शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

......तो कुछ नहीं तुमने किया

मोटर फिटन पर की सवारी अश्वगज पर चढ़ चुके।
देशों दिशावर में फिरे आकाश में भी उड़ चुके।
छाना किये हो खाक अब तक जन्म निष्फल ही गया।
पहुँचे नहीं यदि आत्मपुर तो कुछ नहीं तुमने किया।।1।।

ऊँचे चुनाये महल सुन्दर, बाग बगीचे लगा।
हथियार लेकर हाथ में, रण से दिया शत्रु भगा।
दे दान या कर यज्ञ यश चारों तरफ फैला दिया।
नहीं प्राप्त कीन्हा आत्मयश तो कुछ नहीं तुमने किया।।2।।

मीठे सुरीले राग कानों में सदा पड़ते रहे।
इतिहास कविता संहिता सारी उमर सुनते रहे।
किस्से कहानी रात दिन सुन व्यर्थ आयु गँवा दिया।
चर्चा सुनी नहीं आत्म की तो कुछ नहीं तुमने किया।।3।।

आसन तकिये को लगा सोये मुलायम सेज पर।
तरूणी सदा करती रही सेवा तुम्हारी जन्म भर।
नंगे पदों नहीं भूमि ऊपर एक पग भी धर दिया।
नहीं स्पर्श आत्मा का किया तो कुछ नहीं तुमने किया।।4।।

जो देश वस्तु वस्तुएँ देखी हजारों रंगनी।
सुर देख जिनको मोहते ऐसे निराले ढंग की।
यदि पद्मिनी या अप्सराएँ देख ली तो क्या हुआ।
देखी छबी नहीं आत्म की तो कुछ नहीं तुमने किया।।5।।

आसक्त होकर स्वाद में व्यंजन अनेकों खा लिये।
खाते रहे मिष्टान्न तीखे चटपटे भोजन किये।
जितने पदारथ हैं जगत में स्वाद सबका ले लिया।
चाखा नहीं यदि आत्मरस तो कुछ नहीं तुमने किया।।6।।

आसक्त होकर गन्ध में बागों बगीचों में फिरे।
सुन्दर लगाई वाटिका जो इन्द्र का भी मन हरे।
इत्रादि वस्त्रों में लगा घर बाह्य सब महका दिया।
नहीं गन्ध सूँघी आत्म की तो कुछ नहीं तुमने किया।।7।।

क्रीड़ा करी बरसों तलक नव युवतियों के साथ में।
ज्यों इन्द्र भोगे भोग क्या आय़ा तुम्हारे हाथ में।
जन्मे हजारों योनियों में काल फिर खा लिया।
क्रीडा करी नहीं आत्म से तो कुछ नहीं तुमने किया।।8।।

क्रीडा करो तो आत्म से चर्चा सुनो तो आत्म की।
पूजा करो तो आत्म की नहीं अन्य पूजा काम की।
'कौशल्य' छल को जानकर मुख मोड़ यदि सबसे लिया।
पहिचान लीना आत्म को तो कार्य सब तुमने किया।।9।।

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