गुरुवार, जनवरी 12, 2012

उत्तरायण (14 जन॰) : देवताओं का प्रभात

छः महीने सूर्य का रथ दक्षिणायन को और छः महीने उत्तरायण को चलता है । मनुष्यों के छः महीने बीतते हैं तब देवताओं की एक रात होती है एवं मनुष्यों के छः महीने बीतते हैं तो देवताओं का एक दिन होता है । उत्तरायण के दिन देवता लोग भी जागते हैं । हम पर उन देवताओं की कृपा बरसे, इस भाव से भी यह पर्व मनाया जाता है । कहते हैं कि इस दिन यज्ञ में दिये गये द्रव्य को ग्रहण करने के लिए वसुंधरा पर देवता अवतरित होते हैं । इसी प्रकाशमय मार्ग से पुण्यात्मा पुरुष शरीर छोड़कर स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश करते हैं । इसलिए यह आलोक का अवसर माना गया है । इस उत्तरायण पर्व का इंतजार करनेवाले भीष्म पितामह ने उत्तरायण शुरू होने के बाद ही अपनी देह त्यागना पसंद किया था । विश्व का कोई योध्दा शर-शय्या पर अट्ठावन दिन तो क्या अट्ठावन घंटे भी संकल्प के बल से जी के नहीं दिखा पाया। वह काम भारत के भीष्म पितामह ने करके दिखाया । 
धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन दान-पुण्य, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अत्यंत महत्त्व है। इस अवसर पर दिया हुआ दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना होकर प्राप्त होता है । यह प्राकृतिक उत्सव है, प्रकृति से तालमेल करानेवाला उत्सव है । दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरुआत इसी दिन से होती है । वहाँ यह पर्व 'थई पोंगल' के नाम से जाना जाता है । सिंधी लोग इस पर्व को 'तिरमौरी' कहते हैं, हिन्दी लोग 'मकर संक्रांति' कहते हैं एवं गुजरात में यह पर्व 'उत्तरायण' के नाम से जाना जाता है । यह दिवस विशेष पुण्य अर्जित करने का दिवस है । 
इस दिन शिवजी ने अपने साधकों पर, ऋषियों पर विशेष कृपा की थी । इस दिन भगवान सूर्यनारायण का ध्यान करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हमें क्रोध से, काम-विकार से, चिंताओं से मुक्त करके आत्मशांति पाने में, गुरु की कृपा पचाने में मदद करें।'
 इस दिन सूर्यनारायण के नामों का जप, उन्हें अर्घ्य-अर्पण और विशिष्ट मंत्र के द्वारा उनका स्तवन किया जाय तो सारे अनिष्ट नष्ट हो जायेंगे और वर्ष भर के पुण्यलाभ प्राप्त होंगे। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः । इस मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना कर लेना, उनका चिंतन करके प्रणाम कर लेना । इससे सूर्यनारायण प्रसन्न होंगे, निरोगता देंगे और अनिष्ट से भी रक्षा करेंगे। 
 उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण के इन नामों का जप विशेष हितकारी है ः ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः । ॐ सूर्याय नमः । ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः । ॐ पूष्णे नमः । ॐ हिरण्यगर्भाय नमः । ॐ मरीचये नमः । ॐ आदित्याय नमः । ॐ सवित्रे नमः । ॐ अर्काय नमः । ॐ भास्कराय नमः। ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः । 
ब्रह्मचर्य से बुध्दिबल बहुत बढ़ता है । जिनको ब्रह्मचर्य रखना हो, संयमी जीवन जीना हो, वे उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण का सुमिरन करें, प्रार्थना करें जिससे ब्रह्मचर्य-व्रत में सफल हों और बुध्दि में बल बढ़े । ॐ सूर्याय नमः... ॐ शंकराय नमः... ॐ गं गणपतये नमः... ॐ हनुमते नमः... ॐ भीष्माय नमः... ॐ अर्यमायै नमः...
 इस दिन किये गये सत्कर्म विशेष फल देते हैं। इस दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने का अथवा तिल-चावल से अर्घ्य देने का भी विधान है । इस पर्व पर तिल का विशेष महत्त्व माना गया है । तिल का उबटन, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल-हवन, तिलमिश्रित भोजन व तिल-दान, ये सभी पापनाशक प्रयोग हैं । इसलिए इस दिन तिल, गुड़ तथा चीनी मिले लड्डू खाने तथा दान देने का अपार महत्त्व है । तिल के लड्डू खाने से मधुरता एवं स्निग्धता प्राप्त होती है एवं शरीर पुष्ट होता है । शीतकाल में इसका सेवन लाभप्रद है । यह तो हुआ लौकिक रूप से उत्तरायण अथवा संक्रांति मनाना किंतु मकर संक्रांति का आध्यात्मिक तात्पर्य है - जीवन में सम्यक् क्रांति। अपने चित्त को विषय-विकारों से हटाकर निर्विकारी नारायण में लगाने का, सम्यक् क्रांति का संकल्प करने का यह दिन है । अपने जीवन को परमात्म-ध्यान, परमात्म-ज्ञान एवं परमात्मप्राप्ति की ओर ले जाने का संकल्प करने का बढ़िया-से-बढ़िया जो दिन है वह मकर संक्रांति का दिन है । मानव सदा सुख का प्यासा रहा है । उसे सम्यक् सुख नहीं मिलता तो अपने को असम्यक् सुख में खपा-खपाकर चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है । अतः अपने जीवन में सम्यक् सुख, वास्तविक सुख पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । आत्मसुखात् न परं विद्यते । आत्मज्ञानात् न परं विद्यते । आत्मलाभात् न परं विद्यते । वास्तविक सुख क्या है ? आत्मसुख । अतः आत्मसुख पाने के लिए कटिबध्द होने का दिवस ही है मकर संक्रांति । यह पर्व सिखाता है कि हमारे जीवन में भी सम्यक् क्रांति आये । हमारा जीवन निर्भयता व प्रेम से परिपूर्ण हो । तिल-गुड़ का आदान-प्रदान परस्पर प्रेमवृध्दि का ही द्योतक है । संक्रांति के दिन दान का विशेष महत्त्व है । अतः जितना सम्भव हो सके उतना किसी गरीब को अन्नदान करें । तिल के लड्डू भी दान किये जाते हैं । आज के दिन लोगों में सत्साहित्य के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है । तुम यह न कर सको तो भी कोई हर्ज नहीं किंतु हरिनाम का रस तो जरूर पीना-पिलाना । अच्छे-में-अच्छा तो परमात्मा है, उसका नाम लेते-लेते यदि अपने अहं को सद्गुरु के चरणों में, संतों के चरणों में अर्पित कर दो तो फायदा-ही-फायदा है और अहंदान से बढ़कर तो कोई दान नहीं । लौकिक दान के साथ अगर अपना-आपा ही संतों के चरणों में, सद्गुरु के चरणों में दान कर दिया जाय तो फिर चौरासी का चक्कर सदा के लिए मिट जाय । संक्रांति के दिन सूर्य का रथ उत्तर की ओर प्रयाण करता है । वैसे ही तुम भी इस मकर संक्रांति के पर्व पर संकल्प कर लो कि अब हम अपने जीवन को उत्तर की ओर अर्थात् उत्थान की ओर ले जायेंगे । अपने विचारों को उत्थान की तरफ मोड़ेंगे । यदि ऐसा कर सको तो यह दिन तुम्हारे लिए परम मांगलिक दिन हो जायेगा । पहले के जमाने में लोग इस दिन अपने तुच्छ जीवन को बदलकर महान बनने का संकल्प करते थे । हे साधक ! तू भी संकल्प कर कि 'अपने जीवन में सम्यक् क्रांति - संक्रांति लाऊँगा । अपनी तुच्छ, गंदी आदतों को कुचल दूँगा और दिव्य जीवन बिताऊँगा । प्रतिदिन जप-ध्यान करूँगा, स्वाध्याय करूँगा और अपने जीवन को महान बनाकर ही रहूँगा। त्रिबंधसहित ॐकार का गुंजन करते हुए किये हुए दृढ़ संकल्प और प्रार्थना फलित होती है। प्राणिमात्र के जो परम हितैषी हैं उन परमात्मा की लीला में प्रसन्न रहूँगा । चाहे मान हो चाहे अपमान, चाहे सुख मिले चाहे दुःख किंतु सबके पीछे देनेवाले करुणामय हाथों को ही देखूँगा । प्रत्येक परिस्थिति में सम रहकर अपने जीवन को तेजस्वी-ओजस्वी एवं दिव्य बनाने का प्रयास अवश्य करूँगा।'

अपने आत्मा परमात्मा में शान्त होते जाओ। चैतन्य स्वरूप परमात्मा में तल्लीन होते जाओ। चिन्तन करो कि 'मैं सम्पूर्ण स्वस्थ हूँ.... मैं सम्पूर्ण निर्दोष हूँ.... मैं सम्पूर्णतया परमात्मा का हूँ... मैं सम्पूर्ण आनन्दस्वरूप हूँ... हरि ॐ... ॐ...ॐ.... मधुर आनन्द... अनुपम शान्ति.... चिदानन्दस्वरूप परमेश्वरीय शान्ति.... ईश्वरीय आनन्द... आत्मानन्द.... निजानन्द... विकारों का सुखाभास नहीं अपितु निजस्वरूप का आनन्द....निज सुख बिन मन होवईं कि थिरा ?

निज के सुख को जगाओ... मन स्थिर होने लगेगा। निज सुख नारायण का प्रसाद माना जाता है।
अपने आत्मसुख में तल्लीन होते जाएँगे। हृदयकमल को विकसित होने देंगे। आनन्दस्वरूप ब्रह्म के माधुर्य में अपने चित्त को डुबाते जाएँगे।
हे मेरे गुरूदेव ! हे मेरे इष्टदेव ! हे मेरे आत्मदेव ! हे मेरे परमात्मदेव ! आपकी जय हो.....!
यह ब्रह्म मुहूर्त की अमृत वेला है। इस अमृतवेला में हम अमृतपान कर रहे हैं। अमृतवेला में आत्मारामी संत, अपने आत्मा-परमात्मा में, सोहं स्वभाव में रमण करते हैं। इस अमृतवेला में उनके ही आन्दोलन, वे ही तन्मात्राएँ बिखरती रहती हैं और साधकों को मिलती रहती हैं। प्रभात काल में साधारण आदमी सोये रहते हैं लेकिन योगीजन ब्रह्ममुहूर्त में जगाकर अपने आत्म-अमृत का पान करते हैं।
यह आत्म-ध्यान, यह आत्म-अमृत त्रिलोकी को पावन करने वाला है। यह परमात्म-प्रसाद चित्त के दोषों को धो डालता है और साधक को स्वतन्त्र सुख के द्वारा पर पहुँचा देता है। साधक ज्यों-ज्यों अन्तर्मुख होता जाता है त्यों-त्यों यह चिदघन चैतन्य स्वभाव का अमृत पाता जाता है।
दृढ़ निश्चय करो कि मैं सदैव स्वस्थ हूँ। मुझे कभी रोग लग नहीं सकता। मुझे कभी मौत मार नहीं सकती। मुझे विकार कभी सता नहीं सकते। मैं विकारों से, रोगों से और मौत से सदैव परे था और रहूँगा ऐसा मैं आनन्दस्वरूप आत्मा हूँ।
हरि ॐ.....ॐ......ॐ......
हम अपने आत्म-प्रसाद का स्मरण करते-करते आत्ममय होते जाएँगे।
जन्म मृत्यु मेरे धर्म नहीं हैं।
पाप पुण्य कुछ कर्म नहीं हैं।
मैं अज निर्लेपी रूप।।
कोई कोई जाने रे.....
हम विकारों को दूर भगायेंगे। अपने अहंकार को परमात्म स्वभाव में पिघला देंगे। रोग और बीमारी तो शरीर तो आती-जाती रहती है। हम शरीर से पृथक हैं। इस ज्ञान को दृढ़ करते जायेंगे। फिर आनन्द ही आनन्द है... मंगल ही मंगल है.... कल्याण ही कल्याण है।
सदैवे उच्च विचार.... उच्च विचारों से भी पार, उच्च विचारों के भी साक्षी... नीच विचारों को निर्मूल करने में सदैव सतर्क।

हमारा स्वरूप सनातन सत्य है। हमारा आत्मा सदैव शुद्ध, बुद्ध है। हम अपने शुद्ध, बुद्ध परमेश्वरीय स्वभाव में, अपने निर्भीक स्वभाव में, निर्विकारी स्वभाव में, अपने आनन्द स्वभाव में, अपने अकर्त्ता स्वभाव में, अपने अभोक्ता स्वरूप में, अपने भगवद् स्वभाव में सदैव टिककर निर्लेप भाव से इस शरीर का जीवन यापन करते जीवन की शाम होने से पहले जीवनदाता के स्वरूप में टिक जाएँगे। हरि ॐ.... हरि ॐ.... हरि ॐ.......
निर्विकार नारायण स्वरूप में स्थित होकर विश्रान्ति बढ़ाते जाओ। जितना जितना जगत का आकर्षण कम उतना ही उतना आत्म विश्रान्ति अधिक....। जितनी जितनी आत्म-विश्रान्ति अधिक उतनी ही परमात्मा में बुद्धि की प्रतिष्ठा अधिक। परमात्मिक शक्तियाँ बुद्धि में विलक्ष्ण सामर्थ्य भरती जाती हैं।
इन्द्रियों के आकर्षण को, जागतिक विकारी आकर्षण को मिटाने के लिए निर्विकारी नारायण स्वरूप का ध्यान, चिन्तन, आत्म-स्वरूप का सुख, आत्म-प्रसाद पाने का अभ्यास और उस अभ्यास में प्रोत्साहन मिले ऐसा सत्संग जीवन का सर्वांगी विकास कर देता है।
अन्तरतम चेतना में डूबते जाओ... परमात्म प्रसाद को हृदय में भरते जाओ।
मैं शान्त आत्मा हूँ..... मैं परमात्मा का सनातन अंश हूँ... मैं सत् चित् आनन्द आत्मा हूँ। ये शरीर के बन्धन माने हुए है। वास्तव में मुझ चैतन्य को कोई बन्धन नहीं था न हो सकता है। बन्धन भोग की वासना से पैदा होते हैं। बन्धन देह को 'मैं' मानने से प्रतीत होते हैं। बन्धन संसार को सच्चा समझने से लगते हैं। अपने आत्म-स्वभाव को पहचानने से, अपने आत्म-परमात्म स्वभाव को पहचानने से, अपने आत्म-परमात्म तत्त्व का साक्षात्कार करने से सब बन्धन कल्पित मालूम होते हैं, सारा संसार कल्पित मालूम होता है। तू-तू.... मैं-मैं..... यह अन्तः करण की छोटी अवस्था में सत्य प्रतीत होता है। अद्वैत की अनुभूति में, परमेश्वरीय अनुभूति में ये सारे छोटे-छोटे विचार, मान्यताएँ गायब हो जाती हैं। जो सुख देखा वह स्वप्न हो गया और जो दुःख देखा वह भी स्वप्न हो गया। बचपन आया वह भी स्वप्न हो गया, जवानी थी वह भी स्वप्न हो गयी, मौत भी आयेगी तो स्वप्न हो जाएगी।
हे चैतन्य जीव ! तेरी कई मौतें हुईं लेकिन तू नहीं मरा। तेरे शरीर की मौतें हुईं। तेरे शरीरों को बचपन, जवानी और वृद्धत्व आया, मौतें हुईं फिर भी तेरा कुछ नहीं बिगड़ा। जिसका कुछ नहीं बिगड़ा वह तू है। तू अपने उसी आत्म-स्वभाव को जगा। छोड़ संसार की वासना... छोड़ दुनियाँ का लालच... एक आत्मदृष्टि रखकर इस समय पार होने का संकल्प कर।
हरि ॐ... हरि ॐ.... हरि ॐ....
आज उत्तरायण का दिन है। गंगापुत्र भीष्म इसी दिन की राह देख रहे थे। आज देवताओं का प्रभात है। देवता लोग जागे हैं। छः महीने बीतते हैं तो देवताओं की रात होती है और छः महीन बीतते हैं तो उनका दिन होता है। तैंतीस करोड़ देवताओं को खूब-खूब धन्यवाद है, उसको प्रणाम है। देव लोग अब जागे हैं। पृथ्वी पर देवत्व का प्रसाद बरसे, सात्त्विक स्वभाव बरसे, हृदय प्रसन्न रहे और देवता भी प्रसन्न रहें, जीवन में आते हुए संसारी आकर्षण, भय, शोक आदि को वे हर लें।
सूर्यनारायण आज उत्तर की ओर अपने रथ की यात्रा शुरू कर रहे हैं। हे सूर्यनारायण ! आज के दिन आपका विशेष स्वागत है। हम भी अपने जीवन को ऊर्ध्वगामी विचारों में, ऊर्ध्वगामी सुख में, ऊर्ध्वगामी स्वरूप की ओर ले जाने के लिए आज हम प्रभात कालीन ध्यान में प्रवेश पा रहे हैं।
=================================================

उत्तरायण पर्व के दिवस से सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर चलता है। उत्तरायण से रात्रियाँ छोटी होने लगती हैं, दिन बड़े होने लगते हैं. अंधकार कम होने लगता है और प्रकाश बढ़ने लगता है।

जैसे कर्म होते हैं, जैसा चिंतन होता है, चिंतन के संस्कार होते हैं वैसी गति होती है, इसलिए उन्नत कर्म करो, उन्नत संग करो, उन्नत चिंतन करो। उन्नत चिंतन, उत्तरायण हो चाहे दक्षिणायण हो, आपको उन्नत करेगा।


इस दिन भगवान सूर्यनारायण का मानसिक ध्यान करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि हमें क्रोध से, काम विकारों से चिंताओं से मुक्त करके आत्मशान्ति पाने में गुरू की कृपा पचाने में मदद करें। इस दिन सूर्यनारायण के नामों का जप, उन्हें अर्घ्य-अर्पण और विशिष्ट मंत्र के द्वारा उनका स्तवन किया जाय तो सारे अनिष्ट नष्ट हो जाएंगे, वर्ष भर के पुण्यलाभ प्राप्त होंगे।


ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः । इस मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना कर लेना, उनका चिंतन करके प्रणाम कर लेना। इससे सूर्यनारायण प्रसन्न होंगे, नीरोगता देंगे और अनिष्ट से भी रक्षा करेंगे। रोग तथा अनिष्ट का भय फिर आपको नहीं सताएगा। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः । जपते जाओ और मन ही मन सूर्यनारायण का ध्यान करते जाओ, नमन करो।



ॐ सूर्याय नमः । मकर राशि में प्रवेश करने वाले भगवान भास्कर को हम नमन करते हैं। मन ही मन उनका ध्यान करते हैं। बुद्धि में सत्त्वगुण, ओज़ और शरीर में आरोग्य देनेवाले सूर्यनारायण को नमस्कार करते हैं।

नमस्ते देवदेवेश सहस्रकिरणोज्जवल।
लोकदीप नमस्तेsस्तु नमस्ते कोणवल्लभ।।
भास्कराय नमो नित्यं खखोल्काय नमो नमः।
विष्णवे कालचक्राय सोमायामातितेजसे।।


हे देवदेवेश! आप सहस्र किरणों से प्रकाशमान हैं। हे कोणवल्लभ! आप संसार के लिए दीपक हैं, आपको हमारा नमस्कार है। विष्णु, कालचक्र, अमित तेजस्वी, सोम आदि नामों से सुशोभित एवं अंतरिक्ष में स्थित होकर सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने वाले आप भगवान भास्कर को हमारा नमस्कार है। (भविष्य पुराण, ब्राह्म पर्वः 153.50.51)

उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण के इन नामों का जप विशेष हितकारी है। ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः। ॐ सूर्याय नमः। ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः। ॐ पूष्णे नमः। ॐ हिरण्यगर्भाय नमः। ॐ मरीचये नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ सवित्रे नमः। ॐ अर्काय नमः। ॐ भास्कराय नमः। ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः।

उत्तरायण देवताओं का प्रभातकाल है। इस दिन तिल के उबटन व तिलमिश्रत जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल का भोजन तथा तिल का दान सभी पापनाशक प्रयोग हैं।
  
उत्तरायण का पर्व पुण्य-अर्जन का दिवस है। उत्तरायण का सारा दिन पुण्यमय दिवस है, जो भी करोगे कई गुणा पुण्य हो जाएगा। मौन रखना, जप करना, भोजन आदि का संयम रखना और भगवत्-प्रसाद को पाने का संकल्प करके भगवान को जैसे भीष्म जी कहते हैं कि हे नाथ! मैं तुम्हारी शरण में हूँ। हे अच्युत! हे केशव! हे सर्वेश्वर! हे परमेश्वर! हे विश्वेश्वर! मेरी बुद्धि आप में विलय हो। ऐसे ही प्रार्थना करते-करते, जप करते-करते मन-बुद्धि को उस सर्वेश्वर में विलय कर देना। इन्द्रियाँ मन को सँसार की तरफ खीँचती हैं और मन बुद्धि को घटाकर भटका देता है। बुद्धि में अगर भगवद्-जप, भगवद्-ध्यान, भगवद्-पुकार नहीं है तो बुद्धि बेचारी मन के पीछे-पीछे चलकर भटकाने वाली बन जाएगी। बुद्धि में अगर बुद्धिदात की प्रार्थना, उपासना का बल है तो बुद्धि ठीक परिणाम का विचार करेगी कि यह खा लिया तो क्या हो जाएगा? यह इच्छा करूँ-वह इच्छा करूँ, आखिर क्या? – ऐसा करते-करते बुद्धि मन की दासी नहीं बनेगी। ततः किं ततः किम् ? – ऐसा प्रश्न करके बुद्धि को बलवान बनाओ तो मन के संकल्प-विकल्प कम हो जाएंगे, मन को आराम मिलेगा, बुद्धि को आराम मिलेगा।


ब्रह्मचर्य से बहुत बुद्धिबल बढ़ता है। जिनको ब्रह्मचर्य रखना हो, संयमी जीवन जीना हो, वे उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण का सुमिरन करें, जिससे बुद्धि में बल बढ़े।
ॐ सूर्याय नमः......... ॐ शंकराय नमः......... ॐ गं गणपतये नमः............ ॐ हनुमते नमः......... ॐ भीष्माय नमः........... ॐ अर्यमायै नमः............ ॐ ॐ ॐ ॐ
  
उत्तरायण का पर्व प्राकृतिक ढंग से भी बड़ा महत्वपूर्ण है। इस दिन लोग नदी में, तालाब में, तीर्थ में स्नान करते हैं लेकिन शिवजी कहते हैं जो भगवद्-भजन, ध्यान और सुमिरन करता है उसको और तीर्थों में जाने का कोई आग्रह नहीं रखना चाहिए, उसका तो हृदय ही तीर्थमय हो जाता है। उत्तरायण के दिन सूर्यनारायण का ध्यान-चिंतन करके, भगवान के चिंतन में मशगूल होते-होते आत्मतीर्थ में स्नान करना चाहिए।


Uttarayan - Aaj Guru ke darshan kar lo Sureshanandji- WHAT IS TRUE UTTRAYAN ? ( UJJIAN SATSANG )