आत्मा में विश्वास पहाड़-सी मुसीबत को भी तृण सा कर देता है
मानवमात्र
की सफलता का मूल उसकी आत्मश्रद्धा
में निहित है। आत्मश्रद्धा
का सीधा संबंध संकल्पबल के
साथ है। तन-बल,
मन-बल,
बुद्धि-बल
एवं आत्मबल ऐसे कई प्रकार के
बल हैं,
उनमें
आत्मबल सर्वश्रेष्ठ है। आत्मबल
में अचल श्रद्धा यह विजय प्राप्त
करने की सर्वोत्तम कुंजी है।
जहाँ आत्मबल में श्रद्धा नहीं
है वहीं असफलता,
निराशा,
निर्धनता,
रोग
आदि सब प्रकार के दुःख देखने
को मिलते हैं। इससे विपरीत
जहाँ आत्म बल में अचल श्रद्धा
है वहाँ सफलता,
समृद्धि,
सुख,
शांति,
सिद्धि
आदि अनेक प्रकार के सामर्थ्य
देखने को मिलते हैं।
जैसे-जैसे
मनुष्य अपने सामर्थ्य में
अधिकाधिक विश्वास करता है,
वैसे-वैसे
वह व्यवहार एवं परमार्थ दोनों
में अधिकाधिक विजय हासिल करता
है। अमुक कार्य करने का उसमें
सामर्थ्य है,
ऐसा
विश्वास और श्रद्धा-यह
कार्यसिद्धि का मूलभूत रहस्य
है।
मनुष्य
अपनी उन्नति शीघ्र नहीं कर
पाता इसका मुख्य कारण यही है
कि उसे अपने सामर्थ्य पर संदेह
होता है। वह 'अमुक
कार्य मेरे
से न हो सकेगा'
ऐसा
सोच लेता है। जिसका परिणाम
यह आता है कि वह उस कार्य को
कभी करने का प्रयत्न भी नहीं
करता। आत्मश्रद्धा का सीधा
संबंध संकल्पबल के साथ है।
आत्मबल
में अविश्वास प्रयत्न की सब
शक्तियों को क्षीण कर देता
है। प्रयत्न के बिना कोई भी
फल प्रगट नहीं होता। अतः प्रयत्न
को उत्पन्न करने वाली आत्मश्रद्धा
का जिसमें अभाव है उसका जीवन
निष्क्रिय,
निरुत्साही
एवं निराशाजनक हो जाता है।
जहाँ-जहाँ
कोई छोटा-बड़ा
प्रयत्न होता है वहाँ-वहाँ
उसके मूल में आत्मश्रद्धा ही
स्थित होती है और अंतःकरण में
जब तक आत्मश्रद्धा स्थित होती
है तब तक प्रयत्नों का प्रवाह
अखंड रूप से बहता रहता है।
आत्मश्रद्धा असाधारण होती
है तो प्रयत्न का प्रवाह किसी
भी विघ्न से न रुके ऐसा असाधारण
एवं अद्वितिय होता है।
'मैं
अमुक कार्य कर पाऊँगा'
– ऐसी
साधारण श्रद्धा भी यदि अंतःकरण
में होती है तभी प्रयत्न का
आरंभ होता है एवं प्रयत्न में
मनुष्य में निहित गुप्त सामर्थ्य
को प्रगट करने वाला अमोघ बल
समाविष्ट होता है। दियासिलाई
में अग्नि है किन्तु जब तक उसे
पिसा नहीं जाता तब तक करोड़
वर्ष भी वह यूँ ही पड़ी रहे तो
भी उसमें से अग्नि प्रगट नहीं
होती। से घिसकर ही अग्नि को
प्रगट किया जा सकता है ऐसे ही
मनुष्य में निहित अत्यंत
सामर्थ्य प्रयत्न के द्वारा
ही प्रगट होता है।
मनुष्य
में कितना सामर्थ्य निहित है
इसका निर्णय कोई भी नहीं कर
सकता। शास्त्र को उसे शाश्वत,
सर्व
सामर्थ्यवान,
सर्वज्ञ,
सत्-चित्-आनन्द,
अनंत,
अखंड,
अव्यय,
अविनाशी,
निरंजन,
निराकार,
निर्लेप
एवं परम प्रेमास्पद कहते हैं
अतः मनुष्य जो चाहे वह हो सकता
है। पाणिनी जैसे वैयाकरणिक,
पतंजलि
जैसे योग-प्रवर्तक,
वशिष्ठजी
जैसे तत्त्वज्ञ,
विश्वामित्र
जैसे महान तपस्वी,
जैमिनी
जैसे उत्तम मीमांसक,
कालिदास
जैसे समर्थ कविकुलशिरोमिणी,
धन्वंतरि
जैसे वैद्य,
भास्कराचार्य
जैसे प्रखर ज्योतिर्विद,
लिंकन
जैसे मानवतावादी,
गाँधी
जी जैसे सत्यनिष्ठ,
रमण
महर्षि जैसे तत्त्वनिष्ठ,
टैगोर
जैसे महान कवि,
जिब्रान
जैसे सर्वांग सर्जक,
स्वामी
रामतीर्थ जैसे वैरागी,
विवेकानन्द
जैसे धर्म-धुरंधर,
हेनरी
फोर्ड जैसे उद्योगपति,
आईन्सटाईन
जैसे वैज्ञानिक,
सुकरात
जैसे सत्यवक्ता,
डायोजिनियस
जैसे निःस्पृही,
सीजर
जैसा विजेता,
तुकारामजी
जैसे क्षमाशील एवं ज्ञानदेव
जैसा ज्ञानी-ऐसी
आत्मश्रद्धा को अंतःकरण में
स्थिर करके ही हुआ जा सकता है।
जिसके
अंतःकरण में आत्मश्रद्धा
स्थित हो वह भले एकदम अकेला
हो,
साधनविहीन
हो फिर भी सफलता उसी का वरण
करती है। उसके रोम-रोम
में व्याप्त आत्मश्रद्धारूपी
लौहचुंबक आस-पास
से अनगिनत साधनरूपी लौहकणों
को खींच लेता है। इसके विपरीत
जिसकी आत्मश्रद्धा दब गयी हो
वह भले लाखों मनुष्यों से घिरा
हुआ हो एवं असंख्य साधनों से
संपन्न हो फिर भी पराजित होता
है। ऐसे कई उदाहरण हमें खुली
आँखों देखने को मिलते हैं।
अपने
इष्टावतार श्री रामचन्द्रजी
के जीवन का ही दृष्टांत लें।
जिसने देवताओं तक को अपना दास
बना लिया था ऐसे रावण को हराने
का निश्चय जब उन्होंने किया
तब उनके पास कौन-से
साधन थे ?
समुद्र
को पार करने के लिए उनके पास
एक छोटी-सी
नौका तक न थी। रावण एवं उसकी
विशाल सेना से टक्कर ले सके
ऐसा एक भी योद्धा उस वक्त उनके
पास न था फिर भी श्रीराम ने
निश्चय किया सीता को पाने का,
रावण
को हराने का तो अमित शक्तिवाला
रावण भी रणभूमि की धूल चाटने
लगा। यह क्या सिद्ध करता है
?
क्रियासिद्धिः
सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे।
कार्यसिद्धि
में पहले साधनों की नहीं,
वरन्
आत्मश्रद्धा की जरूरत है।
आत्मश्रद्धा के पीछे साधन तो
उसी प्रकार जुट जाते हैं जैसे
देह के पीछे छाया।
ध्रुव
का उदाहरण देखें। कहाँ पाँच
वर्ष का नन्हा-सा
एक बालक और कहाँ सृष्टि के
पालनकर्ता भगवान विष्णु के
अटल पद की प्राप्ति !
नारदजी
ने अनेक विघ्न बताये फिर भी
ध्रुव तनिक न डिगा। 'दूसरों
को भले यह असाध्य लगे किन्तु
मेरे लिए कुछ भी असाध्य नहीं
है' – ऐसे
दृढ़ आत्मविश्वास से उसने
भयंकर तप शुरु किया,
जिसके
फलस्वरूप भगवान विष्णु को
दर्शन देने ही पड़े।
शिवाजी,
लिंकन,
गाँधी
जी,
रामकृष्ण
परमहंस,
विवेकानंद,
सुकरात,
नरसिंह
मेहता,
मीरा,
स्वामी
रामतीर्थ,
रमण
महर्षि,
योगानंद,
पूज्यपाद
लीलाशाहजी महाराज,
स्वामी
टेऊँराम वगैरह किन्हीं भी
महापुरुष का जीवन देखें तो
उनकी सफलता का रहस्य उनकी
आत्मश्रद्धा में ही निहित
दिखायी देगा।
आत्मा
में अचल श्रद्दा होनी चाहिए।
अपने में थोड़ा सा भी संशय,
शंका
अथवा अविश्वास आ जाय तो निराशा
एवं असफलता मिले बिना न रहे।
लाखों योद्धाओं को युद्ध में
पराजित करने वाले अर्जुन की
सामान्य भीलों से पराजय में
एवं 'असंभव'
शब्द
तक जिसके शब्दकोश में न था ऐसे
नेपोलियन की 'वॉटरलू'
के
युद्ध में पराजय का कारण आत्मा
में प्रगट हुए क्षणभर के
अविश्वास के सिवाय अन्य कुछ
भी न था। आत्मा में अविश्वास
तृण जैसी मुसीबत को पहाड़ से
समान कर देता है और आत्मा में
विश्वास पहाड़-सी
मुसीबत को भी तृण सा कर देता
है।
आत्मबल
में श्रद्धा रखने वाले मनुष्यों
ने ही इस जगत में सामान्य
मनुष्यों के लिए असंभव दिखते
कार्यों को सिद्ध कर दिखाया
है। 'अमुक
कार्य मैं'
जरूर
कर सकूँगा।'
ऐसा
दृढ़तापूर्वक मानने एवं
तदनुसार प्रयत्न में लगना
इसी का नाम श्रद्धा है। किसी
बात को न मानना,
किन्तु
तदनुनासार प्रयत्न न करना यह
श्रद्धा नहीं,
वरन्
कायरता अथवा प्रमाद है।
आत्मबल
में श्रद्धा उत्पन्न होते ही
कायर शूरवीर हो जाते हैं,
प्रमादी
एवं आलसी उद्यमी हो जाते हैं,
मूर्ख
विद्वान हो जाते हैं,
रोगी
निरोग हो जाते हैं,
दरिद्र
धनवान हो जाते हैं,
निर्बल
बलवान हो जाते हैं और जीव
शिवस्वरूप हो जाते हैं।
असफलता
से हताश न हों। बारिश से पूर्व
तेज गर्मी पड़ती है,
उस
गर्मी से व्याकुल न हों। जब
लंबी कूद लगानी हो तो पाँच-दस
कदम पीछे हटना पड़ता है। अतः
असफलताओं से निराश मत हो।
हिम्मत रखो। ज्यादा मेहनत
करो। ज्यादा तीव्र पुरुषार्थ
करो। कायर न बनो। कर्त्तव्य
से च्युत न हो। अंतःकरण में
आत्मश्रद्धा रखकर ज्यादा से
ज्यादा पुरुषार्थ करो। सफलता
आपका ही वरण करेगी।
जिसमें
वक्ता होने की लेशमात्र भी
योग्यता न थी ऐसे महान ग्रीक
वक्ता डिमोस्थिनिस को ही
देखें। जिसके द्वारा उच्चारण
भी स्पष्ट नहीं हो पाता था,
सभा
में खड़े होते ही जिसके पैर
थर-थर
काँपने लगते थे एवं जिसमें
पूरी विद्वता भी न थी ऐसे
डिमोस्थिनिस ने निश्चय किया
कि 'मुझे
सर्वोत्कृष्ट वक्ता होना है,
मुझमें
ऐसा होने का पूरा सामर्थ्य
है' और
उसने सागरतट पर जाकर,
सागर
की लहरों को जीवित श्रोता
मानकर बोलने की शुरुआत की।
परिणाम क्या हुआ उसे सारा
विश्व जानता है वह ग्रीक जगत
का सर्वश्रेष्ठ वक्ता बना।
इतना ही नहीं,
अर्वाचीन
काल में भी इस कला के अभ्यासियों
के लिए सर्वोत्तम आदर्श बना।
किसी
भी उच्च उद्देश्य का निश्चय
करते समय संकोच न करो,
'अमुक
कार्य को करने की मेरी योग्यता
नहीं है'
ऐसे
संशय को अपने हृदय में जरा-सी
स्थान न दो। व्यवहार में आपकी
स्थिति चाहे कितनी भी दरिद्र
क्यों न हो ?
फिर
भी चिंता न करो। धन-वैभव
के तमाम आकर्षण देखकर आकर्षित
न हो जाओ। अनंत-अनंत
आकर्षणों को देखकर भी,
जो
सर्वोच्च है उस अपने आत्मस्वरूप
में ही मस्त रहो। बड़े-बड़े
वैभवों से परिपूर्ण व्यक्ति
भी आपके आत्मबल के आगे नन्हें
लगेंगे।
अमाप
श्रद्धा एवं विश्वास के द्वारा
अंतःकरण की सुषुप्त शक्तियों
को जाग्रत करके मानव नर में
से नारायण बन सकता है।
जैसे-जैसे
आत्मश्रद्धा बढ़ती है वैसे-वैसे
कार्यशक्ति भी बढ़ती जाती
है। हमारी श्रद्धा का पात्र
अगर छोटा होगा तो उसमें ईश्वरीय
शक्तियों का प्रवाह भी उतनी
ही कम मात्रा में होगा।
जिन्हें
अपने जीवन की महानता पर अडिग
श्रद्धा थी ऐसे व्यक्ति इतिहास
के पन्नों में अमर हो गये हैं।
जो ऐसा मानते हैं कि उन्हें
कहीं जाना ही है,
ऐसे
व्यक्तियों के लिए दुनिया
अपने-आप
रास्ता बना देती है।
आपका
जीवन आपकी श्रद्धा के अनुसार
ही होगा। जीवन को सफल बनाने
में महत्त्वपूर्ण बात यह है
कि मनुष्य को अपना जीवन उत्साह,
उमंग
एवं उल्लास के साथ जीना चाहिए
एवं अपनी शक्तियों पर विश्वास
रखकर,
सफलता
के पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए।
श्रद्धा
ही हमें सच्चे अर्थ में जीवन
जीना सिखाती है। जहाँ से
जीवन-प्रवाह
चलता है उस शक्ति-स्रोत
का द्वार हमारी श्रद्धा ही
खोलती है। व्यक्ति की आत्मश्रद्धा
के बल पर ही हम उसके जीवन की
सफलता का मूल्यांकन कर सकते
हैं। वास्तव में आशा की क्षणों
में जो दिखायी देता है वही
मनुष्य का सच्चा स्वरूप है।
निराशा की क्षणों में उसे जो
दिखता है वह अंधकार से घिरा
हुआ उसका रूप सत्य नहीं है।
हम
अपने मन को अपनी शक्तियों एवं
योग्यताओं के प्रति जैसा
विश्वास दिलाते हैं,
वैसी
ही सफलता हमें मिलती है। दुनिया
व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी
आत्मश्रद्धा एवं दृढ़ जीवन-लक्ष्य
से ही करती है। जिस व्यक्ति
में आत्मश्रद्धा नहीं है उस
पर कोई विश्वास नहीं करता।
आत्मश्रद्धा
मानसिक राज्य की सम्राट है।
मन की अन्य शक्तियाँ मानों,
उसकी
सेना के सैनिक हैं। वे शक्तियाँ
अपने सम्राट की प्रेरणा से
बढ़ती हैं। सैनिक अपने सम्राट
के पीछे चलेंगे,
उसके
विश्वास के पीछे चलेंगे,
उसके
लिए मर मिटेंगे लेकिन जिस समय
सम्राट डगमगा जायेगा,
उसी
समय उसकी सेना भी नष्ट हो जायेगी
अर्थात् आत्मश्रद्धा के
डगमगाते ही मन की शक्ति भी
नष्ट हो जायेगी।
पूरा
विज्ञान जगत एडीसन का नाम बहुत
अच्छे से जानता है। उसने एक
साथ कई प्रयोग शुरु किये थे।
प्रत्येक प्रयोग में कोई-न-कोई
गलती होती थी। हजारों रुपयों
के साधन एवं लाखों रूपयों की
यंत्र-सामग्री
स्थापित करने पर भी इच्छित
परिणाम नहीं आता था। वह पुनः
नये तरीके से बार-बार
प्रयोग करता किन्तु मुख्य
गलती हो ही जाती थी। आगे क्या
करें ? यह
समझ में नहीं आ रहा था। एक
रात्रि को उसकी प्रयोगशाला
में आग लगी और सब जलकर खाक हो
गया।
सुबह
एडिसन ने उसी राख के ढेर पर
खड़े होकर अपनी डायरी में
लिखाः "दैवी-प्रकोप
की भी अपनी कीमत होती है। इस
भयंकर आग में मेरी सिद्धियों
के साथ मेरी गलतियाँ भी जल
गयीं। ईश्वर का आभार है कि अब
सब नये सिरे से शुरु हो सकेगा।"
उसके
दूसरे ही क्षण से उसने एक छोटी
सी झोंपड़ी में एकदम सादे
साधनों के द्वारा अपने प्रयोग
द्वारा अपने प्रयोग शुरु किये।
सब कुछ भस्म कर देने वाली आग
उसके उत्साह को भस्म न कर सकी।
एडिसन ने छोटी-बड़ी
मुसीबतों की अवहेलना न की होती
तो उसके नाम से 2000
से
भी ज्यादा खोजें न लिखी जातीं
!
विश्वविख्यात
नेपोलियन बोनापार्ट ने एक
सामान्य सैनिक के रूप में काम
काज शुरु किया था। एक युद्ध
के दौरान उसकी टुकड़ी जंगल
में पड़ाव डालकर बैठी थी। उसके
नेता ने नेपोलियन को दुश्मन
की छावनी के पास जाकर आवश्यक
जानकारी ले आने का आदेश दिया।
हाथ में थोड़ी-सी
रूपरेखावाला नक्शा देकर समझाते
हुए कहाः "मिलेगा
न रास्ता ?"
"रास्ता
ढूँढ लूँगा और नहीं मिलेगा
तो रास्ता स्वयं बना सकूँगा।"
ऐसा
कहकर नेपोलियन दृढ़तापूर्वक
चल पड़ा अपने कार्य को सिद्ध
करने। अपने संपूर्ण जीवन में
दूसरों के द्वारा बनाये गये
मार्गों को ढूँढने में उसने
समय नहीं बिगाड़ा वरन् अनेकानेक
अवरोधों के बीच भी अपना रास्ता
आप बना लिया। दृढ़ निश्चय एवं
आत्मश्रद्धा से अपने मार्ग
में आने वाली अनेकों मुसीबतों
को पैरों तले कुचल कर जीवन को
सफलता के शिखर पर ला खड़ा किया।
फ्रांस का महान सम्राट बनकर
उसने अपने वाक्य को सिद्ध कर
बताया। इतिहास इसका साक्षी
है।
पोलियो
से पीड़ित एक व्यक्ति बैसाखी
बिना नहीं चल पाता था। उसके
डॉक्टर ने अनेक उपाय किये
किन्तु वह बैसाखी के बिना नहीं
चल पाता था। एक बार दवाखाने
में आग लगी,
ज्वालाएँ
आसमान को चूमने लगीं,
बैसाखी
को ढूँढने का समय ही न था और
वह एक पल भी बिगाड़ता तो जल
जाता। उसने सीधे ही दौड़ना
शुरु किया। बैसाखी सदा के लिए
अपने आप छूट गयी। कहाँ से आयी
यह शक्ति ?
आत्मा
के अखूट भंडार में से ही न !
आत्मश्रद्धा
से संपूर्ण जीवन में परिवर्तन
आ जाता है। असफलता के बादल
बिखरकर सफलता का सूर्य चमकने
लगता है।
लेबल: aantar jyot, sant Asaramji bapu
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