मंगलवार, अगस्त 31, 2010

भीतर की यात्रा



आत्मा परमात्मा विषयक ज्ञान प्राप्त करके नित्य आत्मा की भावना करें। अपने शाश्वत स्वरूप की भावना करें। अपने अन्तर्यामी परमात्मा में आनन्द पायें। अपने उस अखण्ड एकरस में, उस आनन्दकन्द प्रभु में, उस अद्वैत-सत्ता में अपनी चित्तवृत्ति को स्थापित करें। रूप, अवलोक, मनस्कार तथा दृश्य, दृष्टा, दर्शन ये चित्त के फुरने से होते हैं। विश्व, तैजस, प्राज्ञ, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये सब जिससे प्रकाशित होते हैं उस सबसे परे और सबका अधिष्ठान जो परमात्मा है उस परमात्मा में जब प्रीति होती है, तब जीव निर्वासनिक पद को प्राप्त होता है। निर्वासनिक होते ही वह ईश्वरत्व में प्रतिष्ठित होता है। फिर बाहर जो भी चेष्टा करे लेकिन भीतर से शिला की नाईं सदा शान्त है। वशिष्ठजी कहते हैं- "हे राम जी ! ऐसे ज्ञानवान पुरूष जिस पद में प्रतिष्ठित होते हैं उसी में तुम भी प्रतिष्ठित हो जाओ।"
जिसका चित्त थोड़ी-थोड़ी बातों में उद्विग्न हो जाता है, घृणा, राग, द्वेष, हिंसा या तिरस्कार से भर जाता है वह अज्ञानी है। ज्ञानी का हृदय शान्त, शीतल, अद्वैत आत्मा में प्रतिष्ठित होता है। हम लोगों ने वह प्रसंग सुना है किः
 
मंकी ऋषि ने खूब तप किया, तीर्थयात्रा की। उनके कषाय परिपक्व हुए अर्थात् अन्तःकरण शुद्ध हुआ। पाप जल गये। वे जा रहे थे और वशिष्ठजी के दर्शन हुए। उनके मन में था कि सामने धीवरों के पाँच-सात घर हैं। वहाँ जाकर जलपान करूँगा, वृक्ष के नीचे आराम पाऊँगा।
 
वशिष्ठजी ने कहाः "हे मार्ग के मीत ! अज्ञानी जो आप जलते हैं, राग-द्वेष में, हेय-उपादेय में जलते हैं उनके पास जाकर तुमको क्या शान्ति मिलेगी ? " जैसे किसी को आग लगे और पेट्रोल पंप के फुव्वारे के नीचे जाकर आग बुझाना चाहे तो वह मूर्ख है। ऐसे ही जो आपस में राग-द्वेष से जलते हैं, जो संसार की आसक्तियों से बँधे हैं, उनके संपर्क में और उनकी बातों में आकर हे जिज्ञासु ! तेरी तपन नहीं मिटेगी। तेरी तपन और राग-द्वेष और बढ़ेंगे।
 
हे मंकी ऋषि ! तुम ज्ञानवानों का संग करो। मैं तुम्हारे हृदय की तपन मिटा दूँगा और अकृत्रिम शान्ति दूँगा। संसार के भोगों से, संसार के सम्बन्धों से जो शान्ति मिलती है वह कृत्रिम शान्ति है। जब जीव अन्तर्मुख होता है, जब परमात्माभिमुख होता है, चित्त शान्त होता है तब जो शान्ति मिलती है वह आत्मिक शान्ति है।"
 
वासनावाले को अशान्ति है। वासना के अनुरूप वस्तु उसे मिलती है तो थोड़ी देर के लिए शान्ति होती है। लोभी को रूपयों से लगाव है। रूपये मिल गये तो खुशी हो गयी। भोगी को भोग मिले तो खुशी हो गयी। साधक ऐसी कृत्रिम शान्ति पाकर अपने को भाग्यवान नहीं मानता। साधक तो बाहर की चीजें मिले या न मिले फिर भी भीतर का परमात्म-पद पाकर अपना जीवन धन्य करता है। वह अकृत्रिम शान्ति प्राप्त करता है।
 
संसार का तट वैराग्य है। विवेक पैदा होते ही वैराग्य का जन्म होता है। जिसके जीवन में वैराग्यरूपी धन आ गया है वह धन्य है।
 
वशिष्ठजी कहते हैं- "हे मंकी ऋषि ! तुम संसार के तट पर आ गये हो। अब तुम मेरे वचनों के अधिकारी हो।"
 
ब्रह्मवेत्ता महापुरूषों के वचनों का अधिकारी वही हो सकता है जिसने विवेक और वैराग्यरूपी संपत्ति पा ली है, जिसने विवेक से संसार की असारता देख ली है, जिसने विवेक से शरीर की क्षणभंगुरता देख ली है। ऐसा विवेकप्रधान जो साधक होता है उसको वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्यरूपी धन से जिसका चित्त संस्कृत हो गया है उसे आत्मज्ञान के वचन लगते हैं। जो मूढ़ हैं, पामर हैं, वे ज्ञानवानों के वचनों से उतना लाभ नहीं ले पाते जितना विवेकी और वैराग्यवान ले पाता है।
 
मंकी ऋषि विवेक-वैराग्य से संपन्न थे। वशिष्ठजी का दर्शन करके उनको अकृत्रिम शान्ति का एहसास हुआ। वे कहने लगेः
 
"भगवन् ! आप सशरीर दिख पड़ते हो लेकिन आकाश की नाईं शून्य रूप हो। आप चेष्टा करते दिख पड़ते हो लेकिन आप चेष्टा से रहित हो। आप साकार दिखाई देते हो लेकिन आप अनंत ब्रह्माण्डों में फैले हुए निराकार तत्त्व हो। हे मुनिशार्दूल ! आपके दर्शन से चित्त में प्रसन्नता छा जाती है और आकर्षण पैदा होता है। वह आकर्षण निर्दोष आकर्षण है। संसारियों की मुलाकात से चित्त में क्षोभ पैदा होता है। सूर्य का तेज होता है वह तपाता है जबकि आपका तेज हृदय में परम शान्ति देता है। विषयों का और संसारी लोगों का आकर्षण चित्त में क्षोभ पैदा करता है और आप जैसे ज्ञानवान का आकर्षण चित्त में शान्ति पैदा करता है जबकि ज्ञानी का आकर्षण परमात्मा के गीत गुँजाता है, भीतर की शान्ति देता है आनन्द देता है, परमात्मा के प्रसाद से हृदय को भर देता है।
 
हे मुनीश्वर ! आपका तेज हृदय की तपन को मिटाता है। आपका आकर्षण भोगों के आकर्षण से बचाता है। आपका संग परमात्मा का संग करानेवाला है। अज्ञानियों का संग दुःखों और पापों का संग कराने वाला है। जो घड़ियाँ ज्ञानी की निगाहों में बीत गई, जो घड़ियाँ परमात्मा के ध्यान में बीत गईं, जो घड़ियाँ मौन में बीत गईं, जो घड़ियाँ परमात्मा के प्रसाद में बीत गईं वे अकृत्रिम शान्ति की घड़ियाँ हैं, वे घड़ियाँ जीवन की बहुमूल्य घड़ियाँ हैं।
 
हे मुनिशार्दूल ! आप कौन हैं ? यदि मुझसे पूछते हो तो मैं माण्डव्य ऋषि के कुल में उत्पन्न हुआ मंकी नामक ब्राह्मण हूँ। संसार की नश्वरता देखकर, संसार के जीवों को हेय और उपादेय, ग्रहण और त्याग (छोड़ना-पकड़ना) से जलते देखकर मैं सत्य को खोजने गया। कई तीर्थों में गया, कितने ही जप-तप किये, कई व्रत और नियम किये फिर भी हृदय की तपन न मिटी।
 
जप, तप, व्रत और तीर्थ से पाप दूर होते हैं, कषाय परिपक्व होते हैं। कषाय परिपक्व हुए, पाप दूर हुए तो ज्ञानी का संग होते ही अकृत्रिम शान्ति मिलने लगती है, आनन्द आने लगता, मौन में प्रवेश होने लगता है। साधक अलख पुरूष में जगने के योग्य होता है।
 
मंकी ऋषि वशिष्ठजी का संग पाकर अकृत्रिम शांति को प्राप्त हुए, भीतर के प्रसाद को उपलब्ध हुए, परमात्मा-विश्रान्ति पायी। परमात्म-विश्रान्ति से बढ़कर जगत में और कोई सुख नहीं और कोई धन नहीं और कोई साम्राज्य नहीं।
 
वे घड़ियाँ धन्य हैं जिन घड़ियों में परमात्मा की प्रीति, परमात्मा का चिन्तन और परमात्मा का ध्यान होता है।
 
प्रतिदिन अपने अन्तःकरण का निर्माण करना चाहिए। अपने अन्तःकरण में परमात्मा का ज्ञान भरकर उसका चिन्तन करने से अन्तःकरण का निर्माण होता है। अज्ञान से, अज्ञानियों के संग से, अज्ञानियों की बातों से अन्तःकरण में अविद्या का निर्माण होता है और जीव दुःख का भागी बनता है।
 
चित्त में और व्यवहार में जितनी चंचलता होगी, जितनी अज्ञानियों के बीच घुसफुस होगी, जितनी बातचीत होगी उतना अज्ञान बढ़ेगा। जितनी आत्मचर्चा होगी, जितना त्याग होगा, दूसरों के दोष देखने के बजाय गुण देखने की प्रवृत्ति होगी उतना अपने जीवन का कल्याण होगा।
 
अगर हम अपने जीवन की मीमांसा करके जानना चाहें कि हमारा भविष्य अन्धकारमय है कि प्रकाशमय है, तो हम जान सकते हैं, देख सकते हैं। किसी व्यक्ति को देखते हैं, उससे व्यवहार करते हैं तब उसके दोष दिखते हैं तो समझो हमारा जीवन अन्धकारमय है। कोई कितना भी हमारे साथ अनुचित व्यवहार करता है फिर भी हमें अपना दोष दिखे और उसके गुण दिखें तो समझ लेना कि हमारा भविष्य उज्जवल है। इससे भी उज्जवल जीवन वह है जिसमें न गुण दिखें न दोष दिखें, संसार स्वप्न जैसा भासने लगे। संसार को स्वप्न-सा देखने वाला अपना आपा परमात्मा में विश्राम पावे, ऐसी प्यास पैदा हो जाय तो समझ लेना कि भविष्य बड़ा सुहावना है, बड़ा मंगलकारी है। इस बात पर बार-बार ध्यान दिया जाय।
देवताओं में चर्चा चली कि इस समय पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ पुरूष कौन है ? सर्वगुण-सम्पन्न कौन है ? प्राणी मात्र में गुण देखनेवाला कौन है ? सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व रखने वाला कौन है ?
 
इन्द्र ने कहा किः "इस समय पृथ्वी पर ऐसे परम श्रेष्ठ पुरूष श्रीकृष्ण हैं। उनको किसी के दोष नहीं दिखते अपितु गुण ही दिखते हैं। वे प्राणी मात्र का हित चाहते हैं। उनके मन में किसी के प्रति वैर नहीं। श्रीकृष्ण जैसा अदभुत व्यक्तित्व, श्रीकृष्ण जैसा गुणग्राहीपन इस समय पृथ्वी पर और किसी के पास नहीं है।" इस प्रकार इन्द्र ने श्रीकृष्ण की दृष्टि का, उनके व्यक्तित्व का खूब आदर से वर्णन किया।
एक देव को कुतूहल हुआ कि श्रीकृष्ण किस प्रकार अनंत दोषों में भी गुण ढूँढ निकालते हैं ! वह देवता पृथ्वी पर आया और जहाँ से श्रीकृष्ण ग्वालों के साथ गुजरने वाले थे उस रास्ते में बीमार रोगी कुत्ता होकर भूमि पर पड़ गया। पीड़ा से कराहने लगा। चमड़ी पर घाव थे। मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं। मुँह फटा रह गया था। दुर्गन्ध आ रही थी। उसे देखकर ग्वालों ने कहाः "छिः छिः ! यह कुत्ता कितना अभागा है ! इसके कितने पाप हैं जो दुःख भोग रहा है !''
 
श्रीकृष्ण ने कहाः "देखो, इसके दाँत कितने अच्छे चमकदार हैं ! यह इसके पुण्यों का फल है।"
ऐसे ही दुःख-दर्द में, रोग में, परेशानी में, विद्रोह में और अशांति के मौके पर भी जिसमें गुण और परम शान्त परमात्मा देखने की उत्सुकता है, जिसके पास ऐसी विधायक निगाहें हैं वह आदमी ठीक निर्णायक होता है, ठीक विचारक होता है। लेकिन जो किसी पर दोषारोपण करता है, भोगियों की हाँ मैं हाँ मिलता है, ज्ञानवानों की बातों पर ध्यान नहीं देता, संसार में आसक्ति करता है, अपने हठ और दुराग्रह को नहीं छोड़ता उस आदमी का भविष्य अन्धकारमय हो जाता है।
शास्त्र ने कहाः बुद्धेः फलं अनाग्रहः। बुद्धि का फल क्या है ? बुद्धि का फल है भोगों में और संसार की घटनाओं में आग्रह नहीं रहना। बड़ा सिद्ध हो, त्रिकाल ज्ञानी हो लेकिन हेय और उपादेय बुद्धि हो तो वह तुच्छ है।
हेय और उपादेय बुद्धि क्या है ? हेय माने त्याज्य। उपादेय माने ग्राह्य। जब जगत ही मिथ्या है तो उसमें 'यह पाना है, यह छोड़ना है, यह करना है, यह नहीं करना है....' ऐसी बुद्धि जब तक बनी रहेगी तब तक वह बुद्धि अकृत्रिम शान्ति में टिकेगी नहीं। अकृत्रिम शान्ति में टिकने के लिए हेयोपादेय बुद्धि का त्याग करना पड़ता है। त्याज्य और ग्राह्य की पकड़ न हो।
फूल खिला है। ठीक है, देख लिया। बुलबुल गीत गा रही है। ठीक है, सुन लिया। लेकिन 'कल भी फूल खिला हुआ रहे, बुलबुल गाती हुई सुनाई पड़े, रोटी ऐसी ही मिलती रहे, फलाना आदमी ऐसा ही व्यवहार करे, फलानी घटना ऐसी ही घटे.....' ऐसा आग्रह नहीं। जब जगत ही मिथ्या है तो उसकी घटनाएँ कैसे सत्य हो सकती है। जब घटनाएँ ही सत्य नहीं तो उसके परिणाम कैसे सत्य हो सकते हैं। जो भी परिणाम आयेंगे वे बदलते जायेंगे। ऐसी ज्ञान-दृष्टि जिसने पा ली, गुरूओं के ज्ञानयुक्त वचनों को जिसने पकड़ लिया, वह साधक भीतर की यात्रा में सफल हो जाता है।
 
ब्रह्मवेत्ता की अध्यात्म-विद्या बरसती रहे लेकिन साधक में अगर विवेक-वैराग्य नहीं है तो उतना लाभ नहीं होता। बरसात सड़कों पर बरसती रहे तो न खेती होती है न हरियाली होती है। ऐसे ही जिनका चित्त दोषों से, अहंकार से, भोगों से कठोर हो गया है उन पर संतों के वचन इतनी हरियाली नहीं पैदा करते। जिनक चित्त विवेक-वैराग्य से जीता गया है उनको ज्ञानी संतों के दो वचन भी, घड़ीभर की मुलाकात भी हृदय में बड़ी शान्ति प्रदान करती है।
 
मंकी ऋषि का हृदय विवेक वैराग्य से जीता हुआ था। वशिष्ठजी की मुलाकात होते ही उनके चित्त में अकृत्रिम शान्ति, आनन्द आने लगा। जितनी घड़ियाँ चित्त शान्त होता है उतनी घड़ियाँ महातप होता है। चित्त की विश्रान्ति बहुत ऊँची चीज है। हेयोपादेय बुद्धिवाले को चित्त की विश्रान्ति नहीं मिलती। 'यह छोड़ कर वहाँ जाऊँ और सुखी होऊँ...' यह हेय-उपादेय बुद्धि है। जो जहाँ है वहीं रहकर हेयोपादेय बुद्धि छोड़कर भीतर की यात्रा करता है तो वह ऊँचे पद को पाता है। जो छोड़ने पकड़ने में लगा है तो वह वैकुण्ठ में जाने के बाद भी शान्ति नहीं पाता।
इसलिये हेयपादेय बुद्धि छोड़ दें। जिस समय जो फर्ज पड़े, जिस समय गुरू और शास्त्र के संकेत के अनुसार जो कर्त्तव्य करने का हो वह यंत्र की पतली की नाईं कर लिया लेकिन दूसरे ही क्षण अपने को कर्त्ता-धर्त्ता न मानें। जैसे मिट्टी में बैठते हैं, फिर कपड़े झाड़ कर चल देते हैं, इसी प्रकार व्यवहार करके सब छोड़ दो। कर्तृत्त्व चित्त में न आ जाय। कर्तृत्त्वभव और भोक्तृत्वभाव अगर है तो समाधि होने के बाद भी पतन की कोई संभावना नहीं। अष्टावक्र मुनि कहते हैं-
 
अकर्तृत्वं अभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।
 
"जब पुरूष अपने आत्मा के अकर्त्तापने को और अभोक्तापन को मानता है तब उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियाँ करके नाश होती हैं।"
चित्त में जब अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व कि निष्ठा जमने लगती है तो वासनाएँ क्षीण होने लगती हैं। फिर वह ज्ञानी यंत्र की पुतली की नाईं चेष्टा करता है।

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