रविवार, सितंबर 12, 2010

प्रिय लागहु मोहि बापू आसाराम

ब्रह्म गिआनी का कथिआ न जाइ अधयाख्यरु।
ब्रह्म गिआनी सरब का ठाकुरु॥

संत में एक भी सदगुण दिखे तो लाभ ले लें। उनमें दोष देखना और सुनना अपने को मुक्तिफल से वंचित करके अशांति की आग में झोंकने के बराबर है।

'श्री योगवाशिष्ठ महारामायण' के निर्वाण प्रकरण के 208वें सर्ग में आता हैः "हे रामजी ! जिसकी संतों की संगति प्राप्त होती है, वह भी संत हो जाता है। संतों का संग वृथा नहीं जाता। जैसे, अग्नि से मिला पदार्थ अग्निरूप हो जाता है, वैसे ही संतों के संग से असंत भी संत हो जाता है और मूर्खों की संगति से साधु भी मूर्ख हो जाता है। जैसे, उज्जवल वस्त्र मल के संग से मलिन हो जाता है, वैसे ही मूढ़ का

संग करने से साधु भी मूढ़ हो जाता है। क्योंकि पाप के वश उपद्रव भी होते हैं, इसी से दुर्जनों की संगति से साधु को भी दुर्जनता घेर लेती है। इससे हे राम! दुर्जन की संगति सर्वथा त्यागनी चाहिए और संतों की संगति कर्त्तव्य है। जो परमहंस संत मिले और जो साधु हो और जिसमें एक गुण भी शुभ हो, उसका भी अंगीकार कीजिए, परंतु साधु के दोष न विचारिये, उसके शुभ गुण ही ग्रहण कीजिये।"

द्वेष बुद्धि से तो श्रीकृष्ण, श्रीराम, संत कबीर आदि दुनिया के सभी संतों में दोष देखने को मिलेंगे। उनके यश को देखकर निंदा करने वाले भी बहुत मिलेंगे, परंतु गुणग्राहियों ने संत-महापुरुषों से लाभ उठाया है और अपना जीवन सफल किया है।

शास्त्रों में आता है कि संत की निन्दा, विरोध या अन्य किसी त्रुटि के बदले में संत क्रोध कर दें, शाप दे दें तो इतना अनिष्ट नहीं होता जितना अनिष्ट संतों की खामोशी व सहनशीलता के कारण होता है। सच्चे संतों की बुराई का फल तो भोगना ही पड़ता है। संत तो दयालु और उदार होते हैं। वे तो क्षमा कर देते हैं, परंतु प्रकृति कभी नहीं छोड़ती। इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि सच्चे संतों व

महापुरुषों के निन्दकों को कैसे-कैसे भीषण कष्टों को सहते हुए बेमौत मरना पड़ा है और पता नहीं किन-किन नरकों को सड़ना पड़ा है। अतएव समझदारी इसी में है कि हम संतों की प्रशंसा करके या उनके आदर्शों को अपनाकर लाभ न ले सकें तो उनकी निन्दा करके पुण्य व शांति भी नष्ट नहीं करें।

यह सत्य है कच्चे कान के लोग दुष्ट निन्दकों के वाग्जाल में फँस जाते हैं। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में आत्मशांति देने वाला, परमात्मा से जोड़ने वाला कोई काम नहीं किया है, उसकी बात सच्ची मानने का कोई कारण ही नहीं है। तदुपरान्त मनुष्य को यह भी विचार करना चाहिए कि जिसकी वाणी और व्यवहार से हमें जीवन-विकास की प्रेरणा मिलती है, उसका यदि कोई अनादर करना चाहे तो हम उस महापुरुष की निन्दा कैसे सुन लेंगे? व कैसे मान लेंगे?

सत्पुरुष हमें जीवन के शिखर पर ले जाना चाहते हैं, किंतु कीचड़ उछालने वाला आदमी हमें खाई की ओर खींचकर ले जाना चाहता है। उसके चक्कर में हम क्यों फँसे? ऐसे अधम व्यक्ति के निन्दाचारों में पड़कर हमें पाप की गठरी बाँधने की क्या आवश्यकता है? इस जीवन में तमाम अशांतियाँ भरी हुई हैं। उन अशांतियों में वृद्धि करने से क्या लाभ?

निजानंद में मग्न इन आत्मज्ञानी संत पुरुषों को भला निंदा-स्तुति कैसे प्रभावित कर सकती है? वे तो सदैव ही उस अनंत परमात्मा के अनंत आनंद में निमग्न रहते हैं। वे महापुरुष उस पद में प्रतिष्ठित होते हैं जहाँ इन्द्र का पद भी छोटा हो जाता है।

पीत्वा ब्रह्मरसं योगिनो भूत्वा उन्मतः।

इन्द्रोऽपि रंकवत् भासयेत् अन्यस्य का वार्ता॥

तीन टूक कौपीन की भाजी बिना लूण।

तुलसी हृदय रघुवीर बसे तो इंद्र बापड़ो कूण॥


इन्द्र का वैभव भी तुच्छ समझने वाले ऐसे संत, जगत में कभी-कभी, कहीं-कहीं, विरले ही हुआ करते हैं। समझदार तो उनसे लाभ उठाकर अपनी आध्यात्मिक यात्रा तय कर लेते हैं, परंतु उनकी निंदा करने-सुनने वाले तथा उनको सताने वाले दुष्ट, अभागे, असामाजिक तत्त्व कौन सी योनियों में, कौन सी नरक में पच रहे होंगे यह हम नहीं जानते। ॐ

'श्री योगवाशिष्ठ महारामायण' में वशिष्ठजी महाराज ने कहा हैः "हे रामजी ! अज्ञानी जो कुछ मुझे कहते और हँसते हैं, सो मैं सब जानता हूँ, परंतु मेरा दया का स्वभाव है। इससे मैं चाहता हूँ कि किसी प्रकार वे नरकरूप संसार से निकलें। इसी कारण मैं उपदेश करता हूँ। संतों के गुणदोष न विचारना, परंतु उनकी युक्ति लेकर संसार सागर से तर जाना।"

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि बापू आसाराम॥

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