।
ॐ नारायणाय नमः ।
ॐ माधवाय नमः ।

यह मंत्र बोलते हुए हाथ धो लें ।
ॐ गोविंदाय नमः ।
इति हस्तं प्रक्षाल्य:

पवित्रीकरण :
मंत्र पढ़कर बाएं हाथ में जल लेकर पवित्रीकरण की भावना करते हुए हाथ से अपने शरीर पर छिड़कें।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपि वा ।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर शुचि:।।

तिलक :
पूजन की थाली में से थोड़ा कुमकुम मिश्रित चंदन निकाल कर अपने ललाट पर तिलक कर लें। 

चंदनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।
आपदां हरते नित्यं लक्ष्मीः तिष्ठति सर्वदा ॥

रक्षासूत्र बंधन :
हाथ में मौली बांध लें।

सूचना
भाई दाहिने हाथ में मौली बांधे ।
बहने बाएं हाथ में मौली बांधें।

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥

प्रार्थना

हाथ जोड़कर प्रार्थना करें।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

वक्रतुंड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।।

माला-स्नान :

अब पीपल के पत्तों पर रखी माला की थाली को अपने सामने रख लें और स्नान का मंत्र बोलते हुए माला को गंगाजल से स्नान कराएं।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेsस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । स्नानं समर्पयामि ।

पंचगव्य स्नान :

अब इस मंत्रोचार के साथ माला को पंचगव्य से स्नान कराएं ।

पयोदधि घृतं चैव गोमूत्रम च कुशोदकम्। गोमयेन समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । पंचगव्य स्नानं समर्पयामि ।

शुद्धोदक स्नान :
अब माला को शुद्ध जल से स्नान कराएं ।
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि ।

माला को गोल आकार बना कर पीपल के पत्ते पर मेरू ऊपर रहे इस प्रकार थाली में रख दें । अब इस मंत्र को बोलते हुए माला को कुमकुम मिश्री तो चंदन से तिलक करें व अक्षत चढ़ाएं।

चन्दनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् । आपदां हरते नित्यं, लक्ष्मी: तिष्ठति सर्वदा॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । गंधं समर्पयामि ।

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुङ्कुमाक्ताः सुशोभिताः ।
मया निवेदिता तुभ्यं गृहाण परमेश्वरी ॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । अक्षतआन् समर्पयामि ।

माला को तुलसी पत्र और पुष्प चढ़ाएं।

तुलसी हेमरूपांच रत्नरूपा च मंजरिं ।
भवमोक्षप्रदां रम्यां अर्पयामि हरिप्रियाम् ॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । तुलसीदलं समर्पयामि ।

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वे प्रभो।
मयानीतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम्॥
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः। पुष्पं समर्पयामि ।

अब गौ चंदन धूपबत्ती जलाकर माला को दाहिने हाथ से धूप दें।

वनस्पति रसोद्भूतो गन्धाढयो गन्ध उत्तम:।
आघ्रेय : सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ 

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः। धूपमाघ्रापयामि ।

दीया जलाकर माला को दीप दिखाएं। पश्चात कपूर जलाकर माला की आरती करें।

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम् ।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ॥

माला में इष्टदेव की प्रतिष्ठा की भावना से प्रार्थना करें ।

प्रतिष्ठा सर्वदेवानां मित्रा वरुण निर्मिता । प्रतिष्ठां ते करोम्यत्र मण्डले दैवते : सह ॥

अखण्डानन्दबोधाय शिष्यसंतापहारिणे । सच्चिदानन्दरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

दोनों हाथ जोड़कर माला में अपने सदगुरुदेव अथवा इष्ट देव की भावना करते हुए माला को प्रार्थना करें।

माले माले महामाले सर्वतत्त्व स्वरूपिणी । चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्ततस्मान्मे सिद्धिदा भव॥
ॐ त्वं माले सर्वदेवानां सर्वसिद्धिप्रदा मता। 
तेन सत्येन मे सिद्धिं देहि मातर्नमोऽस्तु ते ॥
त्वं माले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव ।
शिवं कुरुष्व मे भद्रे यशो वीर्यं च सर्वदा ॥

 ‘हे माले ! हे महामाले !! आप सर्वतत्व स्वरूपा हैं । आपमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चारों पुरुषार्थ समाये हुए हैं । इसलिए आप मुझे इनकी सिद्धि प्रदान करने वाली होईये । हे माले ! आप सभी देवताओं को समस्त सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली मानी जाती हैं । अतः मुझे सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्तिरूपी सिद्धि प्रदान कीजिये । हे माते ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ । हे माले ! आप मुझे सभी देवताओं तथा परम देव परमात्मा की प्रसन्नता प्रदान करने वाली होईये, शुभ फल देनेवाली होईये । हे भद्रे ! आप सदैव मुझे सत्कीर्ति और बल दीजिये और मेरा कल्याण कीजिये।’
इस प्रकार माला का पूजन करने से उसमें परमात्म-चेतना का आविर्भाव हो आता है।
इसके पश्चात अपने गुरु मंत्र की एक माला करें। अब अपनी माला को दोनों हाथों से हार की तरह उठाकर सामने पकड़े रखें और अपने गुरुदेव के गले में माला पहना रहे हैं, ऐसी भावना करें और गुरुदेव से प्रार्थना करें कि "हे मेरे इष्ट देव ! हे गुरुदेव! आप जड़ और चेतन सबमें विराजमान हैं। जिस चैतन्य स्वरूप आत्मतत्व में आप नित्य स्थित हैं उसमें हम भी आपके दिए हुए चेतन मंत्र को जपते हुए सर्वदा प्रतिष्ठित हो, ऐसी हम पर कृपा करें।"

 जिन्होंने मंत्र दीक्षा नहीं ली है वे अपने इष्टदेव का स्मरण और प्रार्थना कर सकते हैं । 
दोनों हाथ ऊपर करके तीन बार बोलेंगे:
ॐ तं नमामि हरिं परम् 
ॐ तं नमामि हरिं परम् 
ॐ तं नमामि हरिं परम् 

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गुरुवार, जनवरी 26, 2023

जब राम तीर्थ ने किया रिजाइन ! ईश्वर साक्षात्कार था कारण

https://youtu.be/49FzyvcX8RI

          मन के मौन से मानसिक शक्तियों का विकास होता है। बुद्धि के मौन से, बुद्धि के मौन से आत्मशक्ति का विकास होता है। जितना बाहर का कम देखना,सुनना,सोचना उतना ही मौन में सफ़लता ज्यादा आसानी से। घर में अथवा कहीं भी साधना की जगह पर एक ऐसा आसान लगा देना चाहिए या तो पूर्व या तो उत्तर की तरफ बैठकर वहां साधन किया जाय और वो साधन तुम्हारी छुपी हुई शक्तियों को जगाने वाला हो और वहां पर वो साधन के परमाणु इकट्ठे हो जाते है। फिर तुम कितने भी बाहर बिखरे हो, थके हो, चंचल हो लेकिन वो साधना की जगह पर जाने से ही शांति और दिव्य विचार, दिव्य परमाणु सहायक बन जाते है। 

          जिसके जीवन में अपने स्थूल शरीर से सर्वहितकारी प्रवृत्ति कर लिया, हृदय से सरल रहे और बुद्धि से किसीका बुरा न सोचे निर्णय करे और लोको से असंग रहे जिससे आत्मशक्ति का खज़ाना बढ़ेगा। मस्तक में १० अरब, १ अरब मे १०० करोड़ होता है, १ करोड़ मे १०० लाख होता है तो १० अरब अपने दिमाग में न्यूरॉन्स है विज्ञानी अभी कहते है लेकिन योगियों ने उन न्यूरॉन्स को, विज्ञानी न्यूरॉन्स कहते है, योगी सूक्ष्म कोष कहते है। एक -एक कोष एक -एक नक्षत्र के प्रतिनिधित्व कर सकता है। उन न्यूरॉन्स में आत्मा की ऊर्जा जितनी अधिक आए उतना ही वो व्यक्ति प्रभावशाली, इस जगत में भी उथल-पुथल कर सकते है । जैसे विश्वामित्रजी उन्होंने मकई बनाई । पहले तो विलासी राजा थे । फिर देखा की संसार में अपनी एनर्जी नष्ट हो रही है । भोग भोगने में संयम किया , मौन रहे, एकांत में रहे, साधना किया, अपनी शक्तियों को एकाकार किया तो फिर उनको मौज आ गई कि ब्रह्माजी ने गेहूं बनाया, जौ बनाया, चावल बनाया तो मैं भी अपनी सृष्टि मैं बनाऊंगा । तो मकई जो है वो विश्वामित्र ने बनाई। मकई है, बाजरी है , ज्वार है, नारियल है ये विश्वामित्र ने बनाया। 
         ईश्वर अगर अपने से अलग मिलेगा तो आधा मिलेगा और मिलेगा तो चला जायेगा। ईश्वर अपने से दूर होगा, अलग होगा और अलग होकर मिलेगा तो आधा मिलेगा, दूर रह जायेगा। तो जिसको भी ईश्वर मिला है तो अपना जीवत्व और ईश्वरत्व में एकाकारता से ईश्वर की पूर्ण अनुभूति होती है। ईश्वरत्व की अनुभूति होती है और ईश्वर के ऐश्वर्य में एकाकार होने के लिए एकाग्रता सामर्थ्य देती है। 

         संसार की जो प्रवृति है, संसार के जो काम है उसमें शक्ति का ह्रास होता है। सुबह उठ कर शांति शक्ति होती है काम करते करते शाम को हय....। तो संसार में और संसार के सुखभोग में शक्ति का ह्रास होता है। ध्यान में और आत्मा की शक्ति का, आत्मा के आनंद-भोग में शक्ति का संचय होता है। तो शक्ति का ह्रास होनेवाला व्यक्ति सुरा-सुंदरी अर्थात सेक्स की और नशे की उसको आवश्यकता लगती है शारीरिक-मानसिक थकान वाले को। लेकिन जो ध्यान करता है उसको सेक्स की, शराब की जरूरत नहीं है, उसका अपना आत्मा का आनंद आता है उससे वो प्रसन्न तो रहता है लेकिन ये १० अरब न्यूरॉन्स है वो भी पुष्ट होते है, उनको भी एनर्जी मिलती रहती है और जो संसार की प्रवृत्ति में ज्यादा लगता है उसकी शक्ति का ह्रास होता है तो फिर शराब और सुंदरी और मादक द्रव्यों से उनके न्यूरॉन्स, सूक्ष्मकण और कुंठित हो जाते है। इसीलिए उनकी योग्यता ऑर्डिनरी साधारण होती है और जो शांत रहते है उनकी योग्यता निखरती है, बढ़ती है। जो ज्यादा नहीं बोलते है तो उनमें मनन करने की शक्ति होती है। जो ज्यादा ठांस-ठांस के नही खाते तो उनको पचाने की शक्ति बरकरार रहती है।जो ज्यादा नबही सोते, ज्यादा नहीं जगते, ज्यादा खर्चाल नहीं और ज्यादा कंजूस नही, इस प्रकार ठीक-ठीक युक्ताहारविहार करते- ऐसे लोग प्रतिदिन चार घंटे अगर साधना के लिए निकाले तो नौकरी-धंधा के लिए जो हाथ फैला रहे, हाथा-जोड़ी कर रहे उसमें तो धना-धन होने लग जाए और ईश्वर प्राप्ति का रास्ता ज्यों-ज्यों आनंद बढ़ता जाए तो वो भी सब फीका हो जाए । फिर तो रामतीर्थ की नाईं है:- "प्रभु अब दो-दो काम नहीं होता । एक तो तेरे आंनद में रहना और फिर प्रोफेसर होकर पढ़ाने जाना । अब दो-दो काम नहीं होते ।" 
       रिजाइन कर दिया, और गहरे उतरे और परमात्मा का साक्षात्कार पूरा कर लिया। ईश्वर से अलग बना था वो भी पूरा हो गया। अमेरिका में गये तो वहां का राष्ट्रपति मिस्टर रूजवेल्ट उनके चरणों में आकर बड़ी शांति, बड़ा ज्ञान पाकर सुख का आनंद का अहसास करता।
        तो जो कम बोलते है और ध्यान करते तो संकल्प विकल्प कम होते है।निश्चयात्मिका बुद्धि रखते तो बुद्धि में भी शांति और असंगता आती है तो फिर वो आत्मा परमात्मा में ठहरती है। जैसे बिल्लोरी कांच ठहरता है तो सूर्य की दाहक शक्ति, प्रकाशिनी शक्ति पदार्थ में प्रवेश हो जाती है ऐसे ही अपना चित्त शांत होता है तो सर्वव्यापक परमेश्वर की सत्ता उसमें अधिक आती है। सूर्य का प्रकाश तो सर्वत्र है लेकिन बिल्लौरी कांच स्थिर होता है तो वहां उसकी दाहक शक्ति। एक बिल्लौरी कांच खड़ा करो तो वहां उसकी दाहक शक्ति लेकिन हजार-लाख-दस लाख बिल्लौरी कांच रख दिए जाएं तो दस लाख जगह पर उसकी दाहक शक्ति प्रकट होगी एक ही सूर्य से । ऐसे दस लाख योगी योग करे तभी भी एक ही सर्वेश्वर परमात्मा की सत्ता से उनमे सामर्थ्य आ जायेगा। दस लाख मिनिस्टर नहीं बन सकते हैं लेकिन दस लाख महापुरुष, दस लाख उत्तम साधक बन सकते है।

      तो आप अपने-अपने घर में उत्तम ढंग की साधना का इरादा पक्का करो। अपने हल्के मन की पसंद का काम करने से वासना बढ़ेगी । न्यूरॉन्स और आपका मन कमज़ोर हो जाएगा। शास्त्र और गुरु के सम्मत साधन करोगे तो वासना मिटेगी। वासना मिटेगी तो बुद्धि में स्थिरता आएगी, मन में चांचल्य कम आएगा, वाणी में संयम आएगा और आपका बल बढ़ेगा । फिर विश्वामित्र की नाईं आप सृष्टि बनाएं इतना बल न भी पाएं कम से कम अपना गृहस्थी जीवन सुख पूर्वक जिए और जीवन की शाम हो, मौत आए उसके पहले मौत जिसकी होती है वो मैं नही हूं, मौत होती है शरीर की और शरीर ऐसे कई मिले और मर गए तो मैं कोन हूं उसको खोजकर उस परमात्मा में एकाकार होने का जम्प मार सके इतना तो काम कर ही लेना चाहिए।

       तो बाहर की बाते कम सुने, कम बोले, कम सोचे और उनकी लालच कम करे। ये आज कल की जो फिल्मी दुनिया और टीवी-बीवी बड़ी हानि करती है। टेलीफोन की सहूलतों ने भी बड़ी हानि कर दी, आदमी को बाहर ले गए, बिखेर दिया। अकेले आए हैं-अकेले जाना है तो अकेले बैठने का अभ्यास करो। अभी हम इधर से गए तो लोकों से थोड़ी मिले, अपने अकेले जगह पे रहे, पुष्ट होके आगए। मिलते रहते तो फिर अभी ऐसा थोड़ी निकलता। तो अकेले में भी आलस्य न हो जाए, मन इधर-उधर न हो जाए तो उच्चारण किया भगवतस्वरूप का, फिर एकाकारता का अभ्यास किया, शास्त्र पढ़े, पढ़ते-पढ़ते, जैसे जीवन रसायन पुस्तक है अथवा गीता है, उपनिषद है थोड़ा पढ़ा और इसमें वैदिक बाते हैं, तत्वज्ञान की, उपनिषदो की बाते है, ऊंची ऊंची बाते मन उर्ध्वगामी हो जाए उसी विचारो में थोड़ी देर शांत.....
दिन में दस बीस बार जीवन रसायन पुस्तक देखे, विचारे इससे मनोबल, बुध्दिबल, संकल्पबल का विकास और साथ साथ में शुद्धिकरण भी होगा फिर आत्मबल में प्रवेश पाने में मदद मिलेगी ये है तो दिखने में जरा सी पुस्तक लेकिन है उपनिषदों का सत्व-सार। ऐसे और भी जो भी आप को अच्छी उपनिषद शास्त्र दिखे। वाणी के मौन से शक्ति, मन के मौन से शांति और बुद्धि के परम मौन से परम पुरुष परमात्मा का साक्षात्कार। एकदम पूर्ण परमात्मा को पाने के लिए आठ चीज़ों की जरूरत है।
एक तो सदाचार, झूठ-कपट-चोरी-बेईमानी हृदय खराब होगा उस को छोड़ दे, सदाचार का व्यवहार करे।

दूसरा सबके हित की सोचे। हितकारी प्रवृत्ति सेवा जितनी हो जाए कर लिया बस...।

तीसरा चरित्र अच्छा रखे। खान-पान या बुरी नजर से किसी स्त्री को, पुरुष को न देखना, ब्रह्मचर्य का थोड़ा-बहुत पालन करना। 
सुख मिल जाए तो उस में अभिमान न करे।
दुख मिल जाए तो ये बेवकूफी न करे कि मैं दुखी हूं।
 *को काहू को नही सुख-दुख करि दाता।* 
 *निज कृत कर्म भोगहि भ्राता* 
अपने ही कर्म के फल आ-आ के चले जाते है। उससे चिपके नही। अपने परमात्म स्वभाव में चिपके रहे। सुख आ के चला जाएगा, दुख आ के चला जाएगा। हम सुख को चिपकते रहते है और दुख से डरते रहते है तो न सुख में निश्चिंत है न दुख में निश्चिंत है। 
 *सुख स्वप्नना दुख बुलबुला* 
 *दोनो है मेहमान* 
इंह ये छो तो करे... ये ऐसा क्यों करता है...ये ऐसा... ये तो दुनिया है। ढिंढोरा होता रहता है। ऐसा क्यों न करे !.....ऐसा ये क्यों करे! क्यू न करे!.....इस झंझट में क्यू पडु!
 *मन तू राम भजन कर जग मरवा दे, नर्क पड़े ने पड़वा दे।* 
इस प्रकार का दृढ़ विचार करके अपने मन को बार बार भगवान में लाए। कभी कभी नही लगे तो पंजों के बल से जैसे ऐसे कीर्तन करते ऐसा थोड़ा किया। फिर बैठे। लंबा उच्चारण करे जितनी देर उच्चारण करे उतना देर शांत हो शांति....आनंद.... 
तो अपना आत्मा परमेश्वर शांत स्वरूप है , आनंद स्वरूप है, सत स्वरूप है। संसार असत स्वरूप है, दुख स्वरूप है और जड़ है। हाथ को पता नहीं मैं हाथ हूं, मकान को पता नही मैं मकान हूं, पैसे को पता नही मैं पैसा हूं लेकिन आप को पता है मैं हूं। पता है ना?....तो आप चेतन हुए। शरीर जड़ है तो आपकी चेतना लेकर शरीर चलता है। तो शरीर को मैं माना और मैं गुजरात। गुजरात को पता नहीं मैं गुजरात हूं हम लोगो ने नाम रखा ये गुजरात, ये महाराष्ट्र, ये यूपी , ये फलाना । तो ये मन की कल्पना से व्यवहार चलता है। तो व्यवहार के लिए कल्पना वाला व्यवहार कल्पना में लेकिन ध्यान के समय कोई कल्पना नहीं। 
ॐ शांति... ईश्वर में हम....

       दांतो के मूल में जीभ की नोक लगा के बैठ गए। आरोग्य के कण भी बनेंगे, श्वासोश्वास गिनेगे तो मन की चंचलता भी मिटेगी। मन शांत होता है, आनंद आता जाए। अभी करो अभ्यास। 
         जो परमात्मा है वो चेतन है, जो परमात्मा है वो ज्ञानस्वरूप है ,जो परमात्मा है आनंद स्वरूप है वो ही आत्मा होकर मेरे इस हृदय में बैठा है तभी शरीर को चेतना मिलती है। उसी से दस अरब न्यूरॉन्स सत्ता पाते है। भीतर से, बाहर से आके ले बैठो। शरीर को मैं मान कर नही बैठो। ये काम करूंगा, ऐसा करूंगा, बाद में ये करूंगा.... छोड़ो। अगड़म-तगड़म स्वाहा। भीतर बाहर से अभी अकेले। हे केशव! नाम लिए अनेक यूपी के, पंजाब के, हरियाणा के लेकिन वास्तव में सब भारत के है और जो अमेरिका और लंडन के है वे भी कुल मिलाकर वास्तव में सब धरती के है और ऐसी कई धरतियां है वो सब प्रकृति की है और प्रकृति है जिस परमात्मा की वो परमात्मा चैतन्य रूप में सर्वत्र होते हुए भी मेरे हृदय में व्याप रहा है। जैसे सूर्य सब जगह होते हुए भी मेरे कटोरे भी दिखता है, आकाश सर्वत्र होते हुए भी मेरे घर में है। आकाश सर्वत्र है मेरे घर में भी है। ऐसे ही सच्चिदानंद परमेश्वर सर्वत्र है और वे मेरे हृदयेश्वर है। 
ॐ शांति और वे मेरे प्रेरक है। आकाश तो जड़ है लेकिन परमात्मा चैतन्य है और मैं सत्कर्म करता हूं और सुबह ध्यान में बैठता हू तो मुझे सत्प्रेरणा भी देते है, मैं सत्संग करता हूं तो सत्प्रेरणा देते है, मैं झूठ बोलता हूं तो मेरे हृदय को टोकते है वे इतने मेरे हितैषी है....हो ना प्रभु!.... हां ना!... हां ना ऐसे करते उनसे दुलार करो।
ॐ शांति..... ॐ आनंद..... ॐ माधुर्य.... ॐ ॐ....... ॐ शांति..... ॐ आनंद 
इस प्रकार चिंतन करते-करते शांति और आनंद में डूबते जाएं। 
रूपं मधुरं, शांति मधुरं, प्रीति मधुरं, मति मधुरं, गति मधुरं, मधुराधिपते मधुरं मधुरं..... ॐ.... ॐ.... बाहर का कोई भी शब्द सुनाई पड़े, कोई भी रूप दिखाई पड़े उसकी इच्छा भी न करो, उसे हटाओ भी नहीं। तुम तो शांति और आनंद में खोते जाओ और उसीके होते जाओ बस। कोई कठिन काम नहीं है । नया-नया है तो कठिन लगता है। भगवान को पाना, अपनी आत्मा का उद्धार करना कोई कठिन काम थोड़े है! कठिन तो संसार का कर-कर के मर जाओ कुछ भी हाथ में नहीं आता। बधु छोड़ी ने मरी जवानु। डॉलर भी यांज मुकी ने जाता रेवानु। डॉलर साथे आवे! थोड़ा ध्यान, पुण्य, आत्मशक्ति तो मौत वखते भी साथे ने साथे। ऐनी प्रैक्टिस वधारे करवी पड़े। काफी लक खुली जाय, भाग खुली जाय। बहु परिश्रम नई करवानु संसार नु। बाहर काम करी ने टायर्ड थया होय ने पछी ध्यान करे तो नई लागे। थोड़ा फ्रेश रेवे। आपणा हाथे बनावेलू भोजन हेल्प करे, मदद करे। रोज नियमित ध्यान करे तो उसी समय मन स्वाभाविक लगता है। भगवान और गुरु और महापुरुषो की मदद मिलती है प्रभात काल को, वातावरण की मदद मिलती है। अभी भी मदद मिल रही है वातावरण में। सभी का एक प्रकार का ध्यान बड़ी मदद मिलती है।
ॐ.... ॐ....
मन में बोलते जाओ। बल, शांति, आनंद 
ॐ....... 
तं नमामि हरिं परम् 
तं नमामि हरिं परम्..... 
तं नमामि हरिं परम् ।
तं नमामि हरिं परम्... 
तं नमामि हरिं परम् । 
तं नमामि हरिं परम्...


हरि ओ.........म......हरि ओ.....म

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सोमवार, जनवरी 16, 2023

अगर चाहते हैं अपने परिजनों का कल्याण तो कभी न करें रूदन किसी की मृत्यु पर ।



अगर चाहते हैं अपने परिजनों का कल्याण तो कभी न करें रूदन किसी की मृत्यु पर ! कीर्तन करें । 

जिनकी आयुष्य पूरी हो रही है और शरीर शांत हो गया है उनके लिए भजन बनाया ताकि उनको भी मदद मिले और मृतक व्यक्ति के पीछे लोग रूदन करके अपना भी मन शोकातुर न करें और मृतक व्यक्ति के लिए भी वासना और गंदगी पैदा न करें । गरुड़ पुराण में लिखा है जो मर जाता है उसके पीछे रोते हैं तो आंखों के आंसू और नाक से गंदगी बहती है उसको पीनी पड़ती है। इसलिए मृतक व्यक्ति के पीछे रूदन नहीं करना चाहिए, कीर्तन करना चाहिए । 



*जीवात्मा की सद्गति के लिए परम कल्याणकारी भजन - पूज्य बापूजी*

https://youtu.be/yzQBgMZviek

जो लोग साधक हैं उनको बड़ी उमर में यह रहता है कि हमारी सद्गति हो...। यह भक्तों को भी रहता है, आम-आदमी को भी रहता है कि मेरी अंत वेला सुहेली हो। कई लोग सुखद मरते हैं, कई लोग दुखद मरते हैं पीड़ा सहकर लेकिन मरना तो पक्का है । वास्तव में मरना जिसका होता है वह है पंचभौतिक शरीर और सूक्ष्म शरीर ( मन-बुद्धि-अहंकार)... इसके मेल को बोलते हैं जन्म और वियोग को बोलते हैं मृत्यु । उन दोनों को जाननेवाला जो तुम्हारा 'मैं' है जिसको तुम... जहां से तुम्हारा 'मैं' उठता है, तुम निर्लेप हो । जैसे दुख आते हैं सुख आते हैं, बचपन आता है । सब चला गया लेकिन तुम्हारा मैं वही का वही । जागृत चला गया, सपना चला गया, गहरी नींद चली गई लेकिन तुम्हारा वास्तविक दृष्टा चैतन्य जो हर समय रहता है इसीलिए उस परमेश्वर का नाम हरि है, वह परमेश्वर तुम्हारा अपना आपा है आत्मा । नित्य प्रलय नैमित्तिक प्रलय आत्यंतिक प्रलय महाप्रलय ब्रह्मलोक विष्णु लोक शिवलोक सब स्वाहा उनके साकार विग्रह में फिर भी जो रहता है वही चैतन्य अभी भी है इसलिए उस परमेश्वर का नाम हरि भी है, हर समय रहता है ।

तो अब मरते समय व्यक्ति को क्या सोचना चाहिए कि मैं मन, बुद्धि, अहंकार या शरीर नहीं हूं उसको देखने वाला हूं मृत्यु मेरी कभी थी नहीं है नहीं हो नहीं सकती। मैं अमर आत्मा आकाश की नाईं व्यापक हूं आकाश से भी ज्यादा सूक्ष्म अपना मेरा आपा है । ॐ ॐ ॐ बोलने से उसमें बड़ी मदद मिलती है और वास्तव में तुम्हारी मौत होती नहीं है बिल्कुल पक्की बात है । मौत होती है तो स्थूल और सूक्ष्म शरीर का वियोग, जन्म होता है तो उनका संयोग।

तो तुम्हारा वास्तविक स्वरूप तो मुक्त है लेकिन जन्म-मरण चित्त के दोष से होता है । तो चित्त की वासना मिटती है ना... वासनाक्षय, मनोनाश और बोध, यह तीन बातें हो जाए... 'बोध' माने अपने आप का ज्ञान । मुक्ति तो सहज में है लेकिन अभागे विकारों में और अभागे अहं में मुक्त आत्मा स्वभाव को ढक दिया और अपने को चौरासी में डाल दिया है । तो कुल मिलाकर जिसकी मृत्यु नजदीक है वो यह वेदांत विचार करें । समर्थ रामदास ने भी कहा भक्ति मार्ग में आगे बढ़ना हो तो वेदांत विचार करना चाहिए । दासबोध में लिखा है ।

तो जीवित व्यक्ति को सावधान रहना चाहिए कि सत्वगुणी खुराक सत्वगुणी माहौल । दुराचार से बचे, सदाचारी लोगों का संपर्क करे, नियम रखें, महीने में चार दिन, आठ दिन मौन रखें लेकिन जिनकी आयुष्य पूरी हो रही है और शरीर शांत हो गया है उनके लिए भजन बनाया ताकि उनको भी मदद मिले और मृतक व्यक्ति के पीछे लोग रूदन करके अपना भी मन शोकातुर न करें और मृतक व्यक्ति के लिए भी वासना और गंदगी पैदा न करें । गरुड़ पुराण में लिखा है जो मर जाता है उसके पीछे रोते हैं तो आंखों के आंसू और नाक से गंदगी बहती है उसको पीनी पड़ती है। इसलिए मृतक व्यक्ति के पीछे रूदन नहीं करना चाहिए, कीर्तन करना चाहिए । कीर्तन तो करते लोग हैं लेकिन महाकीर्तन क्या है ? कि मृतक व्यक्ति का सद्गति करने वाला ऐसा कोई भजन बना है कि उस भजन को आप लोग सुन लेना।

ऐसा कोई है ही नहीं जो नहीं मरे शरीर। तो आप भी उसके लिए भजन करना और भजन में वह भाव करना कि तुम आकाश रूप हो, चैतन्य हो, व्यापक हो। भगवान अपनी शरण में रखो तो अपने धाम में रखेंगे और भगवान अपने शरीर में ही ले लेंगे चलो । शिशुपाल भगवान के शरीर में समा गया फलाना समा गया ठीक है मान लिया लेकिन जब विष्णु लोक ब्रह्मलोक चल मेरे भैया तो ब्रह्माजी में जो घुसे हुए हैं वह भी तो चल हो जाएंगे ।

हां यह व्यवस्था है कि ब्रह्माजी ब्रह्म उपदेश देंगे तो भी अपने ब्रह्म स्वभाव में मुक्त हो जाएंगे । विष्णुजी भी देंगे... तो ऐसा भी हो सकता है लेकिन अभी से तुम भगवान में घुसकर इतने साल रहो उसकी अपेक्षा भगवान जिसमें अभी है उसीमें तुम पहुंच जाओ । आसान भी है और अभी से मुक्ति का अनुभव कर लो । मरने के बाद का वायदा बेकार है, जीते-जी अपने आत्मदेव को जान लो । तो कुल मिलाकर अभी आज जो भजन तुम सुनोगे उस भजन को अभी से ही मृतक व्यक्ति के लिए सद्गति दायक बने और अपने लिए भी अभी से ही काम में आए । यह भजन आदि, विचार आदि उठा तो सब लोगों तक पहुंचे । " *मंगलमय जीवन-मृत्यु* " पढ़ना, मृतक व्यक्ति के लिए उसमें भी प्रेरणा है और फिर इस भजन को जहां भी कोई मृतक व्यक्ति चले गए हो अथवा जाने वाले हो तो वहां भजन दोहरा दिया । कहीं भी समझो कि यह जाने वाला है अथवा अपन जाने वाले हैं तो तुलसी की सूखी लकड़ियां थोड़ी इकट्टी करके कुटुंबी अथवा कोई मृतक व्यक्ति के पेट पर, आंखों पर, मुंह पर, शरीर में अग्नि संस्कार के समय अगर तुलसी की लकड़ियों का या  तुलसी की माला का सानिध्य हो तो वह कैसा भी जीवन जीया हो, दुर्गति से बचेगा और ऊंची गति पाएगा ।

ऊंची गति के बाद भी परम शांति, परम गति तो परमात्म साक्षात्कार से होती है । यह भजन परमात्म साक्षात्कार के लिए नींव का काम करेगा । धन्य है वह लोग जो इसको सुन पाते हैं, सुना पाते हैं। इसके रहस्य में बुद्धि से थोड़ा सूक्ष्म करे तो कठिन नहीं है ।

अपना आपा जान ले आप मरने वाले नहीं हैं । अनुभव नहीं भी करते हो ना फिर भी ऐसे भी कैसे भी परिस्थिति हो गंदे से गंदा पापी से पापी व्यक्ति मरता नहीं है उसका सूक्ष्म शरीर दूसरे शरीरों में जाता है फिर जन्मता है मरता है जन्मता है मरता है लेकिन उसका शुद्ध स्वरूप कभी नहीं मरता है ।अभी तुम जो मरने की तैयारी में है उसको भी सुनाओगे तुम चैतन्य हो आत्मा हो दुख को जानते हो सुख को भी जानते हो और मृत्यु को भी जानते हो स्वप्न से तुम देख रहे हो अपने देखो तो तुम्हारी मृत्यु नहीं हुई शरीर की मृत्यु वास्तव में मृत्यु नहीं है। एक दूसरे को देख कर उसका भय है शरीर को मैं मानने की बेवकूफी है । अपने को मैं मानो तो बस हो गया ।

जो दुख को सुख को मृत्यु को जीवन को जानता है वह कौन है खोजोगे तो उसी में शांत हो जाओगे। रोज खोजना चालू करो मैं कौन हूं कौन हो तो उसी की शांति में गहराई में पहुंच जाओगे । तुम्हारा अपना आपा परम शुद्ध है, परम पवित्र है। शाश्वत हो तुम । *अधुना मुक्तोऽसि* । अभी तुम मुक्त हो लेकिन ऐसा सुना-सुनाया "मैं मुक्त हूं" और जो आया सो खा लिया, जो आया सो कर लिया वासना में तो तबाही हो जाएगी । कीट-पतंग आदि तिर्यक योनि में, वृक्ष आदि योनि में बहुत दुख भोगने पड़ते हैं । इसलिए ब्रह्म ज्ञान उसी को बचेगा जिसको सत्व गुण की प्रधानता है संयम की प्रधानता है सतगुरु के वचनों की प्रधानता है ।

अभी यह भजन ध्यान से सुनना उसका एक एक अक्षर ओम ओम । तो उसी ब्रह्मा को प्रार्थना करनी चाहिए जो अभी है सबके हृदय में।

जिसने तने छोड़ा है उनको अपनी शरण में लीजिए, अपने स्वरूप का दान दीजिए, अपने सच्चिदानंद स्वभाव में उसको जगाइए । देह जाने वाले का नाम लेकर भी बोलो फलाने सच्चिदानंद स्वरूप हो, चैतन्य हो । परमेश्वर तुम्हारा तुम परमेश्वर के हो, जगत की वासना छोड़ो । किसी से बदला लेने की या कुछ भोगने की वासना छोड़ो । सारे सुखों का सार है परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार । सार को महत्व दे दो । सार तो अपने बल से ही आवरण भंग कर देगा तुम्हारा।  मैंने प्रभु को पाने को महत्व दिया तो वही प्रभु ने बोला कि जाओ लीलाशाहजी के पास । सभी रूपों में मिलूंगा और मिल भी गए । यह तो मैं जिंदा-जागता इसका साक्षी हूं । ॐ नारायण नारायण नारायण नारायण धन्य हो सुनने वाले...

*हे नाथ ! जोड़े हाथ सब हैं प्रेम से मांगते*
*सांची शरण मिल जाए ऐसे आप से मांगते*
*जो जीव आया तव निकट ले चरण में स्वीकारिए*
*परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिए*
*परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिए*

आपको भगवान भी नहीं मार सकते ! क्यों ? कि आप आत्मा है जीवात्मा है। शरीर तो भगवान भी नहीं रखते तो मृत्यु तुम्हारी कोई नहीं कर सकता ब्रह्मा विष्णु महेश सब देवता मिलकर भी तुम्हारे को नष्ट नहीं कर सकते, शरीर तुम्हारा बदल सकते हैं लेकिन तुम्हारे को मिटा नहीं सकते।

*है कर्म के संयोग से जिस वंश में वह अवतरे*
*वहां पूर्ण प्रेम से आपकी गुरु रूप में भक्ति करें*
*चौरासी लक्ष के बंधनों को गुरुकृपा से काट दे*
*है आत्मा परमात्मा ही, ज्ञान पाकर मुक्त हो*
*है आत्मा परमात्मा ही, ज्ञान पाकर मुक्त हो*

*ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान ।*
*ज्ञान बिना आत्मा नहीं....*

है तो हम आत्मा लेकिन ज्ञान के बिना पता नहीं चलता कि हम वही आत्मा है हम वही सत् हैं, चित् हैं, आनंद स्वरूप हैं । हमें सुखी होने के लिए कोई वस्तु की, व्यक्ति की, परिस्थिति की जरूरत नहीं है, हम स्वयं सुख रूप हैं...

*इहलोक औ परलोक की होवे नहीं कुछ कामना*
*साधन चतुष्ट्य और सत्संग प्राप्त उसको हो सदा*
*जन्मे नहीं फिर वो कभी ऐसी कृपा अब कीजिए*
*परमात्मा निजरूप में उस जीव को भी जगाइए*
*परमात्मा निजरूप में उस जीव को भी जगाइए*

मुक्ति का मतलब यह नहीं कि तुम मिट जाओगे । तुम अपनी महिमा में जगोगे । मिटने वाले की ममता छूटेगी तो हो गए मुक्त । मिटने वाले की अहंता-ममता मिटी तो आप मुक्त हो गए । मिटने वाला है हाड़-मांस का शरीर। मन, बुद्धि, अहंकार बदलनेवाला है। तुम उसकी बदलाहट को अभी भी जानते हो । *अधुना मुक्तोऽसि*। अभी मुक्त हो ।

*संसार से मुख मोड़कर जो ब्रह्म केवल ध्याय है*
*करता उसीका चिंतवन निशदिन उसे ही पाय है*
*मन में न जिसके स्वप्न में भी अन्य आने पाय है*
*सो ब्रह्म ही हो जाय है ना जाय है ना आय है*

मनुष्य देह भी तो दुर्लभ है :

*दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः।*
*तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ॥*

जिनकी बुद्धि अकुंठित हुई है ऐसे का दर्शन-सत्संग पाना दुर्लभ है।

*आशा जगत की छोड़कर जो आप में मग्न है*
*सब वृत्तियां है शांत जिसकी आप में संलग्न है*
*ना एक क्षण भी वृत्ति जिसकी ब्रह्म से हट पाय है*
*सो तो सदा ही अमर ना जाय है ना आय है*
*सो तो सदा ही अमर ना जाय है ना आय है*

*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।*
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥*

पांच भूत, मन बुद्धि और अहंकार... और मैं इनसे भिन्न हूं। यह शरीर मर जाता है फिर भी मैं रहता हूं । अष्टधा प्रकृति का शरीर बदल जाता है ।

*संतुष्ट अपने आप में, संतृप्त अपने आप में*
*मन बुद्धि अपने आप में, है चित्त अपने आप में*
*अभिमान जिसका गल-गलाकर आप में रम जाय है*
*परिपूर्ण है सर्वत्र सो ना जाय है ना आय है*
*परिपूर्ण है सर्वत्र सो ना जाय है ना आय है*

मरने वाला शरीर मैं नहीं हूं । आने-जाने वाला, दुख-सुख भोगने वाला मैं नहीं हूं मन है । बीमारी शरीर को होती है, दुख-सुख मन को होता है उसको देखने वाला जो अकाल पुरुष है, ज्योति स्वरूप है - वह मेरा आत्मा साक्षी ज्योति स्वरूप है वही तेरा है । बस बुद्धि में बात बैठ गई काम बन गया।

*ना द्वेष करता भोग में ना राग करता योग में*
*हंसता नहीं है स्वास्थ्य में रोता नहीं है रोग में*
*इच्छा न जीने की जिसे ना मृत्यु से घबराय है*
*शम शांत जीवन्मुक्त सो ना जाय है ना आय है*
*शम शांत जीवन्मुक्त सो ना जाय है ना आय है*

*जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है*
*पुण्य पाप कछु कर्म नहीं है*
*मैं अज निर्लेपीरूप कोई कोई जाने रे*

मैं अजन्मा हूं निर्लेप हूं नारायण स्वरूप हूं ॐ ॐ आनंद ॐ माधुर्य

*मिथ्या जगत है ब्रह्म सत सो ब्रह्म मेरा तत्व है*
*मेरे सिवा जो भासता निस्सार सो निज तत्व है*
*ऐसा जिसे निश्चय हुआ ना मृत्यु उसको खाय है*
*सशरीर भी अशरीर है ना जाय है ना आय है*

*ब्रह्मानंदम  परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिमं ।*
*द्वन्द्वातीतम् गगनसदृशम् तत्वमस्यादि लक्ष्यम ।*
*एकं नित्यं विमलमचलं सर्व धिः साक्षीभूतम ।*
*भावातीतम त्रिगुण रहितम सद्गुरुम  तं नमामि ।*
*ब्रह्मस्वरूपाय नमः*
      

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रविवार, जनवरी 08, 2023

धर्म अर्थ काम और मोक्ष की सहज प्राप्ति का पर्व : मकर संक्रांति

पूज्य बापूजी के सत्संग से 

https://youtu.be/HbLZ78BuGAQ


महामना भीष्म पितामह बाणों की पीड़ा सहते हुए भी, प्राण न त्यागा । संकल्प करके और पीड़ा के भी साक्षी बने रहे । यह  उत्तरायण का पर्व सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए इसको मकर संक्रांति कहते हैं । 
सम्यक क्रांति ।  *सं गच्छध्वं सं वदस्ध्वं ।*
बाह्य क्रांति होती है - एक दूसरे की कुर्सी छीनना, एक दूसरे को नीचा दिखाना। महाभारत में लिखा है कि मूर्ख मनुष्य कौन है? 
बोले : जो दूसरों की निंदा करे और अपनी प्रशंसा करे और जगत को सत्य माने, वह वज्रमूर्ख कहा जाता है । 
महभारत का वचन है। 
भीष्म पितामह से युधिष्ठिर प्रश्न करते हैं और भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे-लेटे उत्तर देते हैं, कैसी समता है इस भारत के वीर की ! कैसी बहादुरी है तन की, मन की और परिस्थितियों के सिर पर पैर रखने की! कैसी हमारी संस्कृति है ! क्या विश्व में ऐसा कोई दृष्टांत सुना?
 58 दिन तक संकल्प के बल से शरीर को धारण कर रखे हैं और कृष्णजी के कहने से युधिष्ठिर को उपदेश दे रहे हैं और उससे भीष्म पर्व बना है । आज उस महापुरुष के स्मरण का दिवस भी है और अपने जीवन में परिस्थितियों रूपी बाणों की शैया पर सोते हुए भी अपनी समता, ज्ञान और आत्मवैभव को पाने की प्रेरणा देने वाला दिवस उत्तरायण पर्व है ।  
 *मकर संक्रांति - सम्यक क्रांति* । ऐसी समाज में क्रांति तो एक-दूसरे को नीचे गिराओ और ऊपर उठो, मार-काट ! मकर संक्रांति बोलती है मार-काट नहीं, सम्यक क्रांति । सबकी उन्नति में अपनी उन्नति, सबके ज्ञान वृद्धि में अपना ज्ञान वृद्धि, सबके स्वास्थ्य में अपना स्वास्थ्य, सबकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता, दूसरों को नीचोकर आप प्रसन्न होने जाओ तो हिटलर और सिकंदर का रास्ता है, कंस और रावण का रास्ता है । श्री कृष्ण के नाईं... ओए... गाय चराने वालों को भी अपने साथ उन्नत करते हुए *सं गच्छध्वं सं वदस्ध्वं।* 

 उत्तरायण तुम्हें यह संदेशा देता है कि अब तुम्हारा रथ, जीवन का रथ नीचे विकारों के केंद्रों के तरफ ज्यादा ना जाए, ऊपर निर्विकार नारायण की धारणा ध्यान के तरफ जाए ।  सूर्यनारायण को अर्घ्य देकर धरती पर पड़ी हुई गीली मिट्टी उठा ले और उसका तिलक करें और अर्घ्य में बचा हुआ तांबे के लोटे में पानी जो बचाया, थोड़ा बचा ले उसको ॐ त्र्यंबकम यजामहे... जप करके पी लें अथवा तो आयु-आरोग्यप्रदायक सूर्यनारायण ! मैं इस जल को जठराग्नि में प्रवेश कराता हूँ, मेरे रोगों का, पापों का शमन करने की कृपा करें तो स्वास्थ्य लाभ होता है, बुद्धिमता में बढ़ोतरी होती है । शिवगीता का थोड़ा-सा पाठ कर ले और 20 ग्राम तुलसी का रस, 10-20 ग्राम च्यवनप्राश पानी डालकर घोंल बनाकर उसका रस मिलाकर 40 दिन अगर कोई बच्चे को भी पिलाओ तो बच्चा बड़ा तेजस्वी होगा, प्रभावशाली मति का धनी बनेगा। 
भीष्म पितामह का ध्यान कर रहे हैं श्रीकृष्ण । युधिष्ठिर आए थे कृष्ण से मिलने को । देखा श्री कृष्ण ध्यान में है। उन्हें आश्चर्य हुआ । जो कुछ पूछना था श्रीकृष्ण से वह बाद में पूछूंगा । पहले तो माधव मुझे यह पूछना है कि आप किस का ध्यान करे रहे हैं। सुबह तो आप अपने ब्रह्म स्वभाव का, सत-चित-आनंद सोहम स्वभाव का विश्रांति प्रसाद लेते हैं लेकिन इस समय आप किसका ध्यान कर रहे थे माधव?  
युधिष्ठिर ! इस समय धरती पर भीष्म की बराबरीवाला पुरुष मिलना कठिन है। हमें चाहिए कि उनके दर्शन को जाएं और उनसे कुछ ज्ञान प्राप्त करें। जैसे वह अष्ट वसुओं के बीच देव शोभा देता है ऐसे वह पांच पांडवों के बीच युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण शौभायमान हो रहे थे और रथ धड़ाधड़ पहुंचे जहां ये महारथी शरशैया पर सोए थे। उत्तरायण निकट आ रहा है, शरीर छोड़ने की बेला है तो कई जति-जोगी, तपस्वी, कोई ब्रह्मचारी, कोई ऋषि, कोई मुनि, कोई उपनिषदों की व्याख्या वाले तो कोई ज्ञाता, कोई पयोव्रतधारी तो कोई फलाहारी, तो कई वायुभक्षी तो कोई भगवतप्रीति वाले, अनेक तपस्वी, जति-जोगी, सारे लोग जा रहे थे । शरशैया पर लेटे-लेटे सभी का वाणी से यथायोग्य सत्कार कर रहे थे । भगवान वेदव्यास भी पधारे थे । कृष्ण जैसी हस्ती और युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा लोग... 
तब भीष्म कहते हैं कि हे युधिष्ठिर तुम तो यहां मेरे नजदीक बैठ जाओ ।  माधव तुमको मैं कहां बैठाऊं ! तुम तो मेरे पलकों में ही बैठे रहो और शरीर से मेरे सामने खड़े रहो। पीतांबर फहराता रहे और तुम्हारी मधुर चितवन वाली मुस्कान बनी रहे । मैंने अपनी कन्या को सुसंस्कार देकर पाला-पोषा है, मैं तुम्हें अपनी कन्या दान करना चाहता हूँ । 

 लंगोटीधारी ने कन्या को पाला-पोषा और कन्या दान करना चाहते हैं, कैसी रहस्यमयी वाणी ।  
कृष्ण ने कहा : युधिष्ठिर जी आपसे कुछ उपदेश सुनना चाहते हैं। 
कथा तो विस्तार वाली है सार बात यह है ।  युधिष्ठिर ने कई प्रश्न किए, उसमें एक प्रश्न यह भी था कि हम जैसे संसार को सच्चा मानकर जीनेवाले लोगों की बुद्धि में भगवत की सत्यता, चेतनता, अनंतता  कैसे प्रकट हो ? मोक्ष का मार्ग ग्रहस्थी जीवन में कैसे पाएं ? 
तब धर्म के मर्म को जानने वाले भीष्मजी कहते हैं : ग्रहस्थ को तीर्थयात्रा में जाना चाहिए और वहां विरक्त, भगवतभक्त, ज्ञानी, जति-जोगी संतों का संग करना चाहिए । 

भीष्म पितामह युधिष्ठिर को कहते हैं:  महाराजा ऐसे महापुरुषों का संपर्क ग्रहस्थ को करना चाहिए और वासनाओं को नियंत्रित करके धर्म अनुकूल धर्म, धर्म अनुकूल वास्तव पूर्ति और मोक्ष का उद्देश्य होना चाहिए । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । लेकिन कोई विवेक जगाने वाला सत्संग और सदगुरु मिल जाए तो कामनापूर्ति में समय बर्बाद ना करें, कामनानिवृत्ति करके मोक्ष लाभ कर ले । मोक्षलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं । 
युधिष्ठिर महाराज के प्रश्नों के उत्तर देते-देते भीष्म जी कहते हैं : सात्विक गुणों से निद्रा का त्याग करे और परमार्थ से भय का नाश करे । आत्मचिंतन से निर्भयता को अपने आत्मस्वभाव को जगाए। श्वांस-प्रश्वांस की साधना से अपने पिया में विश्रांति पाए । धैर्य से छोटी-मोटी इच्छाओं को मिटाता जाए । अभी इच्छा हुई और भोग लें या कर लें.. नहीं, थोड़ा धैर्य रखो । समय की धारा में इच्छाए भी बह जाती है ।

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लक्ष्य ये बनायें फिर सफलता के पीछे आप नहीं सफलता आपके पीछे भागेगी



ओ..........म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म...... ॐ शांति।
 जीभ दांत के मूल में, श्वास अंदर जाता है देखो, बाहर आता है गिनो, कितना भी चंचल मन होगा शांत होने लगेगा । ध्यान, भजन, जप में बरकत आयेगी। आत्म कुंभ में आत्म तीर्थ में जाने में साधक सफल हो जाता है। 
ओम्म्म् नमो भगवते वासुदेवाय.... वासुदेवाय.... वासुदेवाय....
ओम्म्म् नमो भगवते वासुदेवाय

एक सम्राट ने अपने एक विश्वासपात्र युवक को सम्मान समारंभ से सम्मानित किया और कहा कि युवक तुमने थोड़े ही दिनों में मेरा विश्वास संपादन किया है और तुमने राज-काज के काम में बड़ी कुशलता और सच्चाई दिखाई। मैं तुम पर बहुत खुश हूँ, तुम जो चाहो मेरे से मांग लो। आज तुम्हारा सम्मान समारंभ है। मुंहमांगा इनाम मांग लो , मुंहमांगी चीज मांग लो हां...।
तुम जो मांगोगे बिना रोक-टोक के तुम्हे दे देता हूँ, दिल खोल के मांगो । 

    उस युवक ने मुंडी हिलाई। बोले राजन! मैं आपसे माँगूं ऐसी चीज आपके पास है ही नहीं। सारी सभा में सन्नाटा छा गया।

     मेरी सभा में, मेरे राज्य में कौनसी चीज की कमी है? मेैं तुम्हे आधा राज दे सकता हूँ, तुम्हे शादी करा सकता हूँ, ललनाएं तुम्हारी सेवा में रख सकता हूँ ,तुम्हे रथ दे सकता हूँ, हीरे-जवाहरात दे सकता हूँ, आधा राज्य दे सकता हूँ। मैं तुम पर बहुत खुश हूँ, मैं सब-कुछ दे सकता हूँ । बोलो... माँग लो , देर ना करो, संकोच ना करो।

     युवराज ने कहा : राजन ! जो मुझे चाहिए वो आपके पास नहीं है। आप राज्य दे सकते हैं, भोग दे सकते हैं, ललनाएं दे कर विकारी जीवन दे सकते हैं, नर्तकियां दे कर मनोरंजनी जीवन दे सकते हैं, महल दे कर शरीर को ऐश-आराम दे सकते हैं। मनोरंजन जीवन का उद्देश्य नहीं है राजन! विलास जीवन का उद्देश्य नहीं। मन की शांति और परमात्मा का ज्ञान... ये आप के पास नहीं तो आप मुझे क्या देंगे! आप मेरे शुभचिंतक है....धन्यवाद, लेकिन सच्चे मित्र तो सतगुरु होते है। ऐसा कोई सतगुरु आपके ध्यान में हो तो बताइए।

     राजा भोज खोज करते-करते उस युवक के निमित स्वयं भी सतगुरु के संपर्क में आने लगे और राजा भोज बड़े धर्मात्मा, संतप्रेमी बन गए। 
        जोक्स और मनोरंजन जीवन का लक्ष्य नहीं है । थोड़ी देर के लिए कभी थोड़ा....। ऐसे तो सुरेश भी बताते हैं । एक आदमी काँप रहा था । 
अरे ! बोले : क्या नाम है तेरा ?
बोले : मेरा नाम शेरसिंह है। 
तेरे बाप का नाम क्या है ?
बोले : शमशेर सिंह । 
बोले : कहां रहता है?
बोले : शेरों वाली गली में । 
तो अभी यहां क्यों खड़ा है, कांपता है?
बोले : सामने कुत्ता खड़ा है वो, डर लगता है।
मनोरंजन तो हो गया लेकिन है कपोलकल्पित, है तो कल्पना। शेरसिंह, शमशेर सिंह और शेरों वाली गली में रहता हूँ। तो ये जोक्स बनाए जाते है झूठे क्योंकि हम झूठ में रहते है तो झूठी बात हमारे मन को जल्दी मजा देती है लेकिन झूठ में कब तक रहोगे आखिर सत्य में ही तो सत्संग के द्वारा आया जायेगा ना।

https://youtu.be/EGCULAKqevE

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इतिहास गवाह है, हर सच्चे संत की निंदा हुई है



कबीरा निंदक ना मिलो
 पापी मिलो हजार
 एक निंदक के माथे पर 
लाख पापीन को भार
 भगवान वशिष्ठ जी कहते है राम जी मैं बाजार से गुजरता हूं तो मूर्ख लोग मेरे लिए क्या-क्या निंदा करते लेकिन हमारा दयालु स्वभाव हैं माफ कर देते हैं
 संत का एक भी सद्गुणों हो तो स्वीकार करके अपना कल्याण करना चाहिए।
 निंदको की बातों में आकर अपने को नर्को में नहीं ले जाना चाहिए । 
जिसस की निंदा ने जोर पकड़ा  और मैगेडलीन के साथ जिसस संबंध है और फिर जीसस को कीले ठोक ठोक कर मार दिया गया फिर भी जीसस को मानने वाले तो मानेंगे, ऐसे ही बुद्ध की निंदा में वेश्या को लगाया और कई लोगों के सामने बोले कि मेरा बुद्ध के साथ आड़ा संबंध है  तो क्या खानदानी स्त्री का काम है  खानदानी बोलेगी कि मेरा इनके साथ शारीरिक संबंध है बुद्ध के साथ मेरा संबंध है मैं रोज जाती हूं मैंने वैश्या का धंधा बंद कर दिया क्योंकि बुद्ध मिल गए उन्ही को खुश रखती हुं
ऐसा कूप्रचार चला बुद्ध के लिए के  बुद्ध ऐसा करते हैं वैसा करते हैं,अरे मूर्ख, अपनी यशोधरा सुंदरी और सेविका जैसी पत्नी का त्याग करके वो बुद्धत्व के लिए गए हैं और ऐसे महापुरुष पर लांछन लगाने की थोड़ी तो अक्कल रखो।
बुद्ध का विवाह हुआ था यशोधरा नाम की राजकन्या के साथ और उससे तो वह संयम में रहे और यह  बजारु बकवास करने वाली हलकट,  मेरी इन्होंने इज्जत लूटी मेरे को इन्होंने फंसाया आया,मेरे से इन्होंने संभोग करवाया या करने की कोशिश की,ऐसा जो बोलती है वो कितनी नीच आत्मा होगी  तो ऐसी उच्च आत्मा    यशोधरा से वो संयमी रहे और इस नीच आत्मा के पीछे  बुद्ध पड़े हैं 
अटला बधा निंदको के छे के बुद्ध बेनो साथेनो खोटो संबध छे,खोटो परिचय छे ने अमा पाछे ये निकली ए ने बजारू धंधो करती थी मैने तो जाहिर कर दिया, मु तो बुद्ध नी छु।
 मैं तो बुद्ध की हुं,और जेतवन में जाती हूं इसीलिए बाजार में नहीं रहती हूं, और जेतवन में आम के बगीचे में बुद्ध का ऐसा निवास है ऐसा है शांति है आनंद है कोई हमको देखता नहीं, क्या-क्या आरोप लगाए बुद्ध के ऊपर, फिर बोले जांच कमीशन बिठाओ,तो निंदकों को मौका मिल गया कि अच्छा है बुद्ध की जांच हो, बुद्ध की जांच कमीशन जांच करते करते बुद्ध की जांच करेगी उसके  दो दिन पहले उन्होंने वेश्या को दारू वारु पिलाकर बुद्ध के बगीचे में रात्रि को कुकर्म करा के कहीं और बुद्ध के बगीचे में मरी हुई वहां गाड़ दिया, कुकर्म तो उनके नींदको के लोगों ने किया ,बुद्ध ने नहीं किया और बुद्ध के बगीचे में रातों-रात गाढ दिया और राज्य सत्ता के द्वारा बुद्ध के बगीचे में जांच कमीशन आ गया,उसमें कमीशन में एक आध आदमी इनका भी था जहां गड़ी थी वो वेश्या वह जगह भी दिखा दी और मिट्टी हटाई गई तो वैश्या की लाश मिली 3 दिन पहले की , अब तो फिट हो गए बुद्ध, कितना पक्का केस बन गया, बलात्कार का भी बन गया और 302 भी बन गया तो बुद्ध के जो पक्के पक्के भगत थे वह भी कितने बिखरे होंगे लेकिन उनको उस समय अक्ल कौन दे ,कुप्रचार की आंधी चलती है न तो फिर सूखे पान ही जमीन पर गिरते नहीं हरे भरे गिर जाते है

 ऐसे ही निंदक तो जाकर पतित होते ही है लेकिन अच्छे-अच्छे साधक भी गिर पडे, बुद्ध का कुप्रचार हुआ तो अच्छे-अच्छे साधक, अच्छे-अच्छे भक्त भी, अब शिष्यों के हृदय भी धड़कने लगे कि ये अब हद हो गई कुछ कच्चे भी थे वे कुप्रचार के शिकार बनकर आना जाना कम हो गया लेकिन पक्के लोग तो पक्के रहे हमें थाम सके यह जमाने में दम नहीं लेकिन किसी निर्दोष आदमी पर जब वो ठान लेते हैं निंदक लोग तो कुछ ना कुछ माल मसाला और कहानियां ऐसी ऐसी बनाकर रख देते हैं तो लोगों को लगेगा कि यह तो बात सच्ची है।
कैसे कैसे इल्जाम लग जाते, और जब जब महापुरुषों पे और भक्त और भक्तानी पर इल्जाम लगते हैं तो इसी प्रकार के लगते हैं ताकि समाज उनसे टूटे, मीरा से लोग  टूटे,विक्रम राणा का मन चाहा हो लेकिन मीरा से लोग थोड़े टुटे होंगे लल्लू पंजू टूटे होंगे और पक्के और पक्के हुए होंगे, कबीर से लोग टूटे ऐसा वेश्याओं को भेजा जाता था  लेकिन उस समय टूटे फिर अभी कितने जुड़ गए, शंकराचार्य के पास आद्य गुरु शंकराचार्य,कपाली और ये वो टूटे लेकिन फिर कितने जुड़ गए, ऐसा कोई धरती पर महापुरुष शायद हो जिनका उस समय लोगों की श्रद्धा तोड़ने के लिए उन पर लांछन ना लगे हो,उनकी निंदा ना हुई हो, उनकी अफवाहे ना हुई हो   मुझे नहीं लगता, धरती पर कोई महापुरुष हुआ हो और फिर उनका यश कीर्ति और उनका आत्मधन में आंधी तूफान चलाने वालों ने अपना साजिश न किया हो,इतिहास देख लो ।
बुद्ध,कबीर,नानक, महावीर ये जो भी संत महावीर के कानों में तो किले ठोकने वाले अभागे लोग, फिर भी महावीर को जैनी लोग अच्छी तरीके से मानते हैं पूजते। कृष्ण के लिए भी तो कितने कितने  बवाल चलें और राम जी के लिए तो दुनिया जानती है कि सीता जी का त्याग करना पड़ा था, रामजी को नही छोड़ते,कृष्ण जी को नही छोड़ते तो तुम्हारी हमारी तो बात ही क्या है
 तो क्या डर जाओगे, आध्यात्मिकता छोड़ दोगे,
अपनी संस्कृति छोड़ दोगे, संभव ही नहीं है ओम ओम।

उस समय चाहे कुछ अफवाह हुआ और बुद्ध पकड़े गए, जेल में है जो कुछ बकने वालों ने बका, करने वालों ने किया, लेकिन आज आपसे मैं पूछता हुं कि बुद्ध की बदनामी का जिन्होंने षड्यंत्र रचा वह कौन से नरक में है आप बता सकते हो क्या,नहीं बता सकते हो, कौन सी नीच योनियों में भटक रहे हैं कुत्तों की नई भौंक रहे हैं पता हैं नहीं,कीड़े मकोड़े हो कर रेंग रहे है  आप बता सकते है क्या नहीं, लेकिन बुद्ध तो लाखो लाखो लोगों की आस्था का केंद्र अभी भी मौजूद है आप बता सकते हो,ये सच्ची बात हैं।

https://youtu.be/834JQm-X3MM

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रविवार, दिसंबर 04, 2022

'तुलसी दल के सिवा मेरा कोई दल नहीं'


        एक बार माघ मेले के अवसर पर मदनमोहन मालवीयजी 'सनातन धर्म महासभा' के सम्मेलन में भाषण दे रहे थे । विरोधी दल के कुछ लोग वहाँ आये और सम्मेलन भंग करने के उद्देश्य से शोरगुल मचाने लगे। तब उनके एक प्रवक्ता को मालवीयजी ने बोलने के लिए आमंत्रित किया । उस प्रवक्ता ने मालवीयजी पर दलबंदी करने का आरोप लगाया। उसके उत्तर में मालवीयजी ने कहा: "मैंने अपने समस्त जीवन में दल तो केवल एक ही जाना है । वह दल ही मेरा जीवन-प्राण है और जीवन रहते उस दल को मैं कभी छोड़ भी नहीं सकता। उस दल के अतिरिक्त किसी दूसरे दल से मुझे कोई मतलब नहीं ।"

       यह कहकर उन्होंने अपनी जेब से एक छोटा-सा दल निकाला और उसे जनता को दिखलाते हुए कहा : "और वह दल है यह तुलसी दल!" हर्षध्वनि और 'मालवीयजी की जय !' के नारों से सारा पंडाल गूंज उठा तथा प्रतिपक्षी अपना सा मुँह लेकर वापस लौट गये । इतने उदार, सत्यनिष्ठ सज्जन को भी प्रतिपक्षी-द्वेषी लोगों ने बदनाम करने में कमी नहीं रखी । इस लौहपुरुष से द्वेष करनेवाले तो पचते रहे परंतु वे सत्संग और स्नेह रस से सराबोर रहे।

 ऋषि प्रसाद अगस्त 2006

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