गुरुदेव परमात्म-स्वरूप हैं
इस संसार में यदि कुछ दुर्लभ हो तो वह है जीव को मानवदेह की प्राप्ति होना। मानवदेह मिल जाये तो मोक्ष की इच्छा होना दुर्लभ है। मोक्ष की इच्छा भी हो जाय तो मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाले सदगुरू की प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ है। परमात्मा की कृपा हो तभी ये तीनों एक साथ प्राप्त हो सकते हैं। जिसको श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ सदगुरू संप्राप्त हो गये हैं वह मानव परम सदभागी है।
परमात्मा के नित्यावतारूप ज्ञानी महात्मा के दर्शन तो कई लोगों को हो जाते है लेकिन उनकी वास्तविक पहचान सब को नहीं होती, इससे वे लाभ से वंचित रह जाते हैं। महात्मा के साक्षात्कार के लिए हृदय में अतुलनीय श्रद्धा और प्रेम के पुष्पों की सुगन्ध चाहिए।
जिस मनुष्य ने जीवन में सदगुरु की प्राप्ति नहीं की वह मनुष्य अभागा है, पापी है। ऐसा मानव या तो अपने से अधिक बुद्धिमान किसी को मानता नहीं, अभिमानी है, अथवा उसको कोई अपना हितैषी नहीं दिखता। उसको किसी में विश्वास नहीं। उसके हृदय में संदेह का शूल सतत् पीड़ा देता रहता है। ऐसा मानव दुःखी ही रहता है।
महापुरुष का आश्रय प्राप्त करने वाला मनुष्य सचमुच परम सदभागी है। सदगुरु की गोद में पूर्ण श्रद्धा से अपना अहं रूपी मस्तक रखकर निश्चिंत होकर विश्राम पाने वाले सत्शिष्य का लौकिक एवं आध्यात्मिक मार्ग तेजोमय हो जाता है। सदगुरु में परमात्मा का अनन्त सामर्थ्य होता है। उनके परम पावन देह को छूकर आने वाली वायु भी जीव के अनन्त जन्मों के पापों का निवारण करके क्षण मात्र में उसको आह्लादित कर सकती है तो उनके श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति से समर्पित होने वाले सत्शिष्य के कल्याण में क्या कमी रहेगी ?
गुरुत्व में विराजमान ज्ञानी महापुरुषों की महिमा गा रहे हैं शास्त्र, पुराण, वेद। उनके सामर्थ्य की क्या बात करें ? उपनिषद तो कहती हैः
तद् दृष्टिगोचराः सर्वे मुच्यन्ते।
उसके दृष्टिपथ में जो कोई आ जाता है उसकी मुक्ति कालांतर में भी हो जाती है। शेर की दाढ़ में आया हुआ शिकार संभव है छटक जाय लेकिन फकीर की दाढ़ में आया हुआ शिकार सदगुरु के दिल में स्थान पाया हुआ सत्शिष्य छटक नहीं सकता, श्रेयमार्ग छोड़कर संसार में गिर नहीं सकता, फँस नहीं सकता। उसका पारमार्थिक कल्याण अवश्य हो जाता है।
सदगुरु साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं। वे निमिष मात्र में समग्र सृष्टि के बन्धन काटकर मुक्त कर सकते है ।
यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।। (उपनिषद)
ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से अपने हाथ से जिसको स्पर्श करते हैं, अपने चक्षुओं से जिसको देखते हैं वह जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर आखिर ब्रह्मत्व को उपलब्ध होकर मुक्ति पाता है, तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए मानव के मोक्ष के बारे में संदेह ही कहाँ है ?
मोक्षमार्ग के साधनों में अनन्य भक्ति एक उत्तम साधन है। भक्ति का अर्थ है स्वरूप का अनुसन्धान।
मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी।
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधियते।।
आध्यात्मिक मार्ग में गुरुभक्ति की महिमा अपार है। शिष्य स्वयं में शिवत्व नहीं देख सकता। अतः प्रारंभ में उसे अपने सदगुरु में शिवत्व देखना चाहिए, सदगुरु को परमात्मास्वरूप से भजना चाहिए। इससे गुरु के द्वारा परमात्मा शिष्य में अमृत की वर्षा कर देते हैं, उसको अमृतस्वरूप बना देते हैं।
गुरुदेव में मात्र परमात्मा की भावना ही नहीं, गुरुदेव परमात्म-स्वरूप हैं ही। यह एक ठोस सत्य है। यह वास्तविकता अनुभव करने की है। श्वेतश्वतर उपनिषद कहती हैः
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
सदगुरू के चित्र, फोटो या मूर्ति के समक्ष उपासना करने से भी श्रेय और प्रेय के मार्ग की परोक्षता नष्ट हो जाती है तो सदगुरु के साक्षात श्रीचरणों का सेवन करने वाला, अनन्य भक्त, प्रेमी, सत्शिष्य का कल्याण होने में विलंब कैसा ?
जिसके जीवन में दिव्य विचार नहीं है, दिव्य चिन्तन नहीं है वह चिन्ता की खाई गिरता है। चिन्ता से बुद्धि संकीर्ण होती है। चिन्ता से बुद्धि का विनाश होता है। चिन्ता से बुद्धि कुण्ठित होती है। चिन्ता से विकार पैदा होते हैं।
विचारवान पुरुष अपनी विचारशक्ति से विवेक वैराग्य उत्पन्न करके वास्तव में जिसकी आवश्यकता है उसे पा लेगा। मूर्ख मनुष्य जिसकी आवश्यकता है उसे समझ नहीं पायेगा और जिसकी आवश्यकता नहीं है उसको आवश्यकता मानकर अपना अमूल्य जीवन खो देगा।
मैं दृष्टा हूँ, यह अनुभूति भी एक साधक अवस्था है। एक ऐसी सिद्धावस्था आती है जहाँ दृष्टा होने का भी सोचना नहीं पड़ता।
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