Gurukripa hi Kevlam ! : Followers of Param Pujya Sant Shri Asaram Ji Bapu
मंगलवार, अगस्त 31, 2010
भीतर की यात्रा
आत्मा परमात्मा विषयक ज्ञान प्राप्त करके नित्य आत्मा की भावना करें। अपने शाश्वत स्वरूप की भावना करें। अपने अन्तर्यामी परमात्मा में आनन्द पायें। अपने उस अखण्ड एकरस में, उस आनन्दकन्द प्रभु में, उस अद्वैत-सत्ता में अपनी चित्तवृत्ति को स्थापित करें। रूप, अवलोक, मनस्कार तथा दृश्य, दृष्टा, दर्शन ये चित्त के फुरने से होते हैं। विश्व, तैजस, प्राज्ञ, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये सब जिससे प्रकाशित होते हैं उस सबसे परे और सबका अधिष्ठान जो परमात्मा है उस परमात्मा में जब प्रीति होती है, तब जीव निर्वासनिक पद को प्राप्त होता है। निर्वासनिक होते ही वह ईश्वरत्व में प्रतिष्ठित होता है। फिर बाहर जो भी चेष्टा करे लेकिन भीतर से शिला की नाईं सदा शान्त है। वशिष्ठजी कहते हैं- "हे राम जी ! ऐसे ज्ञानवान पुरूष जिस पद में प्रतिष्ठित होते हैं उसी में तुम भी प्रतिष्ठित हो जाओ।"
जिसका चित्त थोड़ी-थोड़ी बातों में उद्विग्न हो जाता है, घृणा, राग, द्वेष, हिंसा या तिरस्कार से भर जाता है वह अज्ञानी है। ज्ञानी का हृदय शान्त, शीतल, अद्वैत आत्मा में प्रतिष्ठित होता है। हम लोगों ने वह प्रसंग सुना है किः
मंकी ऋषि ने खूब तप किया, तीर्थयात्रा की। उनके कषाय परिपक्व हुए अर्थात् अन्तःकरण शुद्ध हुआ। पाप जल गये। वे जा रहे थे और वशिष्ठजी के दर्शन हुए। उनके मन में था कि सामने धीवरों के पाँच-सात घर हैं। वहाँ जाकर जलपान करूँगा, वृक्ष के नीचे आराम पाऊँगा।
वशिष्ठजी ने कहाः "हे मार्ग के मीत ! अज्ञानी जो आप जलते हैं, राग-द्वेष में, हेय-उपादेय में जलते हैं उनके पास जाकर तुमको क्या शान्ति मिलेगी ? " जैसे किसी को आग लगे और पेट्रोल पंप के फुव्वारे के नीचे जाकर आग बुझाना चाहे तो वह मूर्ख है। ऐसे ही जो आपस में राग-द्वेष से जलते हैं, जो संसार की आसक्तियों से बँधे हैं, उनके संपर्क में और उनकी बातों में आकर हे जिज्ञासु ! तेरी तपन नहीं मिटेगी। तेरी तपन और राग-द्वेष और बढ़ेंगे।
हे मंकी ऋषि ! तुम ज्ञानवानों का संग करो। मैं तुम्हारे हृदय की तपन मिटा दूँगा और अकृत्रिम शान्ति दूँगा। संसार के भोगों से, संसार के सम्बन्धों से जो शान्ति मिलती है वह कृत्रिम शान्ति है। जब जीव अन्तर्मुख होता है, जब परमात्माभिमुख होता है, चित्त शान्त होता है तब जो शान्ति मिलती है वह आत्मिक शान्ति है।"
वासनावाले को अशान्ति है। वासना के अनुरूप वस्तु उसे मिलती है तो थोड़ी देर के लिए शान्ति होती है। लोभी को रूपयों से लगाव है। रूपये मिल गये तो खुशी हो गयी। भोगी को भोग मिले तो खुशी हो गयी। साधक ऐसी कृत्रिम शान्ति पाकर अपने को भाग्यवान नहीं मानता। साधक तो बाहर की चीजें मिले या न मिले फिर भी भीतर का परमात्म-पद पाकर अपना जीवन धन्य करता है। वह अकृत्रिम शान्ति प्राप्त करता है।
संसार का तट वैराग्य है। विवेक पैदा होते ही वैराग्य का जन्म होता है। जिसके जीवन में वैराग्यरूपी धन आ गया है वह धन्य है।
वशिष्ठजी कहते हैं- "हे मंकी ऋषि ! तुम संसार के तट पर आ गये हो। अब तुम मेरे वचनों के अधिकारी हो।"
ब्रह्मवेत्ता महापुरूषों के वचनों का अधिकारी वही हो सकता है जिसने विवेक और वैराग्यरूपी संपत्ति पा ली है, जिसने विवेक से संसार की असारता देख ली है, जिसने विवेक से शरीर की क्षणभंगुरता देख ली है। ऐसा विवेकप्रधान जो साधक होता है उसको वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्यरूपी धन से जिसका चित्त संस्कृत हो गया है उसे आत्मज्ञान के वचन लगते हैं। जो मूढ़ हैं, पामर हैं, वे ज्ञानवानों के वचनों से उतना लाभ नहीं ले पाते जितना विवेकी और वैराग्यवान ले पाता है।
मंकी ऋषि विवेक-वैराग्य से संपन्न थे। वशिष्ठजी का दर्शन करके उनको अकृत्रिम शान्ति का एहसास हुआ। वे कहने लगेः
"भगवन् ! आप सशरीर दिख पड़ते हो लेकिन आकाश की नाईं शून्य रूप हो। आप चेष्टा करते दिख पड़ते हो लेकिन आप चेष्टा से रहित हो। आप साकार दिखाई देते हो लेकिन आप अनंत ब्रह्माण्डों में फैले हुए निराकार तत्त्व हो। हे मुनिशार्दूल ! आपके दर्शन से चित्त में प्रसन्नता छा जाती है और आकर्षण पैदा होता है। वह आकर्षण निर्दोष आकर्षण है। संसारियों की मुलाकात से चित्त में क्षोभ पैदा होता है। सूर्य का तेज होता है वह तपाता है जबकि आपका तेज हृदय में परम शान्ति देता है। विषयों का और संसारी लोगों का आकर्षण चित्त में क्षोभ पैदा करता है और आप जैसे ज्ञानवान का आकर्षण चित्त में शान्ति पैदा करता है जबकि ज्ञानी का आकर्षण परमात्मा के गीत गुँजाता है, भीतर की शान्ति देता है आनन्द देता है, परमात्मा के प्रसाद से हृदय को भर देता है।
हे मुनीश्वर ! आपका तेज हृदय की तपन को मिटाता है। आपका आकर्षण भोगों के आकर्षण से बचाता है। आपका संग परमात्मा का संग करानेवाला है। अज्ञानियों का संग दुःखों और पापों का संग कराने वाला है। जो घड़ियाँ ज्ञानी की निगाहों में बीत गई, जो घड़ियाँ परमात्मा के ध्यान में बीत गईं, जो घड़ियाँ मौन में बीत गईं, जो घड़ियाँ परमात्मा के प्रसाद में बीत गईं वे अकृत्रिम शान्ति की घड़ियाँ हैं, वे घड़ियाँ जीवन की बहुमूल्य घड़ियाँ हैं।
हे मुनिशार्दूल ! आप कौन हैं ? यदि मुझसे पूछते हो तो मैं माण्डव्य ऋषि के कुल में उत्पन्न हुआ मंकी नामक ब्राह्मण हूँ। संसार की नश्वरता देखकर, संसार के जीवों को हेय और उपादेय, ग्रहण और त्याग (छोड़ना-पकड़ना) से जलते देखकर मैं सत्य को खोजने गया। कई तीर्थों में गया, कितने ही जप-तप किये, कई व्रत और नियम किये फिर भी हृदय की तपन न मिटी।
जप, तप, व्रत और तीर्थ से पाप दूर होते हैं, कषाय परिपक्व होते हैं। कषाय परिपक्व हुए, पाप दूर हुए तो ज्ञानी का संग होते ही अकृत्रिम शान्ति मिलने लगती है, आनन्द आने लगता, मौन में प्रवेश होने लगता है। साधक अलख पुरूष में जगने के योग्य होता है।
मंकी ऋषि वशिष्ठजी का संग पाकर अकृत्रिम शांति को प्राप्त हुए, भीतर के प्रसाद को उपलब्ध हुए, परमात्मा-विश्रान्ति पायी। परमात्म-विश्रान्ति से बढ़कर जगत में और कोई सुख नहीं और कोई धन नहीं और कोई साम्राज्य नहीं।
वे घड़ियाँ धन्य हैं जिन घड़ियों में परमात्मा की प्रीति, परमात्मा का चिन्तन और परमात्मा का ध्यान होता है।
प्रतिदिन अपने अन्तःकरण का निर्माण करना चाहिए। अपने अन्तःकरण में परमात्मा का ज्ञान भरकर उसका चिन्तन करने से अन्तःकरण का निर्माण होता है। अज्ञान से, अज्ञानियों के संग से, अज्ञानियों की बातों से अन्तःकरण में अविद्या का निर्माण होता है और जीव दुःख का भागी बनता है।
चित्त में और व्यवहार में जितनी चंचलता होगी, जितनी अज्ञानियों के बीच घुसफुस होगी, जितनी बातचीत होगी उतना अज्ञान बढ़ेगा। जितनी आत्मचर्चा होगी, जितना त्याग होगा, दूसरों के दोष देखने के बजाय गुण देखने की प्रवृत्ति होगी उतना अपने जीवन का कल्याण होगा।
अगर हम अपने जीवन की मीमांसा करके जानना चाहें कि हमारा भविष्य अन्धकारमय है कि प्रकाशमय है, तो हम जान सकते हैं, देख सकते हैं। किसी व्यक्ति को देखते हैं, उससे व्यवहार करते हैं तब उसके दोष दिखते हैं तो समझो हमारा जीवन अन्धकारमय है। कोई कितना भी हमारे साथ अनुचित व्यवहार करता है फिर भी हमें अपना दोष दिखे और उसके गुण दिखें तो समझ लेना कि हमारा भविष्य उज्जवल है। इससे भी उज्जवल जीवन वह है जिसमें न गुण दिखें न दोष दिखें, संसार स्वप्न जैसा भासने लगे। संसार को स्वप्न-सा देखने वाला अपना आपा परमात्मा में विश्राम पावे, ऐसी प्यास पैदा हो जाय तो समझ लेना कि भविष्य बड़ा सुहावना है, बड़ा मंगलकारी है। इस बात पर बार-बार ध्यान दिया जाय।
देवताओं में चर्चा चली कि इस समय पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ पुरूष कौन है ? सर्वगुण-सम्पन्न कौन है ? प्राणी मात्र में गुण देखनेवाला कौन है ? सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व रखने वाला कौन है ?
इन्द्र ने कहा किः "इस समय पृथ्वी पर ऐसे परम श्रेष्ठ पुरूष श्रीकृष्ण हैं। उनको किसी के दोष नहीं दिखते अपितु गुण ही दिखते हैं। वे प्राणी मात्र का हित चाहते हैं। उनके मन में किसी के प्रति वैर नहीं। श्रीकृष्ण जैसा अदभुत व्यक्तित्व, श्रीकृष्ण जैसा गुणग्राहीपन इस समय पृथ्वी पर और किसी के पास नहीं है।" इस प्रकार इन्द्र ने श्रीकृष्ण की दृष्टि का, उनके व्यक्तित्व का खूब आदर से वर्णन किया।
एक देव को कुतूहल हुआ कि श्रीकृष्ण किस प्रकार अनंत दोषों में भी गुण ढूँढ निकालते हैं ! वह देवता पृथ्वी पर आया और जहाँ से श्रीकृष्ण ग्वालों के साथ गुजरने वाले थे उस रास्ते में बीमार रोगी कुत्ता होकर भूमि पर पड़ गया। पीड़ा से कराहने लगा। चमड़ी पर घाव थे। मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं। मुँह फटा रह गया था। दुर्गन्ध आ रही थी। उसे देखकर ग्वालों ने कहाः "छिः छिः ! यह कुत्ता कितना अभागा है ! इसके कितने पाप हैं जो दुःख भोग रहा है !''
श्रीकृष्ण ने कहाः "देखो, इसके दाँत कितने अच्छे चमकदार हैं ! यह इसके पुण्यों का फल है।"
ऐसे ही दुःख-दर्द में, रोग में, परेशानी में, विद्रोह में और अशांति के मौके पर भी जिसमें गुण और परम शान्त परमात्मा देखने की उत्सुकता है, जिसके पास ऐसी विधायक निगाहें हैं वह आदमी ठीक निर्णायक होता है, ठीक विचारक होता है। लेकिन जो किसी पर दोषारोपण करता है, भोगियों की हाँ मैं हाँ मिलता है, ज्ञानवानों की बातों पर ध्यान नहीं देता, संसार में आसक्ति करता है, अपने हठ और दुराग्रह को नहीं छोड़ता उस आदमी का भविष्य अन्धकारमय हो जाता है।
शास्त्र ने कहाः बुद्धेः फलं अनाग्रहः। बुद्धि का फल क्या है ? बुद्धि का फल है भोगों में और संसार की घटनाओं में आग्रह नहीं रहना। बड़ा सिद्ध हो, त्रिकाल ज्ञानी हो लेकिन हेय और उपादेय बुद्धि हो तो वह तुच्छ है।
हेय और उपादेय बुद्धि क्या है ? हेय माने त्याज्य। उपादेय माने ग्राह्य। जब जगत ही मिथ्या है तो उसमें 'यह पाना है, यह छोड़ना है, यह करना है, यह नहीं करना है....' ऐसी बुद्धि जब तक बनी रहेगी तब तक वह बुद्धि अकृत्रिम शान्ति में टिकेगी नहीं। अकृत्रिम शान्ति में टिकने के लिए हेयोपादेय बुद्धि का त्याग करना पड़ता है। त्याज्य और ग्राह्य की पकड़ न हो।
फूल खिला है। ठीक है, देख लिया। बुलबुल गीत गा रही है। ठीक है, सुन लिया। लेकिन 'कल भी फूल खिला हुआ रहे, बुलबुल गाती हुई सुनाई पड़े, रोटी ऐसी ही मिलती रहे, फलाना आदमी ऐसा ही व्यवहार करे, फलानी घटना ऐसी ही घटे.....' ऐसा आग्रह नहीं। जब जगत ही मिथ्या है तो उसकी घटनाएँ कैसे सत्य हो सकती है। जब घटनाएँ ही सत्य नहीं तो उसके परिणाम कैसे सत्य हो सकते हैं। जो भी परिणाम आयेंगे वे बदलते जायेंगे। ऐसी ज्ञान-दृष्टि जिसने पा ली, गुरूओं के ज्ञानयुक्त वचनों को जिसने पकड़ लिया, वह साधक भीतर की यात्रा में सफल हो जाता है।
ब्रह्मवेत्ता की अध्यात्म-विद्या बरसती रहे लेकिन साधक में अगर विवेक-वैराग्य नहीं है तो उतना लाभ नहीं होता। बरसात सड़कों पर बरसती रहे तो न खेती होती है न हरियाली होती है। ऐसे ही जिनका चित्त दोषों से, अहंकार से, भोगों से कठोर हो गया है उन पर संतों के वचन इतनी हरियाली नहीं पैदा करते। जिनक चित्त विवेक-वैराग्य से जीता गया है उनको ज्ञानी संतों के दो वचन भी, घड़ीभर की मुलाकात भी हृदय में बड़ी शान्ति प्रदान करती है।
मंकी ऋषि का हृदय विवेक वैराग्य से जीता हुआ था। वशिष्ठजी की मुलाकात होते ही उनके चित्त में अकृत्रिम शान्ति, आनन्द आने लगा। जितनी घड़ियाँ चित्त शान्त होता है उतनी घड़ियाँ महातप होता है। चित्त की विश्रान्ति बहुत ऊँची चीज है। हेयोपादेय बुद्धिवाले को चित्त की विश्रान्ति नहीं मिलती। 'यह छोड़ कर वहाँ जाऊँ और सुखी होऊँ...' यह हेय-उपादेय बुद्धि है। जो जहाँ है वहीं रहकर हेयोपादेय बुद्धि छोड़कर भीतर की यात्रा करता है तो वह ऊँचे पद को पाता है। जो छोड़ने पकड़ने में लगा है तो वह वैकुण्ठ में जाने के बाद भी शान्ति नहीं पाता।
इसलिये हेयपादेय बुद्धि छोड़ दें। जिस समय जो फर्ज पड़े, जिस समय गुरू और शास्त्र के संकेत के अनुसार जो कर्त्तव्य करने का हो वह यंत्र की पतली की नाईं कर लिया लेकिन दूसरे ही क्षण अपने को कर्त्ता-धर्त्ता न मानें। जैसे मिट्टी में बैठते हैं, फिर कपड़े झाड़ कर चल देते हैं, इसी प्रकार व्यवहार करके सब छोड़ दो। कर्तृत्त्व चित्त में न आ जाय। कर्तृत्त्वभव और भोक्तृत्वभाव अगर है तो समाधि होने के बाद भी पतन की कोई संभावना नहीं। अष्टावक्र मुनि कहते हैं-
अकर्तृत्वं अभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
"जब पुरूष अपने आत्मा के अकर्त्तापने को और अभोक्तापन को मानता है तब उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियाँ करके नाश होती हैं।"
चित्त में जब अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व कि निष्ठा जमने लगती है तो वासनाएँ क्षीण होने लगती हैं। फिर वह ज्ञानी यंत्र की पुतली की नाईं चेष्टा करता है।
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शुक्रवार, अगस्त 27, 2010
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्
स्वामी रामतीर्थ के बोलने का स्वभाव था किः "मैं बादशाह हूँ, मैं शाहों का शाह हूँ।" अमेरिका के लोगों ने पूछाः "आपके पास है तो कुछ नहीं, सिर्फ दो जोड़ी गेरूए कपड़े हैं। राज्य नहीं, सत्ता नहीं, कुछ नहीं, फिर आप शाहों के शाह कैसे ?"
रामतीर्थ ने कहाः "मेरे पास कुछ नहीं इसलिए तो मैं बादशाह हूँ। तुम मेरी आँखों में निहारो.... मेरे दिल में निहारो। मैं ही सच्चा बादशाह हूँ। बिना ताज का बादशाह हूँ। बिना वस्तुओं का बादशाह हूँ। मुझ जैसा बादशाह कहाँ ? जो चीजों का, विषयों का गुलाम है उसे तुम बादशाह कहते हो पागलों ! जो अपने आप में आनन्दित है वही तो बादशाह है। विश्व का सम्राट तुम्हारे पास से गुजर रहा है। ऐ दुनियाँदारों ! वस्तुओं का बादशाह होना तो अहंकार की निशानी है लेकिन अपने मन का बादशाह होना अपने प्रियतम की खबर पाना है। मेरी आँखों में तो निहारो ! मेरे दिल में तो गोता मार के जरा देखो ! मेरे जैसा बादशाह और कहाँ मिलेगा ? मैं अपना राज्य, अपना वैभव बिना शर्त के दिये जा रहा हूँ.... लुटाये जा रहा हूँ।"
जो स्वार्थ के लिए कुछ दे वह तो कंगाल है लेकिन जो अपना प्यारा समझकर लुटाता रहे वही तो सच्चा बादशाह है।
'मुझ बादशाह को अपने आपसे दूरी कहाँ ?'
किसी ने पूछाः "तुम बादशाह हो ?"
"हाँ...."
"तुम आत्मा हो ?"
"हाँ।"
"तुम God हो?"
"हाँ....। इन चाँद सितारों में मेरी ही चमक है। हवाओं में मेरी ही अठखेलियाँ हैं। फूलों में मेरी ही सुगन्ध और चेतना है।"
"ये तुमने बनाये ?"
"हाँ.... जबसे बनाये हैं तब से उसी नियम से चले आ रहे हैं। यह अपना शरीर भी मैंने ही बनाया है, मैं वह बादशाह हूँ।"
जो अपने को आत्मा मानता है, अपने को बादशाहों की जगह पर नियुक्त करता है वह अपने बादशाही स्वभाव को पा लेता है। जो राग-द्वेष के चिन्तन में फँसता है वह ऐसे ही कल्पनाओं के नीचे पीसा जाता है।
मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ। आत्मा ही तो बादशाह है.... बादशाहों का बादशाह है। सब बादशाहों को नचानेवाला जो बादशाहों का बादशाह है वह आत्मा हूँ मैं।
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।
मुक्ति और बन्धन तन और मन को होते है। मैं तो सदा मुक्त आत्मा हूँ। अब मुझे कुछ पता चल रहा है अपने घर का। मैं अपने गाँव जाने वाली गाड़ी में बैठा तब मुझे अपने घर की शीतलता आ रही है। योगियों की गाड़ी मैं बैठा तो लगता है कि अब घर बहुत नजदीक है। भोगियों की गाड़ियों में सदियों तक घूमता रहा तो घर दूर होता जा रहा था। अपने घर में कैसे आया जाता है, मस्ती कैसे लूटी जाती है यह मैंने अब जान लिया।
मस्तों के साथ मिलकर मस्ताना हो रहा हूँ।
शाहों के साथ मिलकर शाहाना हो रहा हूँ।।
कोई काम का दीवाना, कोई दाम का दीवाना, कोई चाम का दीवाना, कोई नाम का दीवाना, लेकिन कोई कोई होता है जो राम का दीवाना होता है।
दाम दीवाना दाम न पायो। हर जन्म में दाम को छोड़कर मरता रहा। चाम दीवाना चाम न पायो, नाम दीवाना नाम न पायो लेकिन राम दीवाना राम समायो। मैं वही दीवाना हूँ।
ऐसा महसूस करो कि मैं राम का दीवाना हूँ। लोभी धन का दीवाना है, मोही परिवार का दीवाना है, अहंकारी पद का दीवाना है, विषयी विषय का दीवाना है। साधक तो राम दीवाना ही हुआ करता है। उसका चिन्तन होता है किः
चातक मीन पतंग जब पिया बन नहीं रह पाय।
साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय ?
हम अपने साध्य तक पहुँचने के लिए जेट विमान की यात्रा किये जा रहे हैं। जिन्हें पसन्द हो, इस जेट का उपयोग करें, नहीं तो लोकल ट्रेन में लटकते रहें, मौज उन्हीं की है।
यह सिद्धयोग, यह कुण्डलिनी योग, यह आत्मयोग, जेट विमान की यात्रा है, विहंग मार्ग है। बैलगाड़ीवाला चाहे पच्चीस साल से चलता हो लेकिन जेटवाला दो ही घण्टों में दरियापार की खबरें सुना देगा। हम दरियापार माने संसारपार की खबरों में पहुँच रहे हैं।
ऐ मन रूपी घोड़े ! तू और छलांग मार। ऐ नील गगन के घोड़े ! तू और उड़ान ले। आत्म-गगन के विशाल मैदान में विहार कर। खुले विचारों में मस्ती लूट। देह के पिंजरे में कब तक छटपटाता रहेगा ? कब तक विचारों की जाल में तड़पता रहेगा ? ओ आत्मपंछी ! तू और छलांग मार। और खुले आकाश में खोल अपने पंख। निकल अण्डे से बाहर। कब तक कोचले में पड़ा रहेगा ? फोड़ इस अण्डे को। तोड़ इस देहाध्यास को। हटा इस कल्पना को। नहीं हटती तो ॐ की गदा से चकनाचूर कर दे।
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रविवार, अगस्त 22, 2010
गुरु स्तुति मंत्र
श्री सुरेशानन्दजी के सत्संग से:
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः
ॐ श्री परम गुरुभ्यो नमः
ॐ श्री परात्पर गुरुभ्यो नमः
ॐ श्री परमेष्टी गुरुभ्यो नमः
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात कारुण्य भावेन, रक्षस्व परमेश्वर ॥
ये जो मंत्र है, शास्त्रों में गुरु की स्तुति में कहे गए है :-
ॐ ज्ञान मूर्तये नमः
ॐ ज्ञान योगिने नमः
ॐ तीर्थ स्वरूपाय नमः
ॐ जितेन्द्रियाय नमः
ॐ उदारहृदयाय नमः
ॐ भारत गौरवाय नमः
ॐ पावकाय नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ परमेश्वराय नमः
ॐ महर्षये नमः
शास्त्रों मे ज्ञानदाता, भक्ति दाता गुरु की स्तुति मे बड़े सुन्दर मंत्र है,मंत्र इस प्रकार है :-
ॐ अविनाशिने नमः
ॐ सच्चिदानंदाय नमः
ॐ सत्यसंकल्पाय नमः
ॐ संयासिने नमः
ॐ श्रोत्रियाए नमः --- श्रोत्रियाए - माने जो सारे शास्त्रों का रहस्य जानते हैं, ऐसे गुरु को हम प्रणाम करते हैं ।
ॐ समबुद्धये नमः --- वे सम बुद्धिवाले हैं, पक्षपात नहीं हैं जहाँ ।
ॐ सुमनसे नमः --- उनका मन कैसा, बोले मन सुमन हैं, खिले हुए फूल की तरह; खिला हुआ फूल जैसे सब को सुगंध देता हैं, ऐसे वे सबको सुगंध , दिव्य जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं, इसलिये गुरु की यह मन्त्र बोलकर स्तुति की- ॐ सुमनसे नमः - उनके संपर्क में आते रहने से हमारा मन भी सुमन हो जाता हैं । फूल की तरह खिला हुआ रहता हैं; उदास, बेचैन, उद्विग्न, परेशान नहीं रहता ।
ॐ स्वयं ज्योतिषे नमः --- माने साधक का भविष्य कैसे सुखद होगा, वो बता देते हैं ।
ॐ शान्तिप्रदाय नमः --- वो सबको शान्ति का दान करते हैं, मन की शान्ति ।
ॐ श्रुतिपारगाये नमः - श्रुति माने वेद-उपनिषद ।
ॐ सर्वहितचिन्ताकाय नमः --- सबके हित का ख्याल करने वाले और सबके हित की बात करनेवाले गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ साधवे नमः --- जो सच्चे साधु हैं, सच्चे संत हैं वास्तव में, उन्हे हमारा प्रणाम हैं ।
ॐ सुहृदे नमः --- जो सबके सुहृद हैं, जैसे भगवान सबके सुहृद हैं, ऐसे सद्गुरु भी सबके सुहृद हैं ।
ॐ क्षमाशीलाय नमः --- जो क्षमाशील हैं, हमारे दोषों को माफ कर देते हैं, ऐसे गुरु को हमारा प्रणाम हैं ।
ॐ स्थितप्रज्ञयाय नमः
ॐ कृतात्माने नमः
ॐ अद्वितीयाये नमः --- अद्वितीय हैं, माने उनसे श्रेष्ट कोई नहीं हैं, ऐसे गुरु को हमारा प्रणाम हैं ।
ॐ करुणासागराये नमः --- जो करुणा के सागर हैं, ऐसे गुरु को हमारा प्रणाम हैं ।
ॐ उत्साहवर्धकाय नमः
ॐ उदारहृदयाय नमः --- जिनका हृदय उदार हैं, ऐसे गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ आनंदाय नमः --- आनंद और शांति का दान करनेवाले गुरु को प्रणाम हो ।
ॐ तापनाशनाय नमः --- आदिदैविक ताप, आदिभौतिक ताप, आध्यात्मिक ताप - इन तीन तापों को दूर करनेवाले गुरु को प्रणाम हैं ।
{गुरु की वाणी वाणी-गुर, वाणी विच अमॄत सारा}
ॐ दृद निश्चयाय नमः ------दृद निश्चय होने की प्रेरणा देने वाले गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ जनप्रियाय नमः --- जो सबके प्रिय हैं, ऐसे गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ छिन्नसंषयाय नमः
ॐ जितेन्द्रियाय नमः --- जो जितेन्द्रिय हैं, जिनके सुमिरन से हम भी जितेन्द्रिय हो सकते हैं । इन्द्रियों को जीतनेवाले ऐसे गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ द्वन्द्वातीताय नमः --- जो द्वन्द्वों से परे हैं, ऐसे गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ धर्मसंस्थापकाय नमः --- धर्म का रहस्य बताने वाले और जन-जन के हृदय में धर्म की स्थापना करनेवाले गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ नारायणाय नमः --- गंगाजी कोई साधारण नदी नहीं हैं, हनुमानजी कोई साधारण वानर नहीं हैं, उसी प्रकार गुरु भी कोई साधारण नर नहीं हैं, वो साक्षात नारायण हैं ।
ॐ प्रसन्नात्मने नमः --- जो सदैव प्रसन्न रहते हैं और सबको प्रसन्नता बाँटते हैं, ऐसे गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ धैर्यप्रदाय नमः --- जिनके दर्शन से, अपने आप धैर्य और शान्ति आ जाती हैं ।
ॐ मधुरस्वाभावये नमः --- जिनका मधुर स्वभाव हैं, ऐसे गुरु को हमारा प्रणाम हैं ।
ॐ बंधमोक्षकाय नमः --- बंधनों से मुक्ति दिलाने वाले गुरु को प्रणाम हैं ।
ॐ मनोहराय नमः --- हमारे मन का हरण करने वाले गुरु को प्रणाम हैं । व्यक्ति के अन्तर मन में से संसार का आकर्षण हठ जाता हैं, गुरु के प्रति , ईश्वर के प्रति, ईश्वर के नाम के प्रति स्वभाविक ही रुचि होने लगती हैं ।
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शुक्रवार, अगस्त 20, 2010
......तो कुछ नहीं तुमने किया
मोटर फिटन पर की सवारी अश्वगज पर चढ़ चुके।
देशों दिशावर में फिरे आकाश में भी उड़ चुके।
छाना किये हो खाक अब तक जन्म निष्फल ही गया।
पहुँचे नहीं यदि आत्मपुर तो कुछ नहीं तुमने किया।।1।।
ऊँचे चुनाये महल सुन्दर, बाग बगीचे लगा।
हथियार लेकर हाथ में, रण से दिया शत्रु भगा।
दे दान या कर यज्ञ यश चारों तरफ फैला दिया।
नहीं प्राप्त कीन्हा आत्मयश तो कुछ नहीं तुमने किया।।2।।
मीठे सुरीले राग कानों में सदा पड़ते रहे।
इतिहास कविता संहिता सारी उमर सुनते रहे।
किस्से कहानी रात दिन सुन व्यर्थ आयु गँवा दिया।
चर्चा सुनी नहीं आत्म की तो कुछ नहीं तुमने किया।।3।।
आसन तकिये को लगा सोये मुलायम सेज पर।
तरूणी सदा करती रही सेवा तुम्हारी जन्म भर।
नंगे पदों नहीं भूमि ऊपर एक पग भी धर दिया।
नहीं स्पर्श आत्मा का किया तो कुछ नहीं तुमने किया।।4।।
जो देश वस्तु वस्तुएँ देखी हजारों रंगनी।
सुर देख जिनको मोहते ऐसे निराले ढंग की।
यदि पद्मिनी या अप्सराएँ देख ली तो क्या हुआ।
देखी छबी नहीं आत्म की तो कुछ नहीं तुमने किया।।5।।
आसक्त होकर स्वाद में व्यंजन अनेकों खा लिये।
खाते रहे मिष्टान्न तीखे चटपटे भोजन किये।
जितने पदारथ हैं जगत में स्वाद सबका ले लिया।
चाखा नहीं यदि आत्मरस तो कुछ नहीं तुमने किया।।6।।
आसक्त होकर गन्ध में बागों बगीचों में फिरे।
सुन्दर लगाई वाटिका जो इन्द्र का भी मन हरे।
इत्रादि वस्त्रों में लगा घर बाह्य सब महका दिया।
नहीं गन्ध सूँघी आत्म की तो कुछ नहीं तुमने किया।।7।।
क्रीड़ा करी बरसों तलक नव युवतियों के साथ में।
ज्यों इन्द्र भोगे भोग क्या आय़ा तुम्हारे हाथ में।
जन्मे हजारों योनियों में काल फिर खा लिया।
क्रीडा करी नहीं आत्म से तो कुछ नहीं तुमने किया।।8।।
क्रीडा करो तो आत्म से चर्चा सुनो तो आत्म की।
पूजा करो तो आत्म की नहीं अन्य पूजा काम की।
'कौशल्य' छल को जानकर मुख मोड़ यदि सबसे लिया।
पहिचान लीना आत्म को तो कार्य सब तुमने किया।।9।।
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रविवार, अगस्त 08, 2010
जले विष्णुः स्थले विष्णुः
लोग पूछते हैं कि सबसे बड़ा धर्म कौन सा है ? सबसे श्रेष्ठ धर्म कौन सा है ? सब मजहब अपनी अपनी डींग हाँकते हैं। सब हाँकते हैं कि हमारे मजहब में आ जाओ, हमारे पंथ में, हमारे मत में आ जाओ। बस यही सच्चा है। .....तो सबसे बड़ा और सच्चा धर्म आपके मत में कौन-सा है ?
भाई ! हमारे मत में तो सत्य किसी मत के आधीन नहीं होता है। मेरे मत में जो सत्य है वही वास्तविक सत्य है ऐसा हो भी नहीं सकता। सत्य किसी मत के आधीन है तो वह सत्य है भी नहीं।
मत मति के होते हैं। सारी मतियाँ जहाँ से प्रकाश पाती हैं वह परमात्मा वास्तविक में सत्य है। जैसे, सागर से पानी वाष्पीभूत होकर आकाश में जाता है, बादल बनकर बरसता है, झरने होकर, छोटी बड़ी नदियाँ होकर बहता है, सरोवर होकर लहराता है। भूमि में उतरकर कूप में जाता है। पृथ्वी पर जो भी जलस्थान हैं वे सब सागर के ही प्रसाद हैं।
सागर का एक मेढक दैवयोग से किसी कुएँ में पहुँचा। कुएँ का मेढक, कूपमण्डूक से पूछता हैः
"तुम कहाँ से आये हो ?"
"मैं विशाल सागर से आया हूँ।"
"सागर कितना बड़ा है ?"
"बहुत बड़ा.... बहुत बड़ा....।"
"कितना बड़ा ?"
"बहुत बड़ा।"
कुएँ के मेढक ने छलाँग मारी... पूछाः
"इतना बड़ा ?"
"नहीं.... इससे तो बहुत बड़ा।"
कूपमण्डूक ने दूसरी बड़ी छलाँग, फिर तीसरी.... चौथी... पाँचवीं छलाँग लगाते हुए पूछा। सागर का मेंढक बोलता हैः
"नहीं, नहीं भाई ! सागर तो इससे कई गुना बड़ा है। कूप और सागर की तुलना ही नहीं हो सकती।"
आखिर कूपमण्डूक ने साँस फुलाकर अपनी पूरी ताकत से लम्बे में लम्बी छलाँग लगाई, एक छोर से दूसरे छोर तक। अहंकार में आकर कहने लगाः
"इससे बड़ा तो तुम्हारा सागर हो भी नहीं सकता है।"
तब सागर का मेढक बोलता हैः "भाई ! तुम्हारे सारे कुएँ उस सागर के प्रसादमात्र हैं।"
इसी प्रकार तुम्हारे सारे मत, पंथ, मजहबरूपी कूप, जिनमें तुम छलाँगे मार-मारकर बड़प्पन की डींग हाँक रहे हो, वे सारे के सारे मजहब, मत, पंथ उस सच्चिदानंदघन परमात्मा के ही प्रसाद हैं। सब चिदघन चैतन्य का ही विवर्त है। जब सृष्टि नहीं बनी थी तब भी जो था, सृष्टि है और मत, मजहब कई आये और कई गये, कई बने, कई बदले, कई बिगड़े फिर भी जो सदा एकरस है वह सच्चिदानंद परमात्मा सबसे महान है, सबसे श्रेष्ठ है, सनातन सत्य है।
हमारी तुम्हारी कई मतियाँ आयीं, विचार-विमर्श, व्याख्या, शास्त्रार्थ हुए। कभी गलत मार्ग में जाकर जन्म-मरण की भीषण यातनाएँ सहीं। कई सुज्ञजनों ने अपनी मति उस मालिक को अर्पित करके मालिक के साथ एकरसता का अनुभव किया। वह एकरस परमात्मा वैसे का वैसा है। वही सबका मूल आधार है, अधिष्ठान है।
नादान लोग तर्क करते हैं किः 'सर्वत्र भगवान हैं, सबमें भगवान हैं, सब कुछ जो है वह सब भगवान ही हैं तो हम कुछ भी करें..... पापाचार करें, जो चाहे सो खा लें, भोग लें तो क्या फर्क पड़ता है ? जीवो जीवस्य जीवनम् है। छोटे जीव बड़े जीवों के काम आते हैं तो हम मांसाहार कर लें तो क्या घाटा है ? जब सर्वत्र भगवान हैं तो नरक में भी भगवान हैं। पाप में भी भगवान हैं और पुण्य में भी भगवान हैं। सब भगवान ही भगवान हैं तो मनमाना क्यों न खाएँ ? धर्म की, नीति की, शास्त्रों की, गुरू की, माता-पिता की जंजीरों में क्यों जकड़े रहें ?
अरे भाई ! सर्वत्र भगवान हैं फिर भी आप चाहते तो सुख हो, चाहते तो आनन्द हो। सर्वत्र भगवान है ऐसा सोचकर आप शांत तो नहीं हो गये। सुख के लिए आप चेष्टा तो करते ही हो। शास्त्र के अनुकूल, माता-पिता और सदगुरू के अनुकूल चेष्टा करने से भगवान का सुखस्वरूप अनुभव में आयेगा। मनमाना करोगे तो फिर उसका फल भी वैसा ही प्रकट होगा। नरक में भी भगवान हैं ऐसा सोचकर नरक में ले जाने वाले कृत्य करोगे तो भगवान तुम्हारे लिए नरकरूप में प्रकट होंगे, बीमारी के रूप में प्रकट होंगे, अशांति के रूप में प्रकट होंगे। भगवान को नरक के रूप में, बीमारी के रूप में, अशांति के रूप में, दुःख के रूप में देखना चाहते हो तो मनमाना करो। अगर भगवान को सुखस्वरूप, आनन्दस्वरूप, प्रेमस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, मुक्तिस्वरूप देखना चाहते हो तो शास्त्र और गुरूओं के आदेश के अनुकूल कर्म करो, अन्यथा मर्जी आपकी है। भगवान कैदी के रूप में जेल में जाएँगे और जेलर के रूप में डण्डा भी मारेंगे। दुराचार करोगे तो भगवान डण्डा मारने वाले के रूप में आयेंगे। 'गुरूजी ! यह स्वीकार करो.... साधक भैया ! यह खाओ....' ऐसा कहते हुए भगवान आयेंगे। भगवान फल-फूल लाइन में खड़े रहेंगेः 'गुरूदेव की जय हो....।' शास्त्र और गुरूदेव की आज्ञा के अनुकूल चलोगे तो भगवान आपकी जय-जयकार करेंगे। अगर पापाचार करोगे तो वही भगवान डण्डा लेकर आयेंगेः चल 420 में... खून किया है तो चल 302 में।
अब क्या करना, क्या नहीं करना, कैसे जीना.... मर्जी आपकी है। भगवान सब कुछ बने बैठे हैं।
भगवान की लीला अनूठी है। वे सब हैं, सब जगह हैं। जैसे रात्रि के स्वप्न में तुम एक ही चेतन होते हो किन्तु वहाँ जड़ चीजें भी बन जाती हैं, चेतन जीव भी बन जाते हैं, सज्जन भी बन जाते हैं, दुर्जन भी बन जाते हैं। नियम बनाने वाले भी बन जाते हैं नियम का भंग करने वाले भी बन जाते हैं। नियम-भंग करने वाले सजा के पात्र बन जाते हैं, सजा देने वाले भी बन जाते हैं। स्वप्न में यह सब आपके एक ही चैतन्य के प्रसाद से बनता है।
एक अन्तःकरण में चैतन्य का ऐसा चमत्कार हो सकता है तो व्यापक चैतन्य ईश्वर इस सृष्टि का चमत्कार कर दे इसमें क्या सन्देह है ?
हमारे चित्त में एकदेशीयता नहीं होना चाहिए, मत-मजहब की गुलामी नहीं होनी चाहिए। मत मति से बनते हैं। मजहब पीर-पैगम्बरों ने बनाये हैं। पीर-पैगम्बरों को और मत-मतांतर बनाने वालों को जिस परमात्मा ने बनाया है उस परमात्मा की हम उपासना करेंगे।
जो हमारे बाप का बाप है, दादाओं का दादा है, हमारे पूर्वजों का भी जो पूर्वज है, जिसमें से हमारे सब पूर्वज आये और लीन हो गये, प्राणिमात्र को सत्ता, स्फूर्ति, चेतना देने में जो संकोच नहीं करता उस निःसंकोच नारायण का हम ध्यान करते हैं।
नारायण..... नारायण..... नारायण.... नारायण.....।
हमारा नारायण, हमारा भगवान, हमारा खुदा एकदेशीय नहीं है, हमारा भगवान कोई एककालीय नहीं है, हमारा परमात्मा एक ही आकृति में बँधा हुआ नहीं है।
जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके।
ज्वालमालाकुले विष्णुः सर्व विष्णुमयं जगत्।।
हमारा भगवान वह है। तुम्हारा और पूरे विश्व का वास्तविक में तो वही भगवान है। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। मानोगे तो उसकी मोहब्बत का सुख पाओगे। नहीं तो.....
ॐ.....ॐ.....ॐ.......ॐ
शुक्रवार, अगस्त 06, 2010
हमेशा सुनने योग्य क्या है ?
'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में लिखा हैः "इस जीव की इच्छा जितनी-जितनी बढ़ती है उतना-उतना वह छोटा हो जाता है। जितनी इच्छा और तृष्णाओं का त्याग करता है उतना वह महान् हो जाता है।"
संसार के सुख पाने की इच्छा दोष ले आती है और आत्मसुख पाने की इच्छा सदगुण ले आती है। ऐसा कोई दुर्गुण नहीं जो संसार के भोग की इच्छा से पैदा न हो। व्यक्ति बुद्धिमान हो, लेकिन भोग की इच्छा उसमें दुर्गुण ले आयेगी। चाहे कितना भी बुद्धू हो, लेकिन ईश्वर-प्राप्ति की इच्छा उसमें सदगुण ले आएगी।
बहुत भोगियों के बीच साधक जाता है तो बहुतों के संकल्प, श्वासोच्छवास साधक को नीचे ले आते हैं। उसका पुराना अभ्यास फिर उसे सावधान कर देता है। अतः योगाभ्यासी साधकों को चाहिए कि वे भोगियों के संपर्क से अपने को बचाते रहें, आदर से शील का पालन करते रहें। शील को ही अपना जीवन बना लें। इससे साधना की रक्षा होगी। .....ओर चलते-चलते कौन नहीं गिरा ? गिरावट के, पतन के कई प्रसंग जीवन में आ जाते हैं। गिरकर फिर सँभल जाने वाला साधक कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।
एक विधवा थी। कामातुर होकर किसी के साथ संसार-व्यवहार कर लिया। बात खुल गई तो गाँववालों ने उसे दुराचारिणी घोषित कर दिया। गाँव के मुखिया ने हुक्म कर दिया कि कल इस पापिनी को सजा देने के लिए गाँव के सब लोग एकत्रित होंगे और एक-एक पत्थर उठाकर मारेंगे।
सब लोग हाथ में पत्थर लेकर मारने के लिए तैयार हो गये तो एक कवि ने बुलन्द आवाज में गाया किः "इस अपराधिनी को अपराध की सजा तो वही देगा, जो स्वयं निरपराध हो। जिसने अपने जीवन में कभी कोई अपराध न किया हो वही इसको पत्थर मारेगा।"
सबके हाथ से पत्थर एक-एक करके नीचे गिर पड़े। अपराधिनी नारी ने पश्चाताप के पावन झरने में नहाकर अपना पाप धो लिया।
'सामने वाले व्यक्ति में भी मैं ही हूँ' ऐसा सोच-समझकर उसको सुधरने का मौका देना चाहिए। स्वामी रामतीर्थ बोलते थेः "कुछ लोग अल्प बुद्धि के होते हैं जो दूसरों के दोष ही देखते रहते हैं। 'फलाना आदमी ऐसा है....वैसा है....' इस दोषदृष्टि के कीचड़ से बाहर ही नहीं निकलते। गुणों को छोड़कर दोषों पर ही उनकी दृष्टि टिकती है। 'घोड़ा दूध नहीं देती है इसलिए वह बेकार है और गाय सवारी के काम नहीं आती इसलिए बेकार है। हाथी चौकी नहीं करता इसलिए बेकार है और कुत्ते पर शोभायात्रा नहीं निकाली जाती इसलिए बेकार है....' आदि-आदि।"
अरे भैया ! घोड़े से सवारी का काम ले लो और गाय से दूध पा लो। हाथी शोभायात्रा में ले लो और कुत्ते से चौकी करवाओ। सब उपयोगी हैं। अपनी-अपनी जगह सब बढ़िया हैं।
किसी में सौ गुण हों और एक अवगुण हो तो इस अवगुण के कारण उसकी अवहेलना करना यह तो अपने ही जीवन-विकास की अवहेलना करने के बराबर है। तुझे जो अच्छा लगे वह ले ले, बुरे के लिए वह जिम्मेदार है। दूसरों की बुराई का चिन्तन करने से अन्तःकरण तेरा मलिन होगा भैया ! उस अवगुण के कारण उसका अन्तःकरण तो मलिन हुआ ही है लेकिन तू उसका चिन्तन करके अपना दिल क्यों खराब करता है ?
भगवान बुद्ध के पास दो मित्र आये और बोलेः "भगवान ! यह मेरा साथी कुत्ते को सदा साथ रखता है। सदा 'टीपू-टीपू' किया करता है। सोता है तो भी साथ में सुलाता है। ...तो बताइये, मरते समय तक टीपू का ही चिन्तन करेगा तो कुत्ता बनेगा कि नहीं ?"
दूसरे मित्र ने कहाः "भन्ते ! मेरी बात भी सुनिये। मेरा यह मित्र बिल्ली को सदा साथ में रखता है, खिलाता-पिलाता है, घुमाता है, अपने साथ सुलाता है और सदा 'मीनी-मीनी' किया करता है। ....तो बताइये, वह बिल्ली बनेगा कि नहीं ?"
बुद्ध मुस्कुराकर बोलेः 'नहीं, वह बिल्ली नहीं बनेगा। बिल्ली तू बनेगा क्योंकि उसकी बिल्ली का चिन्तन तू ज्यादा करता है। वह तेरे कुत्ते का चिन्तन करता है इसलिए वह कुत्ता बनेगा।"
किसी के दोष देखकर हम उसके दोषों का चिन्तन करते हैं। हो सकता है, वह इतना उन दोषों का अपराधी न हो जितना हमारा अन्तःकरण हो जायेगा। इसलिए अपने अन्तःकरण की सुरक्षा करनी चाहिए, उसके शुद्धीकरण में लगे रहना चाहिए। शील और सन्तोषरूपी भूषण से उसे सजाना चाहिए। शील ही बढ़िया-से-बढ़िया आभूषण है। बाहर के आभूषण खतरा पैदा करते हैं, बाहर के आभूषण ईर्ष्या पैदा करते हैं।
बुद्ध एक विशाल मठ में पाँच मास तक ठहरे हुए थे। गाँव के लोग शाम के समय उनकी वाणी सुनने आ जाते। सत्संग पूरा होता तो लोग बुद्ध के समीप आ जाते। उनके समक्ष अपनी समस्याएँ रख देते। किसीको बेटा चाहिए तो किसीको धन्धा चाहिए, किसीको रोग का इलाज चाहिए तो किसीको शत्रु का उपाय चाहिए। किसी को कुछ परेशानी, किसी को कुछ और। भिक्षुक आनन्द ने पूछाः
"भगवन् ! यहाँ श्रीमान लोग भी आते हैं, मध्यम वर्ग के लोग भी आते हैं और छोटे-छोटे लोग भी आते हैं। सब दुःखी-ही-दुःखी। इनमें कोई सुखी होगा ?"
"हाँ, एक आदमी सुखी है।"
"बताइये, कौन है वह ?"
"जो आकर पीछे चुपचाप बैठ जाता है और शांति से सुनकर चला जाता है। कल भी आएगा। उसकी ओर संकेत करके बता दूँगा।"
दूसरे दिन बुद्ध ने इशारे से बताया। आनन्द विस्मित होकर बोलाः "भन्ते ! वह तो मजदूर है। कपड़ों का ठिकाना नहीं और झोंपड़ी में रहता है। वह सुखी कैसे ?"
"आनन्द ! अब तू ही देख लेना।"
बुद्ध ने सब लोगों से पूछाः "आपको क्या चाहिए ?"
सबने अपनी-अपनी चाह बतायी। किसी को धन चाहिए, किसी को सत्ता चाहिए, किसी को यश चाहिए, किसी को विद्वता चाहिए। जिसके पास धन था, सत्ता थी उसको शांति चाहिए। सब लोग किसी-न-किसी परेशानी से ग्रस्त थे। उनके अन्तःकरण खदबदाते थे। आखिर में उस मजदूर को बुलाकर पूछा गयाः
"तुझे क्या चाहिए ? क्या होना है तुझे ?"
मजदूर प्रणाम करते हुए बोलाः "प्रभो ! मुझे कुछ चाहिए भी नहीं और कुछ होना भी नहीं। जो है, जैसा है, प्रारब्ध बीत रहा है। धन में या धन के त्याग में, वस्त्र और आभूषणों में सुख नहीं है। सुख तो है समता के सिंहासन पर और हे भन्ते ! वह आपकी कृपा से मुझे प्राप्त हो रहा है।"
मुझे यह पाना है..... यह करना है..... यह बनना है.... ऐसी खट-खट जिसकी दूर हो गई हो, वह अपने राम में आराम पा लेता है।
चौथी बातः "हमेशा सुनने योग्य क्या है ? सदगुरू और वेद के वचन।
सागर विशाल जलराशि से भरा है लेकिन हम उस जल से न चाय बना सकते हैं, न खिचड़ी पका सकते हैं। वही सागर का पानी सूर्य-प्रकाश से ऊपर उठकर बादल बन जाता है। स्वाति नक्षत्र की बूँद बनकर बरसता है तो सीप में मोती बन जाता है।
ऐसे ही वेद के वचनों की अपेक्षा ब्रह्मज्ञानी सदगुरूओं के वचन ज्यादा मूल्यवान होते हैं। वेद सागर है तो ब्रह्मज्ञानी गुरू का वचन बादल है। सदगुरू वेदों में से, शास्त्रें में से वाक्य लेकर अपने अनुभव की मिठास मिलाकर साधक के हृदय को परमात्म रस से परितृप्त करते हैं। वे ही वचन साधक हृदय में पचकर मोती बन जाते हैं।
ईशकृपा बिन गुरू नहीं, गुरू बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेदपुरान।।
ब्रह्म मन एव इन्द्रियों से परे है। ब्रह्मज्ञानी सदगुरू जब ‘मैं उपदेश दे रहा हूँ..’ इस भाव से भी परे होते हैं तब उनका ज्ञान साधक के हृदय में अपरोक्ष होता है। वेद की ऋचाएँ पवित्र हैं, वेद का ज्ञान पवित्र है, लेकिन ब्रह्मवेत्ता आत्मज्ञानी महापुरूष के वचन तो परम पवित्र हैं। वे साधक को आत्मानुभूति में पहुँचा देते हैं।
वेद पढ़ने से किसी को आत्म-साक्षात्कार हो जाय यह गारंटी नहीं लेकिन सदगुरू के वचनों से आत्म-साक्षात्कार हो जाय यह कइयों के जीवन में घटित हुआ है। इसीलिए नानकजी ने कहा है किः
गुरू की बानी बानी गुर।
बानी बीच अमृत सारा।।
गुरुओं की वाणी ही गुरू है। उनकी वाणी में ही सारा अमृत भरा रहता है।
....हमेशा सुनने योग्य क्या है ? सदगुरू और वेद के वचन। ये वचन अगर जीवन में आ जायें तो जीवन बड़ा निर्भीक, निर्द्वन्द्व और निश्चिंत बन जाता है। द्वन्द्वों के बीच, भयों के बीच, चिन्ताओं के बीच जीते हुए भी जीवन निश्चिंत होता है।
मनुष्य अपनी आगामी स्थिति का आप निर्माता है, अपने भाग्य का आप विधाता है। वह जो कुछ सोचता है, बोलता है, सुनता है, देखता है उसका प्रभाव उसके जीवन में प्रतिबिम्बित होता है।
ध्वनि के प्रभाव का निरीक्षण करने के लिए कुछ प्रयोग किये गये। एक कागज पर बारीक रेती के कण बिछा दिये गये। कागज के नीचे विभिन्न प्रकार के शब्द और ध्वनि किये गये। हरेक शब्द व ध्वनि के प्रभाव से कागज पर बिछे हुए बारीक कणों में अलग-अलग आकृतियाँ बनती देखी गईं। जैसे ॐ.......का उच्चारण, राम की धुन, अल्ला हो अकबर... की बाँग, कोई संगीत की तर्ज, गन्दी गाली इत्यादि। सूक्ष्म यंत्रों से यह निरीक्षण किया गया।
रेत के कण पर ध्वनि का प्रभाव पड़ता है तो हमारे रक्तकणों पर, श्वेतकणों पर, मन पर, बुद्धि पर, ध्वनि के प्रभाव पड़े इसमें क्या सन्देह है ? विभिन्न ध्वनियों के प्रभाव से हमारी जीवन-शक्ति का विकास या विनाश अवश्य होता है। यह वैज्ञानिक सत्य है।
भारत के प्रसिद्ध संगीत कार ओमकारनाथ ठाकुर देश के प्रतिनिधि के रूप में इटली गये हुए थे। भोजन समारंभ के समय वहाँ के शासक मुसोलिनी ने उनसे पूछाः
"मैंने सुना है कि भारत में श्रीकृष्ण नामक गायें चरानेवाला चरवाहा बंसी में फूँक मारता और अंगुलियाँ घुमाता तो गायें एकतान खड़ी रह जातीं, बछड़े थिरकने लगते, मोर पंख फैलाकर नाचने लगते, अनपढ़ ग्वालबाल और गोपियाँ आनन्द से झूमने लगतीं। मेरी समझ में नहीं आता। क्या यह सच है ? मुझे इन बातों में विश्वास नहीं होता। इसके खिलाफ मैंने कई वक्तव्य दिये हैं। आप भारत से आये हें। इस विषय में आपका क्या कहना है ?"
किसी की समझ में आ जाये वही सत्य होता है क्या ? सत्य असीम है और समझने वाली बुद्धि सीमित है। फिर, बुद्धि भी सत्त्वप्रधान, रजोप्रधान, तमोप्रधान हुआ करती है। तमोप्रधान बुद्धि की अपनी सीमा होती है, तुच्छ। रजोप्रधान बुद्धि की अपनी सीमा होती है, कुछ-कुछ। सत्त्वप्रधान बुद्धि की अपनी सीमा होती है, कुछ ठीक-ठीक लेकिन असीम नहीं होती।
बुद्धि माने मति। मति से जो निर्णय या सिद्धान्त निश्चित किये जाते हैं उन्हें मत कहते हैं। मतियाँ बदलती रहती हैं, मत-मतान्तर होते रहते हैं लेकिन सत्य अबदल है। उस अबदल सत्य में जो सुप्रतिष्ठित हैं ऐसे श्रीकृष्ण जब बंसी बजाते होंगे तो बंसी की ध्वनि, बंसी का संगीत उस सत्य को छूकर गोप-गोपियों को झुमाने लगे, इसमें क्या आश्चर्य है ?
ओमकारनाथ ठाकुर ने कहाः "श्रीकृष्ण जैसी हैसियत तो मैं नहीं रखता। उनकी चरणरज के बराबर भी मैं नहीं हूँ। उनके विषय में बोलना मेरे साहस के परे की बात है। लेकिन हाँ...... शब्द की, ध्वनि की अपनी गरिमा होती है। सात्त्विक साज और संगीत में हमारी सुषुप्त शक्तियों को आन्दोलित करने की क्षमता होती है। अभी तो यहाँ भोजन कर रहे हैं। संगीत के कोई साज-वाज नहीं है और मैं कोई अच्छा संगीतज्ञ भी नहीं हूँ, अन्यथा कुछ प्रयोग करते....." इस प्रकार उन्होंने मुसोलिनी को बातों में लगाया। सामने टेबल पर कोई वाद्य नहीं था, चीनी की प्लेटें और छुरी-काँटे, चम्मच आदि पड़े थे। ओमकारनाथ ने बातों-बातों में उन चम्मच-काँटों से प्लेटों को धीरे-धीरे तालबद्ध रूप से बजानी शुरू की। बातें बन्द होती गईं.... संगीत की महफिल जमती गई। कुछ ही मिनटों में वहाँ उपस्थित सब अतिथिगण संगीत के साथ एकतान हो गये। स्वयं मुसोलिनी भी झूमने लग गया। संगीतज्ञ ने अपने साजों को और रंग दिया। वातावरण में मानो कोई विलक्षण नशा सा छा गया। मुसोलिनी का सिर झूमते झूमते टेबल पर टकराने लगा। ओमकारनाथ ने ऐसा बजाया कि उसका सिर लहूलुहान होने लगा। तब मुसोलिनी चिल्ला पड़ाः
"बस.... बस.... बन्द करो अपना बजाना।"
ठाकुर ने कहाः "अपने सिर को रोक दो, झूमना बन्द करो।"
"अब नहीं रोका जाता। सिर से खून बह रहा है.... सहा नहीं जाता।"
ओमकारनाथ ने संगीत बन्द कर दिया। वातावरण शान्त हो गया। मुसोलिनी स्वस्थ हुआ तो ओमकारनाथ ने प्यार भरी निगाहों से निहारते हुए उससे कहाः "मेरे जूठे चम्मचों और प्लेटों के संगीत से तुम्हारी जीवन-शक्ति आनन्दित होकर तीव्रता से आन्दोलित हो सकती है तो परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण बंसी बजाते हुए नुरानी नजरों से गोप गोपियों को निहारकर आनन्द से झुमा दें तो इसमें क्या आश्चर्य है ?"
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बुधवार, अगस्त 04, 2010
धर्मानुकूल आचरण
छ: घटे से अधिक सोना, दिन में सोना, काम में सावधानी न रखना, आवश्यक कार्य में विलम्ब करना आदि सब ‘आलस्य’ ही है । इन सबसे हानि ही होती है । अत: सावधान ! मन, वाणी और शरीर के द्वारा न करने योग्य व्यर्थ चेष्टा करना तथा करने योग्य कार्य की अवहेलना करना प्रमाद है । ऐश- आराम, स्वादलोलुपता, फैशन, सिनेमा आदि देखना, क्लबों में जाना आदि सब भोग है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, दंभ, दर्प, अभिमान, अहंकार, मद, ईर्ष्या, आदि दुर्गुण हैं । संयम, क्षमा, दया, शांति, समता, सरलता, संतोष, ज्ञान, वैराग्य, निष्कामता आदि सदगुण हैं । यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, और सेवा-पूजा करना तथा अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य का पालन करना आदि सदाचार हैं ।
शुरुआत में सच्चे आदमी को भले ही थोड़ी कठिनाई दिखे और बेईमान आदमी को भले थोड़ी सुविधा दिखे, लेकिन अंततोगत्वा तो सच्चाई एवं समझदारीवाला ही इस लोक और परलोक में सुखी रह पाता है ।
जिनके जीवन में धर्म का प्रभाव है उनके जीवन में सारे सदगुण आ जाते हैं, उनका जीवन ऊँचा उठ जाता है, दूसरों के लिए उदाहरणस्वरुप बन जाता है ।
आप भी धर्म के अनुकूल आचरण करके अपना जीवन ऊँचा उठा सकते हो । फिर आपका जीवन भी दूसरों के लिए आदर्श बन जायेगा, जिससे प्रेरणा लेकर दूसरे भी अपना जीवन स्तर ऊँचा उठाने को उत्सुक हो जायेंगे ।
अध्यात्म का रास्ता अटपटा जरुर है । थोड़ी बहुत खटपट भी होती है और समझ में भी झटपट नहीं आता लेकिन अगर थोड़ा सा भी समझ में आ जाय, धीरज न छूटे, साहस न टूटे और परमात्मा को पाने का लक्ष्य न छूटे तो प्राप्ति हो ही जाती है ।
इन शास्त्रीय वचनों को बार-बार पढ़ो, विचारो और उन्नति के पथ पर अग्रसर बनो । शाबाश वीर !! शाबाश !! हरि ॐ … ॐ … ॐ …
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