सात दिन में तो तेरी मौत है!
संत
एकनाथ जी के
पास एक बूढ़ा
पहुँचा।
बोलाः
"आप
भी गृहस्थी
मैं भी
गृहस्थी। आप
भी बच्चों
वाले मैं भी
बच्चों वाला।
आप भी सफेद
कपड़ों वाले
मैं भी सफेद
कपड़े वाला।
लेकिन आपको
लोग पूजते
हैं, आपकी
इतनी
प्रतिष्ठा है,
आप इतने खुश
रह सकते हो, आप
इतने
निश्चिन्त जी
सकते हो और
मैं इतना
परेशान क्यों ? आप इतने
महान् और मैं
इतना तुच्छ
क्यों ?"
एकनाथ
जी ने सोचा कि
इसको
सैद्धान्तिक
उपदेश देने से
काम नहीं
चलेगा, उसको
समझ में नहीं
आयेगा। कुछ
किया जाय...
एकनाथ जी ने
उसे कहाः
"चल
रे सात दिन
में मरने वाले
! तू
मुझसे क्या
पूछता है ? अब क्या
फर्क पड़ेगा ? सात दिन
में तो तेरी
मौत है।"
वह
आदमी सुनकर
सन्न रह गया।
एकनाथ जी कह
रहे हैं सात
दिन में मौत
है तो बात
पूरी हो गई।
वह आदमी अपनी
दुकान पर आया
लेकिन उसके दिमाग
में एकनाथ जी
के शब्द घूम
रहे हैं- "सात दिन
में मौत है।
उसको धन कमाने
का जो लोभ था,
हाय हाय थी वह
शान्त हुई।
अपने
प्रारब्ध का जो
होगा वह
मिलेगा।
ग्राहकों से
लड़ पड़ता था
तो अब प्रेम
से व्यवहार
करने लगा। शाम
होती थी तब
दारू के घूँट
पी लेता था वह
दारू अब फीका
हो गया। एक
दिन बीता....
दूसरा बीता....
तीसरा बीता....।
उसे भोजन में
विभिन्न
प्रकार के, विभिन्न
स्वाद के
व्यंजन, आचार,
चटनी आदि
चाहिए था, जरा
सी कमी पड़ने
पर आगबबूला हो
जाता था। अब
उसे याद आने
लग गया कि तीन
दिन बीत गये,
अब चार दिन ही
बचे। कितना
खाया-पिया ! आखिर क्या ? चौथा दिन
बीता....
पाँचवाँ दिन
आया...। बहू पर
क्रोध आ जाता
था, बेटे
नालायक दिखते
थे, अब तीन दिन
के बाद मौत
दिखने लगी। सब
परिवारजानों
के अवगुण भूल
गया, गद्दारी
भूल गया।
समाधान पा
लिया कि संसार
में ऐसा ही
होता है। यह
मेरा सौभाग्य
है कि वे मुझसे
गद्दारी और
नालायकी करते
हैं तो उनका आसक्तिपूर्ण
चिन्तन मेरे
दिल में नहीं
होता है। यदि
आसक्तिपूर्ण
चिन्तन होगा
तो फिर क्या पता
इस घर में
चूहा होकर आना
पड़े या साँप
होकर आना पड़े
या चिड़ियाँ
होकर आना
पड़े, कोई पता
नहीं है।
पुत्र और
बहुएँ गद्दार
हुई हैं तो अच्छा
ही है क्योंकि
तीन दिन में
अब जाना ही है।
इतने समय में
मैं विट्ठल को
याद कर लूँ-
विट्ठला...
विट्ठला....
विट्ठला...
भगवान
का स्मरण चालू
हो गया। जीवन
भर जो मंदिर
में नहीं गया
था, संतों को
नहीं मानता था
उस बूढ़े का
निरन्तर जाप
चालू हो गया।
संसार की तू-तू,
मैं-मैं,
तेरा-मेरा सब
भूल गया।
छट्ठा
दिन बीतने
लगा।
ज्यों-ज्यों
समय जाने लगा
त्यों-त्यों
बूढ़े का
भक्तिभाव,
नामस्मरण, सहज-जीवन,
सहनशक्ति,
उदारता,
प्रेम, विवेक, आदि
सब गुण विकसित
होने लगे।
कुटुम्बी दंग
रह गये कि इस
बूढ़े का जीवन
इतना
परिवर्तित
कैसे हो गया ! हम रोज
मनौतियाँ
मनाते थे कि
यह बूढ़ा कब
मरे, हमारी
जान छूटे।
लोग
देवी-देवता की
पूजा-प्रार्थना
करते हैं, मनौतियाँ
मानते हैं,
संतों से
आशीर्वाद
माँगते हैं, "हे देवी
देवता ! इस
बूढ़े का
स्वर्गवास हो
जाये, हम
भंडारा करेंगे...
हे महाराज ! आशीर्वाद
दो, मेरा ससुर
बहुत दुःखी
है।"
"वह
बीमार है,
आँखों से
दिखता नहीं,
बुढ़ापा है।
खाना हजम नहीं
होता। नींद
नहीं आती।
सारी रात 'खों... खों....' करके
हमारी नींद खराब
करता है। आप
आशिष करो। या
तो वह नवजवान
हो जाय या तो
आप दया करो......।"
"क्या
दया करूँ?"
"बाबा
! आप समझ
जाओ, हमसे मत
कहलवाओ।"
जिन
लाय तो सूर
सठा आहेन।
से
कांधी कीं न
थींदा।।
जिन
बच्चों को तुम
जन्म देते हो,
पालते-पोसते हो,
अपने पेट पर
पट्टियाँ
बाँधकर उनको पढ़ाते
हो उनको बड़ा
होने दो। उनको
बहू मिलने दो।
तुम्हारा
बुढ़ापा आने
दो। फिर देखो
तुम्हारा हाल
क्या होता है।
बहुत
पसारा मत करो
कर थोड़े की
आश।
बहुत
पसारा जिन
किया वे भी
गये निराश।।
चार
चार पुत्र
होने पर भी
बूढ़ा परेशान
है क्योंकि
बूढ़े ने
पुत्र पर आधार
रखा है,
परमात्मा का
आधार छोड़
दिया है।
तुमने परमात्मा
का आधार
छोड़कर पुत्र
पर, पैसे पर,
कुटुम्ब पर,
राज्य पर,
सत्ता पर आधार
रखा तो अन्त में
रोना पड़ेगा।
सारे विश्व की
सुविधाएँ जिसको
उपलब्ध हो
सकती हैं ऐसी
भारत की
भूतपूर्व प्रधानमंत्री
इन्दिरा को भी
विवश होकर अपने
पुत्र की मौत
देखनी पड़ी।
खुद को गोलियों
का शिकार होना
पड़ा। दूसरे
बेटे को
आतंकवादियों
ने उड़ा दिया।
मौत कब आती है,
कैसे आती है, कहाँ
आती है कोई
पता नहीं है।
हम यहाँ से
जाएँ लेकिन घर
पहुँचेंगे या
नहीं
पहुँचेंगे
क्या पता ? घर से
दुकान पर जाते
समय रास्ते
में क्या पता
कुछ हो जाय ! कोई पता
नहीं इस नश्वर
शरीर का।
उस
बूढ़े का
छट्ठा दिन बीत
रहा है। उसकी
प्रार्थना
में उत्कण्ठा
आ गई है कि हे
भगवान !
मैं क्या करूँ
? मेरे
कर्म कैसे
कटेंगे ? विठोबा...
विठोबा... माजा
विट्ठला....
माजा विट्ठला....
जाप चालू है।
रात्रि में
नींद नहीं
आयी। रविदास
की बात उसको
शायद याद आ गई
होगी। अनजाने
में उसके जीवन
में रविदास
चमका होगा।
रविदास
रात न सोइये
दिवस न लीजिए
स्वाद।
निशदिन
हरि को सुमरीए
छोड़ सकल
प्रतिवाद।।
बूढ़े
की रात अब
सोने में नहीं
गुजरती,
विठोबा के
स्मरण में
गुजर रही है।
सातवें
दिन प्रभात
हुई। बूढ़े ने
कुटुम्बियों
को जगायाः
"बोला
चाला माफा
करना... किया
कराया माफ
करना... मैं अब
जा रहा हूँ।"
कुटुम्बी
रोने लगे किः "अब तुम
बहुत अच्छे हो
गये हो, अब न
जाते तो अच्छा
होता।"
जो
भगवान का
प्यारा बन
जाता है वह
कुटुम्ब का भी
प्यारा होता
है, समाज का भी
प्यारा होता
है। जो भगवान
को छोड़कर
अपने
कुटुम्बियों
के लिए सब कुछ
करता है उसको
कुटुम्बी भी
आखिर
दुत्कारते
हैं।
बूढ़ा
कहता हैः "गोबर से
लीपकर चौका
लगाओ। मेरे
मुँह में तुलसी
का पत्ता दो।
गले में तुलसी
का मनका
बाँधो। आप लोग
रोना मत। मुझे
विठोबा के
चिन्तन में
मरने देना।"
कुटुम्बी
सब परेशान
हैं। इतने में
एकनाथ जी वहाँ
से गुजरे।
कुटुम्बी
भागे।
एकनाथजी के पैर
पकड़े। आप घर
में पधारो।
एकनाथ
जी ने घर आकर
बूढ़े से
पूछाः
"क्यों,
क्या बात है ? क्यों
सोये हो ?"
"महाराज
जी ! आप ही
ने तो कहा था
कि सात दिन
में तुम्हारी
मौत है। छः
दिन बीत गये।
यह आखिरी दिन
है। संत का
वचन मिथ्या
नहीं होता। वह
सत्य ही होता
है।"
मैं
भी तुम्हें कह
देता हूँ कि
आप लोग भी एक
सप्ताह में,
सात दिन में
ही मरोगे। आप
रविवार को मरोगे
या सोमवार को
मरोगे या
मंगलवार को या
बुधवार को या
गुरूवार को या
शुक्रवार को।
इन छः दिनों
में नहीं
मरोगे तो
शनिवार को तो
जरूर मरोगे
ही। आप जब कभी
मरोगे तब इन
सात दिनों में
से कोई न कोई
एक दिन तो होगा
ही। आठवाँ दिन
तो है ही
नहीं।
एकनाथजी
की बात भी
सच्ची थी। संत
क्यों झूठ बोलें
? हम
समझते नहीं
हैं संत की
बात को तो कह देते
हैं संत की
बात गलत है।
शेर
की दाढ़ में
आया हुआ शिकार
शायद बच भी
सकता है।
लेकिन सच्चे
सदगुरू के
हृदय में
जिसका स्थान
बन जाता है वह
कैसे फेल हो
सकता है ?
एकनाथ
जी का वचन उस
बूढ़े ने सत्य
माना तो उसका
जीवन
परिवर्तित हो
गया।
एकनाथ
जी उस बूढ़े
से कहने लगेः
"तुमने
मुझसे कहा था
कि आप में और
क्या फर्क है।
मैंने
तुम्हें कहा
कि तुम्हारी
सात दिन में मौत
होगी। तुमने
अपनी मौत को
सात दिन दूर
देखा। अब
बताओ, तुमने
सात दिन में
आनेवाली मौत
को देखकर
कितनी बार
दारू पिया ?"
"एक
बार भी नहीं।"
"कितनी
बार क्रोध
किया ?"
"एक
बार भी नहीं।"
"कितने
लोगों से
झगड़ा किया ?"
"किसी
से भी नहीं।"
"तुमको
सात दिन, छः
दिन, पाँच दिन,
चार दिन दूर
मौत दिखी।
जितनी-जितनी
मौत नजदीक आती
गई उतना उतना
तुम ईश्वरमय
होते गये।
संसार फीका
होता गया। यह
तुम्हारा
अनुभव है कि
नहीं ?"
"हाँ
महाराज ! मेरा
अनुभव है।"
"सात
दिन मौत दूर
है तो संसार
में कहीं रस
नहीं दिखा,
भगवान में
प्रीति बढ़ी,
जीवन भक्तिमय
बन गया। मेरे
गुरू ने तो
मुझे सामने ही
मौत दिखा दी
है। मैं हररोज
मौत को अपने
सामने ही
देखता हूँ।
इसलिए मुझे
संसार में
आसक्ति नहीं
है और प्रभु में
प्रीति है।
जिसकी प्रभु
में प्रीति है
उसके साथ
दुनियाँवाले
प्रीति करते
हैं। इसलिए
मैं बड़ा
दिखता हूँ और
तुम छोटे
दिखते हो।
वरना हम और
तुम दोनों एक
ही तो हैं।"
अनात्म
वस्तुओं में
मन को लगाया,
अनात्म पदार्थों
में मन को
लगाया तो हम
अपने आपके
शत्रु हो जाते
हैं और छोटे
हो जाते हैं।
अनात्म
वस्तुओं से मन
को हटाकर
आत्मा में लगाते
हैं तो हम
श्रेष्ठ हो
जाते हैं और
अपने आपके
मित्र हो जाते
हैं, महान् हो
जाते हैं।
नानक
तुमसे बड़े
नहीं थे, कबीर
तुमसे बड़े
नहीं थे,
महावीर तुमसे
बड़े नहीं थे,
बुद्ध तुमसे बड़े
नहीं थे,
क्राइस्ट
तुमसे बड़े
नहीं थे,
कृष्ण भी
तुमसे बड़े
नहीं थे,
तुम्हारा ही रूप
थे, लेकिन वे
सब बड़े हो
गये क्योंकि
उन्होंने
अपने आप में,
आत्मस्वरूप
में स्थिति की,
परमात्मा में
स्थिति की और
हम लोग पराये
में स्थिति
करते हैं,
अनात्मा में
स्थिति करते
हैं, संसार स्थिति
कते हैं इसलिए
हम मारे जाते
हैं।
अब
तब जो हो गया
सो हो गया, जो
बीत गई सो बीत
गई। अब बात
समझ में आ गई।
आगे सावधान
रहना है। सदा
याद रखना है
कि हम सब सात
दिन में मरने
वाले हैं।
आखिर कब तक ?
हम
योजना बनाते
हैं कि कल
रविवार है,
छुट्टी मनायेंगे,
खेलेंगे,
घूमेंगे।
लेकिन वह
रविवार ऐसा भी
तो हो सकता है
कि हम अर्थी
पर आरूढ़ हो
जाएँ। सोमवार
के दिन हम
श्मशान में ही
पहुँच जाएँ।
मंगलवार के
दिन
सगे-सम्बन्धी
के वहाँ जाने
का सोचते हैं
लेकिन हो सकता
है कि हम मरघट
से ही मिलने
चल पड़ें।
बुधवार को हम
विदेश जाने की
तैयारी करते
हैं लेकिन हो
सकता है कि
बुधवार के दिन
यह शरीर
बुद्धू की तरह
मुर्दा होकर
पड़ा हो।
गुरूवार के
दिन गुरू के
द्वार जाने का
संकल्प किया
हो लेकिन हो
सकता है कि गुरूवार
के दिन गुरू
के द्वार के
बजाय यम के द्वार
ही पहुँच
जाएँ।
शुक्रवार के
दिन शुकदेवजी
जैसे ज्ञान को
पाने में लगते
हैं कि शूकर-कूकर
की योनियों की
ओर जाते हैं,
कोई पता नहीं।
शनिवार के दिन
किसी की शादी
में आइसक्रीम
खाने जाते हैं
कि
मृत्युशैय्या
पर सोते हैं
कोई पता नहीं।
सुबह
उठो तब सबसे
पहले
परमात्मा को
और मौत को याद
कर लो। क्या
पता कौन से
दिन इस जहाँ
से चले जायें।
आज सोमवार है ? क्या पता
कौन से सोमवार
को हम चले
जायें। आज मंगलवार
है ? क्या
पता कौन से
मंगलवार को हम
विदा हो जायें।
मैं सच बोलता
हूँ, इन सात
दिनों में से
कोई न कोई दिन
होगा मौत का।
भगवान की
कसम...।
मौत
को और
परमात्मा को
हररोज अपने
सामने रखोगे
तो महान होने
में देरी नहीं
है। मौत को और
परमात्मा को
सामने रखोगे
तो अपने गाँव
का साइन बोर्ड
देखने का
उत्साह होगा।
अपने गाँव का
स्टेशन आ जाय
तो तुम चले
जाने, पूछते
मत रहना कि
मेरा गाँव है
कि तेरा गाँव
है ? तुम
चले जाना अपने
गाँव। फलाना
गया कि नहीं गया
इसका इन्तजार
मत करना।
कई
लोग आश्चर्यजनक
बातें करते
हैं। वे लोग
सत्संग में
बैठते हैं।
आध्यात्मिक
वातावरण में
चित्त शान्त
हो जाता है।
चित्त शान्त
होता है तो
खुली आँख भी
आनन्द आने
लगता है।
चित्त शान्त
नहीं है तो
बन्द आँख से
भी कुछ नहीं
होता।
जब
जब आनन्द आने
लग जाये तो
समझना कि
अनजाने में चित्त
शान्त हो गया
है। बिना
परिश्रम के,
वातावरण के
प्रभाव से,
भगवान की कृपा
से, संतों की करूणा
से तुम्हारा
चित्त अनजाने
में ही धारणा
में लग गया है,
ध्यानस्थ हो
गया है, तभी
तुम्हें
आनन्द आता है।
लोग
मेरे पास आकर
बोलते हैं-
"साँई
मेरे पर दया
करो।"
"क्या
बात है ?"
"मेरा
ध्यान नहीं
लगता है। दया
करो, मेरा
ध्यान लग जाय।"
उसका
चेहरा खबर दे
रहा है कि
उसने ध्यान का
अमृत पिया है,
एकाध घूँट झेल
लिया है।
"तेरा
ध्यान नहीं
लगता है ?"
"नहीं
साँईं !
ध्यान नहीं
लगता है।"
"ध्यान
के समय क्या
होता है ? आनन्द आता
है ?"
"साँईं
! आनन्द
तो बहुत आता
है।"
आनन्द
बहुत आता है
और ध्यान नहीं
लगता है ! अरे बड़े
मियाँ !
ध्यान का फल
क्या है ? आनन्द है
कि दुःख ?
ईश्वरप्राप्ति
का फल क्या है ?
मम
दर्शन फल परम
अनूपा।
जीव
पावहिं निज
सहज
स्वरूपा।।
भगवान
कहते हैं कि
मेरे दर्शन का
फल परम अनुपम
है। जीव अपना
स्वरूप पा ले,
अपना सहज सुख
आने लगे। उसे
अपने
सुखस्वरूप
निजात्मा की
अनुभूति होने
लगे।
यह
जरूरी नहीं कि
हम
गुरूदीक्षा
लेंगे, गुरूजी
कान में फूँक
मारेंगे, सिर
पर हाथ
रखेंगे, हम नारियल
देंगे, वस्त्र
देंगे, पैसे
देंगे बाद में
गुरूजी
करूणा-कृपा
बरसायेंगे,
ब्रह्मज्ञान
देंगे।
ये
कोई पण्डित
गुरू नहीं
हैं। सदगुरू
तो बिना लिये
ही दे देते
हैं, खोजते
रहते हैं कि
लेने वाला कोई
मिल जाय। पहले
विधि विधान
बनें, हम शिष्य
बनें तभी वे
कुछ देंगे ऐसी
बात नहीं है।
वे तो पहले से
ही थोक में दे
देते हैं, बाद
में हमारी
श्रद्धा होती
है तो उन्हें
गुरू मानते
हैं। वरना वे
अपने को गुरू
मनवाने की भी
इच्छा नहीं
रखते। ये तो
विश्वात्मा
हैं। वे
पाँच-पच्चीस
हजार के, पच्चीस-पचास
लाख के गुरू
थोड़े ही हैं।
ब्रह्मवेत्ता,
आत्म-साक्षात्कारी
पुरूष तो सारे
ब्रह्माण्ड
के गुरू हैं।
कृष्णं
वन्दे जगद्
गुरूम्।
लेबल: nischint jivan, sant Asaramji bapu
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