रविवार, अगस्त 08, 2010

जले विष्णुः स्थले विष्णुः

लोग पूछते हैं कि सबसे बड़ा धर्म कौन सा है ? सबसे श्रेष्ठ धर्म कौन सा है ? सब मजहब अपनी अपनी डींग हाँकते हैं। सब हाँकते हैं कि हमारे मजहब में आ जाओ, हमारे पंथ में, हमारे मत में आ जाओ। बस यही सच्चा है। .....तो सबसे बड़ा और सच्चा धर्म आपके मत में कौन-सा है ?
भाई ! हमारे मत में तो सत्य किसी मत के आधीन नहीं होता है। मेरे मत में जो सत्य है वही वास्तविक सत्य है ऐसा हो भी नहीं सकता। सत्य किसी मत के आधीन है तो वह सत्य है भी नहीं।
मत मति के होते हैं। सारी मतियाँ जहाँ से प्रकाश पाती हैं वह परमात्मा वास्तविक में सत्य है। जैसे, सागर से पानी वाष्पीभूत होकर आकाश में जाता है, बादल बनकर बरसता है, झरने होकर, छोटी बड़ी नदियाँ होकर बहता है, सरोवर होकर लहराता है। भूमि में उतरकर कूप में जाता है। पृथ्वी पर जो भी जलस्थान हैं वे सब सागर के ही प्रसाद हैं।
सागर का एक मेढक दैवयोग से किसी कुएँ में पहुँचा। कुएँ का मेढक, कूपमण्डूक से पूछता हैः
"तुम कहाँ से आये हो ?"
"मैं विशाल सागर से आया हूँ।"
"सागर कितना बड़ा है ?"
"बहुत बड़ा.... बहुत बड़ा....।"
"कितना बड़ा ?"
"बहुत बड़ा।"
कुएँ के मेढक ने छलाँग मारी... पूछाः
"इतना बड़ा ?"
"नहीं.... इससे तो बहुत बड़ा।"
कूपमण्डूक ने दूसरी बड़ी छलाँग, फिर तीसरी.... चौथी... पाँचवीं छलाँग लगाते हुए पूछा। सागर का मेंढक बोलता हैः
"नहीं, नहीं भाई ! सागर तो इससे कई गुना बड़ा है। कूप और सागर की तुलना ही नहीं हो सकती।"
आखिर कूपमण्डूक ने साँस फुलाकर अपनी पूरी ताकत से लम्बे में लम्बी छलाँग लगाई, एक छोर से दूसरे छोर तक। अहंकार में आकर कहने लगाः
"इससे बड़ा तो तुम्हारा सागर हो भी नहीं सकता है।"
तब सागर का मेढक बोलता हैः "भाई ! तुम्हारे सारे कुएँ उस सागर के प्रसादमात्र हैं।"
इसी प्रकार तुम्हारे सारे मत, पंथ, मजहबरूपी कूप, जिनमें तुम छलाँगे मार-मारकर बड़प्पन की डींग हाँक रहे हो, वे सारे के सारे मजहब, मत, पंथ उस सच्चिदानंदघन परमात्मा के ही प्रसाद हैं। सब चिदघन चैतन्य का ही विवर्त है। जब सृष्टि नहीं बनी थी तब भी जो था, सृष्टि है और मत, मजहब कई आये और कई गये, कई बने, कई बदले, कई बिगड़े फिर भी जो सदा एकरस है वह सच्चिदानंद परमात्मा सबसे महान है, सबसे श्रेष्ठ है, सनातन सत्य है।
हमारी तुम्हारी कई मतियाँ आयीं, विचार-विमर्श, व्याख्या, शास्त्रार्थ हुए। कभी गलत मार्ग में जाकर जन्म-मरण की भीषण यातनाएँ सहीं। कई सुज्ञजनों ने अपनी मति उस मालिक को अर्पित करके मालिक के साथ एकरसता का अनुभव किया। वह एकरस परमात्मा वैसे का वैसा है। वही सबका मूल आधार है, अधिष्ठान है।
नादान लोग तर्क करते हैं किः 'सर्वत्र भगवान हैं, सबमें भगवान हैं, सब कुछ जो है वह सब भगवान ही हैं तो हम कुछ भी करें..... पापाचार करें, जो चाहे सो खा लें, भोग लें तो क्या फर्क पड़ता है ? जीवो जीवस्य जीवनम् है। छोटे जीव बड़े जीवों के काम आते हैं तो हम मांसाहार कर लें तो क्या घाटा है ? जब सर्वत्र भगवान हैं तो नरक में भी भगवान हैं। पाप में भी भगवान हैं और पुण्य में भी भगवान हैं। सब भगवान ही भगवान हैं तो मनमाना क्यों न खाएँ ? धर्म की, नीति की, शास्त्रों की, गुरू की, माता-पिता की जंजीरों में क्यों जकड़े रहें ?
अरे भाई ! सर्वत्र भगवान हैं फिर भी आप चाहते तो सुख हो, चाहते तो आनन्द हो। सर्वत्र भगवान है ऐसा सोचकर आप शांत तो नहीं हो गये। सुख के लिए आप चेष्टा तो करते ही हो। शास्त्र के अनुकूल, माता-पिता और सदगुरू के अनुकूल चेष्टा करने से भगवान का सुखस्वरूप अनुभव में आयेगा। मनमाना करोगे तो फिर उसका फल भी वैसा ही प्रकट होगा। नरक में भी भगवान हैं ऐसा सोचकर नरक में ले जाने वाले कृत्य करोगे तो भगवान तुम्हारे लिए नरकरूप में प्रकट होंगे, बीमारी के रूप में प्रकट होंगे, अशांति के रूप में प्रकट होंगे। भगवान को नरक के रूप में, बीमारी के रूप में, अशांति के रूप में, दुःख के रूप में देखना चाहते हो तो मनमाना करो। अगर भगवान को सुखस्वरूप, आनन्दस्वरूप, प्रेमस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, मुक्तिस्वरूप देखना चाहते हो तो शास्त्र और गुरूओं के आदेश के अनुकूल कर्म करो, अन्यथा मर्जी आपकी है। भगवान कैदी के रूप में जेल में जाएँगे और जेलर के रूप में डण्डा भी मारेंगे। दुराचार करोगे तो भगवान डण्डा मारने वाले के रूप में आयेंगे। 'गुरूजी ! यह स्वीकार करो.... साधक भैया ! यह खाओ....' ऐसा कहते हुए भगवान आयेंगे। भगवान फल-फूल लाइन में खड़े रहेंगेः 'गुरूदेव की जय हो....।' शास्त्र और गुरूदेव की आज्ञा के अनुकूल चलोगे तो भगवान आपकी जय-जयकार करेंगे। अगर पापाचार करोगे तो वही भगवान डण्डा लेकर आयेंगेः चल 420 में... खून किया है तो चल 302 में।
अब क्या करना, क्या नहीं करना, कैसे जीना.... मर्जी आपकी है। भगवान सब कुछ बने बैठे हैं।
भगवान की लीला अनूठी है। वे सब हैं, सब जगह हैं। जैसे रात्रि के स्वप्न में तुम एक ही चेतन होते हो किन्तु वहाँ जड़ चीजें भी बन जाती हैं, चेतन जीव भी बन जाते हैं, सज्जन भी बन जाते हैं, दुर्जन भी बन जाते हैं। नियम बनाने वाले भी बन जाते हैं नियम का भंग करने वाले भी बन जाते हैं। नियम-भंग करने वाले सजा के पात्र बन जाते हैं, सजा देने वाले भी बन जाते हैं। स्वप्न में यह सब आपके एक ही चैतन्य के प्रसाद से बनता है।
एक अन्तःकरण में चैतन्य का ऐसा चमत्कार हो सकता है तो व्यापक चैतन्य ईश्वर इस सृष्टि का चमत्कार कर दे इसमें क्या सन्देह है ?
हमारे चित्त में एकदेशीयता नहीं होना चाहिए, मत-मजहब की गुलामी नहीं होनी चाहिए। मत मति से बनते हैं। मजहब पीर-पैगम्बरों ने बनाये हैं। पीर-पैगम्बरों को और मत-मतांतर बनाने वालों को जिस परमात्मा ने बनाया है उस परमात्मा की हम उपासना करेंगे।
जो हमारे बाप का बाप है, दादाओं का दादा है, हमारे पूर्वजों का भी जो पूर्वज है, जिसमें से हमारे सब पूर्वज आये और लीन हो गये, प्राणिमात्र को सत्ता, स्फूर्ति, चेतना देने में जो संकोच नहीं करता उस निःसंकोच नारायण का हम ध्यान करते हैं।
नारायण..... नारायण..... नारायण.... नारायण.....।
हमारा नारायण, हमारा भगवान, हमारा खुदा एकदेशीय नहीं है, हमारा भगवान कोई एककालीय नहीं है, हमारा परमात्मा एक ही आकृति में बँधा हुआ नहीं है।
जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके।
ज्वालमालाकुले विष्णुः सर्व विष्णुमयं जगत्।।
हमारा भगवान वह है। तुम्हारा और पूरे विश्व का वास्तविक में तो वही भगवान है। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। मानोगे तो उसकी मोहब्बत का सुख पाओगे। नहीं तो.....
ॐ.....ॐ.....ॐ.......ॐ

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