सोमवार, नवंबर 29, 2010

आत्मा में विश्वास पहाड़-सी मुसीबत को भी तृण सा कर देता है


मानवमात्र की सफलता का मूल उसकी आत्मश्रद्धा में निहित है। आत्मश्रद्धा का सीधा संबंध संकल्पबल के साथ है। तन-बल, मन-बल, बुद्धि-बल एवं आत्मबल ऐसे कई प्रकार के बल हैं, उनमें आत्मबल सर्वश्रेष्ठ है। आत्मबल में अचल श्रद्धा यह विजय प्राप्त करने की सर्वोत्तम कुंजी है। जहाँ आत्मबल में श्रद्धा नहीं है वहीं असफलता, निराशा, निर्धनता, रोग आदि सब प्रकार के दुःख देखने को मिलते हैं। इससे विपरीत जहाँ आत्म बल में अचल श्रद्धा है वहाँ सफलता, समृद्धि, सुख, शांति, सिद्धि आदि अनेक प्रकार के सामर्थ्य देखने को मिलते हैं।
जैसे-जैसे मनुष्य अपने सामर्थ्य में अधिकाधिक विश्वास करता है, वैसे-वैसे वह व्यवहार एवं परमार्थ दोनों में अधिकाधिक विजय हासिल करता है। अमुक कार्य करने का उसमें सामर्थ्य है, ऐसा विश्वास और श्रद्धा-यह कार्यसिद्धि का मूलभूत रहस्य है।
मनुष्य अपनी उन्नति शीघ्र नहीं कर पाता इसका मुख्य कारण यही है कि उसे अपने सामर्थ्य पर संदेह होता है। वह 'अमुक कार्य मेरे से न हो सकेगा' ऐसा सोच लेता है। जिसका परिणाम यह आता है कि वह उस कार्य को कभी करने का प्रयत्न भी नहीं करता। आत्मश्रद्धा का सीधा संबंध संकल्पबल के साथ है।
आत्मबल में अविश्वास प्रयत्न की सब शक्तियों को क्षीण कर देता है। प्रयत्न के बिना कोई भी फल प्रगट नहीं होता। अतः प्रयत्न को उत्पन्न करने वाली आत्मश्रद्धा का जिसमें अभाव है उसका जीवन निष्क्रिय, निरुत्साही एवं निराशाजनक हो जाता है। जहाँ-जहाँ कोई छोटा-बड़ा प्रयत्न होता है वहाँ-वहाँ उसके मूल में आत्मश्रद्धा ही स्थित होती है और अंतःकरण में जब तक आत्मश्रद्धा स्थित होती है तब तक प्रयत्नों का प्रवाह अखंड रूप से बहता रहता है। आत्मश्रद्धा असाधारण होती है तो प्रयत्न का प्रवाह किसी भी विघ्न से न रुके ऐसा असाधारण एवं अद्वितिय होता है।
'मैं अमुक कार्य कर पाऊँगा'ऐसी साधारण श्रद्धा भी यदि अंतःकरण में होती है तभी प्रयत्न का आरंभ होता है एवं
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रविवार, नवंबर 21, 2010

चैतन्यस्वरूप का साक्षात्कार करने के लिए आपका जन्म हुआ है

तमोगुणी मानव वर्ग आलसी-प्रमादी होकर, गंदे विषय-विकारों का मन में संग्रह करके बैठे-बैठे या सोते-सोते भी इन्द्रियभोग के स्वप्न देखता रहता है। यदि कभी कर्मपरायण हों तो भी यह वर्ग हिंसा, द्वेष, मोह जैसे देहधर्म के कर्म में ही प्रवृत्त रहकर बंधनों में बँधता जाता है। मलिन आहार, अशुद्ध विचार और दुष्ट आचार का सेवन करते-करते तमोगुणी मानव पुतले को आलसी-प्रमादी रहते हुए ही देहभोग की भूख मिटाने की जितनी आवश्यकता होती है उतना ही कर्मपरायण रहने का उसका मन होता है।
रजोगुणी मनुष्य प्रमादी नहीं, प्रवृत्तिपरायण होता है। उसकी कर्मपरंपरा की पृष्ठभूमि में आंतरिक हेतु रूप से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, दंभ आदि सब भरा हुआ होता है। सत्ताधिकार की तीव्र लालसा और देहरक्षा के ही कर्म-विकर्मों के कंटकवृक्ष उसकी मनोभूमि में उगकर फूलते-फलते हैं। उसके लोभ की सीमा बढ़-बढ़कर रक्त-संबंधियों तक पहुँचती हैं। कभी उससे आगे बढ़कर जहाँ मान मिलता हो, वाहवाही या धन्यवाद की वर्षा होती है, ऐसे प्रसंगों में वह थोड़ा खर्च कर लेता है। ऐसे रजोगुणी मनुष्य का मन भी बहिर्मुख ही कहलाता है। ऐसा मन बड़प्पन के पीछे पागल होता है। उसका मन विषय-विलास की वस्तुओं को एकत्रित करने में लिप्त होकर अर्थ-संचय एवं विषय-संचय करने के खेल ही खेलता रहता है।
इन दोनों ही वर्गों के मनुष्यों का मन स्वच्छंदी, स्वार्थी, सत्ताप्रिय, अर्थप्रिय और मान चाहने वाला होता है और कभी-कभार छल-प्रपंच के समक्ष उसके अनुसार टक्कर लेने में भी सक्षम होने की योग्यता रखता है। ऐसे मन की दिशा इन्द्रियों के प्रति, इन्द्रियों के विषयों के प्रति और विषय भोगों के प्रति निवृत्त न होने पर भोगप्राप्ति के नित्य नवीन कर्मों को करने की योजना में प्रवृत्त हो जाती है। ऐसा मन विचार करके बुद्धि को शुद्ध नहीं करता अपितु बुद्धि को रजोगुण से रँगकर, अपनी वासनानुसार उसकी स्वीकृति लेकर - 'मैं जो करता हूँ वह ठीक ही करता हूँ' ऐसी दंभयुक्त मान्यता खड़ी कर देता है।
ऐसे आसुरी भाव से आक्रान्त लोगों का अनुकरण आप मत करना। राजसी व्यक्तियों के रजोगुण से अनेक प्रकार की वासनाएँ उत्पन्न होती हैं अतः हे भाई ! सावधान रहना। रजो-तमोगुण की प्रधानता से ही समस्त पाप पनपते हैं। जैसे हँसिया, चाकू, छुरी, तलवार आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनकी धातु लोहा एक ही है ऐसे ही पाप के नाम भिन्न-भिन्न होने पर भी पाप की जड़ रजो-तमोगुण ही है।
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शनिवार, नवंबर 13, 2010

गागर में सागर - दादागुरु श्रीलीलाशाह महानिर्वाण दिवस (15 नव॰ 2010) विशेष



सावधान नर सदा सुखी


15 जून 1947नैनिताल।
एक साधक ने प्रश्न कियाः
"महाराज जी ! साधनाकाल के दौरान साधक को कौन-कौन सी सावधानी रखनी चाहिए?"
पूज्य बापू ने एक छोटा-सा उदाहरण देते हुए कहाः
"एक बार सागर में नाव चलाने वाले खलासी लोग अपने मुखिया के पास गये और अपनी बड़ाई हाँकने लगेः
'देखो मुखिया जी ! हम लोग कितने साहसी और होशियार हैं कि वीरतापूर्वक भँवरों तक भी नाव को ले जाते हैं और भँवरों को पार करके सुरक्षित वापस आ जाते हैं। परन्तु यह जो भीमा है न, वह बहुत डरपोक है। यह तो नाव लेकर इस प्रकार भँवरों की ओर जाता ही नहीं है। कितना बुद्धु है?'
अनुभवी मुखिया ने जवाब दियाः
'तुम लोग भले ही भँवरों को पार करके आ जाते हों, परन्तु तुम्हारी अपेक्षा तो यह भीमा ज्यादा होशियार है। यह ऐसी भयानक जगह पर जाता ही नहीं कि जहाँ जिन्दगी जोखिम में हो। तुम लोग वहाँ जाते हो तो कभी ऐसे फँस जाओगे कि वापस आ ही नहीं सकोगे। नाव सहित सागर की गहराई में खो जाओगे। भीमा तो ऐसे किसी खतरे में पड़ता ही नहीं है।'
इस प्रकार सन्मार्ग के पथिकों को भी विषय-विकारों से दूर रहना चाहिए। जो विषय विकारों से दूर रहते हैं वे लोग भाग्यवान हैं और गृहस्थ आश्रम में रहकर भी जो उनसे दूर रहते हैं वे लोग ज्यादा प्रशंसनीय हैं। विषय-भोगों को भोगते-भोगते लोग विषय-भोगों को मक्खन एवं पेड़े समझते हैं, परन्तु सच कहूँ तो वे लोग चूना ही खाते हैं। चूना खाने से क्या दशा होती है यह तो सभी को पता ही होगा। मनुष्य बेचारा मर जाता है। जिस प्रकार साँप को हाथ लगाने से साँप काट लेता है और उसका जहर चढ़ जाता है इसी प्रकार विषय-भोग जहर के समान हैं। उन्हें थोड़ा भी भोगोगे तो पीछे से बहुत दुःख सहन करना पड़ेगा।
कोई मनुष्य जुआ नहीं खेलता, परन्तु रोज-रोज जुआरियों का संग करके उन लोगों को जुआ खेलते देखकर खुद भी जुआ खेलना सीख जाता है। फिर उसे जुआ का ऐसा चस्का लग जाता है कि वह उसके बिना नहीं रह सकता। यही स्थिति विषय-विकारों के साथ भी है इसलिए विषय-विकारों से दूर भागो।
इसके सिवाय, साधकों को निन्दा-स्तुति, राग-द्वेष आदि के भँवर में भी नहीं जाना चाहिए। उसमें गिरकर पुनः चेत जाओ तो ठीक है, परंतु कई बार तो ऐसे भँवर में फँसकर ही जीवन पूरा हो जाता है।
लोग साधना भी करते हैं, भक्ति भी करते हैं, पूजा-पाठ भी करते हैं, ध्यान-भजन भी करते हैं, सेवा भी करते हैं, गुरु के शिष्य भी कहलाते हैं, परन्तु राग-द्वेष के भँवर में जाने की आदत नहीं जाती तो सब साधन-भजन और सेवा के ऊपर पानी फिर जाता है।
साधकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन्हें खराब समझते हैं उनके साथ उदारता से व्यवहार करें, उनके गुण देखें, दोषों को भूल जायें। ऐसा करने से चित्त में शान्ति आने लगेगी। राग-द्वेष को पुष्ट करेंगे तो सभी साधन-भजन चौपट हो जायेंगे। ईर्ष्या और जलन से अन्तःकरण अशुद्ध बनेगा तो साधना का पथ लम्बा हो जायेगा।
आये थे हरिभजन कोओटन लागे कपास।
जो संसार मिथ्या है, हर क्षण बदल रहा है, स्वप्न की तरह गुजरता जा रहा है उसकी सत्यता को दिमाग में भरने से परेशानी के सिवाय कुछ भी हाथ में नहीं आता। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में शिवजी के मुख से कहलवाया हैः
उमां कहहूँ मैं अनुभव अपना।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना।।
सर्वत्र केवल परमात्मा ही व्याप रहे हैं यह जानना ही 'सत्य हरिभजन' का अर्थ है। यदि इसे पूर्ण रूप से जान लिया तो राग-द्वेष, आकर्षण-विकर्षण, इच्छा-वासना सब दूर हो जायेंगे और अपना सहज स्वभाव प्रकट हो जायेगा।
साधना में विघ्न डालें ऐसी बेवकूफियों को हटाओ। दुःख देने वाले अज्ञान को मिटाओ। जगत की सत्यता को चित्त में से हटाओ और अपनी महिमा को जानो। उसके लिए जप करो, सेवा करो और अन्तःकरण को शुद्ध करो। साक्षीभाव एवं समता में रहने का अभ्यास करने से अन्तःकरण शुद्ध होगा जिससे शुद्ध आत्मरस और शुद्ध सुख प्रकट होगा। सत्पुरुषों का संग एवं सत्शास्त्रों का पठन-मनन करने से साधनाकाल की विघ्न-बाधाएँ कम होने लगेंगी।"
अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती?
15 जनवरी 1958कानपुर।
सत्संग-प्रसंग पर एक जिज्ञासु ने पूज्य बापू से प्रश्न कियाः
"स्वामीजी ! कृपा करके बताएँ कि हमें अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती?"
पूज्य स्वामीजीः "बाबा ! अभ्यास में तब मजा आयेगा जब उसकी जरूरत का अनुभव करोगे।
एक बार एक सियार को खूब प्यास लगी। प्यास से परेशान होता दौड़ता-दौड़ता वह एक नदी के किनारे पर गया और जल्दी-जल्दी पानी पीने लगा। सियार की पानी पीने की इतनी तड़प देखकर नदी में रहने वाली एक मछली ने उससे पूछाः
'सियार मामा ! तुम्हें पानी से इतना सारा मजा क्यों आता है? मुझे तो पानी में इतना मजा नहीं आता।'
सियार ने जवाब दियाः 'मुझे पानी से इतना मजा क्यों आता है यह तुझे जानना है?'
मछली ने कहाः ''हाँ मामा!"
सियार ने तुरन्त ही मछली को गले से पकड़कर तपी हुई बालू पर फेंक दिया। मछली बेचारी पानी के बिना बहुत छटपटाने लगी, खूब परेशान हो गई और मृत्यु के एकदम निकट आ गयी। तब सियार ने उसे पुनः पानी में डाल दिया। फिर मछली से पूछाः
'क्यों? अब तुझे पानी में मजा आने का कारण समझ में आया?'
मछलीः 'हाँ, अब मुझे पता चला कि पानी ही मेरा जीवन है। उसके सिवाय मेरा जीना असम्भव है।'
इस प्रकार मछली की तरह जब तुम भी अभ्यास की जरूरत का अनुभव करोगे तब तुम अभ्यास के बिना रह नहीं सकोगे। रात दिन उसी में लगे रहोगे।
एक बार गुरु नानकदेव से उनकी माता ने पूछाः
'बेटा ! रात-दिन क्या बोलता रहता है?'
नानकजी ने कहाः 'माता जी ! आखां जीवां विसरे मर जाय। रात-दिन मैं अकाल पुरुष के नाम का स्मरण करता हूँ तभी तो जीवित रह सकता हूँ। यदि नहीं जपूँ तो जीना मुश्किल है। यह सब प्रभुनाम-स्मरण की कृपा है।'
इस प्रकार सत्पुरुष अपने साधना-काल में प्रभुनाम-स्मरण के अभ्यास की आवश्यकता का अनुभव करके उसके रंग में रंगे रहते हैं।"
जीव और शिव का भेद कैसे मिटे?
15 जून 1958कानपुर।
कानपुर के सत्संग में एक साधक ने प्रश्न पूछाः "स्वामी जी ! जीवात्मा और परमात्मा में भेद क्यों दिखता है?"
पूज्य बापू ने एक छोटा-सा किन्तु सचोट उदाहरण देकर सरलता से जवाब देते हुए कहाः
"सच्चे अर्थों में जीवात्मा और परमात्मा दोनों अलग नहीं हैं। जब जीवभाव की अज्ञानता निकल जायेगी और माया की तरफ दृष्टि नहीं डालोगे तब ये दोनों एक ही दिखेंगे। जिस प्रकार थोड़े से गेहूँ एक डिब्बे में हैं और थोड़े से गेहूँ एक टोकरी में हैं और तुम बाद में 'डिब्बे के गेहूँ और टोकरी के गेहूँ' इस प्रकार अलग-अलग नाम देते हो परन्तु यदि तुम 'डिब्बा' और 'टोकरी' ये नाम निकाल दो तो बाकी जो रहेगा वह गेहूँ ही रहेगा।"
दूसरा एक सरल दृष्टांत देते हुए पूज्यश्री ने कहाः
"एक गुरु के शिष्य ने कहाः 'बेटा !गंगाजल ले आ।' शिष्य तुरन्त ही गंगा नदी में से एक लोटा पानी भरकर ले आया और गुरुजी को दिया। गुरुजी ने शिष्य से कहाः
'बेटा ! यह गंगाजल कहाँ है? गंगा के पानी में तो नावें चलती हैं। इसमें नाव कहाँ है? गंगा में तो लोग स्नान करते हैं। इस पानी में लोग स्नान करते हुए क्यों नहीं दिखते?'
शिष्य घबरा गया और बोलाः
'गुरुजी ! मैं तो गंगा नदी में से ही यह जल लेकर आया हूँ।'
शिष्य को घबराया हुआ देखकर गुरुजी ने धीरे से कहाः
'बेटा ! घबरा मत। इस पानी और गंगा के पानी में जरा भी भेद नहीं है। केवल मन की कल्पना के कारण ही भिन्नता भासती है। वास्तव में दोनों पानी एक ही हैं और इस पानी को फिर से गंगा में डालेगा तो यह गंगा का पानी हो जायेगा और रत्ती भर भी भेद नहीं लगेगा।
इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा भ्रान्ति के कारण अलग-अलग दिखते हैं, परन्तु दोनों एक ही हैं।'
जिस प्रकार एक कमरे के बाहर की और अन्दर की जमीन अलग-अलग दिखती है लेकिन जो दीवार उस जमीन को अलग करती है वह दीवार पाताल तक तो नहीं गयी है। वास्तव में जमीन में कोई भेद नहीं है। दोनों जमीन तो एक ही हैं परन्तु दीवार की भ्रान्ति के कारण अलग-अलग नाम से जानी जाती हैं। ऐसी ही बात जीव और ब्रह्म के साथ है।
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मंगलवार, नवंबर 09, 2010

सात दिन में तो तेरी मौत है!




संत एकनाथ जी के पास एक बूढ़ा पहुँचा। बोलाः
"आप भी गृहस्थी मैं भी गृहस्थी। आप भी बच्चों वाले मैं भी बच्चों वाला। आप भी सफेद कपड़ों वाले मैं भी सफेद कपड़े वाला। लेकिन आपको लोग पूजते हैं, आपकी इतनी प्रतिष्ठा है, आप इतने खुश रह सकते हो, आप इतने निश्चिन्त जी सकते हो और मैं इतना परेशान क्यों ? आप इतने महान् और मैं इतना तुच्छ क्यों ?"
एकनाथ जी ने सोचा कि इसको सैद्धान्तिक उपदेश देने से काम नहीं चलेगा, उसको समझ में नहीं आयेगा। कुछ किया जाय... एकनाथ जी ने उसे कहाः
"चल रे सात दिन में मरने वाले ! तू मुझसे क्या पूछता है ? अब क्या फर्क पड़ेगा ? सात दिन में तो तेरी मौत है।"
वह आदमी सुनकर सन्न रह गया। एकनाथ जी कह रहे हैं सात दिन में मौत है तो बात पूरी हो गई। वह आदमी अपनी दुकान पर आया लेकिन उसके दिमाग में एकनाथ जी के शब्द घूम रहे हैं- "सात दिन में मौत है। उसको धन कमाने का जो लोभ था, हाय हाय थी वह शान्त हुई। अपने प्रारब्ध का जो होगा वह मिलेगा। ग्राहकों से लड़ पड़ता था तो अब प्रेम से व्यवहार करने लगा। शाम होती थी तब दारू के घूँट पी लेता था वह दारू अब फीका हो गया। एक दिन बीता.... दूसरा बीता.... तीसरा बीता....। उसे भोजन में विभिन्न प्रकार के, विभिन्न स्वाद के व्यंजन, आचार, चटनी आदि चाहिए था, जरा सी कमी पड़ने पर आगबबूला हो जाता था। अब उसे याद आने लग गया कि तीन दिन बीत गये, अब चार दिन ही बचे। कितना खाया-पिया ! आखिर क्या ? चौथा दिन बीता.... पाँचवाँ दिन आया...। बहू पर क्रोध आ जाता था, बेटे नालायक दिखते थे, अब तीन दिन के बाद मौत दिखने लगी। सब परिवारजानों के अवगुण भूल गया, गद्दारी भूल गया। समाधान पा लिया कि संसार में ऐसा ही होता है। यह मेरा सौभाग्य है कि वे मुझसे गद्दारी और नालायकी करते हैं तो उनका आसक्तिपूर्ण चिन्तन मेरे दिल में नहीं होता है। यदि आसक्तिपूर्ण चिन्तन होगा तो फिर क्या पता इस घर में चूहा होकर आना पड़े या साँप होकर आना पड़े या चिड़ियाँ होकर आना पड़े, कोई पता नहीं है। पुत्र और बहुएँ गद्दार हुई हैं तो अच्छा ही है क्योंकि तीन दिन में अब जाना ही है। इतने समय में मैं विट्ठल को याद कर लूँ- विट्ठला... विट्ठला.... विट्ठला...
भगवान का स्मरण चालू हो गया। जीवन भर जो मंदिर में नहीं गया था, संतों को नहीं मानता था उस बूढ़े का निरन्तर जाप चालू हो गया। संसार की तू-तू, मैं-मैं, तेरा-मेरा सब भूल गया।
छट्ठा दिन बीतने लगा। ज्यों-ज्यों समय जाने लगा त्यों-त्यों बूढ़े का भक्तिभाव, नामस्मरण, सहज-जीवन, सहनशक्ति, उदारता, प्रेम, विवेक, आदि सब गुण विकसित होने लगे। कुटुम्बी दंग रह गये कि इस बूढ़े का जीवन इतना परिवर्तित कैसे हो गया ! हम रोज मनौतियाँ मनाते थे कि यह बूढ़ा कब मरे, हमारी जान छूटे।
लोग देवी-देवता की पूजा-प्रार्थना करते हैं, मनौतियाँ मानते हैं, संतों से आशीर्वाद माँगते हैं, "हे देवी देवता ! इस बूढ़े का स्वर्गवास हो जाये, हम भंडारा करेंगे... हे महाराज ! आशीर्वाद दो, मेरा ससुर बहुत दुःखी है।"
"क्या है उसे ?"
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शुक्रवार, नवंबर 05, 2010

ऊपरवाली सरकार की नजरों से कोई बच नहीं सकता !



पाकिस्तान के सख्खर में साधुबेला आश्रम था। रमेशचन्द्र नाम के आदमी को उस समय के संत महात्मा ने अपनी जीवन कथा सुनाई थी और कहा था कि मेरी यह कथा सब लोगों को सुनाना। मैं कैसे साधु-संत बना यह समाज में जाहिर करना। वह रमेशचन्द्र बाद में पाकिस्तान छोड़कर मुंबई में आ गया था। उस संत ने अपनी कहानी उसे बताते हुए कहा थाः
"मैं जब गृहस्थ था तब मेरे दिन कठिनाई से बीत रहे थे। मेरे पास पैसे नहीं थे। एक मित्र ने अपनी पूँजी लगाकर रूई का धन्धा किया और मुझे अपना हिस्सेदार बनाया। रूई खरीदकर संग्रह करते और मुंबई में बेच देते। धन्धे में अच्छा मुनाफा होने लगा।
एक बार हम दोनों मित्रों को वहाँ के व्यापारी ने मुनाफे के एक लाख रूपये लेने के लिए बुलाया। हम रूपये लेकर वापस लौटे। एक सराय में रात्रि गुजारने रूके। आज से साठ-सत्तर वर्ष पहले की बात है। उस समय क एक लाख जिस समय सोना साठ-सत्तर रूपये तोला था। मैंने सोचाः एक लाख में से पचास हजार मेरा मित्र ले जाएगा। हालाँकि धन्धे में सारी पूँजी उसी ने लगाई थी फिर भी मुझे मित्र के नाते आधा हिस्सा दे रहा था। फिर भी मेरी नीयत बिगड़ी। मैंने उसे दूध में जहर पिला दिया। लाश को ठिकाने लगाकर अपने गाँव चला गया। मित्र के कुटुम्बी मेरे पास आये तब मैंने नाटक किया, आँसू बहाय और उनको दस हजार रूपये देते हुए कहा कि मेरा प्यारा मित्र रास्ते में बीमार हो गया, एकाएक पेट दुखने लगा, काफी इलाज किये लेकिन... हम सबको छोड़कर विदा हो गये। दस  हजार रूपये देखकर उन्हें लगा कि, 'यह बड़ा ईमानदार है। बीस हजार मुनाफा हुआ होगा उसमें से दस हजार दे रहा है।' उन्हें मेरी बात पर यकीन आ गया।
बाद में तो मेरे घर में धन-वैभव हो गया। नब्बे हजार मेरे हिस्से में आ गये थे। मैं जलसा करने लगा। मेरे घर पुत्र का जन्म हुआ। मेरे आनन्द का ठिकाना न रहा। बेटा कुछ बड़ा हुआ कि वह किसी अगम्य रोग से ग्रस्त हो गया। रोग ऐसा था कि भारत के किसी डॉक्टर का बस न चला उसे स्वस्थ करने में। मैं अपने लाडले को स्वीटजरलैंड ले गया। काफी इलाज करवाये, पानी की तरह पैसे खर्च किये, बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। मेरा करीब करीब सब धन नष्ट हो गया। दूसरा धन कमाया वह भी खर्च हो गया। आखिर निराश होकर बच्चे को भारत में वापस ले आया। मेरा इकलौता बेटा ! अब कोई उपाय नहीं बचा था। डॉक्टर, वैद्य, हकीमों के इलाज चालू रखे। रात्रि को मुझे नींद नहीं आती और बेटा दर्द से चिल्लाता रहता।
एक दिन बेटे को देखते देखते मैं बहुत व्याकुल हो गया। विह्वल होकर उसे कहने लगाः
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