असली सुख !
जीव का भ्रम है किः "यह मिल जाय तब मैं सुखी होऊँगा। यह परिस्थिति चली जाय तब मैं सुखी होऊँगा। बेटा हो जाय तब सुखी होऊँगा।'' यह सारा का सारा भ्रम है, भ्रांति है। इससे अगर कोई सुखी हो जाता तो संसार में कई लोग आज तक सच्चे सुखी हो जाते। इन चीजों से वास्तव में सुख का कोई सम्बन्ध नहीं है। सच्चे सुख का सम्बन्ध है रागरहित होने से। रात्रि को जितने अंश में तुम्हारा राग दब जाता है उतने तुम निश्चिन्त होते हो, निश्चिन्त सोते हो। सुबह होते ही तुम्हारा राग जगता हैः "यह करना है..... यह पाना है.... यह लेना है.... .वहाँ जाना है....'' तो मस्तिष्क में चिन्ताएँ सवार हो जाती हैं। जब सत्संग, ध्यान, भजन के स्थान में आते हैं, राग की बातों को छोड़ देते हैं तो लगता हैः "आहाहा... बापू ने बड़ा आनन्द दिया..... बड़ी शान्ति दी।' बापू ने आनन्द नहीं दिया, बापू ने शांति नहीं दी। बापू का भी बापू तुम्हारे हृदय में था। रागरहित होकर तुमने उसकी झाँकी कर ली तो आनन्द आ गया, शान्ति मिल गई। वह भीतर वाला बापू तो सदा से तुम्हारे साथ ही बैठा है। राग रहित हो जाओ, सब काम बन जाएँगे।राग छोड़ना एक दिन का काम नहीं है। रोग पुराना है। एक दिन की औषधि से काम नहीं चलेगा। प्रतिदिन औषधि खाओ और प्रति व्यवहार के समय औषधि खाओ तो काम बनेगा। अन्य औषधियाँ तो रिएक्शन करती हैं लेकिन सत्संग विचार की औषधि सारे रिएक्शनों को स्वाहा कर देती है। इसलिए बार-बार सत्संग विचार करो, आत्म-विचार करो।
यह विचार केवल मंदिर में बैठकर ही नहीं किया जाता। यह मंदिर में भी होता है, सत्संग भवन में भी होता है, दुकान पर बैठकर भी होता है, रास्ते चलते-चलते भी होता है। यह विवेक विचाररूपी मित्र ऐसा है जो सदा साथ रहता है, सुरक्षा करता है।
विवेक को जागृत करते जाओ। अविद्या का अन्धकार धीरे-धीरे बिखरता जाएगा। सुबह में सूर्य के उदय होने से पहले ही अन्धकार पलायन होने लगता है ऐसे ही विवेक जागेगा तो दुःख मिटने लगेंगे। सब दुःख मिटाने की यह कुंजी है। अन्यथा तो, राग लेकर बैठे और योग किया, प्राण ऊपर चढ़ा दिये, शरीर को वर्षों तक जीवित रखा, फिर नट की समाधि खुली तो वह राजा से बोलता है कि लाओ, मुझे इनाम में तेज भागने वाली घोड़ी दे दो। रागरहित नहीं हुआ तो क्या लाभ ? योग किया, प्राण चढ़ाकर सहस्रार चक्र में पहुँच गया, हजारों वर्ष की समाधि लगा दी फिर भी ठंठनपाल रह गया। राजा जनक ने राग मिटा दिया तो जीवन्मुक्त होकर राज्य करते है।
राग मिटाने का एक मधुर तरीका यह भी है कि भगवान में राग करते रहो।
तुम बच्चे को कह दो कि सुबह-सुबह अण्डे का चिन्तन मत करना। दूसरे दिन सुबह में उसको अण्डे का चिन्तन आ जायगा। उसे अगर अण्डे के चिन्तन से बचाना है तो उसे अण्डे का चिन्तन मत करो, ऐसा न कहो। उसे कहोः 'सुबह उठकर हाथों को देखना, भगवान नारायण का चिन्तन करना।
कराग्रे वसति लक्ष्मीः करमूले सरस्वती।
करमध्ये तु गोविंदः प्रभाते करदर्शनम्।।
इस प्रकार सुबह-सुबह में अपने हाथ को देखकर भगवान नारायण का स्मरण करने से अपना भाग्य खुलता है।'
इस प्रकार बच्चा भगवान का स्मरण करने लग जाएगा और उसका हल्का चिन्तन अपने आप चला जायेगा।
विकारों को पोसने वाली हमारी संवित् को विकारों से हटाने के लिए निर्विकारी नारायण का चिन्तन करने से विकारों को हटाने का परिश्रम नहीं पड़ेगा। विकारों को हटाने के लिए अगर परिश्रम करने लगे और कदाचित सफल हो गये, विकार हट गये तो गर्व हो जाएगा किः "मैंने काम को जीता, मैंने लोभ को जीता, मैंने मोह को छोड़ा, मैं आठ दिन तक मौन मंदिर में रह गया.....।' ऐसा गर्व आने से भी खतरा है। अगर प्रभु में राग कर लेते हैं तो गर्व आने का खतरा नहीं रहेगा।
कबीर जी ने कहा हैः
सब घट मेरा साँईया खाली घट न कोय।
बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।
कबीरा कुँआ एक है पनिहारी अनेक।
न्यारे न्यारे बर्तनों में पानी एक का एक।।
कबीरा यह जग निर्धना धनवंता नहीं कोई।
धनवंता तेहू जानिये जा को रामनाम धन होई।।
जो चैतन्य सबके रोम-रोम में बस रहा है वह राम...... जो चैतन्य सबको आकर्षित कर रहा है वह कृष्ण.... उस चैतन्य में अगर मन लग जाये तो बेड़ा पार है। जहाँ से हमारी संवित उठती है वही सारे विश्व का आधार है। वही तुम्हारा अन्तर्यामी आत्मा तुम्हारे अति निकट है और सदा रहता है। पत्नी का साथ छोड़ना पड़ेगा, पति का साथ छोड़ना पड़ेगा, साहब का साथ छोड़ना पड़ेगा, अरे लाला ! इस शरीर का भी साथ छोड़ना पड़ेगा लेकिन उस अन्तर्यामी साथी का साथ कभी नहीं छोड़ना पड़ेगा। बस, अभी से उसी में आ जाना है, और क्या करना है ? यह कोई बड़ा काम है ? जिसका कभी साथ नहीं छूटता है उसमें राग करना है। जिसका साथ टिकता नहीं है उससे राग हटा देना है।
साथ टिकेगा नहीं उस चीज से अपना राग हटा लेंगे तो तुम स्वतन्त्र हो जाओगे। अगर साथ न टिकने वाली चीजों में राग रहा तो कितना दुःख होगा ! दुःख ही होगा, और क्या होगा ?
हम उसी से सम्बन्ध जोड़ रहे हैं जिससे आखिर तोड़ना है। जिससे सम्बन्ध तोड़ना है उसके साथ तो प्रारब्धवेग से सम्बन्ध होता रहेगा, आता रहेगा, जाता रहेगा..... लेकिन जिससे सम्बन्ध कभी नहीं टूटता उसकी केवल स्मृति रखनी है, सम्बन्ध जोड़ने का परिश्रम भी नहीं करना है। दुनिया के अन्य तमाम सम्बन्धों को जोड़ने के लिए मेहनत करनी पड़ती है।
कलेक्टर की कुर्सी के लिए सम्बन्ध जोड़ना है तो बचपन से पढ़ाई करते-करते.... मजदूरी करते-करते.... परीक्षाओं में पास होते-होते आखिर आई.ए.एस. हो गये। फिर कलेक्टर पद पर नियुक्ति हुई तब कुर्सी से सम्बन्ध जुड़ा। कभी एक जिले में तो कभी दूसरे जिले में बदली होती रही..... आखिर बुढ़ापे में साहब बेचारा देखता ही रह जाता है। जवानी में तो हुकूमत चलाई लेकिन अब छोरे कहना नहीं मानते। इससे तो हे भगवान ! मर जाएँ तो अच्छा।
अरे ! तू मरने के लिए जन्मा था कि मुक्त होने के लिए जन्मा था ?
तुम पैदा हुए थे मुक्त होने के लिए। तुम पैदा हुए थे अमर आत्मेदव को पाने के लिए।
"पढ़ते क्यों हो ?"
"पास होने के लिए।"
"पास क्यों होना है ?!"
"प्रमाणपत्र पाने के लिए।"
"प्रमाणपत्र क्यों चाहिए ?"
"नौकरी के लिए।"
"नौकरी क्यों चाहिए ?"
"पैसे कमाने के लिए।"
"पैसे क्यों चाहते हो ?"
"खाने के लिए।"
"खाने क्यों चाहते हो ?"
"जीने के लिए।"
"जीना क्यों चाहते हो ?"
"................"
कोई जवाब नही। कोई ज्यादा चतुर होगा तो बोलेगाः "मरने के लिए।" अगर मरना ही है तो केवल एक छोटी सी सुई भी काफी है। मरने के लिए इतनी सारी मजदूरी करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में हर जीव की मेहनत है स्वतन्त्रता के लिए, शाश्वतता के लिए, मुक्ति के लिए। मुक्ति तब मिलती है जब जीव रागरहित होता है।
राग ही आदमी को बेईमान बना देता है, राग ही धोखेबाज बना देता है, राग ही चिन्तित बना देता है, राग ही कर्मों के बन्धन में ले आता है। रागरहित होते ही तुम्हारी हाजिरी मात्र से जो होना चाहिए वह होने लगेगा, जो नहीं होना चाहिए वह रूक जाएगा। रागरहित पुरूष के निकट हम बैठते हैं तो हमारे लोभ, मोह, काम, अहंकार शान्त होने लगते हैं, प्रेम, आनन्द, उत्साह, ईश्वर-प्राप्ति के भाव जगने लग जाते हैं। उनकी हाजरी मात्र से हमारे हृदय में जो होना चाहिए वह होने लगता है, जो नहीं होना चाहिए वह नहीं होता।
राग रहित होना माने परम खजाना पाना। रागरहित होना माने ईश्वर होना। रागरहित होना माने ब्रह्म होना।
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