शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

हमेशा सुनने योग्य क्या है ?


'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में लिखा हैः "इस जीव की इच्छा जितनी-जितनी बढ़ती है उतना-उतना वह छोटा हो जाता है। जितनी इच्छा और तृष्णाओं का त्याग करता है उतना वह महान् हो जाता है।"

संसार के सुख पाने की इच्छा दोष ले आती है और आत्मसुख पाने की इच्छा सदगुण ले आती है। ऐसा कोई दुर्गुण नहीं जो संसार के भोग की इच्छा से पैदा न हो। व्यक्ति बुद्धिमान हो, लेकिन भोग की इच्छा उसमें दुर्गुण ले आयेगी। चाहे कितना भी बुद्धू हो, लेकिन ईश्वर-प्राप्ति की इच्छा उसमें सदगुण ले आएगी।

बहुत भोगियों के बीच साधक जाता है तो बहुतों के संकल्प, श्वासोच्छवास साधक को नीचे ले आते हैं। उसका पुराना अभ्यास फिर उसे सावधान कर देता है। अतः योगाभ्यासी साधकों को चाहिए कि वे भोगियों के संपर्क से अपने को बचाते रहें, आदर से शील का पालन करते रहें। शील को ही अपना जीवन बना लें। इससे साधना की रक्षा होगी। .....ओर चलते-चलते कौन नहीं गिरा ? गिरावट के, पतन के कई प्रसंग जीवन में आ जाते हैं। गिरकर फिर सँभल जाने वाला साधक कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।

एक विधवा थी। कामातुर होकर किसी के साथ संसार-व्यवहार कर लिया। बात खुल गई तो गाँववालों ने उसे दुराचारिणी घोषित कर दिया। गाँव के मुखिया ने हुक्म कर दिया कि कल इस पापिनी को सजा देने के लिए गाँव के सब लोग एकत्रित होंगे और एक-एक पत्थर उठाकर मारेंगे।

सब लोग हाथ में पत्थर लेकर मारने के लिए तैयार हो गये तो एक कवि ने बुलन्द आवाज में गाया किः "इस अपराधिनी को अपराध की सजा तो वही देगा, जो स्वयं निरपराध हो। जिसने अपने जीवन में कभी कोई अपराध न किया हो वही इसको पत्थर मारेगा।"

सबके हाथ से पत्थर एक-एक करके नीचे गिर पड़े। अपराधिनी नारी ने पश्चाताप के पावन झरने में नहाकर अपना पाप धो लिया।

'सामने वाले व्यक्ति में भी मैं ही हूँ' ऐसा सोच-समझकर उसको सुधरने का मौका देना चाहिए। स्वामी रामतीर्थ बोलते थेः "कुछ लोग अल्प बुद्धि के होते हैं जो दूसरों के दोष ही देखते रहते हैं। 'फलाना आदमी ऐसा है....वैसा है....' इस दोषदृष्टि के कीचड़ से बाहर ही नहीं निकलते। गुणों को छोड़कर दोषों पर ही उनकी दृष्टि टिकती है। 'घोड़ा दूध नहीं देती है इसलिए वह बेकार है और गाय सवारी के काम नहीं आती इसलिए बेकार है। हाथी चौकी नहीं करता इसलिए बेकार है और कुत्ते पर शोभायात्रा नहीं निकाली जाती इसलिए बेकार है....' आदि-आदि।"

अरे भैया ! घोड़े से सवारी का काम ले लो और गाय से दूध पा लो। हाथी शोभायात्रा में ले लो और कुत्ते से चौकी करवाओ। सब उपयोगी हैं। अपनी-अपनी जगह सब बढ़िया हैं।

किसी में सौ गुण हों और एक अवगुण हो तो इस अवगुण के कारण उसकी अवहेलना करना यह तो अपने ही जीवन-विकास की अवहेलना करने के बराबर है। तुझे जो अच्छा लगे वह ले ले, बुरे के लिए वह जिम्मेदार है। दूसरों की बुराई का चिन्तन करने से अन्तःकरण तेरा मलिन होगा भैया ! उस अवगुण के कारण उसका अन्तःकरण तो मलिन हुआ ही है लेकिन तू उसका चिन्तन करके अपना दिल क्यों खराब करता है ?

भगवान बुद्ध के पास दो मित्र आये और बोलेः "भगवान ! यह मेरा साथी कुत्ते को सदा साथ रखता है। सदा 'टीपू-टीपू' किया करता है। सोता है तो भी साथ में सुलाता है। ...तो बताइये, मरते समय तक टीपू का ही चिन्तन करेगा तो कुत्ता बनेगा कि नहीं ?"

दूसरे मित्र ने कहाः "भन्ते ! मेरी बात भी सुनिये। मेरा यह मित्र बिल्ली को सदा साथ में रखता है, खिलाता-पिलाता है, घुमाता है, अपने साथ सुलाता है और सदा 'मीनी-मीनी' किया करता है। ....तो बताइये, वह बिल्ली बनेगा कि नहीं ?"

बुद्ध मुस्कुराकर बोलेः 'नहीं, वह बिल्ली नहीं बनेगा। बिल्ली तू बनेगा क्योंकि उसकी बिल्ली का चिन्तन तू ज्यादा करता है। वह तेरे कुत्ते का चिन्तन करता है इसलिए वह कुत्ता बनेगा।"

किसी के दोष देखकर हम उसके दोषों का चिन्तन करते हैं। हो सकता है, वह इतना उन दोषों का अपराधी न हो जितना हमारा अन्तःकरण हो जायेगा। इसलिए अपने अन्तःकरण की सुरक्षा करनी चाहिए, उसके शुद्धीकरण में लगे रहना चाहिए। शील और सन्तोषरूपी भूषण से उसे सजाना चाहिए। शील ही बढ़िया-से-बढ़िया आभूषण है। बाहर के आभूषण खतरा पैदा करते हैं, बाहर के आभूषण ईर्ष्या पैदा करते हैं।

बुद्ध एक विशाल मठ में पाँच मास तक ठहरे हुए थे। गाँव के लोग शाम के समय उनकी वाणी सुनने आ जाते। सत्संग पूरा होता तो लोग बुद्ध के समीप आ जाते। उनके समक्ष अपनी समस्याएँ रख देते। किसीको बेटा चाहिए तो किसीको धन्धा चाहिए, किसीको रोग का इलाज चाहिए तो किसीको शत्रु का उपाय चाहिए। किसी को कुछ परेशानी, किसी को कुछ और। भिक्षुक आनन्द ने पूछाः

"भगवन् ! यहाँ श्रीमान लोग भी आते हैं, मध्यम वर्ग के लोग भी आते हैं और छोटे-छोटे लोग भी आते हैं। सब दुःखी-ही-दुःखी। इनमें कोई सुखी होगा ?"

"हाँ, एक आदमी सुखी है।"

"बताइये, कौन है वह ?"

"जो आकर पीछे चुपचाप बैठ जाता है और शांति से सुनकर चला जाता है। कल भी आएगा। उसकी ओर संकेत करके बता दूँगा।"

दूसरे दिन बुद्ध ने इशारे से बताया। आनन्द विस्मित होकर बोलाः "भन्ते ! वह तो मजदूर है। कपड़ों का ठिकाना नहीं और झोंपड़ी में रहता है। वह सुखी कैसे ?"

"आनन्द ! अब तू ही देख लेना।"

बुद्ध ने सब लोगों से पूछाः "आपको क्या चाहिए ?"

सबने अपनी-अपनी चाह बतायी। किसी को धन चाहिए, किसी को सत्ता चाहिए, किसी को यश चाहिए, किसी को विद्वता चाहिए। जिसके पास धन था, सत्ता थी उसको शांति चाहिए। सब लोग किसी-न-किसी परेशानी से ग्रस्त थे। उनके अन्तःकरण खदबदाते थे। आखिर में उस मजदूर को बुलाकर पूछा गयाः

"तुझे क्या चाहिए ? क्या होना है तुझे ?"

मजदूर प्रणाम करते हुए बोलाः "प्रभो ! मुझे कुछ चाहिए भी नहीं और कुछ होना भी नहीं। जो है, जैसा है, प्रारब्ध बीत रहा है। धन में या धन के त्याग में, वस्त्र और आभूषणों में सुख नहीं है। सुख तो है समता के सिंहासन पर और हे भन्ते ! वह आपकी कृपा से मुझे प्राप्त हो रहा है।"

मुझे यह पाना है..... यह करना है..... यह बनना है.... ऐसी खट-खट जिसकी दूर हो गई हो, वह अपने राम में आराम पा लेता है।

चौथी बातः "हमेशा सुनने योग्य क्या है ? सदगुरू और वेद के वचन।

सागर विशाल जलराशि से भरा है लेकिन हम उस जल से न चाय बना सकते हैं, न खिचड़ी पका सकते हैं। वही सागर का पानी सूर्य-प्रकाश से ऊपर उठकर बादल बन जाता है। स्वाति नक्षत्र की बूँद बनकर बरसता है तो सीप में मोती बन जाता है।

ऐसे ही वेद के वचनों की अपेक्षा ब्रह्मज्ञानी सदगुरूओं के वचन ज्यादा मूल्यवान होते हैं। वेद सागर है तो ब्रह्मज्ञानी गुरू का वचन बादल है। सदगुरू वेदों में से, शास्त्रें में से वाक्य लेकर अपने अनुभव की मिठास मिलाकर साधक के हृदय को परमात्म रस से परितृप्त करते हैं। वे ही वचन साधक हृदय में पचकर मोती बन जाते हैं।

ईशकृपा बिन गुरू नहीं, गुरू बिना नहीं ज्ञान।

ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेदपुरान।।

ब्रह्म मन एव इन्द्रियों से परे है। ब्रह्मज्ञानी सदगुरू जब ‘मैं उपदेश दे रहा हूँ..’ इस भाव से भी परे होते हैं तब उनका ज्ञान साधक के हृदय में अपरोक्ष होता है। वेद की ऋचाएँ पवित्र हैं, वेद का ज्ञान पवित्र है, लेकिन ब्रह्मवेत्ता आत्मज्ञानी महापुरूष के वचन तो परम पवित्र हैं। वे साधक को आत्मानुभूति में पहुँचा देते हैं।

वेद पढ़ने से किसी को आत्म-साक्षात्कार हो जाय यह गारंटी नहीं लेकिन सदगुरू के वचनों से आत्म-साक्षात्कार हो जाय यह कइयों के जीवन में घटित हुआ है। इसीलिए नानकजी ने कहा है किः

गुरू की बानी बानी गुर।

बानी बीच अमृत सारा।।

गुरुओं की वाणी ही गुरू है। उनकी वाणी में ही सारा अमृत भरा रहता है।

....हमेशा सुनने योग्य क्या है ? सदगुरू और वेद के वचन। ये वचन अगर जीवन में आ जायें तो जीवन बड़ा निर्भीक, निर्द्वन्द्व और निश्चिंत बन जाता है। द्वन्द्वों के बीच, भयों के बीच, चिन्ताओं के बीच जीते हुए भी जीवन निश्चिंत होता है।

मनुष्य अपनी आगामी स्थिति का आप निर्माता है, अपने भाग्य का आप विधाता है। वह जो कुछ सोचता है, बोलता है, सुनता है, देखता है उसका प्रभाव उसके जीवन में प्रतिबिम्बित होता है।

ध्वनि के प्रभाव का निरीक्षण करने के लिए कुछ प्रयोग किये गये। एक कागज पर बारीक रेती के कण बिछा दिये गये। कागज के नीचे विभिन्न प्रकार के शब्द और ध्वनि किये गये। हरेक शब्द व ध्वनि के प्रभाव से कागज पर बिछे हुए बारीक कणों में अलग-अलग आकृतियाँ बनती देखी गईं। जैसे ॐ.......का उच्चारण, राम की धुन, अल्ला हो अकबर... की बाँग, कोई संगीत की तर्ज, गन्दी गाली इत्यादि। सूक्ष्म यंत्रों से यह निरीक्षण किया गया।

रेत के कण पर ध्वनि का प्रभाव पड़ता है तो हमारे रक्तकणों पर, श्वेतकणों पर, मन पर, बुद्धि पर, ध्वनि के प्रभाव पड़े इसमें क्या सन्देह है ? विभिन्न ध्वनियों के प्रभाव से हमारी जीवन-शक्ति का विकास या विनाश अवश्य होता है। यह वैज्ञानिक सत्य है।

भारत के प्रसिद्ध संगीत कार ओमकारनाथ ठाकुर देश के प्रतिनिधि के रूप में इटली गये हुए थे। भोजन समारंभ के समय वहाँ के शासक मुसोलिनी ने उनसे पूछाः

"मैंने सुना है कि भारत में श्रीकृष्ण नामक गायें चरानेवाला चरवाहा बंसी में फूँक मारता और अंगुलियाँ घुमाता तो गायें एकतान खड़ी रह जातीं, बछड़े थिरकने लगते, मोर पंख फैलाकर नाचने लगते, अनपढ़ ग्वालबाल और गोपियाँ आनन्द से झूमने लगतीं। मेरी समझ में नहीं आता। क्या यह सच है ? मुझे इन बातों में विश्वास नहीं होता। इसके खिलाफ मैंने कई वक्तव्य दिये हैं। आप भारत से आये हें। इस विषय में आपका क्या कहना है ?"

किसी की समझ में आ जाये वही सत्य होता है क्या ? सत्य असीम है और समझने वाली बुद्धि सीमित है। फिर, बुद्धि भी सत्त्वप्रधान, रजोप्रधान, तमोप्रधान हुआ करती है। तमोप्रधान बुद्धि की अपनी सीमा होती है, तुच्छ। रजोप्रधान बुद्धि की अपनी सीमा होती है, कुछ-कुछ। सत्त्वप्रधान बुद्धि की अपनी सीमा होती है, कुछ ठीक-ठीक लेकिन असीम नहीं होती।

बुद्धि माने मति। मति से जो निर्णय या सिद्धान्त निश्चित किये जाते हैं उन्हें मत कहते हैं। मतियाँ बदलती रहती हैं, मत-मतान्तर होते रहते हैं लेकिन सत्य अबदल है। उस अबदल सत्य में जो सुप्रतिष्ठित हैं ऐसे श्रीकृष्ण जब बंसी बजाते होंगे तो बंसी की ध्वनि, बंसी का संगीत उस सत्य को छूकर गोप-गोपियों को झुमाने लगे, इसमें क्या आश्चर्य है ?

ओमकारनाथ ठाकुर ने कहाः "श्रीकृष्ण जैसी हैसियत तो मैं नहीं रखता। उनकी चरणरज के बराबर भी मैं नहीं हूँ। उनके विषय में बोलना मेरे साहस के परे की बात है। लेकिन हाँ...... शब्द की, ध्वनि की अपनी गरिमा होती है। सात्त्विक साज और संगीत में हमारी सुषुप्त शक्तियों को आन्दोलित करने की क्षमता होती है। अभी तो यहाँ भोजन कर रहे हैं। संगीत के कोई साज-वाज नहीं है और मैं कोई अच्छा संगीतज्ञ भी नहीं हूँ, अन्यथा कुछ प्रयोग करते....." इस प्रकार उन्होंने मुसोलिनी को बातों में लगाया। सामने टेबल पर कोई वाद्य नहीं था, चीनी की प्लेटें और छुरी-काँटे, चम्मच आदि पड़े थे। ओमकारनाथ ने बातों-बातों में उन चम्मच-काँटों से प्लेटों को धीरे-धीरे तालबद्ध रूप से बजानी शुरू की। बातें बन्द होती गईं.... संगीत की महफिल जमती गई। कुछ ही मिनटों में वहाँ उपस्थित सब अतिथिगण संगीत के साथ एकतान हो गये। स्वयं मुसोलिनी भी झूमने लग गया। संगीतज्ञ ने अपने साजों को और रंग दिया। वातावरण में मानो कोई विलक्षण नशा सा छा गया। मुसोलिनी का सिर झूमते झूमते टेबल पर टकराने लगा। ओमकारनाथ ने ऐसा बजाया कि उसका सिर लहूलुहान होने लगा। तब मुसोलिनी चिल्ला पड़ाः

"बस.... बस.... बन्द करो अपना बजाना।"

ठाकुर ने कहाः "अपने सिर को रोक दो, झूमना बन्द करो।"

"अब नहीं रोका जाता। सिर से खून बह रहा है.... सहा नहीं जाता।"

ओमकारनाथ ने संगीत बन्द कर दिया। वातावरण शान्त हो गया। मुसोलिनी स्वस्थ हुआ तो ओमकारनाथ ने प्यार भरी निगाहों से निहारते हुए उससे कहाः "मेरे जूठे चम्मचों और प्लेटों के संगीत से तुम्हारी जीवन-शक्ति आनन्दित होकर तीव्रता से आन्दोलित हो सकती है तो परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण बंसी बजाते हुए नुरानी नजरों से गोप गोपियों को निहारकर आनन्द से झुमा दें तो इसमें क्या आश्चर्य है ?"

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