सावधान नर सदा सुखी
15 जून 1947, नैनिताल।
एक साधक ने प्रश्न कियाः
"महाराज जी ! साधनाकाल के दौरान साधक को कौन-कौन सी सावधानी रखनी चाहिए?"
पूज्य बापू ने एक छोटा-सा उदाहरण देते हुए कहाः
"एक बार सागर में नाव चलाने वाले खलासी लोग अपने मुखिया के पास गये और अपनी बड़ाई हाँकने लगेः
'देखो मुखिया जी ! हम लोग कितने साहसी और होशियार हैं कि वीरतापूर्वक भँवरों तक भी नाव को ले जाते हैं और भँवरों को पार करके सुरक्षित वापस आ जाते हैं। परन्तु यह जो भीमा है न, वह बहुत डरपोक है। यह तो नाव लेकर इस प्रकार भँवरों की ओर जाता ही नहीं है। कितना बुद्धु है?'
अनुभवी मुखिया ने जवाब दियाः
'तुम लोग भले ही भँवरों को पार करके आ जाते हों, परन्तु तुम्हारी अपेक्षा तो यह भीमा ज्यादा होशियार है। यह ऐसी भयानक जगह पर जाता ही नहीं कि जहाँ जिन्दगी जोखिम में हो। तुम लोग वहाँ जाते हो तो कभी ऐसे फँस जाओगे कि वापस आ ही नहीं सकोगे। नाव सहित सागर की गहराई में खो जाओगे। भीमा तो ऐसे किसी खतरे में पड़ता ही नहीं है।'
इस प्रकार सन्मार्ग के पथिकों को भी विषय-विकारों से दूर रहना चाहिए। जो विषय विकारों से दूर रहते हैं वे लोग भाग्यवान हैं और गृहस्थ आश्रम में रहकर भी जो उनसे दूर रहते हैं वे लोग ज्यादा प्रशंसनीय हैं। विषय-भोगों को भोगते-भोगते लोग विषय-भोगों को मक्खन एवं पेड़े समझते हैं, परन्तु सच कहूँ तो वे लोग चूना ही खाते हैं। चूना खाने से क्या दशा होती है यह तो सभी को पता ही होगा। मनुष्य बेचारा मर जाता है। जिस प्रकार साँप को हाथ लगाने से साँप काट लेता है और उसका जहर चढ़ जाता है इसी प्रकार विषय-भोग जहर के समान हैं। उन्हें थोड़ा भी भोगोगे तो पीछे से बहुत दुःख सहन करना पड़ेगा।
कोई मनुष्य जुआ नहीं खेलता, परन्तु रोज-रोज जुआरियों का संग करके उन लोगों को जुआ खेलते देखकर खुद भी जुआ खेलना सीख जाता है। फिर उसे जुआ का ऐसा चस्का लग जाता है कि वह उसके बिना नहीं रह सकता। यही स्थिति विषय-विकारों के साथ भी है इसलिए विषय-विकारों से दूर भागो।
इसके सिवाय, साधकों को निन्दा-स्तुति, राग-द्वेष आदि के भँवर में भी नहीं जाना चाहिए। उसमें गिरकर पुनः चेत जाओ तो ठीक है, परंतु कई बार तो ऐसे भँवर में फँसकर ही जीवन पूरा हो जाता है।
लोग साधना भी करते हैं, भक्ति भी करते हैं, पूजा-पाठ भी करते हैं, ध्यान-भजन भी करते हैं, सेवा भी करते हैं, गुरु के शिष्य भी कहलाते हैं, परन्तु राग-द्वेष के भँवर में जाने की आदत नहीं जाती तो सब साधन-भजन और सेवा के ऊपर पानी फिर जाता है।
साधकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन्हें खराब समझते हैं उनके साथ उदारता से व्यवहार करें, उनके गुण देखें, दोषों को भूल जायें। ऐसा करने से चित्त में शान्ति आने लगेगी। राग-द्वेष को पुष्ट करेंगे तो सभी साधन-भजन चौपट हो जायेंगे। ईर्ष्या और जलन से अन्तःकरण अशुद्ध बनेगा तो साधना का पथ लम्बा हो जायेगा।
आये थे हरिभजन को, ओटन लागे कपास।
जो संसार मिथ्या है, हर क्षण बदल रहा है, स्वप्न की तरह गुजरता जा रहा है उसकी सत्यता को दिमाग में भरने से परेशानी के सिवाय कुछ भी हाथ में नहीं आता। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में शिवजी के मुख से कहलवाया हैः
उमां कहहूँ मैं अनुभव अपना।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना।।
सर्वत्र केवल परमात्मा ही व्याप रहे हैं यह जानना ही 'सत्य हरिभजन' का अर्थ है। यदि इसे पूर्ण रूप से जान लिया तो राग-द्वेष, आकर्षण-विकर्षण, इच्छा-वासना सब दूर हो जायेंगे और अपना सहज स्वभाव प्रकट हो जायेगा।
साधना में विघ्न डालें ऐसी बेवकूफियों को हटाओ। दुःख देने वाले अज्ञान को मिटाओ। जगत की सत्यता को चित्त में से हटाओ और अपनी महिमा को जानो। उसके लिए जप करो, सेवा करो और अन्तःकरण को शुद्ध करो। साक्षीभाव एवं समता में रहने का अभ्यास करने से अन्तःकरण शुद्ध होगा जिससे शुद्ध आत्मरस और शुद्ध सुख प्रकट होगा। सत्पुरुषों का संग एवं सत्शास्त्रों का पठन-मनन करने से साधनाकाल की विघ्न-बाधाएँ कम होने लगेंगी।"
अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती?
15 जनवरी 1958, कानपुर।
सत्संग-प्रसंग पर एक जिज्ञासु ने पूज्य बापू से प्रश्न कियाः
"स्वामीजी ! कृपा करके बताएँ कि हमें अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती?"
पूज्य स्वामीजीः "बाबा ! अभ्यास में तब मजा आयेगा जब उसकी जरूरत का अनुभव करोगे।
एक बार एक सियार को खूब प्यास लगी। प्यास से परेशान होता दौड़ता-दौड़ता वह एक नदी के किनारे पर गया और जल्दी-जल्दी पानी पीने लगा। सियार की पानी पीने की इतनी तड़प देखकर नदी में रहने वाली एक मछली ने उससे पूछाः
'सियार मामा ! तुम्हें पानी से इतना सारा मजा क्यों आता है? मुझे तो पानी में इतना मजा नहीं आता।'
सियार ने जवाब दियाः 'मुझे पानी से इतना मजा क्यों आता है यह तुझे जानना है?'
मछली ने कहाः ''हाँ मामा!"
सियार ने तुरन्त ही मछली को गले से पकड़कर तपी हुई बालू पर फेंक दिया। मछली बेचारी पानी के बिना बहुत छटपटाने लगी, खूब परेशान हो गई और मृत्यु के एकदम निकट आ गयी। तब सियार ने उसे पुनः पानी में डाल दिया। फिर मछली से पूछाः
'क्यों? अब तुझे पानी में मजा आने का कारण समझ में आया?'
मछलीः 'हाँ, अब मुझे पता चला कि पानी ही मेरा जीवन है। उसके सिवाय मेरा जीना असम्भव है।'
इस प्रकार मछली की तरह जब तुम भी अभ्यास की जरूरत का अनुभव करोगे तब तुम अभ्यास के बिना रह नहीं सकोगे। रात दिन उसी में लगे रहोगे।
एक बार गुरु नानकदेव से उनकी माता ने पूछाः
'बेटा ! रात-दिन क्या बोलता रहता है?'
नानकजी ने कहाः 'माता जी ! आखां जीवां विसरे मर जाय। रात-दिन मैं अकाल पुरुष के नाम का स्मरण करता हूँ तभी तो जीवित रह सकता हूँ। यदि नहीं जपूँ तो जीना मुश्किल है। यह सब प्रभुनाम-स्मरण की कृपा है।'
इस प्रकार सत्पुरुष अपने साधना-काल में प्रभुनाम-स्मरण के अभ्यास की आवश्यकता का अनुभव करके उसके रंग में रंगे रहते हैं।"
जीव और शिव का भेद कैसे मिटे?
15 जून 1958, कानपुर।
कानपुर के सत्संग में एक साधक ने प्रश्न पूछाः "स्वामी जी ! जीवात्मा और परमात्मा में भेद क्यों दिखता है?"
पूज्य बापू ने एक छोटा-सा किन्तु सचोट उदाहरण देकर सरलता से जवाब देते हुए कहाः
"सच्चे अर्थों में जीवात्मा और परमात्मा दोनों अलग नहीं हैं। जब जीवभाव की अज्ञानता निकल जायेगी और माया की तरफ दृष्टि नहीं डालोगे तब ये दोनों एक ही दिखेंगे। जिस प्रकार थोड़े से गेहूँ एक डिब्बे में हैं और थोड़े से गेहूँ एक टोकरी में हैं और तुम बाद में 'डिब्बे के गेहूँ और टोकरी के गेहूँ' इस प्रकार अलग-अलग नाम देते हो परन्तु यदि तुम 'डिब्बा' और 'टोकरी' ये नाम निकाल दो तो बाकी जो रहेगा वह गेहूँ ही रहेगा।"
दूसरा एक सरल दृष्टांत देते हुए पूज्यश्री ने कहाः
"एक गुरु के शिष्य ने कहाः 'बेटा !गंगाजल ले आ।' शिष्य तुरन्त ही गंगा नदी में से एक लोटा पानी भरकर ले आया और गुरुजी को दिया। गुरुजी ने शिष्य से कहाः
'बेटा ! यह गंगाजल कहाँ है? गंगा के पानी में तो नावें चलती हैं। इसमें नाव कहाँ है? गंगा में तो लोग स्नान करते हैं। इस पानी में लोग स्नान करते हुए क्यों नहीं दिखते?'
शिष्य घबरा गया और बोलाः
'गुरुजी ! मैं तो गंगा नदी में से ही यह जल लेकर आया हूँ।'
शिष्य को घबराया हुआ देखकर गुरुजी ने धीरे से कहाः
'बेटा ! घबरा मत। इस पानी और गंगा के पानी में जरा भी भेद नहीं है। केवल मन की कल्पना के कारण ही भिन्नता भासती है। वास्तव में दोनों पानी एक ही हैं और इस पानी को फिर से गंगा में डालेगा तो यह गंगा का पानी हो जायेगा और रत्ती भर भी भेद नहीं लगेगा।
इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा भ्रान्ति के कारण अलग-अलग दिखते हैं, परन्तु दोनों एक ही हैं।'
जिस प्रकार एक कमरे के बाहर की और अन्दर की जमीन अलग-अलग दिखती है लेकिन जो दीवार उस जमीन को अलग करती है वह दीवार पाताल तक तो नहीं गयी है। वास्तव में जमीन में कोई भेद नहीं है। दोनों जमीन तो एक ही हैं परन्तु दीवार की भ्रान्ति के कारण अलग-अलग नाम से जानी जाती हैं। ऐसी ही बात जीव और ब्रह्म के साथ है।
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