गुरुवार, अक्टूबर 07, 2010

संगति करें यदि संत की


'हे पुत्र ! इस देहाध्यास ने तुझे चिर काल से बाँध रखा था। अब ॐकार का गुँजन करके देहाभिमान को भगाकर आत्म-अभिमान को जगा दे। काँटे से काँटा निकलता है। जीवभाव को हटाने के लिए अपने चैतन्य स्वभाव को, अपने आत्मस्वभाव को जगाओ। विकार और विषयों के आकर्षण को हटाने के लिए अपने आत्मानन्द को जगाओ। अपने आत्मा के सुख में सुखी हो जाओ तो बाहर का सुख तुम्हें क्यों बाँधेगा ? उसकी कहाँ ताकत है तुम्हें बाँधने की ? तुम्हीं बँध जाते थे वत्स ! अब तुम मुझ मुक्त आत्मा की शरण में आये हो तो तुम भी मुक्त हो जाओ। ले लो यह ॐकार की गुँजन और ज्ञान की कैंची। काट दो मोह-ममता के जाल को। तुम्हें बाँध सके या नर्कों में ले जा सके अथवा स्वर्ग में फँसा सके ऐसी ताकत किसी में भी नहीं। तुम ही नर्क और स्वर्ग के रास्ते बनाकर उसमें पचने और फँसने जाते थे, अज्ञान के कारण। अब ज्ञान के प्रसाद से तुम्हारा अज्ञान भाग गया। अगर थोड़ा रहा हो तो मार दो 'ॐ' की गदा फिर से। प्रकट कर दो अपना आनन्द। प्रकट कर दो अपनी मस्ती। प्रकट कर दो अपनी निर्वासनिकता। मुझे अब कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि सर्व मैं ही बना बैठा हूँ। मुझे नर्क का भय नहीं, स्वर्ग की लालसा नहींष मृत्यु मेरी होती नहीं। जन्म मेरा कभी था नहीं। मैं वह आत्मा हूँ।
तुम सब आत्मा ही हो। सब परमेश्वर हो। मैं भी वही हूँ। तुम भी वही हो। जो मैं हूँ वही तुम भी हो। जो तुम हो वह मैं हूँ।
हे किल्लोल करते पक्षी ! तुम भी चैतन्य देव हो। हे गगनगामी योगी ! तुम अपने चैतन्य स्वभाव को जानो। देह से जुड़कर तुम कब तक आकाशगमन करते रहोगे ? तुम तो चिदाकाश स्वरूप में विश्रान्ति पा लो।
हे आकाशचारी सिद्धों ! आकाश में विचरण करने वाले उत्तम कोटि के साधकों ! तुम अपने साध्य स्वभाव को जान लो। तुम तो धन्य हो ही जाओगे, तुम्हारी धन्यता का होना प्राकृतिक जीवों के लिए बहुत कुछ आशीर्वाद हो जाएगा।
हे सिद्धों ! तुम परम सिद्धता को पा लो। हे साधकों ! तुम परम साध्य को पा लो। परम साध्य तुम्हारा परमात्मा है न ! खूब मधुर अलौकिक अनुभूति में तुम गोता मारते जाओ। तुम अगर आनन्दस्वरूप न होते, सुखस्वरूप न होते तो अभी अपने आत्मस्वभाव की बात सुनते तुम इतने पवित्र, शांत और सुखस्वरूप नहीं हो सकते थे। तुम पहले से ही ऐसे थे। ज्यों-ज्यों भूल मिटती है त्यों-त्यों तुम्हें अपने स्वभाव की शांति और मस्ती आती है।

जय हो....! प्रभु तेरी जय हो....! हे गुरूदेव तुम्हारी जय हो....!

ना जीना है ना मरना है मगन अपने में रहना है।
आन पड़े सो सहना है,
आतम नशे में देह भुलाकर साक्षी होकर रहना है।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

संगति करें यदि संत की तो चित्त समता पाय है।
यदि दुर्जनों में बैठते बुद्धि बिगड़ तो जाय है।
दुःसंग में बैठे सदा सत्संग में ना जा सके।
सुख है यहाँ या दुःख है कैसे इन्हें समझा सकें।।


निर्जीव सारे शास्त्र सच्चा मार्ग ही दिखलाय हैं।
दृढ़ ग्रन्थि चिज्जड़ खोलने की युक्ति नहीं बतलाय हैं।
निस्संग होने के सबब से ईश भी रूक जाय है।
गुरू गाँठ खोलन रीति तो गुरूदेव ही बतलाय है।।

गुरूदेव अदभुत रूप है परधाम माँहि विराजते।
उपदेश देने सत्य का इस लोक में आ जावते।
दुर्गम्य का अनुभव करा भय से परे ले जावते।
पर धाम में पहुँचाय कर स्वराज्य पद दिलवावते।।

ना भोग जिसको खींचते ना क्षोभ मन में आय है।
कैसी सुहावनी वस्तु हो ना लोभ मन उपजाय है।
है वस्तु सच्ची कौन-सी किस वस्तु माँही सार है।
उस वस्तु की हो खोज उसका ज्ञान में अधिकार है।।

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