शनिवार, जनवरी 28, 2012

हे प्रभु ! आनन्ददाता


हे प्रभु ! आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।।
हे प्रभु….
निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी ना करें।
ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी ना करें।।
हे प्रभु….
सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें।
दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें।।
हे प्रभु….
जाये हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।
हाथ डालें हम कभी न भूलकर अपकार में।।
हे प्रभु….
मातृभूमि मातृसेवा हो अधिक प्यारी हमें।
देश की सेवा करें निज देश हितकारी बनें।।
हे प्रभु….
कीजिए हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा !
मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा।।
हे प्रभु….
प्रेम से हम गुरुजनों  की नित्य ही सेवा करें।
प्रेम से हम दुःखीजनों की नित्य ही सेवा करें।।
हे प्रभु

शुक्रवार, जनवरी 27, 2012

दुख का तो उपकार माने बेटे


एक बड़ा प्रसिध्द राज नेता था बंगाल में ….बड़ा जाना-माना था..धर्म परायण व्यक्ति था..अश्विनी दत्त बंगाल के प्रसिध्द राज नेता थे..उन के गुरु राज नारायण थे.
उस के गुरु को लकवा मार गया..3 महीने के बाद अश्विनी को पता चला…3 महीने से गुरु को लकवा मार गया, मुझे पता नही चला सोच कर विव्हल हो कर भागता भागता आया गुरु के पास…ज्यो ही गुरु के पास पहुँचा..प्रणाम करने जाता है तो गुरु का एक हाथ तो लकवे से निकम्मा  हो चुका था..गुरु ने दूसरे हाथ से पकड़ के उठाया..
बोले, ‘बेटा, कैसे भागे भागे आए हो…देखो भागा तो शरीर..और दुख हुआ मन में..लेकिन इन दोनो को तुम जानने वाले हो..ऐसा कर के गुरु ने सत्य स्वरूप ईश्वर आत्मा की सार बातें बताई..सुनते सुनते वो तो दुखी आया था, चिंतित हो के आया था…लेकिन गुरु की वाणी सुनते सुनते उस का दुख चिंता गायब हो गया..3 घंटे कैसे बीत  गये पता ही नही चला…
हसने लगा,”गुरु जी 3 घंटे बीत  गये!मुझे तो पता ही नही चला..मैं तो बहोत विव्हल  हो के आया था आप का स्वास्थ्य पुछने के लिए..लेकिन आप को ये लकवा मार गया इस की पीड़ा नही?..दुख नही? हम तो बहोत  दुखी थे और आप ने तो मेरे को 3 घंटे तक सत्संग का अमृतपान  कराया…”
गुरु ने अश्विनी दत्त(बंगाल के प्रसिध्द नेता) के पीठ पे थपथपाया..बोले, “पगले पीड़ा हुई है तो शरीर को..लकवा मारा है तो शरीर को..इस हाथ को..लेकिन दूसरा हाथ मौजूद है, पैर भी मौजूद है, जिव्हा भी मौजूद है..ये उस प्रभु की कितनी कृपा है!..पूरे शरीर को भी तो लकवा हो सकता था..हार्ट एटैक हो सकता था.और 60 साल तक शरीर स्वस्थ रहा..अभी थोड़े दिन..3 महीने से ही तो लकवा है …ये उस की कितनी कृपा है की दुख भेज कर वो हम को शरीर की आसक्ति मिटाने का संदेश देता है..सुख भेज कर हमें उदार बनाने का और परोपकार करने का संदेश देता है..हम को तो दुख का आदर करना चाहिए..दुख का उपकार मानना चाहिए..बचपन में हम दुखी होते थे जब माँ-बाप ज़बरदस्ती स्कूल ले जाते थे..लेकिन वो दुख नही होता तो आज हम विद्वान भी नही हो सकते थे..ऐसा कोई मनुष्य धरती पर नही है जिस का दुख के बिना विकास हुआ हो…दुख का तो खूब खूब धन्यवाद करना चाहिए…और दिखता दुख है, लेकिन अंदर से सुख, सावधानी और विवेक से भरा है.. और मुझे हरिचर्चा में विश्रान्ति दिलाया.. सत्संग करने के भागा दौड़ी से आराम करना चाहिए था, लेकिन मैं नही कर पा रहा था…तुम लोग नही करने देते थे..तो भगवान ने लकवा कर के आराम दिया..देखो ये उस की कितनी कृपा है..भगवान की और दुख की बड़ी कृपा है..माँ-बाप की कृपा है तो माँ बाप का हम श्राध्द  करते, तर्पण करते..लेकिन इस दुख देवता का तो हम श्राध्द तर्पण भी नही करते..क्यूँ की वो बेचारा आता है, मर जाता है..रहेता नही है…अभी ठीक भी हो जाएगा, अथवा शरीर के साथ चला जाएगा..माँ बाप तो मरने के बाद भी रहेते है..ये बेचारा तो एक बार मर जाता है तो फिर रहेता ही नही..तो इस का तो श्राद्ध  भी नही करते, तो इस का तो उपकार माने बेटे अश्विनी…”
अश्विनी देखता रहे गया !
गुरु ने कहा, “बेटा ये तेरी मेरी वार्ता जो सुनेगा वो भी स्वस्थ हो जाएगा.. बीमारी शरीर में आती है लाला!..दुख  तो मान में आता है …चिंता चित्त में आती है..तुम तो निर्लेप  नारायण के अमर आत्मा हो!”
हरि ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम ओम प्रभुजी ओम.. माधुर्य ओम..मेरे जी ओम ओम..प्यारे जी ओम…हा हा हा हा

मनुष्य को भगवान ने कितने कितने  अनुदान दिए है..ज़रा सोचते है तो मौन हो जाता है! मन विश्रान्ति में चला जाता है…जब तेरा गुरु है, और तू बोले की मैं परेशान हूँ, मैं दुखी हूँ तो तू गुरु का अपमान करता है..मानवता का अपमान करता है..जो बोलते है ना मैं दुखी हूँ, परेशान हूँ  तो समझ लेना की उन के भाग्य के वे शत्रु है…अभागे लोग सोचते है मैं दुखी, परेशान हूँ..समझदार लोग ऐसा कभी नही सोचते है…जो बोलते मैं दुखी परेशान हूँ उस के मान में  दुख परेशानी  ऐसा गहेरा उतरता जाएगा की जैसे हाथी दलदल में फँसे और ज्यों निकलना चाहे तो और गहेरा उतरे ..ऐसे ही दुखी और परेशान हूँ बोलते तो समझो वो दुख और परेशानी में हाथी के नाई  गहेरा जा रहा है..अभागा है..अपने भाग्य को कोस रहा है..
‘मैं दुखी नही हूँ, मैं परेशान नही हूँ..दुख है तो मन को है, परेशानी है तो मन को है..’ ये पक्का करे..वास्तव में मन की कल्पना है परेशानी..दुख परेशानी  तो मेरे विकास करने के लिए है  ..वाह मेरे प्रभु !
सुखम वा यदि वा दुखम स योगी परमो मतः ll

जिस वस्तु को हम प्यार करते वो प्यारी हो जाती है, जिस वस्तु को हम महत्व देते वो महत्व पूर्ण हो जाती है..जिस वस्तु को मानव ठुकरा दे वो वस्तु बेकार हो जाती है..नोइडा में जहा सत्संग हुआ था तो वहाँ खेत थे..और वहाँ अब पौने चार लाख रुपये में 1 मीटर जगह मिलती है..हे मानव तू जिस जगह को महत्व देता वो जगह कीमती हो जाती..तू जिस फॅशन को महत्व देता वो कीमती हो जाती..तू इतना सब को महत्व देनेवाला अपने आप को कोस कर अपना सत्यानाश क्यूँ करता है?

लेबल:

रविवार, जनवरी 15, 2012

असलियत बताऊं


दीर्घ तपा  ऋषी और उन की पत्नी साध्वी थी…दोनों ज्ञान ध्यान में आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न करते…दीर्घ तपा को पावक नामक  एक बेटा हुआ..कुछ समय के बाद उस दम्पति को पुण्यक नाम का दूसरा बेटा  हुआ…वो दम्पति  इच्छा निवृत्त कर के, कंद मूल फल से व्यवहार चलाते….  प्रसन चित्त रहेते… काल चक्र चलता रहा… आत्मज्ञान पाने के बाद भी शरीर के धर्म तो होते ही है….शरीर को  बुढापा तो आता ही है…. देह धारणा कर के दीर्घतपा ने ऐसे शरीर को छोड़ा की जैसे कोई  आमिर आदमी पुराने कपडे छोड़ते ऐसे शरीर को छोड़कर ब्रम्हस्वरूप परमात्म से एकाकारता कर के ब्रम्ह में विलय हो गए….
उन की  पत्नी ने भी पति ने शरीर छोड़ा देख के अपना शरीर छोड़ा…
पुण्यात्माओं के लिए  उत्तरायण मार्ग है…. भीष्म पितामह ने उत्तरायण होने तक प्राण रोक के रखे…लेकिन पापियों के लिए क्या उत्तरायण और क्या दक्षिणायन..उन को कोई फरक नही पङता..
धर्मात्मा के लिए शरीर छोड़ते तो सूर्य लोक चन्द्र लोक को प्राप्त होते…लेकिन पापी लोग मरते तो  वासनाओ के अनुसार गिद्ध बन जाते…कबूतर बन गए ….शरीर मिला तो ठीक नही तो नाली में बह गए… ऐसे पापी के दुखो की गिनती नही…
जिन की वासनाओ की पूर्ण तृप्ति नही हुयी ऐसे धर्मात्मा  लोग दक्षिणायन में प्राण छोड़ते तो भी  चंद्रलोक में जाते… चन्द्र लोक से फिर वापस आते और अपनी वासनाओ के अनुसार जनमते…
तीसरे प्रकार के लोग होते , जिन की वासना निवृत्त हो गई है ऐसे जीव  जहां भगवान शिव,  वासुकी नाग आदि मुक्त पुरूष हो गए उन में जाते है …
(जिन्हों ने जीते जी ब्रम्ह को पा लिया उन को ब्रम्ह लोक जाना  नही होता).. … ब्रम्ह लोक में ब्रम्ह ये बड़ा  पद है..लेकिन  ब्रम्हज्ञानी के लिए क्या ब्रम्ह लोक और क्या ब्रम्ह पद…. ब्रम्ह लोक और ब्रम्ह भी उन के मन  में एक कोने में है …..असलियत बताऊ ना तो जैसे मंसूर के साथ हुआ…जीसस  से जो व्यवहार  किया ऐसा ब्रम्हज्ञानियों से ये दुनिया व्यवहार करेगी….
घाटवाले बाबा बोलते, अपना अनुभव ज्ञानवालो  को दूसरो को नही बताना चाहिए… उचित नही है….कभी कोई  उच्च कोटि का आत्मा मिले तो  जरा सा संकेत करते…!
भगवान के नाम से मन की चंचलता से अपने को बचाए…. मन ,बुध्दि, वासना दुखदायी है… छल , छिद्र,  कपट दुखदायी है …
उमा कहूँ मैं अनुभव अपना l
एक हरी भजे , बाकि सब स्वप्ना ll

लेबल:

गुरुवार, जनवरी 12, 2012

उत्तरायण (14 जन॰) : देवताओं का प्रभात

छः महीने सूर्य का रथ दक्षिणायन को और छः महीने उत्तरायण को चलता है । मनुष्यों के छः महीने बीतते हैं तब देवताओं की एक रात होती है एवं मनुष्यों के छः महीने बीतते हैं तो देवताओं का एक दिन होता है । उत्तरायण के दिन देवता लोग भी जागते हैं । हम पर उन देवताओं की कृपा बरसे, इस भाव से भी यह पर्व मनाया जाता है । कहते हैं कि इस दिन यज्ञ में दिये गये द्रव्य को ग्रहण करने के लिए वसुंधरा पर देवता अवतरित होते हैं । इसी प्रकाशमय मार्ग से पुण्यात्मा पुरुष शरीर छोड़कर स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश करते हैं । इसलिए यह आलोक का अवसर माना गया है । इस उत्तरायण पर्व का इंतजार करनेवाले भीष्म पितामह ने उत्तरायण शुरू होने के बाद ही अपनी देह त्यागना पसंद किया था । विश्व का कोई योध्दा शर-शय्या पर अट्ठावन दिन तो क्या अट्ठावन घंटे भी संकल्प के बल से जी के नहीं दिखा पाया। वह काम भारत के भीष्म पितामह ने करके दिखाया । 
धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन दान-पुण्य, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अत्यंत महत्त्व है। इस अवसर पर दिया हुआ दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना होकर प्राप्त होता है । यह प्राकृतिक उत्सव है, प्रकृति से तालमेल करानेवाला उत्सव है । दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरुआत इसी दिन से होती है । वहाँ यह पर्व 'थई पोंगल' के नाम से जाना जाता है । सिंधी लोग इस पर्व को 'तिरमौरी' कहते हैं, हिन्दी लोग 'मकर संक्रांति' कहते हैं एवं गुजरात में यह पर्व 'उत्तरायण' के नाम से जाना जाता है । यह दिवस विशेष पुण्य अर्जित करने का दिवस है । 
इस दिन शिवजी ने अपने साधकों पर, ऋषियों पर विशेष कृपा की थी । इस दिन भगवान सूर्यनारायण का ध्यान करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हमें क्रोध से, काम-विकार से, चिंताओं से मुक्त करके आत्मशांति पाने में, गुरु की कृपा पचाने में मदद करें।'
 इस दिन सूर्यनारायण के नामों का जप, उन्हें अर्घ्य-अर्पण और विशिष्ट मंत्र के द्वारा उनका स्तवन किया जाय तो सारे अनिष्ट नष्ट हो जायेंगे और वर्ष भर के पुण्यलाभ प्राप्त होंगे। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः । इस मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना कर लेना, उनका चिंतन करके प्रणाम कर लेना । इससे सूर्यनारायण प्रसन्न होंगे, निरोगता देंगे और अनिष्ट से भी रक्षा करेंगे। 
 उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण के इन नामों का जप विशेष हितकारी है ः ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः । ॐ सूर्याय नमः । ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः । ॐ पूष्णे नमः । ॐ हिरण्यगर्भाय नमः । ॐ मरीचये नमः । ॐ आदित्याय नमः । ॐ सवित्रे नमः । ॐ अर्काय नमः । ॐ भास्कराय नमः। ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः । 
ब्रह्मचर्य से बुध्दिबल बहुत बढ़ता है । जिनको ब्रह्मचर्य रखना हो, संयमी जीवन जीना हो, वे उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण का सुमिरन करें, प्रार्थना करें जिससे ब्रह्मचर्य-व्रत में सफल हों और बुध्दि में बल बढ़े । ॐ सूर्याय नमः... ॐ शंकराय नमः... ॐ गं गणपतये नमः... ॐ हनुमते नमः... ॐ भीष्माय नमः... ॐ अर्यमायै नमः...
 इस दिन किये गये सत्कर्म विशेष फल देते हैं। इस दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने का अथवा तिल-चावल से अर्घ्य देने का भी विधान है । इस पर्व पर तिल का विशेष महत्त्व माना गया है । तिल का उबटन, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल-हवन, तिलमिश्रित भोजन व तिल-दान, ये सभी पापनाशक प्रयोग हैं । इसलिए इस दिन तिल, गुड़ तथा चीनी मिले लड्डू खाने तथा दान देने का अपार महत्त्व है । तिल के लड्डू खाने से मधुरता एवं स्निग्धता प्राप्त होती है एवं शरीर पुष्ट होता है । शीतकाल में इसका सेवन लाभप्रद है । यह तो हुआ लौकिक रूप से उत्तरायण अथवा संक्रांति मनाना किंतु मकर संक्रांति का आध्यात्मिक तात्पर्य है - जीवन में सम्यक् क्रांति। अपने चित्त को विषय-विकारों से हटाकर निर्विकारी नारायण में लगाने का, सम्यक् क्रांति का संकल्प करने का यह दिन है । अपने जीवन को परमात्म-ध्यान, परमात्म-ज्ञान एवं परमात्मप्राप्ति की ओर ले जाने का संकल्प करने का बढ़िया-से-बढ़िया जो दिन है वह मकर संक्रांति का दिन है । मानव सदा सुख का प्यासा रहा है । उसे सम्यक् सुख नहीं मिलता तो अपने को असम्यक् सुख में खपा-खपाकर चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है । अतः अपने जीवन में सम्यक् सुख, वास्तविक सुख पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । आत्मसुखात् न परं विद्यते । आत्मज्ञानात् न परं विद्यते । आत्मलाभात् न परं विद्यते । वास्तविक सुख क्या है ? आत्मसुख । अतः आत्मसुख पाने के लिए कटिबध्द होने का दिवस ही है मकर संक्रांति । यह पर्व सिखाता है कि हमारे जीवन में भी सम्यक् क्रांति आये । हमारा जीवन निर्भयता व प्रेम से परिपूर्ण हो । तिल-गुड़ का आदान-प्रदान परस्पर प्रेमवृध्दि का ही द्योतक है । संक्रांति के दिन दान का विशेष महत्त्व है । अतः जितना सम्भव हो सके उतना किसी गरीब को अन्नदान करें । तिल के लड्डू भी दान किये जाते हैं । आज के दिन लोगों में सत्साहित्य के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है । तुम यह न कर सको तो भी कोई हर्ज नहीं किंतु हरिनाम का रस तो जरूर पीना-पिलाना । अच्छे-में-अच्छा तो परमात्मा है, उसका नाम लेते-लेते यदि अपने अहं को सद्गुरु के चरणों में, संतों के चरणों में अर्पित कर दो तो फायदा-ही-फायदा है और अहंदान से बढ़कर तो कोई दान नहीं । लौकिक दान के साथ अगर अपना-आपा ही संतों के चरणों में, सद्गुरु के चरणों में दान कर दिया जाय तो फिर चौरासी का चक्कर सदा के लिए मिट जाय । संक्रांति के दिन सूर्य का रथ उत्तर की ओर प्रयाण करता है । वैसे ही तुम भी इस मकर संक्रांति के पर्व पर संकल्प कर लो कि अब हम अपने जीवन को उत्तर की ओर अर्थात् उत्थान की ओर ले जायेंगे । अपने विचारों को उत्थान की तरफ मोड़ेंगे । यदि ऐसा कर सको तो यह दिन तुम्हारे लिए परम मांगलिक दिन हो जायेगा । पहले के जमाने में लोग इस दिन अपने तुच्छ जीवन को बदलकर महान बनने का संकल्प करते थे । हे साधक ! तू भी संकल्प कर कि 'अपने जीवन में सम्यक् क्रांति - संक्रांति लाऊँगा । अपनी तुच्छ, गंदी आदतों को कुचल दूँगा और दिव्य जीवन बिताऊँगा । प्रतिदिन जप-ध्यान करूँगा, स्वाध्याय करूँगा और अपने जीवन को महान बनाकर ही रहूँगा। त्रिबंधसहित ॐकार का गुंजन करते हुए किये हुए दृढ़ संकल्प और प्रार्थना फलित होती है। प्राणिमात्र के जो परम हितैषी हैं उन परमात्मा की लीला में प्रसन्न रहूँगा । चाहे मान हो चाहे अपमान, चाहे सुख मिले चाहे दुःख किंतु सबके पीछे देनेवाले करुणामय हाथों को ही देखूँगा । प्रत्येक परिस्थिति में सम रहकर अपने जीवन को तेजस्वी-ओजस्वी एवं दिव्य बनाने का प्रयास अवश्य करूँगा।'

अपने आत्मा परमात्मा में शान्त होते जाओ। चैतन्य स्वरूप परमात्मा में तल्लीन होते जाओ। चिन्तन करो कि 'मैं सम्पूर्ण स्वस्थ हूँ.... मैं सम्पूर्ण निर्दोष हूँ.... मैं सम्पूर्णतया परमात्मा का हूँ... मैं सम्पूर्ण आनन्दस्वरूप हूँ... हरि ॐ... ॐ...ॐ.... मधुर आनन्द... अनुपम शान्ति.... चिदानन्दस्वरूप परमेश्वरीय शान्ति.... ईश्वरीय आनन्द... आत्मानन्द.... निजानन्द... विकारों का सुखाभास नहीं अपितु निजस्वरूप का आनन्द....निज सुख बिन मन होवईं कि थिरा ?

निज के सुख को जगाओ... मन स्थिर होने लगेगा। निज सुख नारायण का प्रसाद माना जाता है।
अधिक पढ़ें (Read more)>>