शुक्रवार, अक्टूबर 01, 2010

आत्मसुख की झलक

अष्टावक्र जी कहते हैं- सुखी होने के लिए कुछ करना नहीं है, केवल जानना है। कोई मजदूरी करने की जरूरत नहीं है। केवल चित्त की विश्रांति...। चित्त जहाँ-जहाँ जाता है उसको देखो। जितना अधिक तुम शांत बैठ सकोगे उतना तुम महान हो जाओगे।



कीर्तन करते-करते देहाध्यास को भूलना है। जप करते-करते इधर-उधर की बातों को भूलना है। जब इधर-उधर की बातें भूल गये फिर जप भी भूल जाओ तो कोई हरकत नहीं।


शांतो भव। सुखी भव।
भगवान विष्णु की पूजा में स्तुति आती हैः


शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्।।

भगवान को मेघवर्ण क्यों कहा ? व्यापक चीज सदा मेघवर्णी होती है, गगन सदृश होती है। आकाश नीला दिखता है, सागर का पानी नीला दिखता है। ऐसे जो परमात्मा है, जो विष्णु है, जो सबमें बस रहा है वह व्यापक है इसलिए उसको मेघवर्ण कह दिया।


शिवजी का चित्र, विष्णुजी का चित्र, रामजी का चित्र, श्रीकृष्ण का चित्र इसीलिए नीलवर्ण बनाये हैं जानकारों ने। वास्तव में परमात्मा का कोई रंग नहीं होता। परमात्मा की व्यापकता दिखाने के लिए नीलवर्ण की कल्पना की गई है।


इसी प्रकार आपका आत्मा किसी वर्ण का नहीं है, किसी जाति का नहीं है, किसी आश्रम का नहीं है। लेकिन वह जिस देह में आता है उस देह के मुताबिक वर्णाश्रमवाला हो भासता है। अपने को ऐसा मानते-मानते सुखी-दुःखी होता है, जन्मता-मरता है। जीवपने की मान्यता बदल जाय तो भीतर इतना दिव्य खजाना छुपा है, इतनी गरिमा छुपी है कि उसको सुखी होने के लिए न स्वर्ग की जरूरत है न इलेक्ट्रोनिक साधनों की जरूरत है न दारू की जरूरत है। सुखी होने के लिए किसी भी चीज की जरूरत नहीं है। शरीर जिन्दा रखने के लिए किसी भी वस्तु की जरूरत नहीं है। आत्मा ऐसा सुख स्वरूप है। .....और मजे की बात है कि संसार में बिना वस्तु के कोई सुखी दिखता ही नहीं। वस्तु मिलती है तो वह सुखी होता है। अज्ञान की बलिहारी है !


वास्तव में वस्तुओं से सुख नहीं मिलता अपितु वस्तुओं में सुख है यह मानने की बेवकूफी बढ़ती जाती है।


चित्त जब अन्तर्मुख होता है तब जो शांति मिलती है, आत्मसुख की झलक मिलती है उसके आगे संसार भर की चीजों का सुख काकविष्ठा जैसा तुच्छ है। फिर संसार के पदार्थ आकर्षित नहीं कर सकते। एक बार खीर खाकर तृप्त हुए हो तो फिर भिखारिन के जूठे टुकड़े तुम्हें आकर्षित नहीं करेंगे। एक बार तुम्हें सम्राट पद मिल जाय फिर चपरासी की नौकरी तुम्हें आकर्षित नहीं करेगी।


ऐसे ही मन को एक बार परमात्मा का सुख मिल जाय, एक बार ध्यान का सुख मिल जाय, मौन होते-होते परमात्म-शांति का पूर्ण सुख मिल जाय तो फिर मन तुम्हें धोखा नहीं देगा। मन का स्वभाव है कि जहाँ उसको सुख मिल जाता है फिर उसी का वह चिन्तन करता है। उसी के पीछे तुम्हें दौड़ाता है।


संसार की चीजों में जो सुख की झलकें मिलती हैं वे अज्ञानवश इन्द्रियों के द्वारा मिलती हैं। इसीलिए अज्ञानवश जीव बेचारे उनके पीछे भागे जाते हैं।


सत्संग के द्वारा, पुण्य प्राप्ति के द्वारा, संतों की...... गुरू की कृपा के द्वारा जब आत्मसुख की झलक मिलती है तब संसार के सारे सुख की झलकें व्यर्थ हो जाती हैं। भरथरी महाराज ने इसी को लक्ष्य करके कहा होगाः


जब स्वच्छ सत्संग कीनो तब कछु कछु चीन्यो
मूढ़ जान्यो आपको......

'रथ में घूमकर सुख लेना, फूलों की शैया में सुख लेना... ये सब मूढ़ता के खेल थे। सुख तो मेरे आत्मा में यो ही भरा हुआ था।'


सुख को सब चाहते हैं। आपको अन्तर्मुखता से जितना-जितना सुख मिलता जाता है उतने-उतने आप महान् होते जाते हैं। बहिर्मुखता से जो सुख का एहसास होता है, वह केवल अभ्यास होता है।


चैतन्य परमात्मारूपी सरोवर में एक लहर उठी, उसका नाम चिदावली। चिदावली से बुद्धिवृत्ति हुई। बुद्धि में विकल्प आये तो मन हुआ। मन ने चिन्तन किया तो चित्त कहलाया। देह के साथ अहंबुद्धि की तो अहंकार हुआ। वह वृत्ति इन्द्रियों के द्वारा जगत में आयी। फिर जगत में जात-पात आ गई। फिर वर्ण आये, आश्रम आये, राष्ट्रीयता आयी, कालापना आया, गोरापना आया। ये सब हमने थोप लिये।


परमात्मारूपी सरोवर में स्पन्दनरूपी चिदावली हुई। चिदावली में फिर बुद्धिवृत्ति। बुद्धिवृत्ति से संकल्प-विकल्प हुए तो मनःवृत्ति। उस वृत्ति ने चिंतन किया तो चित्त कहलाया। उस वृत्ति ने देह में अहं किया तो अहंकार कहलाया।


तीन प्रकार के अहंकार हैं-


पहलाः 'मैं शरीर हूँ... शरीर के मुताबिक जाति वाला, धर्मवाला, काला, गोरा, धनवान, गरीब इत्यादि हूँ....' ऐसा अहंकार नर्क में ले जाने वाला है। देह को मैं मानकर, देह के सम्बन्धियों को मेरे मानकर, देह से सम्बन्धित वस्तुओं को मेरी मानकर जो अहंकार होता है वह क्षुद्र अहंकार है। क्षुद्र चीजों में अहंकार अटक गया है। यह अहंकार नर्क में ले जाता है।


दूसराः "मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं.....' यह अहंकार उद्धार करने वाला है। भगवान का हो जाय तो जीव का बेड़ा पार है।


तीसराः 'मैं शुद्ध बुद्ध चिदाकाश, मायामल से रहित आकाशरूप, व्यापक, निर्लेप, असंग आत्मा, ब्रह्म हूँ।' यह अहंकार भी बेड़ा पार करने वाला है।'


प्रह्लाद ने किसी कुम्हार को देखा कि वह भट्ठे को आग लगाने के बाद रो रहा है। वह आकाश की ओर हाथ उठा-उठाकर प्रार्थनाएँ किये जा रहा है.... आँसू बहा रहा है।


प्रह्लाद ने पूछाः "क्यों रोते हो भाई ? क्यों प्रार्थनाएँ करते हो ?"


कुम्हार ने कहाः "मेरे भट्ठे (पजावे) के बीच के एक मटके में बिल्ली ने अपने द बच्चे रखे थे। मैं उन्हें निकालना भूल गया और अब चारों और आग लग चुकी है। अब बच्चों को उबारना मेरे बस की बात नहीं है। आग बुझाना भी संभव नहीं है। मेरे बस में नहीं है कि उन मासूम कोमल बच्चों को जिला दूँ लेकिन वह परमात्मा चाहे तो उन्हें जिन्दा रख सकता है। इसलिए अपनी गलती का पश्चाताप भी किये जा रहा हूँ और बच्चों को बचा लेने के लिए प्रार्थना भी किये जा रहा हूँ किः


"हे प्रभु ! मेरी बेवकूफी को, मेरी नादानी को नहीं देखना... तू अपनी उदारता को देखना। मेरे अपराध को न निहारना..... अपनी करूणा को निहारना नाथ ! उन बच्चों को बचा लेना। तू चाहे तो उन्हें बचा सकता है। तेरे लिए कुछ असम्भव नहीं। हे करूणासिंधो ! इतनी हम पर करूणा बरसा देना।'


कुम्हार का हृदय प्रार्थना से भर गया। अनजाने में उसका देहाध्यास खो गया। अस्तित्व ने अपनी लीला खेल ली।


भट्ठे में मटके पक गये। जिस मटके में बच्चे बैठे थे वह मटका भी पक गया लेकिन बच्चे कच्चे के कच्चे..... जिन्दे के जिन्दे रहे।


मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्।

वह ईश्वर चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? वह तो सतत करता ही है।


परमात्मा तो चाहता है, अस्तित्व तो चाहता है कि आप सदा के लिए सुखी हो जाओ। इसीलिए तो सत्संग में आने की आपको प्रेरणा देता है। अपनी अक्ल और होशियारी से तो कर-कर के सब लोग थक गये हैं। परमात्मा की बार-बार करूणा हुई है और हम लोग बार-बार उसे ठुकराते हैं फिर भी वह थकता नहीं है। हमारे पीछे लगा रहता है हमें जगाने के लिए। कई योजनाएँ बनाता है, कई तकलीफें देता है, कई सुख देता है, कई प्रलोभन देता है, संतों के द्वारा दिलाता है।


वह करूणासागर परमात्मा इतना इतना करता है, तुम्हारा इतना ख्याल रखता है। बिल्ली के बच्चों को भट्ठे में बचाया ! बिल्ली के बच्चों को जलते भट्ठे में बचा सकता है तो अपने बच्चों को संसार की भट्ठी से बचा ले और अपने आपमें मिला ले तो उसके लिए कोई कठिन बात नहीं है।


अस्तित्व चाहता है कि तुम अपने घर लौट आओ.... संसार की भट्ठी में मत जलो। मेरे आनन्द-सागर में आओ.... हिलोरें ले रहा हूँ। तुम भी मुझमें मिल जाओ।


ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ.....ॐ.....

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