रविवार, सितंबर 26, 2010

साधक के हृदय में भी आत्मज्ञान के फूल खिलें



जिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना।
श्रवण रंध्र अहि भवन समाना।।
जे न करहिं रामगुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।
 
जिनके कानों ने हरिकथा नहीं सुनी है वे कान नहीं हैं, साँप के बिल हैं।
 
जिनके जीवन में आत्मज्ञान की कथा नहीं है उनका जीवन सचमुच दयाजनक है। जिनकी जिह्वा पर भगवान का नामोच्चारण नहीं है उनकी जिह्वा मेंढक की जिह्वा जैसी है।
 
भगवन्नाम का गुणगान करने से जिह्वा पवित्र होती है। भगवत्तत्त्व की कथा सुनने से कान पवित्र होते हैं।
 
वेदान्त का सत्संग एक ऐसा अनूठा बल देता है कि निर्धन को धनवानों का भी धनवान, सत्तावानों का भी सत्तावान, महान् सम्राट बना देता है। वह चाहे झोपड़ी में गुजारा करता हो, खाने को दोर टाइम भोजन भी न मिलता हो लेकिन जीवन में सदाचार के साथ वेदान्त आ जाय तो आदमी निहाल हो जाता है। वेदान्त अज्ञान को मिटाकर जीव को अपने आत्मपद में प्रतिष्ठित कर देता है। सत्संग जीवात्मा के पाप-ताप मिटाकर उसे शुद्ध बना देता है। कथा सुनने से पाप नाश होते हैं। कथा सुनने से अज्ञान क्षीण होता है। हरिकथा सुनने से, उसके प्रसाद से मन पावन होता है। जिनक जीवन में भीतर का प्रसाद नहीं, उनका जीवन दयाजनक है।
 
गाधि नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था। अपना गाँव छोड़कर एकान्त स्थान में जाकर धारणा-ध्यान करने लगा। भगवान विष्णु की उपासना करता रहा। उसकी धारणा सिद्ध हुई और भगवान नारायण ने उसको दर्शन दिया। गाधि ने कहाः

"हे भगवन् ! मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ।"
 
भगवान ने कहाः "माया तो धोखा देती है। 'माया' का मतलब है 'या मा सा माया।' जो है नहीं फिर भी दिखती है। ऐसी माया के झंझट में पड़ना ठीक नहीं है। यह क्या माँग लिया तुमने ?"
 
"महाराज ! आपकी माया को एक बार देखने की इच्छा है।"
 
आखिर भगवान ने कहाः "हे गाधि ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम मेरी माया को देखोगे और छोड़ भी दोगे। उसमें उलझोगे नहीं।"
 
वरदान देकर भगवान नारायण अन्तर्धान हो गये।
 
गाधि ब्राह्मण प्रतिदिन दो बार तालाब में स्नान करने जाता था। एक बार उसने तालाब के जल में गोता मारा तो क्या देखता है ? 'मेरी मृत्यु हो गई है। कुटुम्बी लोग अर्थी में बाँधकर स्मशान में ले गये। शरीर जलाकर भस्म कर दिया।'
 
फिर वह देखता है कि एक चाण्डाली के गर्भ में प्रवेश हुआ। समय पाकर चाण्डाल बालक होकर उत्पन्न हुआ। कटजल उसका नाम रखा गया। छोटे-छोटे चाण्डाल मित्रों के साथ खेलता-कूदता कटजल बड़ा हुआ। गिलोल से पक्षी मारने लगा। कुल के अनुसार सब नीच कर्म करने लगा। युवा होने पर चाण्डाली लड़की के साथ विवाह हुआ। फिर बेटे-बेटियाँ हुई। चाण्डाल परिवार बढ़ा। कई निर्दोष पशु-पक्षियों को मारकर अपना गुजारा करता था। चालीस वर्ष बीत गये चाण्डाल बहुएँ घर में आयी, चाण्डाल दामाद मिले। बेटे-बेटियों का परिवार भी बड़ा होता चला।
 
तालाब के जल में एक ही गोता लगाया हुआ है और गाधि ब्राह्मण यह सब चाण्डाल जीवन की लीला महसूस कर रहा है।
 
वह चाण्डाल कटजल एक दिन घूमता-घामता क्रान्त देश में जा पहुँचा जहाँ का राजा स्वर्गवासी हो गया था। नया राजा चुनने के लिए हाथी को सिंगारा गया था। उसकी सूँड में जल का कलश रख दिया गया था। हाथी जिस पर जल का कलश उड़ेल दे, उसको नगर का राजा घोषित किया जायगा। हाथी ने कटजल पर कलश उड़ेला और सूँड से उठाकर अपने ऊपर बिठा दिया। बाजे, शहनाइयाँ, ढोल, नगाड़े बजने लगे। कटजल का राज्याभिषेक हुआ। वह चाण्डाल क्रान्त देश का राजा बन गया। उसने अपने चाण्डाल के सब निशान मिटा दिये। अपना नाम भी बदल दिया। आठ वर्ष तक उसने राज्य किया। दास-दासियों सहित रानियों से सेवित और मंत्री आदि से सम्मानित होता रहा।
 
वह पूर्वकाल में चालीस वर्ष तक जिस गाँव में रहा था उस गाँव के चाण्डाल संयोगवश इस नगर में आये और उसे देख लिया। उन्होंने उसे पुराने नाम से पुकारा। राजा बना हुआ यह चाण्डाल कटजल घबराया। उन लोगों का तिरस्कार करके सबको भगा दिया।
 
महल में दास-दासियाँ जान गईं कि यह मूँआ चाण्डाल है। धीरे-धीरे सारे नगर में बात फैल गई। सबका मन उद्विग्न हो गया।
 
नगर के पवित्र ब्राह्मण चिता जलाकर अपने शरीर को भस्म करके प्रायश्चित करने लगे। कई लोग तीर्थाटन करने चले गये। रानियाँ, दासियाँ, टहलुए, मंत्री सब उदास रहने लगे। अब राजा की आज्ञा कोई माने नहीं।
 
कटजल ने सोचा कि मेरे कारण इतने लोगों ने आत्महत्या कर ली। राज्य में विरोध फैल गया है। कोई आज्ञा मानता नहीं है। लोग राजगद्दी छीन लें उसके पहले मैं ही क्यों न अपने आप अपना अन्त कर दूँ !
 
उसने आग जलाई और अपने आपको उसमें फेंका। शरीर को आग की ज्वाला लगी, तपन से पीड़ित हुआ तो वह तालाब के पानी से बाहर निकल आया। देखा कि 'अरे ! यह तो कुछ नहीं है ! अभी तो एक गोता ही लगाया था तालाब के पानी में और इतनी देर में मेरी मृत्यु हुई, जीव चाण्डाली के गर्भ में गया, जन्म लिया, बड़ा हुआ, चाण्डाली के साथ शादी की, बच्चे हुए, आठ साल क्रान्त देश में राजा बनकर राज किया। मैंने यह सब क्या देखा ? चलो, जो होगा सो होगा। सब मेरी कल्पना है, सपना है, मरने दो।
 
ऐसा सोचकर वह अपने आश्रम में गया। दैवयोग से एक बूढ़ा तपस्वी साधू गाधि के आश्रम में आया। गाधि ने उसकी आवभगत की। रात्रि को भोजनोपरान्त वार्त्तालाप करते हुए बैठे थे तो गाधि ने पूछाः
 
"हे तपस्वी ! तुम इतने कृश क्यों हो ?"

अतिथि ने कहाः 'क्या बताऊँ......? क्रान्त देश में एक चाण्डाल राजा राज्य करता था। हाथी ने उसका वरण किया था। आठ साल तक उसने राज्य किया। मैं भी उसी नगर में रहा था। बाद में पता चला कि राजा चाण्डाल है। मैंने सोचा, पापी राजा के राज्य में कई चातुर्मास किये, पापी का अन्न खाया। मेरा जप-तप क्षीण हो गया। इसलिए मैं काशी गया। वहाँ चान्द्रायण व्रत रखे।"
 
चान्द्रायण व्रत में मौन रखा जाता है, जप तप किये जाते हैं। एकम के दिन एक ग्रास भोजन, दूज के दिन दो ग्रास भोजन, तीज के दिन तीन ग्रास भोजन.... इस प्रकार पूनम के दिन पन्द्रह ग्रास। फिर कृष्ण पक्ष की एकम के दिन से पन्द्रह ग्रास भोजन में से एक एक ग्रास घटाया जाता है और अमावस्या के दिन बिल्कुल निराहार। चन्द्र की कला के साथ भोजन घटता बढ़ता है अतः यह चान्द्रायण व्रत कहा जाता है। इससे आदमी के पाप-ताप दूर होते हैं।
 
वह अतिथि कहता हैः "मैंने कई चान्द्रायण व्रत किये हैं इसलिए मेरा शरीर कृश हो गया है।"
 
गाधि दंग रह गया कि यह तपस्वी जिस राजा के बारे में कहता है वह तो मैंने तालाब के जल में गोता लगाते समय अपने विषय में देखा है। वह एक स्वप्न था और यह तपस्वी सचमुच काशी में चान्द्रायण व्रत करने गया ? इस बात को ठीक से देखना चाहिए।
गाधि ब्राह्मण पूछता-पूछता उस गाँव में पहुँचा। वहाँ के बूढ़े चाण्डालों से पूछाः "यहाँ कोई कटजल नाम का चाण्डाल रहता था ?" ....तो चाण्डालों ने बतायाः "हाँ, एक चाण्डाली का बेटा वह कटजल यहाँ रहता था। फिर पासवाले क्रान्त देश में वह राजा हो गया था। बाद में वह आत्महत्या करके, आग में जलकर मर गया। यहाँ उसके बेटे-बेटियों का लम्बा चौड़ा परिवार भी मौजूद है।"
 
गाधि ने अलग-अलग कई लोगों से पूछा। सभी ने उसी बात का समर्थन किया। अनेक लोगों से वही की वही बात सुनी। उस क्रान्त देश के लोगों से भी उसी चाण्डाल राजा की घटना सुनने को मिली।
 
गाधि आश्चर्य विमूढ़ हो गयाः "मैंने तो यह सब गोता लगाया उतनी देर में ही देखा। यहाँ सचमुच में कैसे घटना घटी ? यह सब कैसे हुआ ? यह सच्चा कि वह सच्चा ?"
 
गाधि ने सोचा कि अब विश्रान्ति पाना चाहिए। वह एकान्त गुफा में चला गया। डेढ़ साल तक भगवान नारायण की आराधना-उपासना की। भगवान प्रकट हुए। गाधि ब्राह्मण से वे बोलेः
 
"देख गाधि ! तूने कहा था कि मेरी माया देखना है। अब देख ली न ? यह सब मेरी माया का प्रभाव है। थोड़े समय में ज्यादा काल दिखा देती है वह होता कुछ नहीं लेकिन सच्चा भासता है। जल में गोता मारा तो चाण्डाल का जीवन सच्चा लग रहा था। बाहर आया तो कुछ नहीं। उधर लोगों को चाण्डाल का राज्य प्रतीत हुआ, वह भी माया है। यह भी बीत गया, वह भी बीत गया। हर जीव का अपना-अपना देश और काल है।"
 
एक मनुष्य जीवन में मेंढकों की साठ पीढ़ियाँ बीत जाती हैं। बैक्टीरिया की तो करोड़ों पीढ़ियाँ बीत जाती होंगी।
 
नेपोलियन की लड़ाई को करीब पौने दो सौ वर्ष हो गये। उस समय जो घटनाएँ घटी वे देखनी हों तो योगशक्ति से देखी जा सकती हैं। प्रकाश की किरण एक सेकेन्ड में 186000 मील की गति से चलती है। सूर्य से प्रकाश की किरण चलती है तो 8 मिनट में पृथ्वी पर पहुँचती है। आकाश में कुछ तारे यहाँ से इतने दूर हैं कि हजारों लाखों वर्षों के बाद भी, अभी तक उनकी किरणें पृथ्वी तक नहीं पहुँच पायी हैं। कोई योगी अपने मन की गति प्रकाश की गति से भी अधिक तेजवाली कर लेता है तो वह नेपोलियन के युद्ध को देख सकता है। इसी योगयुक्ति से योगिजन त्रिकालदर्शी बनते हैं। अपने चित्त की वृत्ति को काल की अपेक्षा आगे या पीछे फेंकते हैं तो ऐसा हो सकता है।
 
जैसे आप बैठकर सोचो कि आज सुबह क्या खाया था, कल क्या खाया था, परसों क्या खाया था, तो मन से वह देख सकते हो, जान सकते हो। ऐसे ही योगी ठोस रूप से भूत-भविष्य देख सकते हैं।
 
यह जो कुछ भी जानने में आता है वह सब स्वप्न में सरक जाता है। जिससे जाना जाता है वह आत्मा परमात्मा सत्य है। उस सत्य का जो अनुसन्धान करता है वह देर सबेर आत्म-साक्षात्कार करके सदा के लिए माया से तर जाता है। जो देह को 'मैं' मानता है और संसार की वस्तुओं को सच्ची समझता है वह स्वप्न से स्वपनांतर तक, युग से युगांतर तक बेचारा भटकता रहता है।
 
भगवान विष्णु गाधि ब्राह्मण से कहते हैं-
 
"हे गाधि ! तूने मुझसे माया दिखाने का वरदान माँगा था। मैंने यह माया दिखाई। चाण्डाल के शरीर में और राजा के शरीर में जो तुमने सुख दुःख देखा, उस समय सच्चा लग रहा था, अब वह स्वप्न हो गया। पानी में गोता लगाते समय जो सच्चा दिख रहा था, अब स्वप्न हो गया।"
 
आज से दस जन्म पहले भी जो पत्नी, पुत्र, परिवार मिला था, वह उस समय सच्चा लग रहा था, अब स्वप्न हो गया। पाँच जन्म पहले वाला भी अब स्वप्न है और एक जन्म पहले वाला भी अब स्वप्न है। इस जन्म का बचपन भी अब स्वप्न है। यौवनकाल भी अब स्वप्न हो रहा है।
 
आपकी दृष्टि जिस समय जगत में सत्यबुद्धि करती है उस समय जगत का आकर्षण, समस्याओं का प्रभाव और सुख-दुःख की थप्पड़ें लगती हैं। अगर आप अपने सत्यस्वरूप आत्मा का अनुसन्धान करते हो तो जगत के आकर्षण और विकर्षण दूर रह जाते है, देर सबेर अपने जगदीश्वर स्वभाव में जगकर मुक्त हो सकते हो।
 
उमा कहौं मैं अनुभव अपना।
सत्य हरिभजन जगत सब सपना।।
 
स्वप्न जैसा जगत है। दिखता है सच्चा, दिखता है ठोस लेकिन उसमें गहराई नहीं।
 
आत्मज्ञान का सत्संग बहुत ऊँची चीज है। कथा वार्ताएँ होना एक बात है लेकिन तात्त्विक सत्संग, ब्रह्मज्ञान का सत्संग आखिरी चीज होती है। ऐसा सत्संग सत्पात्र शिष्य को ही पचता है। ब्रह्मवेत्ता सदगुरू में ऐसा सामर्थ्य होता है जो शिष्य को तत्त्वज्ञान करा सके। रामचन्द्रजी ऐसे सदगुरू थे और हनुमानजी ऐसे सत्पात्र थे। अष्टावक्र जी ऐसे सदगुरू थे और अर्जुन ऐसा सत्पात्र था। नानक ऐसे सदगुरू थे और बाला मरदाना ऐसे सत्पात्र थे।
 
बहुत बहुत सदभाग्य होता है तब आदमी आत्मज्ञान की बातें सुन पाता है। आत्मज्ञान के सत्संग का मनन करने से बहुत लाभ होता है।
 
स्नातं तेन सर्व तीर्थम् दातं तेन सर्व दानम् कृतो तेन सर्व यज्ञो.....
 
उसने सर्व तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सर्व दान दे दिये, उसने सब यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण भी अपने मन को आत्म-विचार में, ब्रह्मविचार में स्थिर किया।
 
आत्मज्ञान सुनने के बाद मनन करने की जिसमें तत्परता है उस आदमी का निवास-स्थान काशी है। आत्म-विश्रान्ति में गोता मारने वाला महापुरूष जिस पानी को छूता है वह पानी गंगाजल है, जिस वस्तु को छूता है वह प्रसाद है, जो वाक्य बोलता है वह मंत्र है। उसके लिए सारे वृक्ष चन्दन काष्ठ हैं। उसके लिए सारा विश्व नन्दन वन है। जो भीतर से खुश है, प्रसन्न है, सत्य का अनुभव करता है उसे बाहर भी सत्य का दीदार हो जाता है। जो भीतर कल्पनाओं में उलझता है वह स्वर्ग में भी सुख-दुःख की कल्पना करता है और नर्क में भी दुःख पाता है। भाग्यवशात् वह वैकुण्ठ में भी चला जाय और आत्मज्ञान में रूचि न हो तो देर सबेर उसे दुःख भी होता है।
 
भगवान विष्णु कहते हैं- "हे गाधि ! तू अपने चैतन्यस्वरूप मुझ अन्तर्यामी नारायण का अनुसन्धान करके, उसको पाकर सदा के लिए मेरे साथ एक हो जा। फिर तुझे माया का भ्रम नहीं देखना पड़ेगा। माया के विस्तार में सत्यबुद्धि मत करो। सत्यबुद्धि मुझ चैतन्य में करो ताकि मुक्ति का अनुभव हो जाय।"
 
जो आदमी माया को सत्य समझकर उलझ जाता है उसे कभी कोई महात्मा मिल जाय और आत्मज्ञान की ऊँची बात कहे तो उसे समझ में नहीं आती। महात्मा सदा वैकुण्ठ में रहते हैं अर्थात् व्यापक स्वरूप में विराजते हैं जबकि साधारण लोगों की चित्तवृत्ति कुण्ठित रहती है, देहाध्यास में जकड़ी रहती है।
 
अज्ञानियों का संग मिलता है ज्यादा और ज्ञानी का संग मिलता है जरा सा। ज्ञानी का जरा सा संग भी बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है।
 
खेतो में, बाग-बगीचों में काम के पौधों के अलावा निकम्मे घास-फूस भी उग आते हैं. उन्हें चुन-चुनकर उखाड़ना पड़ता है, तभी उपयोगी पौधे पुष्ट होकर पनप सकते हैं। उस पर फूल खिलेंगे, सुगंधित हवाएँ फैलेगी, पक्षी किल्लोल करेंगे, लोगों को सुगन्धी मिलेगी, मधुमक्खियाँ रस चूसेंगी। फूल खिलवाने के लिए निकम्मा घास-फूस हटाना पड़ता है। फूल खिलने के बाद भी निगरानी रखनी पड़ती है।
 
साधक के हृदय में भी आत्मज्ञान के फूल खिलें इसलिए कुसंग का कचरा पहले हटाना पड़ता है। वह खेत तो एक ही जगह रहता है जबकि साधकरूपी खेत तो चलता फिरता खेत है। जहाँ जायेगा वहाँ अज्ञान के कुसंस्कार पड़ेंगे। जहाँ जायेगा वहाँ देह को 'मैं' मानना, संसार को सच्चा मानना, विकारों का जागृत होना.... यह सब संस्कार हटाने पड़ते हैं।
 
साधक जब साधना में तत्पर होता है तब अपने भीतर ईश्वर का अमृत बरसता हुआ महसूस करता है। फिर साधक गलती करता है, घड़ा औंधा हो जाता है, साधक बेचारा रीता रह जाता है। साधकरूपी माली निकम्मे घास-फूल निकालते-निकालते फिर प्रमाद में पड़ जाता है। उसका बगीचा जंगल हो जाता है।
 
ऐसे साधकों को चाहिए कि अपना समय बचाकर सप्ताह में एक-दो दिन एकान्त कमरे में बैठ जायँ। बिल्कुल मौन और जप। कुछ भी न ले, बिल्कुल निराहार। इससे आदमी मर नहीं जाता। उसकी आयु कम नहीं होगी। महावीर ने बारह साल में सिर्फ एक साल भोजन किया था। कभी पच्चीस दिन में एक बार, कभी पन्द्रह दिन में, कभी पैंतीस दिन में तो कभी पाँच दिन में। जब ध्यान तपस्या से उठे, भूख लगी तो खा लिया। बारह साल में 365 बार खाया, बस। फिर भी कबीरजी से, नानकजी से महावीर ज्यादा पुष्ट थे।
 
आदमी का श्वास ज्यादा चलता है तो खाने पीने की ज्यादा जरूरत पड़ती है। अगर तुम एकान्त में, निवृत्ति में बैठो और खाओ, न भी खाओ तो चल जाएगा। भूख-प्यास, ठण्डी-गरमी सहने का मनोबल बढ़ जायगा। आत्मबल बढ़ाने के लिए यह प्रयोग करने जैसा है। कभी महीने में दो दिन कभी सप्ताह में एक दिन, दो दिन, कभी चार दिन और कभी एक साथ आठ दिन मिल जाय तो और अच्छा है। इससे शरीर में से कई दिन हानिकर जन्तु दूर हो जाते हैं। आने वाली नस-नाड़ियों की बीमारियाँ भी दूर हो जाती हैं। साथ ही साथ ध्यान भजन भी बढ़ता है। उन दिनों में केवल जप करें और आसन पर बैठें। खायें-पियें कुछ नहीं, किसी से बोलें-चालें कुछ नहीं।
 
भगवान में मन न लगे तो भगवान के चित्र के सामने थोड़ी देर एकटक निहारो। भगवान से प्रार्थना करो किः हे भगवान ! तुममें चित्त नहीं लगता। तुम केवल इस चित्र में ही नहीं, मेरे हृदय में भी हो। तुम्हारी ही सत्ता लेकर मन चित्र-विचित्र संसार देख रहा है।
 
इस प्रकार भगवान से बातें करो। अपने आप से गहराई में बातें करो। कभी कीर्तन करो, कभी जप करो, कभी किताब पढ़ो, कभी श्वासोच्छवास को देखो। पहले दो तीन घण्टे उबान आ सकती है। दो तीन घण्टे धैर्य के साथ अकेले कमरे में अगर बैठ गये तो फिर चार घण्टे भी आराम से जाएँगे, चार दिन भी आराम से बीत जाएँगे और चालीस दिन भी आराम से बीत जाएँगे।
 
तुम अपने आत्मा में हजारों वर्ष रह सकते हो। शरीर में और भोगों में ज्यादा समय नहीं रह सकते। जैसे आदमी कीचड़ में ज्यादा समय नहीं रह सकता जबकि सरोवर की सतह पर घण्टों भर तैर सकता है। ऐसे ही विकारों में, कान्ता में, ममता में आदमी सतत नहीं रह सकता लेकिन आत्मा में दस हजार वर्ष तक रह सकता है।
 
यह आत्मलाभ पाने के लिए बाहर का जो कल्पित और तुच्छ व्यवहार है उसमें से समय बचाकर अन्तर्मुख होना चाहिए। इससे तुम्हारी साधना की कमाई निखरेगी, बढ़ेगी।

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